|| श्री
हरि: ||
आज की शुभ तिथि –
पंचांग
पौष शुक्ल,
द्वादशी, बुधवार, वि० स०
२०६९
सच्ची बात यह है की हम सब मोह में पड़े हुए है | सत्संग करते है, सत्संग
सुनते है, परन्तु हमारी दृष्टी भोगों पर लगी हुई है कि ऐसा हो तो
काम बने | यह कहते-कहते मर जायेंगे | यूँ करते-करते ही तो लोग हमारे सामने मर रहे हैं | यह अवस्था नहीं होनी चाहिये, ऐसा होना
चाहिये-इसी उधेड़बुन में हम पड़े रहते है |
अनेकचित विभ्रान्ता मोहजाल समाव्रता: |
प्रसक्ता काम भोगेषु पतन्ति नरकेअशुचो || (गीता १६|२६)
‘चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तमुपस्रिता: |’ (गीता १६|११)
मरने
के अंतिम क्षण तक इसी चिन्तामें डूबे रहते है और वही सोचते-सोचते मर जाते हैं | यह किया नहीं,यह करना है , ऐसा होना
चाहिये, उसको ऐसा करना चाहिये, यह हुआ नहीं, इतना और कर लेंगे आदि-आदि |
इद मध मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् |
इदमस्तीदमपि में
भविष्यति पुनर्धनम् ||असो मया हत: शत्रुहनिष्ये चापरानपि |
इश्वरोअमहम् भोगी सिद्धोअहम् बल्वान्सुखि || (गीता १६| १३-१४)
यह हमारा प्रमाद भरा बकवाद है | चाहे बोल
कर करे, चाहे जीवन से करें, इसी बकवाद में लगे हुए और इन्ही चिन्ताओ में घिरे हुए हम मर जाते है और जब
आदमी मर जाता है,फिर लोग उससे वैर भी छोड़ देते है और प्रेम भी क्या करे,वह तो मर गया | कितने दिन रोये उसके लिए | बस, वह जगत से अलग हो गया और जगत उसे भूल गया | यही दशा होती है | फिर दु:खों
की कल्पना, सुखों की कल्पना करके भोगों पर विश्वास किया
तो जीवन दु:खी रहेगा |
यह बात सोच कर धारण कर लेने की है कि भोगों की आशा कभी
सुखदायिनी हो ही नहीं सकती; क्योकि भोगों में सुख है ही नहीं और भगवान में विश्वाश हुए बिना
भोगों की आशा मिटती नहीं है | भगवान् पर विश्वाश होते ही भगवान की शरणागति हो जाती है
और शरणागति प्राप्त होने पर सारा जिम्मा भगवान ले लेते हैं | यहाँ-वहां दोनों जगह की जिम्मेदारी वे लेते है और भगवान के जिम्मा लेते ही
हम निर्भय और निश्चिन्त हो जाते है | यहाँ
भी निश्चित रहे और वहाँ भगवान अपनी गोद में अपने साथ रखेंगे; चाहे जहा ले जाये | मंगल ही मंगल है | यह परम
सुन्दर चीज है | यह हम अपने जीवन में लाये तो हमारा जीवन सार्थक है, नहीं तो जीवन काल के अधीन है |
शेष अगले ब्लॉग में...
श्री मन्न नारायण नारायण नारायण.. श्री मन्न नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण नारायण....
नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार, कल्याण अंक,वर्ष ८६,संख्या १०,पृष्ट संख्या ९३९ ,गीताप्रेस, गोरखपुर
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