|| श्रीहरिः ||
आज की शुभ तिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण, तृतीया, गुरूवार, वि० स० २०६९
गत ब्लॉग से
आगे.....जिस यूरोपकी उन्नति पर हम मोहित है, उसकी उन्नति के
परिणाम में एक तो धन-जन और शान्ति-सुख का ध्वंशकारी महायुद्ध हो गया और दुसरेकी
अन्दर-ही-अन्दर तैयारी हो रही है | पता नहीं, यह अन्दर का भयानक बिस्फोटक कब फूट
उठे | विज्ञान में उन्नत जगत का वैज्ञानिक अविष्कार गरीबो का सर्वस्व नाश करने और अल्पकाल
में ही बहुसंख्यक मनुष्यों की हत्या करने का प्रधान साधन बन रहा है | पेट्रीट्रयोजीम
और देशप्रेम-पर-देशदलन का नामान्तरमात्ररह गया है | राष्ट्रसेवा पर-राष्ट्रके
अहितचिंतन और संहारके रूप में बदल गयी है, उन्नति के मिथ्या मोह-पाश में आबद्ध
मनुष्य आज रक्तपिपासु हिसंक पशु के भाँती एक-दुसरे को खा डालने के लिए कमर कसे
तैयार है ! एक पाश्चात्य सज्जन से बड़े मार्मिक शब्दों में आज की उन्नत सभ्यता का
दिग्दर्शन कराया है | वह कहते है
“To be dignified is the glory of civilization, to
suppress natural laughter, and smile instead, is grand; to Put the best side
out and to conceal the natural; to pretend to be greater or better than we are;
to think more of our looks, walk, manners, clothing and the wealth. We have
robbed the poor of- this is civilization.
To turn away from one poorly clad, not deigning
an answer to a civil question; to look coldly in the eye of a stranger, without
speaking when accosted because you have not been introduced, this is dignity,
this is fashionable; to murder each other without enmity- this is to be
civilized.
The earth is drenched with human gore and her
fair fields are rich with the bone dust of humanity. The glory of one nation is
the destruction of another.” ..शेष
अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!