|| श्री हरि:
||
आज की शुभ
तिथि – पंचांग
माघ
कृष्ण,अष्टमी,रविवार, वि० स० २०६९
अपने में श्रेष्ठता का अभिमान न
करना; दम्भ का सर्वथा त्याग करना, अहिंसाका पालन करना; अपना अनिष्ट करनेवाले का भी
दोष क्षमा कर देना, मन, वाणी, शरीर से सरल रहना; श्रद्धा-भक्ति सहित आचर्य की सेवा
करना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना,मन को स्थिर रखना, बुद्धि,मन,इन्द्रिय और शरीर को
वश में रखना; इस लोक और परलोक के सभी भोगो से वैराग्य हो जाना, अहंकार न रखना,जन्म-जरा-रोग-मृत्यु आदि दुःख और दोषों को ध्यान में रखना,
स्त्री,पुत्र,धन,भवन आदि में मन का न फसना; किसी भी वस्तु में ‘मेरापन’ न रहना,
प्रिय-अप्रिय की प्राप्ति में चित का सम रहना,परमात्मा की अनन्य भक्ति करना, शुद्ध
एकान्त देश में साधन केलिए रहना,तत्व-ज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को सदा सर्वत्र
देखना (गीता १३ |७-११)
ये तो ज्ञान के साधन है, इन साधनों
में लगे रहने से तत्व-ज्ञान की प्राप्ति होती है | जब साधनों में ही पाप का विनाश
और दैवी सम्पति का विकास है, तब सिद्ध ज्ञानी में तो पाप,दुराचार या कामिनी-कांचन
के प्रलोभन की संभावना ही कहा है ?
ज्ञान के सम्बन्ध में भगवान के कहा
है :-
‘जो ज्ञान के साधक इन्द्रियो के
समुदाय को भलीभांति वश में करके अचिन्त्य, सर्व
व्यापी,अनिर्देश्य,कूटस्थ,ध्रुव,अचल,अव्यक्त,अक्षर ब्रह्म की भालीभाती उपासना करते
है और सबमे सर्वत्र सम-भाव युक्त होकर प्राणीमात्र का हित करते है रहते है, वे
मुझको (ब्रह्म) को प्राप्त हो जाते है | (गीता १२ | ३-४)
ज्ञान के साधन के लिए जब
इन्द्रियसमुदाय को वश में कर लेना, हानि-लाभ,
जय-पराजय,मान-आपमान,जीवन-मृत्यु,देवता-मनुष्य,सबमे सर्वर्त्र समबुद्धि होना और
सर्वभूतो के हित में रत रहना अनिवार्य है, तब ज्ञानस्वरूप सिद्ध की तो बात ही क्या
है? उसमे वे सद्गुण स्वाभाविक ही होने चाहिये | इसी प्रकार साधक भक्त के उद्धार का
जिम्मा लेते हुए भगवान कहते है
‘जो साधक मुझ भगवान के परायण होकर
सारे कर्म मुझमे अर्पण करके अनंन्ययोग से केवल मेरा ही ध्यान-भजन करते है, हे
अर्जुन ! उन मुझमे भालीभाती चित लगाने वाले भक्तो का में इस मृत्यु रूप संसार-सागर
से शीघ्र ही उद्धार कर देता हूँ |’ (गीता १२ |६-७)
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नारायण नारायण
नारायण.. नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण
नारायण....
नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी
पोद्दार, भगवच्चर्चा, पुस्तक कोड ८२०
गीताप्रेस, गोरखपुर
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