|| श्रीहरिः ||
आज की शुभ तिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण, अष्टमी, मंगलवार, वि० स० २०६९
गत ब्लॉग से
आगे.....छाती पर हाथ रख कर कहिये | इस बीसवी शताब्दी के उन्नत
मानव-समाज के हम लोगो के ह्रदय में उपर्युक्त आसुरी सम्पदा के कौन-से धन की कमी है
? जहाँ भोगो की लालसा होगी, वहाँ इस धन की
कमी रहेगी भी नहीं | इसलिये महात्माओ ने भोग की निन्दा का त्याग की महिमा गाई है |
इसिलये भारत के त्यागी महाऋषियो ने हिन्दुओ के चार आश्रमों में तीन प्रधान आश्रमों
( ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास) को त्यागपूर्ण बनाया है |
इस त्याग की भावना को तिलांजलि देकर भोगों में ही
उन्नति की इतिश्री समझनेवाले आसुरी सम्पति के मनुष्यों का पतन हो जाता है, वे अनेक
प्रकार से भ्रमित-चित हो मोहजाल में फस कर विषय-भोगों में ही आसक्त रहते है, जिसके
परिणाम में उन्हें अति अपवित्र नरक में गिरना पडता है (गीता १६ |१६) | भगवान कहते
है की सबके ह्रदय में स्तिथ अन्तर्यामी परमात्मा से द्वेष करने वाले उन पापी क्रूर नराधमो को में बारम्बार
आसुरी-योनिओं को प्राप्त होकर फिर उससे भी अति नीच गति को प्राप्त होते है, परन्तु
मुझको नहीं पा सकते (गीता १६ |१९-२०) |
अत एव हम लोगो को चाहिये की भौतिक उन्नति के यथार्थ
आसुरी-स्वरुप को भलीभाँती पहचान कर इसके मोह से शीघ्र अपने को मुक्त कर ले और
यथार्थ उन्नति के प्रयत्न में लगे | संसार में वह मनुष्य धन्य है जिसके धन, जन,
परिवार, कुटुम्ब, मान-प्रतिष्ठा, पद-गौरव आदि कुछ भी नहीं है, जो सब तरह से दींन,
हीन, घ्रणित और उपेक्षित है ; परन्तु जिसका अन्त:करण दैवी सम्पदा के दिव्य गुणों
से विभूषित है, जिसका मन परमात्मा के प्रेम में संलग्न है और जिसकी आत्मा परमात्मा
से मिलने को छटपटा रही है, ऐसी आत्मा एक ग्रामीण, राजनीतिशून्य, मूर्ख, चांडाल, जंगली
या कोढ़ी मनुष्य में भी रह सकती है,अत एव किसी के भी नाम-रूप को देखकर घ्रणा न करो,
पता नहीं उसके अन्दर तुमसे और तुम्हारी ऊँची-से-ऊँची कल्पना से भी बहुत ऊची आत्मा हो !
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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