॥ श्रीहरिः ॥
आज की
शुभतिथि-पंचांग
माघ शुक्ल
त्रयोदशी,
शुक्रवार, वि० स०
२०६९
गत ब्लॉग
से आगे.....
मन में कई बार प्रश्न उठता है, क्या यही यथार्थ उन्नति है ? क्या धन-जन, शारीरिक शक्ति, अस्त्रबल, मान-प्रतिष्ठा,
पद-गौरव, रेल-विमान, मोटर
आदि भोग सामग्रियो के प्राप्त कर लेने से ही हम उन्नत हो जाते है ? क्या जागतिक मोहमाया विद्या का अनुशीलन कर यथेच्छाचरण करने से हमारी
उन्नति हो जाती है ? देखा जाता है, विषयसंग्रह के साधनों में और उनके संग्रह हो जाने पर भोगो में
राग द्वेष बढ़ जाते है, हृदय
अभिमान से भर जाता है | काम, क्रोध,
लोभ, दम्भ और मद का विस्तार हो जाता है |
मन, इन्द्रियाँ काबू से बाहर हो जाती है |
चौबीसो घंटे उन्मत की भाँती धन, पुत्र,,
स्त्री, मान, यशादी के
भोगने में और और उनके संग्रह करने की चिन्ता में चित संलंग्न रहता है | क्या यही उन्नति के चिन्ह है ? क्या आत्मिक उन्नति को भुला कर केवल धन, मान,
मद के संग्रह में लगे रहने से उन्नति के नाम पर हमारा मन मोह से
अभिभूत नहीं हो जाता और क्या वह अवनति के समुद्र में हमे डुबो नहीं देता ? एक बार विचार कीजिये, शान्त चित से सोचिये |
एक मनुष्य ने बहुत-सी मीलें बनायी, जिसमे बहुत धन कमाया, आज वह अरबो की सम्पति का स्वामी है | उसके भोग-सुखो के साधन का पार नहीं है | परन्तु उसके इतने धनी होने में लाखो गरीब तबाह हो गए | हिंसा, असत्य और धोखेबाजी के साधनों से उसका हृदय मलिन हो गया, दया जाती रही ! आज भी उसका मन मलिन है, उसमे राग-द्वेष भरा है, वह दूसरे की उन्नति देख कर जलता और अवनति से खिल उठता है | सत्य, शौच, संतोष और परमात्मा की उसे कुछ भी परवाह नहीं है | धन के मद से मतवाला होकर वह आठो पहर भोग-विलास, मान-सभ्रम या नाम पैदा करने में रत है | दूसरी और एक मनुष्य ने परोपकार या प्रारब्धवश व्यापार के नुकसान में अपना सारा धन खो दिया या वह जन्म से ही दरिद्री है | आज उसे पेट भरने के लिए अन्न और सर्दी-गर्मी से बचने के लिए पूरा कपडा नहीं मिलता, परन्तु इस संकट में भी उसने सद्विचार और सत्संग से अपने हृदय को शुद्ध कर रखा है | उसमे दयालुता, सरलता, सहानुभूति और शान्ति आदि गुणों का प्रादुर्भाव हो गया है, वह सदा दूसरों का भला चाहता है और यथासाध्य करता भी है, समयपर परमात्मा को याद कर दुःख में भी उसकी दया का अनुभव करता हुआ प्रसनचित रहता है | बतलाइये, इन दोनों में किसकी यथार्थ उन्नति हो रही है ? ....शेष अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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