हमारे पास तीन ही साधन हैं, जिनके द्वारा हम जीवन को ऊँचा भी उठा सकते हैं और नीचे भी गिरा सकते हैं। वे तीन साधन हैं - मन, वचन और तन। इनमें बहुत अधिक काम में आनेवाला साधन है - 'वचन' l शरीर से संयमपूर्वक भगवान् की सेवा का कार्य होता रहे अर्थात शरीर से होने वाले प्रत्येक निर्दोष और पवित्र कार्य में भगवत्सेवा की भावना रहे, मन से यथासाध्य असत और व्यर्थ-चिंतन न होकर भगवान् का चिन्तन होता रहे और वाणी सदा विशुद्ध रहे। तुमने वाणी के सम्बन्ध में ही पूछा है, अतएव पहले वाणी के द्वारा होने वाले दोषों को समझ लेना चाहिये l वाणी में निम्नलिखित दोष हो सकते हैं -
दूसरे की निन्दा करना, चुगली करना, कड़ी जबान कहना, ताने मारना , शाप देना, दोष बताते हुए पुकारना - जैसे काने को 'काना' कहकर पुकारना, अपंजी जाति-वर्ण-कुल-विद्या-बुद्धि-अधिकार-सौन्दर्य-स्वास्थ्य-बल-यौवन और अपने से सम्पर्क रखने वाले प्राणी-पदार्थ-परिस्थिति आदि को लेकर अभिमान भरे शब्द बोलना, दूसरे के गुणों का खण्डन कर उसके गुणों में दोष सिद्ध करना, किसी के प्रश्नों का सरल उत्तर न देकर टेढ़ा बोलना, अपशब्दों का उच्चारण करना, बात-बात में शपथ खाना, प्रतिज्ञा करना, अधिक बोलना, बिना पूछे दो आदमियों के बीच में जाकर बोलने लगना, अभिमानपूर्वक बिना ही पूछे किसी को सलाह देना, व्यर्थ की बातचीत करना, झूठ बोलना, जिससे दूसरों के हित की हानि हो ऐसी बात कहना, जिसे सुनते ही दूसरे घबरा जाएँ, ऐसे शब्दों का उच्चारण करना और अपने को हमेशा अनुपयोगी मानकर निराशाजनक शब्दों का ही उच्चारण करना - ये सब वाणी के दोष हैं। इन दोषों के कारण बहुत-से नए-नए दोष और पाप उत्पन्न होते रहते हैं l जिनसे जीवन बर्बाद हो जाता है l अतएव इन सब दोषों से बचकर वाणी के द्वारा ऐसे ही वचन बोलने चाहिये, जो उद्वेग पैदा करनेवाले न हों, सच्चे हो, प्रिय हों, हितकारक हों और सार्थक हों। ऐसे वचनों के अतिरिक्त वाणी का उपयोग केवल भगवन्नाम-जप, भगवतस्तवन और स्वाध्याय में ही करना चाहिये। यही वाणी का सदुपयोग है। जहाँ तक बने इस पर ध्यान रखना चाहिये l सार्थक वाणी वही है, जो भगवान् के नाम-गुणगान में लगी रहे; सार्थक कान वे ही हैं, केवल भगवान् को ही सर्वत्र देखें; सार्थक सिर वही है, जो निरन्तर भगवान् के चिन्तन में ही लगा रहे।
सुख-शान्ति का मार्ग [333]
दूसरे की निन्दा करना, चुगली करना, कड़ी जबान कहना, ताने मारना , शाप देना, दोष बताते हुए पुकारना - जैसे काने को 'काना' कहकर पुकारना, अपंजी जाति-वर्ण-कुल-विद्या-बुद्धि-अधिकार-सौन्दर्य-स्वास्थ्य-बल-यौवन और अपने से सम्पर्क रखने वाले प्राणी-पदार्थ-परिस्थिति आदि को लेकर अभिमान भरे शब्द बोलना, दूसरे के गुणों का खण्डन कर उसके गुणों में दोष सिद्ध करना, किसी के प्रश्नों का सरल उत्तर न देकर टेढ़ा बोलना, अपशब्दों का उच्चारण करना, बात-बात में शपथ खाना, प्रतिज्ञा करना, अधिक बोलना, बिना पूछे दो आदमियों के बीच में जाकर बोलने लगना, अभिमानपूर्वक बिना ही पूछे किसी को सलाह देना, व्यर्थ की बातचीत करना, झूठ बोलना, जिससे दूसरों के हित की हानि हो ऐसी बात कहना, जिसे सुनते ही दूसरे घबरा जाएँ, ऐसे शब्दों का उच्चारण करना और अपने को हमेशा अनुपयोगी मानकर निराशाजनक शब्दों का ही उच्चारण करना - ये सब वाणी के दोष हैं। इन दोषों के कारण बहुत-से नए-नए दोष और पाप उत्पन्न होते रहते हैं l जिनसे जीवन बर्बाद हो जाता है l अतएव इन सब दोषों से बचकर वाणी के द्वारा ऐसे ही वचन बोलने चाहिये, जो उद्वेग पैदा करनेवाले न हों, सच्चे हो, प्रिय हों, हितकारक हों और सार्थक हों। ऐसे वचनों के अतिरिक्त वाणी का उपयोग केवल भगवन्नाम-जप, भगवतस्तवन और स्वाध्याय में ही करना चाहिये। यही वाणी का सदुपयोग है। जहाँ तक बने इस पर ध्यान रखना चाहिये l सार्थक वाणी वही है, जो भगवान् के नाम-गुणगान में लगी रहे; सार्थक कान वे ही हैं, केवल भगवान् को ही सर्वत्र देखें; सार्थक सिर वही है, जो निरन्तर भगवान् के चिन्तन में ही लगा रहे।
सुख-शान्ति का मार्ग [333]
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