|| श्री हरि: ||
मार्त्गीते !
विश्व-ज्ञान-प्रदायिनी
अनन्त शक्ति माँ ! आज हम सूर्य को दीपक की क्षुद्र ज्योति से प्रकाशित करने की
बालकोचित हास्यास्पद चेष्टा के सदृश तेरे विश्वव्यापी प्रकाश के किसी
क्षुद्रातिक्क्षुद्र ज्योति:कण से प्रकाशित मनुष्य-विशेषो के विनाशी उद्गारो
द्वारा तेरी महिमा बढ़ाना चाहते है | तेरे अनंत ज्ञान को
अपने सीमाबद्ध स्वल्प-ज्ञान और मन:प्रसूत अनित्य मत के रूप में परिणत कर प्रसिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं |
तेरी विश्वातीत और विश्व व्याप्त अद्भुत अनन्त राशि को संकुचित कर
पर-मत-असहिष्णुता के कारण हम अपने सिद्धांत की पुष्टि में ही उसका उपयोग करते है |
तुझे सर्व शास्त्रमयी कहकर ही तेरा गौरव बढ़ाना चाहते है | कुछ दिनों के लिए प्राप्त कल्पित देश-जाति-नामरूप के अभिमान से मत्त होकर
सारे विश्व से इसलिए अपने को भिन्न और श्रेष्ठ
लोक-समुदाय में और भी मानास्पद बनने के निमित्त तुझे केवल अपने ही घर की वस्तु
बतलाकर, तुझ असीम को ससीम बनाकर अपने गौरव के वृद्धि के लिए
किसी भी तरह श्रद्धा-अश्रद्धा से तेरी प्रतिमा घर-घर पहुँचाना चाहते है | माता ! यह हमारे बालोचित कार्य हैं | हम बालक है,
इसी से ऐसा करते है एवं
दयामयी ! इसी से हमारी इन चेष्टाओं को देख-सुनकर भी तू नाराज नहीं होती | तू समझती है कि ये अबोध है, इसलिए मेरे वास्तविक
स्वरुप को न पहचानकर – मुझ नित्यानंदमयी स्नेहार्दहृदया जननी
की शरण न लेकर मुझ मधुरातिमधुर शांन्ति सुधा-सागर के अगाध अंतस्थल में निमग्न न
होकर केवल बाह्य लहरिओं की ओर निहार रहे है | इसी से तू अपनी
इन लहरिओं की मधुर तान सुना-सुनाकर हमारे मन को मोहती और अपनी सुखमयी गोद में
बैठाकर अमृत स्तनपान के लिए आवाहन करती है |
माता
! वास्तव में तेरी इन लहरिओं का दृश्य बड़ा मनोहर है, तेरी यह तान
बड़ी श्रुति-मधुर है, इसी से आज तेरे तटपर विश्व के सभी
प्राणी दौड़-दौड़कर आ रहे है | यद्यपि अभी सबके कूद पड़ने की
श्रद्धा और साहस नहीं है पर तेरी मधुर लहरी-ध्वनि हृदयों में एक अद्भुत मतवालापन पैदा
कर रही है, इसलिए कुछ लोगो में
तेरे प्रति पवित्र आकर्षण देखने में आ रहा है | वह देखो,
कुछ तो कूद ही गए, गहरे जल में निमग्न हो गए
और भी कूद रहे है, कूदेंगे |
भाई
विश्वनिवासियों ! दयामयी ज्ञानदायिनी जननी का मधुर आवाहन सुनो और तुरंन्त आकर सदा
के लिए उसकी सुखद गोद में बैठकर निर्भय और निश्चिंन्त हो जाओ |
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
भगवच्चर्चा, हनुमानप्रसाद
पोद्दार, गीताप्रेस गोरखपुर, कोड ८२०,
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