Tuesday 12 February 2013

दुःख में भगवतकृपा -4-


|| श्री हरि: ||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
माघ  शुक्ल, द्वितीया,मंगलवार, वि० स० २०६९



सारे जगत के अपनत्व, बन्धुत्व आदि के प्रति मनुष्य की ममता जब नहीं छूटती, तब भगवान कृपा करके ऐसी स्थिती उत्पन्न देते है जिससे उसे उनसे मुक्ति मिल जाये, उस ममता के बंधन से छूटने के लिए वह विवश हो जाय और जब उस ममता से छूटता है, तब उसकी आँख खुलती है और सोचता है कि मैं धोखा खा रहा था | मुझे ‘मेरा-मेरा’ करनेवाले सब पराये ही रहे | सब समय धोखा ही देने वाले रहे | संसार का यह नियम ही है कि संसारिक लोग सफलता के साथ चलते है और असफलता की गन्ध आते ही सब-के-सब धीरे से सरक जाते है | फिर ढूँढने पर भी उनका पता नहीं चलता | सुख के समय जो प्रगाढ़ मैत्री का प्रदर्शन करता था, तब वह वैसा प्रेम नहीं दिखाता | उस समय केवल भगवान ही दीखते है  और वे बड़े मधुर एवं स्नेहपूरित शब्दों में कहते है - ‘भाई ! निराश मत हो, मेरे पास आओ |’ सच बात तो यह कि अपने परम सुखद अन्कमें लेने के लिए ही वे ऐसा करते है | अपनाने के लिए वे उसे जगत से निराश करते है | फिर भी हम भूल करते है | धन में, मान मे, जगत की प्रत्येक सफलता में भगवान की कृपा का अनुभव करे, यह अत्युतम है; किन्तु दीनता, दुःख,अभाव,अकीर्ति और असम्मान की स्थिती में हमे उनकी मधुर मंगलमय कृपा का विशेष अनुभव करना चाहिये |

एक विधवा बहिन है, अच्छे घर की है | भगवान की प्रेमी है, भजन करती है | उन्होंने बताया की ‘मैं परिवार में रहती,मेरे बाल-बच्चे होते,देवरानियो-जेठानियो की भाँती में वस्त्रआभूषण पहनती, इस प्रकार मैं संसार में रम जाती, भजन करने की जैसी सुविधा और मन आज है , वैसा तब नहीं रहता | यह भगवान की कृपा थी, जिसने मुझे जगत के सारे प्रलोभन और सारे विषयों से दूर कर दिया,हटा दिया और इधर लगने का सुअवसर दिया |’ वास्तव में यही बात है | भगवान की दी हुई वह विपत्ति हमारे लिए परम मंगलमयी है, जिसने हमे भगवान में लगा रखा है | मनुष्य अमुक-अमुक प्रकार के वस्त्र पहनने को,अमुक-अमुक प्रकार के मकान में रहने को,अमुक प्रकार के भोजन करने को और लोग मुझसे अमुक प्रकार से बात करे, इसको तथा ऐसे ही अन्यान्य संसारिक सुविधाओं को सुख मान रखा है; पर वस्तुत: वह सुख नहीं है |

शेष अगले ब्लॉग में ...

नारायण नारायण नारायण.. नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण नारायण....

 नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार, दुःख में भगवत्कृपा, पुस्तक कोड  ५१४, गीताप्रेस, गोरखपुर
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Ram