Saturday 9 February 2013

दुःख में भगवतकृपा -1-


|| श्री हरि: ||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
माघ  कृष्ण,चतुर्दशी,शनिवार, वि० स० २०६९

जब मनुष्य केवल संसार के अनुकूल भोगपदार्थो की प्राप्ति में भगवत्कृपा मानता है,तो वह बड़ी भारी भूल करता है | भगवान की कृपा तो निरन्तर है, सबपर  है और सभी अवस्थाओ में हैं; किन्तु जो ये अनुकूल भोगपदार्थ है, जिनमे अनुकूल बुद्धि रहती है, ये सब तो मनुष्य को माया के, मोह के बन्धन में बाँधने वाले होते है | माया के मोह में बाँधकर जो भगवान से अलग कर देनेवाली चीज है, उसकी प्राप्ति में भगवत्कृपा मानना गलती है | पर होता यह है कि जब मनुष्य भगवान का भजन करता है, भगवान के नामका जप करता है,रामायण और गीतादि का पाठ करता है और संसार के भोगों की प्राप्ति में जरा-सी सफलता प्राप्त हो गयी, मुझे यह लाभ हो गया है | ऐसे पत्र मेरे पास बहुत आते है और में उन्हें प्रोत्साहित भी करता हूँ, परन्तु यह चीज बड़ी गलत है | जहाँ मनुष्य अनुकूल भोगो में भगवान की कृपा मानता है, वहाँ प्रतिकूलता होने पर वह उल्टा ही सोचेगा | वह कहेगा ‘भगवान बड़े निर्दयी हैं, भगवान की मुझ पर कृपा नहीं है |’ अधिक क्षोभ होगा तो वह यहाँ तक कह देगा कि ‘भगवान हैं ही नहीं, यह सब कोरी कल्पना है | भगवान होते तो इतना भजन करनेपर भी ऐसा क्यों होता |’ यों कहकर भगवान को अस्वीकार कर देता है | इसलिए अमुक स्थिति की प्राप्ति में भगवत्कृपा है, यह मानना ही भूल है | पहले-पहले जब मनुष्य को सफलता मिलती है, तब तो उसमे वह भगवान की कृपा मानता है, पर आगे चल कर वह कृपा रुक जाती हैं, छिप जाती है, वह कृपा को भूल जाता है | फिर तो वह  अपनी कृतिको एवं अपने ही अहंकार  को  प्रधानता देता है | अमुक कार्य मैंने किया, अमुक सफलता मैंने प्राप्त की | इस प्रकार वह अपनी बुद्धि का, अपने बल का, अपनी चतुराई का, अपने कला-कौशल का घमण्ड करता है, अभिमान करता है  | भगवान को भूलकर वह अपने अहंकार की पूजा करने लग जाता है | सफलता मैंने प्राप्त की है, इसलिये मेरी पूजा होनी चाहिये | ‘मैंने धनोपार्जन किया, मैंने विजय प्राप्त किया, मैंने अमुक सेवा की, मैंने राष्ट्र का निर्माण किया, मैंने राज्य, देश तथा धर्म की रक्षा की’ इस प्रकार सर्वत्र प्रत्येक कर्म में अपना ‘अहम्’ लगाकर वह अहंका पूजक और प्रचारक बन जाता है और जब इस ‘अहम्’ की, ‘मैं’ की पूजा नहीं होती, उसमे किसी भी प्रकार का किंचित भी व्यवधान उपस्थित होता है, तब वह बौखला उठता है, दल बनाता है और परस्पर दलबंदी होती है | राग-द्वेष एवं शत्रुता का वायुमंडल बनता है, बढ़ता है | मनुष्य जब ऐसे किसी प्रवाह में बहने लगता है, तब भगवान दया करके ब्रेक लगाते है | उसे उस पतन से लौटने के लिए भगवान कृपा करते है |                  
  
शेष अगले ब्लॉग में ...

नारायण नारायण नारायण.. नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण नारायण....

नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार, दुःख में भगवत्कृपा, पुस्तक कोड  ५१४, गीताप्रेस, गोरखपुर
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Ram