Saturday, 8 December 2012

प्रेम के साधन

    


       प्रेम बहुत ही पवित्र और दिव्य वस्तु  है। उसकी प्राप्ति केवल बातों से, पुस्तकों से या व्याख्यानों से नहीं हो सकती। स्वयं गोपियों को कात्यायनी-व्रत के द्वारा उपासना करनी पड़ी। पवित्र गोपी भाव की प्राप्ति के लिए बड़े-बड़े मुनियों ने कल्पों तक तपस्याएँ की l  भगवान् के सखा अर्जुन और देवर्षि नारद को भी गोपी-प्रेमका थोडा-सा अनुभव प्राप्त करने के लिए कठिन साधनाएँ करनी पड़ी। ऐसी अवस्था में हम लोगों के लिए - जिनका ह्रदय विषय-वासनाओं की गंदगी से भरा है, भोग-कामना के ज्वर से संतप्त है तथा जिनमें किसी साधन की, जप-तप  की कोई पूँजी  नहीं - केवल बातों  से भगवत्प्रेम प्राप्त कर लेने और गोपीभाव  में स्थित हो जाने की बात सोचना भी विडम्बना  मात्र है। होता यही है कि  प्रेम तो आकाश-कुसुम के समान अप्राप्त ही रह जाता है, उलटे प्रेम के नाम पर साधनहीनता और उच्छ्रंखलता आ जाती है एवं जहाँ गोपियों के लिए पवित्र प्रेम का नाम 'काम' है, वहां हम लोगों के लिये वास्तविक विषय-काम  का नाम ही 'प्रेम' बनकर प्रेम को कलंकित करता है। अतएव प्रेम की ऊँची-से-ऊँची बात करने में बुराई  न होने पर भी प्रेम के साधक को ऊँची बातें न करके अपने ह्रदय को प्रेम के योग्य - प्रेम-भगवान् के निवास करने लायक पवित्र और दिव्य बनाना चाहिये l  इसके लिए मन, वाणी, शरीर -तीनों का विनियोग आवश्यक है। वाणी के द्वारा अधिक-से-अधिक भगवान् के नाम का जप हो, कीर्तन हो, जिससे अत्यावश्यक सांसारिक चर्चा के अतिरिक्त व्यर्थ शब्दोच्चारण के लिए अवकाश ही न मिले- जैसे महात्मा हरिदास जी महाराज दिन-रत में तीन लाख नाम-कीर्तन स्वरपूर्वक करते थे। मन के द्वारा भगवान् के लीला-गुण-धाम-चिन्तन  का ही अभ्यास दृढतर हो जाये और उसमें ऐसे रूचि उत्पन्न हो जय, जो भगवल्लीला-चिंतन के अतिरिक्त अन्य प्रापंचिक विषयों को मन में आने ही न दे और शरीर के द्वारा जो अत्यावश्यक जीवन-निर्वाह के कार्य हों, भगवान् का स्मरण करते हुए भगवत्सेवा की भावना से उतने ही कार्य किये जाएँ। इन कार्यों के अतिरिक्त अन्य कार्यों में शरीर का प्रयोग हो ही नहीं . शरीर के द्वारा निरन्तर श्रीविग्रह की सेवा बनती रहे। यों मन, वाणी, शरीर - तीनों जब भगवान् की सेवा में नियुक्त हो जाते हैं, तब भगवत्कृपा से अन्तःकरण की शुद्धि होती है और भगवान् के पवित्र प्रेम को ह्रदय में लाने की योग्यता प्राप्त होती है। प्रेम का परम साधन है - त्याग। जहाँ विषय-वासना तथा कामोपभोग का त्याग तो है ही नहीं - कामोपभोग में रूचि,  आसक्ति एवं प्रीती सुदृढ़ है, वहाँ पवित्र प्रेम का प्रादुर्भाव कैसे होगा ? अतएव  जहाँ तक बने, प्रेम की केवल बातों पर जोर न देकर प्रेम के योग्य बनने के साधन पर जोर देना चाहिये और स्वयं वैसा बनकर आदर्श उपस्थित करना चाहिये।

सुख-शान्ति का मार्ग [333]         
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Ram