|| श्री हरि:
||
आज की शुभ
तिथि – पंचांग
पौष शुक्ल, षष्ठी,
गुरुवार , वि० स० २०६९
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा:
विषय-तृष्णा में मतवाले मनुष्यों की असफलता का दिग्दर्शन
करते हुए महाराज भर्तृहरि कहते है कि
धन की तृष्णा ने क्या-क्या काम नहीं कराये :-
खोदत डोल्यो भूमि, गडीहु न पाई
सम्पति |
धौकत रह्यो पखान, कणक के लोभ लगी
मति ||
गयो सिन्धु के पास, तहाँ मुक्ताहू
न पायो |
कौड़ी क्र नहीं लगी, नृपन को शीश
नवायो ||
साधे प्रयोग श्मशान में, भूत प्रेत
वेताल सजि |
कितहू भयो न वांछित कछु, अब तो तृष्णा मोहि तजि ||
(वैराग्य शतक ४)
गड़े धन के लिये जमीन का तला खोद डाला, रसायन के लिए धातुए
फूँकी, मोतियों के लिए समुद्र की थाह ली, राजाओ को संतुष्ट रखने में बड़ा यत्न किया,
मन्त्र सिद्धि के लिए रातों श्मशान जगाया और एकाग्र होकर बैठा हुआ जप करता रहा |
पर खेद है कि कहीं पर भी एक फूटी कोड़ी हाथ न लगी | इसलिये हे तृष्णये ! अब तो तू
मेरा पिण्ड छोड़ | फिर कहते है :-
भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषमं
प्राप्तं न किञ्चित् फलम् |
त्यक्त्वा जातिकुलाभिमामुचितं सेवा कृता निष्फला
||
भुक्तं मानविवर्जितं पर गृहेषवाशङ्क्या काकवत् |
तृष्णा दुर्म्तिपापकर्मनिरते
नाद्धापी सन्तुश्स्य्शी || (वैराग्य शतक ५)
भटक्यो देश-विदेश, तहाँ कछु फलहू न पायो |
निज कुलको
अभिमान छोड़ सेवा चित लायो ||
सही गारी अरु खीझ हाथ झारत घर आयो
|
दूर करतहू दौरी, स्वान जिमि पर घर
खायो ||
इही भाँती नचायो मोहिं ते, बहकायो
दे लोभतल |
अबहूँ न तोहिं संतोष कहू, तृष्णा !
तू पापिनी प्रबल ||
तृष्णा से ही इतनी लान्छना, निर्लज्जता और इतना अपमान, दुःख
सहन करना पडता है |
एक दुःख के बाद नया दुःख आने में तृष्णा ही प्रधान कारण
होती है | मनुष्य किसी भी अवस्था में सन्तोष नहीं करता, इसलिए बारम्बार उसकी स्थिति बदलती रहती है | तृष्णा के मारे भटकते-भटकते सारीउम्र बीत जाती है, अंत में
वह जैसे-का-तैसा रह जाता है, पीछे हाथ
मल-मलकर पछताने से भी कोई लाभ नहीं होता |
यदि भाग्यवश धन प्राप्त भी हो जाता है, तब भी वह तृष्णा उसका कुछ विशेष सदुपयोग नहीं होने देती,
सारी उम्र बातों में ही बीत जाती है |
अतएव बुद्धिमान मनुष्यों को भोगों की तृष्णा से मुहँ मोड़कर
परमात्मा के लिए तृषित होना चाहिये | भोगों से कभी तृप्ति नहीं होती, ‘बुझे न काम अगिनि तुलसी कहूँ ,
विषय भोग बहु घी ते’ अग्नि में घी डालते जाइये, वह और
भी धधकेगी, यही दशा कामना की है | उसे बुझाना हो तो संतोषरूपी शीतल जल डालिए | धन
तो वही असली है, जिससे मनुष्य को सुख मिलता है | ऐसा धन संतोष है | ‘संतोष: परमं धनम् |’ ऐसे अनेक करोड़पति देखे जाते है, जो
तृष्णा के फेर में पड़े हुए असन्तोष और अतृप्ति की तीव्र आग से जल रहे है | उनके
अन्तकरण में क्षण भर के लिए भी शान्ति पैदा नहीं होती | इसलिए वे महान दुखी रहते
है
अशान्तस्य कुत: सुखम् |
श्री
मन्न नारायण नारायण नारायण.. श्री मन्न नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण नारायण....
नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसाद
पोद्धार,कल्याण अंक,वर्ष ८६,संख्या ३,पृष्ट-संख्या ५७५,गीताप्रेस, गोरखपुर
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