|| श्री हरि: ||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
माघ शुक्ल, दशमी, बुधवार, वि० स० २०६९
तुलसीदासजी ने घोषणा की है
जाके
प्रिय न राम-बैदेही |
तजिये
ताहि कोटि बैरी सम जदपि परम स्नेही ||
तज्यो
पिता प्रहलाद विभीषण बंधू भरत महतारी |
बली
गुरु तज्यो कतं-ब्रजबनितनी जे भज मंगलकारी ||
जिसको
भगवान सीताराम प्यारे नही है, वे यदि
प्यारे-से-प्यारे हों, परम स्नेही हों, तब भी वे त्याज्य है | यदि हम किसीके माता, पिता, भाई, गुरु, स्वामी हैं तो हमारा यह कर्तव्य है कि हम उन्हें भगवान में लगाने का
प्रयास करें, न की उन्हें नरको में पहुचाने का प्रबन्ध कर दे
| वह पिता पिता
नहीं, वह
माता माता नहीं, वह भाई भाई नहीं, वह
गुरु गुरु नहीं और अह देवता देवता नहीं तो भगवान से हटाकर हमे भोगों में लगा दे | इसलिए तुलसीदासजी ने कहा
तुलसी सो सब भाँती परम हित पूज्य प्रान तें प्यारो |
जाते होय सनेह राम पद एतो मतो हमारा ||
‘वही परम हितैषी है, वही परम पूज्य है, वही प्राणों का प्यारा है,
जिससे राम के चरणों में स्नेह बढे, यह हमारा
निश्चित मत है |’ भगवान में मन लगे,
भोगों से मन हटे |
वास्तव में भोगो को प्रोत्साहन देने मनुष्य को बिगाड़ना है, उसे बुरे मार्ग में लगाना है | ऐसे मार्ग में लगा
देना देना तो उसके साथ शत्रुता करनी है | ऐसी कोई वस्तु कोई
किसी प्राणी को दे दे की वह भगवान को भूल जाये | अमृत भूलकर
विष खा ले तो वह मित्र नहीं | उसका मुहँ ऊपर से मीठा है, पर भीतर उसके हलाहल भरा हुआ है | मित्र वह है जो अंदर से मित्र है और जो हमे सुधार देता हैं | विषय-भोगों में लगाने वाले मित्र कदापि मित्र नहीं | ऐसे ही मित्र के लिए कहा गया है ‘विषकुम्भं पयोमुखंम |’
ऐसे जहर-भरे दूध मुहेघड़े के सदृश्य उपर से मीठे बोलकर विषयों
में लगाने वाले मित्रो को छोड़ देने में ही कल्याण है | संसार
के विषय-भोग ठीक ऐसे है | वे देखने में अमृत लगते है,
पर परिणाम में विष ही सिद्ध होते है | ‘परिणामे विषमिव |’ माता, पिता, गुरु, भाई, मित्र किसी को दूध बताकर विष दे देना, उसका उपकार करना नहीं, बुरा करना है | अत एव सबको स्पस्ट बता देना चाहिये की इस विष से बचो | यह मार देगा, यह नरको में डाल देगा | यह कहना तो तभी बनता है, जब हम स्वयं इससे बचे हुए
हो |
असली चीज
तो यही है की भोगों की प्राप्ति, भोगो की
स्प्रहा, भोगो को प्राप्त करने की कामना, मकान, मोटर, अधिकार,पद, पाँच आदमी मेरे आगे-पीछे चले, यह कामना तथा यह सब देखकर मन का ललचाना, यह सब नरक रूप ही कहे गए है |
शेष अगले ब्लॉग में ...
नारायण नारायण नारायण.. नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण नारायण....
नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार, दुःख में भगवत्कृपा, पुस्तक कोड ५१४, गीताप्रेस, गोरखपुर
0 comments :
Post a Comment