|| श्री हरि:
||
आज की शुभ
तिथि – पंचांग
भगवान के प्रेम को हरनेवाली सम्पूर्ण चीजो को भगवान हर लेते
है, दूर कर देते हैं | मान गया, धन गया, यश गया, प्रतिष्ठा गयी, सब कुछ चला गया-
मनुष्य रोने लगता है, छटपटाने लगता है, पर उस समय दयामय प्रभु मधुर-मधुर
मुस्कुराने लगते है, हँसने लगते है की ‘यह मेरा प्यारा बच्चा विपत्ति से बच गया |’
जिसे हम सम्पति मानते है,सचमुच वह विपत्ति ही है |
‘जगत की विपत्ति विपत्ति नहीं, जगत की सम्पत्ति सम्पत्ति
नहीं, भगवान का विस्मरण ही विपत्ति है और भगवान का स्मरण ही सम्पत्ति है |’
श्री तुलसीदास जी के शब्दों में :-
कह हनुमंत विपति
प्रभु सोई | जब तक सुमिरन भजन न होई ||
जिस काल में भगवान का भजन-साधन,
उनका स्मरण नहीं होता, वह काल भले ही सौभाग्य
का मन जाय, उस समय चाहे चारो और यश,कीर्ति,मान,पूजा होती हो, भगवान की और से
उदासीन हो, तो वह विपत्ति में ही है - असली विपत्ति है यह | इस विपत्ति को भगवान
हरण करते है, अपने स्मरण की सम्पत्ति देकर | यहाँ श्रीभगवान की कृपा प्रतिफलित
होती है |
जब हम धन-पुत्रकी प्राप्ति, व्यापार की उन्नति, कमाई, प्रशंसा, शरीर के आराम, अच्छे मकान,कीर्ति, अधिकार आदि को भगवान की कृपा मान लेते
है, तब उसे बहुत छोटे-से दायरे में ले आते है और गलत समझते है | भगवान की कृपा
यहाँ भी है, परन्तु ये समस्त सामग्रियाँ भगवान की पूजा के उपकरण बनी हुई हों तो |
और यदि ये सब भोग सामग्रियाँ, सारी-की-सारी चीजे भगवान का उपकरण न बनकर अपने ही
पूजन में मनुष्य को लगाती है, तो वहाँ भगवान का तिरस्कार होता है, अपमान होता है |
वस्तुत: भगवान इनको इसलिए देते है की इनके द्वारा भगवान की पूजा करके मनुष्य
कृतार्थ हो जाय | पर ऐसा न करके वह यदि
इनका स्वामी बन कर भगवानको भूल गया, तो वह भोगो का स्वामी नहीं, भोगो का किंकर है
|
नारायण नारायण
नारायण.. नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण
नारायण....
नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी
पोद्दार, दुःख में भगवत्कृपा, पुस्तक कोड
५१४, गीताप्रेस, गोरखपुर
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