|| श्री हरि:
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आज की शुभ
तिथि – पंचांग
पौष शुक्ल,
चतुर्थी ,मंगलवार , वि० स० २०६९
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा:
बुढ़ापा आ गया है, इन्द्रियों की शक्ति जाती रही, सब तरह से दूसरो के मुहँ की ओर ताकना पड़ता है , परन्तु तृष्णा नहीं मिटती | ‘कुछ और जी लूँ, बच्चो के लिए कुछ और कर जाऊँ,
दवा लेकर जरा ताजा हो जाऊँ तो संसार का कुछ सुख और भोग लूँ | मरना तो है ही,
परन्तु हाथ से बच्चों का विवाह हो जाये तो अच्छी बात है, दूकान का काम बच्चे ठीक से
संभाल ले, इतना सा उन्हें और ज्ञान हो जाये’, बहुत से वृद्ध पुरुष ऐसी बातें करते
देखे जाते है | मेरे एक परिचित वृद्ध सज्जन जो लगभग करोड़पति माने जाते थे और जिनके
जवान पौत्र के भी संतान मौजूद है, एक बार बहुत बीमार पड़े | बचने की आशा नहीं थी | बड़ी
दौड़-धूप की गयी, भाग्यवश उस समय उनके प्राण बच गए | मैं उनसे मिलने गया, मैंने
शरीर का हाल पूछ कर उनसे कहा कि ‘अब आपको संसार की चिन्ता छोड़ कर भगवद्भजन में मन
लगाना चाहिये | इस बीमारी में आपके मरने की नौबत आ गयी थी, भगवत कृपा से आप बच गए
है, अब तो जितने दिन आपका शरीर रहे, आपको केवल भगवान का भजन करना चाहिये |’
उन्होंने कहा ‘आपका कहना तो ठीक है,
परन्तु लड़का इतना होशियार नहीं है , पाँच साल मैं अगर और जिन्दा रहूँ तो घर को कुछ
और ठीक कर जाऊँ, लड़का भी कुछ और समझने लगे | मरना तो है ही | क्या करू, भजन तो होता
नहीं |’ मैंने फिर कहा कि ‘अब आपको घर की
क्या ठीक करना है | परमात्मा की कृपा से आपके घर में काफी धन है | आपके लड़के भी
बूढ़े होने चले है | मान लीजिये, अभी आप मर जाते तो पीछे से घर को कौन ठीक करता ?’
उन्होंने कहा ‘यह तो मैं भी जानता हूँ, परन्तु तृष्णा नहीं छूटती |’
इस दृष्टान्त से पता चलता है कि तृष्णा किस तरह से मनुष्य
को घेरे रहती है | ज्यों-ज्यों कामना की पूर्ति होती है, त्यों-ही-त्यों तृष्णा की
जलन बढ़ती चली जाती है |
‘जिसके पास कुछ नहीं होता, वह चाहता है कि मेरे पास सौ
रूपये हो जाये, सौ होने पर हज़ार के लिये इच्छा होती है, हज़ार से लाख, लाख से राजा
का पद, राजा से चक्रवर्ती-पद, चक्रवर्ती होने पर इंद्र का पद, इंद्र होने पर
ब्रह्मा का पद पाने की इच्छा होती है | इस तरह तृष्णा उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है,
इसमें कोई सीमा नहीं बाधी जा सकती |’
श्री
मन्न नारायण नारायण नारायण.. श्री मन्न नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण नारायण....
नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसाद
पोद्धार,कल्याण अंक,वर्ष ८६,संख्या ३,पन्नासंख्या ५७४,गीताप्रेस, गोरखपुर
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