Friday, 4 January 2013

दैवी विपतियाँ और उनसे बचने का उपाय -3-

आज की शुभ तिथि – पंचांग  
पौष कृष्ण ७, शुक्रवार, वि० स० २०६९


महान-से-महान दारुण दुःख भी उनको उस सुखमयी स्थिति से विचलित नहीं कर सकता –

यस्मिन् स्थितो  न दुखेन: गुरुणापि विचाल्यते |

तथापि जहाँ पर जैसी लीला होती है, उसी के अनुसार सब पात्रों को अभिनय करना पड़ता है  और करना भी चाहिये | इसी से ज्ञानी और भक्तगण  भी दुखियों के दुःख को देखकर रोते हैं और उनके दुखनाश के लिए तन-मन-धन से जतन करते है | वस्तुत: ज्ञानी और भक्त ही सबका दुःख दूर करना चाहते है, क्योंकि उनके अन्त:करण का स्वभाव ही ‘सर्वभूत के हित में रत रहना’ और ‘सबके प्रति द्वेषरहित होकर सबके अकृत्रिम मित्र और दयालु होना है’ |
‘सर्वभूत हिते रता: |’
‘अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र करुण एव च ||’

जिनका हृदय दुखियों के के दुःख को देख कर द्रवित नहीं होता, जिनको पीड़ितो की करुण पुकार पीड़ित नहीं करती, उन मनुष्यों का ज्ञानी और भक्त बनना तो दूर रहा, मनुष्यत्व तक पहुचना भी अभी नहीं हो सका है | जो लोग पाप का फल बतलाकर किसी दु:खी जीव से उदासीन रहते हैं, जिनको अपने धन और पद के अभिमान से दुखियो के दुःख से द्रवित होने का अवकाश नहीं मिलता, वे मनुष्य अभागे है और उनके द्वारा पाप का ही संचय होता है | अतएव सबको यथासाध्य  दु:खी प्राणियों की तन-मन-धन से सेवा करने के लिए सदा तैयार रहना चाहिये |
 
जिसकी जैसी शक्ति है, वह अपनी शक्ति के अनुसार ही सेवा करे | सेवा करके कभी अभिमान न करे और यह न समझे कि मैंने जिसकी सेवा की है, उनपर कोई कृपा की है; वे मुझसे नीचे है मैंने उपकार किया है; उसको मेरा कृतज्ञ होना चाहिये या अहसान मानना चाहिये | बल्कि यह समझे कि ‘सेवा का सौभाग्य और बल प्रदान करके भगवान ने मुझ पर बड़ी कृपा की; मेरे द्वारा किसी को कुछ सुख मिला है, इसमें उसका भाग्य ही कारण है, उसी के लिए वह वस्तु आई है और भगवान ने मेरे द्वारा उसे वह चीज दिलवाई है; मेरा अपना कुछ भी नहीं हैं ,मैं तो निमित मात्र हूँ |

भगवच्चर्चा, हनुमानप्रसाद पोद्दार,गीताप्रेस,गोरखपुर,कोड ८२०
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Ram