दो प्रकार के मनुष्य होते हैं - 1-भगवत्प्राप्ति या मोक्ष को जीवन का लक्ष्य अथवा परम-चरम उद्देश्य माननेवाले और 2-भोग को ही जीवन का लक्ष्य -उद्देश्य माननेवाले l (वे ही आसुर भाव का आश्रय करनेवाले 'असुर-मानव' होते हैं l ) जिस समय दूसरे प्रकार के मनुष्यों की संख्या बढ़ जाती और वे छल-बल-कौशल से अधिक संख्यक लोगों का संगठन करके समाज, देश या राष्ट्र-विशेष के नेता अथवा किसी भी देश या राष्ट्र के संचालक और शासक अथवा धार्मिक नेता पुरुष बन जाते हैं तब तो सर्वज्ञ उन्हीं की तूती बोलने लगती है और उन्हें श्रेष्ठ मानकर उन्हीं का अनुकरण करने वालों की संख्या बढ़ने लगती है l जीवन का लक्ष्य भगवान् न रहकर भोग हो जाने से कर्तव्य, त्याग और प्रेम के स्थान पर अर्थ, अधिकार और द्वेष आ जाते हैं, और उससे सब अशांत एवं दुखी हो जाते हैं l 'असुर-मानव' वास्तविक सदाचार-सत्य-शौच आदि धर्ममूलक कार्यों में रूचि नहीं रखते ; उनकी क्षुद्र स्वार्थजनित प्रवृति केवल पप्मूलक कर्मों में ही रहती है l उनके मन में घोर विषयासक्ति और भोगलालसा छायी रहती है l अतएव वे लोग जो कुछ सोचते-विचारते-करते हैं, वह सब केवल भोग दृष्टि से ही l उनके जीवन में सदाचार, सत्य, त्याग, परहित तथा ईश्वर-विश्वास के लिए स्थान नहीं रहता l वे नये नये दल बनाकर -जब जिस प्रकार से स्वार्थ सिद्ध होता है, वैसे ही बनकर लोगों को कुपथ पर चलाते रहते हैं l वास्तव में भोगवासना-जनित क्षुद्र स्वार्थवश उनकी बुद्धि क्षुद्र विकृत हो जाती है l अतएव वे दम्भ,मान, मद,काम,क्रोध एवं लोभ के वश में हुए मनमाने आचरण करते-करवाते हैं और उसी को प्रगति, उन्नति या विकास का नाम देते हैं l समय-समय पर वे बहुत उग्र कर्म भी करते हैं l उनकी भोग-कामना कभी पूरी होती ही नहीं l वे दिन-रात चिंता में डूबे हुए, सैंकड़ो-सैकड़ों, आशापाशों से बंधे हुए, कामोपभोग को ही जीवन का परम पुरुषार्थ मानते हुए एवं भोगों की प्राप्ति के लिए भान्ति-भान्ति के छल-कपट, मिथ्याचार-भ्रष्टाचार, अनाचार-अत्याचार, वैर-विरोध, कलह-हिंसा आदि में लगे हुए अपना तथा जगत के प्राणियों का अहित-साधन करते रहते हैं l
वर्तमान युग में इसी प्रकार के असुर-भावापन्न लोगों की प्रभुता और संख्या बढ़ रही है l इसीसे नयी-नयी समस्याएँ पैदा हो रही हैं, व्यर्थ के द्वेष, कलह,वैर, संघर्ष, हिंसा आदि बढ़ रहे हैं उर मानवसमाज पतन तथा विनाश की ओर अग्रसर है l
इस दु:स्थिति से बचने का उपाय है - 'जीवन का लक्ष्य भगवत्प्राप्ति ही है' - यह दृढ निश्चय करना और यथासाध्य भगवत्प्राप्ति के साधन रूप दैवी सम्पदा का सेवन करना तथा उसे जीवन में अपनाना l
सुख-शान्ति का मार्ग[333]
वर्तमान युग में इसी प्रकार के असुर-भावापन्न लोगों की प्रभुता और संख्या बढ़ रही है l इसीसे नयी-नयी समस्याएँ पैदा हो रही हैं, व्यर्थ के द्वेष, कलह,वैर, संघर्ष, हिंसा आदि बढ़ रहे हैं उर मानवसमाज पतन तथा विनाश की ओर अग्रसर है l
इस दु:स्थिति से बचने का उपाय है - 'जीवन का लक्ष्य भगवत्प्राप्ति ही है' - यह दृढ निश्चय करना और यथासाध्य भगवत्प्राप्ति के साधन रूप दैवी सम्पदा का सेवन करना तथा उसे जीवन में अपनाना l
सुख-शान्ति का मार्ग[333]
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