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श्रीहरिः ||
आज की शुभ तिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण, द्वितीया, बुधवार, वि० स० २०६९
गत
ब्लॉग से आगे....
.कुछ
समय पूर्व डॉ० जान माट नामक अमेरिकन सज्जन मैसूर में होने वाले ‘विश्व-छात्र-फेडरेशन’ के सभापति बनकर अमेरिका से
भारत में आये थे | उन्होंने महात्मा गाँधीजी से विभिन्न
विषयों पर बात कीं | बातचीत के प्रसंगमें ही महात्मा जी ने
कहा की ‘मैं ईश्वरप्रार्थना करने को कहूँगा |’ इस पर डॉ० माट ने पूछा -
‘यदि
इससे उनको लाभ नही पंहुचा अर्थात उनकी प्रार्थना नहीं सुनी गयी तो ?’
म०- तब वह
उनकी प्रार्थना ही नहीं कही जाएगी | वह
तो उनकी मौखिक प्रार्थना हुई, प्रार्थना
तो वह है जिसका असर हो |
डॉ०- हमारे
युवकोंके साथ यही तो कठिनाई है, विज्ञान और
दर्शनशास्त्र की शिक्षाओ ने उनकी सारी धारणाओं को नष्ट कर दिया है |
म०- यह तो इसी कारण है की वे विश्वाश को बुद्धि की चेष्टा समझते है, आत्मा का अनुभव नहीं | बुद्धि
हमलोगों को जीवनक्षेत्रमें कुछ दूर तक ले जा सकती है, परन्तु अन्त में वह मौके पर धोखा दे देती है |
विश्वाश के कारणों की उत्पत्ति होती है | जिस
समय हम चारों ओर अन्धकार-ही-अन्धकार दिखायी पड़ता है एवं हमारी बुद्धि बेकाम हो
जाती है, उस समय विश्वास ही हमारी रक्षा को आता है | यही वह विश्वास है, जिसकी हमारे नवयुवकों को
आवश्यकता है और यह तभी प्राप्त होता है जब की बुद्धि के
गर्व को बिलकुल चूरकर ईश्वर की इच्छाओ पर अपने को पूर्णतया समर्पित कर दिया जाय |
पूज्य
महात्माजी का यह कथन अक्षरश: सत्य और सदा स्मरण रखने योग्य है |
मौके-बेमौके बुद्धि के बेकाम हो जाने पर ईश्वरीय
विश्वास ही रक्षक होता है | ईश्वरीय
विश्वास के बल से रक्षित पुरुष ही ऐसी बात कह सकता है | परन्तु
आजके इस उन्नतिशील जगत की स्थिति क्या है ? जो लोग आज अपने
को उन्नत या उन्नति-पथारूढ़ समझते है , उनके हृदयमें यथार्थ
में क्या बात है ? अपने-अपने हृदयको टटोलकर देखिये | खेद है ईश्वर को मानना तो दूर, आज के उन्नत मानवों
का हृदय तो मोह से इतना अभिभूत हो गया है की अपनी उन्नति-अवनति के यथार्थ स्वरुप
को समझने की भी शक्ति प्राय: जाती रही है | बुद्धि सूक्ष्म
होते-होते इतनी सूक्ष्म हो गयी की अब तक उसका पता नहीं लगता | इसी से राग-द्वेष के विषैले भावो से प्रेरित होकर आज का मनुष्य-समाज
परस्पर ध्वंशात्मक चेष्टा और क्रिया कर रहा है तथा उसी में अपनी उन्नति मान रहा है
|..शेष अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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