Sunday, 3 March 2013

उन्नति का स्वरुप -10-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभ तिथि-पंचांग

फाल्गुन कृष्ण, षष्ठी, रविवार, वि० स० २०६९


गत ब्लॉग से आगे.....जो मनुष्य अपने जलते हुए घर की अग्नि के प्रकाश में कामकरने की इच्छा से घर जलाता है,  उससे वह मनुष्य कही अधिक मूर्ख है, जो भोगो को बटोरने के लिए अपने सद्गुणों को त्याग कर सुखी होना चाहता है | प्रथम तो भोगोका प्राप्त होना भी निश्चित नहीं, सारी उम्र जी-तोड़ परिश्रम और सच्चे मन से चल छोड़ कर प्रयत्न करने पर भी बहुतों को वे नहीं मिलते | मिल भी जाते है तो उनका किसी भी क्षण नाश हो सकता है | पहले नाश न भी हुए तो मरने के समय तो अवश्य ही छूट जाते है | ऐसे पदार्थो की प्राप्ति के लिए दुर्लभ मनुष्य-जीवन के सत्य, अहिंसा, दया, प्रेम, आस्तिकता,सोच, सन्तोष, सदाचार और ब्रहचर्य आदि रत्नों को लुटा देना बड़ा ही मारक मोह है | यदि यह कहा जाये की ‘हमारी तो और कोई इच्छा नहीं है, हमे तो भौतिक पदार्थो का संग्रह करके केवल लोकोपकार करना है’ तो यह कोई बुरी बात नहीं है | भौतिक पदार्थो कि प्राप्ति करके या दिन-रात उन्ही की प्राप्ति के साधनों में संलग्न रहकर यदि कोई पापो से बचा रह सके, अपने सद्गुणों को बचाये रखे और ईश्वर के लिए ह्रदय में सदा के लिए स्थान सुरक्षित रख सके तो बहुत ही अच्छी बात है | परन्तु ऐसा होना बहुत कठिन है ! भोग और भगवान का एक मन में साथ रहना तो असम्भव ही है | हाँ, यदि सारे भोग इश्वरार्थ समर्पित कर दिए जाये और भोगो का संग्रह भी उसी के लिए होता रहे तो यह दूसरी बात है | यही निष्काम कर्मयोग है | परन्तु यह बात कहने में जितनी सहज है, समझने और कार्यरूप में परिणत करने में वस्तुत: उतनी ही कठिन है |  

आज कितने ऐसे है जो इस भाव से संसार में कार्य करते है ? कितने ऐसे है जो यथार्थ आभ्यंतरिक  उन्नति का ख्याल कर रहे है ? संसार के सुखों की इच्छा  अभ्यांन्तरिक  उन्नति को दबा देती है | कामना से ज्ञान हरा जाता है | मोह से बुद्धि कुंठित हो जाती है | इसी से मनुष्य उन भोग्य पदार्थो की प्राप्ति में ही अपनी उन्नति समझ रहे है | इसीसे  हमे अपने प्रेम की सीमा इतनी संकुचित कर ली की आज जरा-जरा-से स्वार्थ के लिए एक-दुसरे का नाश करने में नहीं सकुचाते और मोहवश इसी को धर्म के नाम से पुकारते है और इसी को उन्नति मानते है | भगवान ने गीता के सौलवे अध्याय में आत्मा का पतन करने वाली आसुरी सम्पदा के लक्षणों का विस्तार से वर्णन किया है |..शेष अगले ब्लॉग में        
  
श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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Ram