Monday 4 March 2013

उन्नति का स्वरुप -11-


 

|| श्रीहरिः ||

आज की शुभ तिथि-पंचांग

फाल्गुन कृष्ण, सप्तमी, सोमवार, वि० स० २०६९

गत ब्लॉग से आगे.....आसुरी सम्पतिवाले मनुष्य जगत को आश्रयहीन, असत्य, ईश्वरहीन स्त्री-पुरुष के संयोग से ही उत्पन्न और भोगों के लिए ही बना हुआ बतलाते है | इस प्रकार के द्रष्टिकोण को लेकर वे दुष्ट-स्वभाव के, मन्द-बुद्धि, पराया अहित करने वाले, कूरकर्मी मनुष्य जगत का नाश करने के लिए उत्पन्न होते है | ढोंग, मान और घमण्ड से भरे हुए वे लोग कभी पूरी न होनेवाली कामनाओ की आश्रय लेकर मोहसे मिथ्या सिद्धांतो को ग्रहण कर संसार में भ्रष्टआचरण करने लगते है | विषय-भोगों में लगे हुए वे लोग बस, इतना ही आनन्द मानकर मृत्युकालपर्यन्त अनन्त प्रकार के विषयों की चिंता में लगे रहते है | सैकड़ो प्रकार की आशाकी फासियो में बंधे हुए, काम-क्रोध से ही जीवन का उद्देश्य समझने वाले वे लोग विषय-भोगो की प्राप्ति के लिए नानाप्रकार से अन्यायपूर्वक धनसंग्रह करने की चेष्टा में लगे रहते है | आज यह पैदा हो किया, कल उस मनोरथ की सिद्धि होगी | इतना धन तो मेरे पास हो गया, इतना और हो जायेगा | एक को तो आज मार डाला, शेष सत्रुओ को भी बिना मरे नहीं छोडूगा , मैं ही तो ईश्वर हूँ, मैं ही धन-ऐस्वर्य के भोग का अधिकारी हूँ | सारी सिद्धिया, शक्तियाँ और सुख मुझ में ही तो है | मैं बड़ा धनवान हूँ, मेरा बड़ा परिवार है, मेरी समता करने वा दूसरा कौन है ? मैं धन कमाकर नाम के लिए दान करूँगा, यज्ञ करूँगा और मौज उड़ाउंगा (गीता १६|८-१५) |              

इस तरह अपने-आपको ही सबसे श्रेष्ठ समझने वाले ऐसे अभिमानी मनुष्य धन और मान के मद से मत होकर दम्भसे मनमाने तौर पर नाम मात्र के लिए यज्ञ करते है | अहंकार, शरीर-बल, मानसिक दर्प, कामना, क्रोध आदि दुर्गुणों के परायण होकर वे परनिंदा करने वाले दुष्टलोग अपने और पराये सभी के शरीर में स्तिथ भगवान से द्वेष करते है (गीता १६| १७-१८) |..शेष अगले ब्लॉग में        

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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Ram