|| श्री हरि:||
आज की शुभ
तिथि – पंचांग
स्वयं
श्रीनारद जी ने चाहा था कि ‘हम राजकुमारी से
विवाह कर ले; पर भगवान ने उन्हें वानर का मुहँ दे दिया |’ यह कथा शिवपुराण और
रामचरितमानस में आती है | श्रीनारद जी को बहुत दुःख हुआ | श्रीभगवान को बहुत कुछ
कह गए, ‘भगवान तो स्वेछाचारी है, उन्हें किसी का सुख-सौभग्य नही सुहाता | वे अपना
ही भला चाहते है आदि’ न जाने क्या-क्या मोह में वे क्या क्या कह गये | परन्तु
भगवान ने उन पर कृपा की | पीछे उन्हें पश्चाताप भी हुआ | भगवान ने उन्हें बताया,
‘हमने आपके हित के लिये ऐसा किया था
अवगुन
मूल सूल प्रद प्रमदा सब दुःख खानि |
ताते
कीन्ह निवारन मुनि मै यह जिय जानी ||
आप-सरीखे
विरक्त के लिए स्त्री सारे अवगुणों की जड, शूलप्रद तथा समस्त दु:खों की खान है, यही
मन में विचार कर मैंने आपका विवाह नहीं होने दिया |’
भगवत्कृपा
का यह विलक्षण भाव देखकर नारद का शरीर रोमान्चित हो गया | नेत्रों में प्रेम तथा
आनन्द के अश्रु छलक उठे
‘मुनि तन
पुलक नयन भरि आए |’
यह समझ
लेने की बात है | कहीं हमारे विषयों का हरण होता है, मनचाही वस्तु नहीं मिलती, वहाँ
निश्चय ही समझना चाहिये कि भगवान हम पर कृपा करते है भगवान की कृपा का कोई एक रूप
नही हैं | वह न मालूम कब किस रूप में प्रगट होती है | पर जागतिक असफलता उसका एक
रूप है | हम संसार के भोगों की, विषयों की, अनुकूल विषयों की प्राप्ति में जो
भगवान की कृपा मानते है, यह भगवान की कृपा का एकांगी दर्शन है और एक प्रकार से
असत-दर्शन है |
भगवान की
कृपा निरन्तर है, सब पर है, सब समय है, बल्कि जहाँ भगवान् हमारे अनुकूल विषयों
भोगों का अपहरण करते है, विनाश करते है, वहाँ भगवान की कृपा विशेष रूप से
प्रस्फुटित होती है | जब मनुष्य भगवान को
भूल जाता है, उनकी अवेहलना करता है, जब वह अध्यात्म को, परमार्थ को सर्वथा भूल कर
जागतिक, लौकिक, स्वार्थ की सिद्धि में लग जाता है, तब भगवान कृपा करते है | जो
पापो के प्रवाह में बह रहा है, भगवान उसको उस प्रवाह से बचाने केलिए उसके
ऐश्वर्यको, उसकी सफलता को बलात अपहरण करते है | जो वस्तु उसे अभिलाषित है, उसे
प्राप्त नही होने देते और जो वस्तु उसे प्राप्त है, जिसने उसे मोहित कर रखा, उसे
छीन लेते है, नष्ट कर देते है |
शेष अगले ब्लॉग में ...
नारायण नारायण
नारायण.. नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण
नारायण....
नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी
पोद्दार, दुःख में भगवत्कृपा, पुस्तक कोड
५१४, गीताप्रेस, गोरखपुर
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