|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल, तृतीया, गुरूवार, वि० स० २०६९
एक पत्र मिला जिसका सार यह है ‘एक
स्त्री ने ऐसा अपराध किया है जो पतिव्रतधर्म के सर्वथा प्रतिकूल है | यह सत्य है
की अपराध का मूल कारण अज्ञान या लोभ है और जहाँ तक अनुमान हैं, यह उसका पहला अपराध
है | अपराध बहुत बड़ा है | उस पर भविष्य में विश्वाश किया जा सकता है की नहीं | पति
घोर अशान्ति से पीड़ित है, वह क्या करे ? इसका क्या दण्ड या प्रायश्चित है ? क्या
यह स्त्री सर्वथा त्याज्य है ?’ इस विषय पर उन्होंने शीघ्र सम्मति चाही है | नहीं
तो डर है मानसिक अशान्ति के कारण वह और कुछ न कर बैठे |
‘वह कुछ और न कर बैठे’ इसी वाक्य को पढ़ कर इस विषय पर लिखना
कुछ आवश्यक समझा गया है | पत्र से अनुमान होता है की घटना चरित्र सम्बन्धी ही है |
घटना बड़ी ही दुखद: है, परन्तु ऐसी घटनाये आज के युग में बिरली ही नहीं होती | मेरी
समझ में इसमें प्रधान दोषी पुरुष है, जो अपनी बुरी वासना की तृप्ति के लिए भोली-भाली
स्त्रियों को कुमार्ग पर लाते है | सच्ची बात तो यह है की स्त्रियों को बुराई की
और खीचने वाले और लोभ आदि देकर उन्हें धर्म से डिगाने वाले ऐसे पुरुष जितने महान
पतित और दण्ड के पात्र हैं, उतनी स्त्रियाँ नहीं हैं | तथापि जिस बहिन से यह अपराध
हुआ है उसके पति को भयानक मानसिक पीड़ा होना स्वाभाविक है | उन भाई का यह कर्तव्य
है की वे आजकल की पुरुषजाति की नीचता की और ध्यान देकर और साथ ही यह सोचकर की पुरुषों
द्वारा ऐसे अपराध होने पर उनको हमलोग कितना दण्ड देते है, अपनी पत्नी को क्षमा कर
दे, उसका तिरस्कार न करे | न पाँच आदमियो में बदनामी करे, न निन्दा करे और अपने
चरित्र-सम्पन्न जीवन, पवित्र सदाचार और प्रेमपूर्ण सद्वव्यवहार से ऐसी स्थति उत्पन
कर दे जिससे पत्नी को अपनी भूल पर महान पश्चाताप हो | मेरी समझ में सच्चे पश्चाताप
से बढकर और कोई प्रायश्चित नहीं है | पश्चातापहीन दण्ड या प्रायश्चित पाप की जड
नहीं काट सकता | बल्कि देखा जाता है की दण्ड तो भूल से पाप करने वाले को बार-बार
क्लेश भुगताकर स्वाभाविक पापी बना देता है | इसलिए दण्ड न देकर ऐसा अच्छा बर्ताव
करना चाहिये, जिससे अपराधी के मन में आत्मग्लानी जाग उठे और वह पश्चाताप करे |
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
0 comments :
Post a Comment