|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण नवमी, बुधवार, वि०
स० २०६९
प्राचीन काल में सुर-मुनिसेवित कैलाश-शिखर पर महर्षि गौतम
का एक आश्रम था | वहाँ एक बार पाताललोक से जगदविजयी बाणासुर अपने कुलगुरु
शुक्राचार्य तथा अपने पूर्वज भक्तशिरोमणि प्रह्लाद, दानवीर बलि एवं दैत्यराज
वृषपर्वा के साथ आया और महर्षि गौतम के सम्मान्य अतिथि के रूप में रहने लगा | एक
दिन प्रात:काल वृषपर्वा शौच-स्नानादि नित्य कर्म से निवृत होकर भगवान शकर की पूजा
कर रहा था | इतने में ही महर्षि गौतम ऋषि का एक प्रिय शिष्य जिसका अन्वर्थ नाम
शंकरात्मा था और जो अवधूत के वेश में उन्मत की भाति विचरता था, विकराल रूप बनाये
वहाँ आ पंहुचा और वृषपर्वा तथा उसके सामने
रखी हुई शंकर की मूर्ती के बीच में आकर खड़ा हो गया | वृषपर्वाको उसका इसप्रकार का उद्धत-सा
व्यवहार देखकर बड़ा क्रोध आया | उसने जब देखा की वह किसी प्रकार नहीं मानता, तब
चुपके से तलवार निकाल कर उसका सिर धड़ से अलग कर दिया | जब महर्षि गौतम को यह संवाद
मिला, तब उनको बड़ा दुख हुआ; क्योकि
शंकरात्मा उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय था | उन्होंने उसके बिना जीवन
व्यर्थ समझा और देखते-देखते वृषपर्वा की आँखों के सामने योगबल से अपने प्राण त्याग दिये | उन्हें इस
प्रकार देहत्याग करते देखकर शुक्राचार्य से भी नहीं रहा गया, उन्होंने भी इसी
प्रकार अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया और उनकी देखा-देखि प्रह्लादआदि अन्य दैत्यों ने भी वैसा ही किया |
बात-की-बात में ऋषि के आश्रम में शिव-भक्तो की लाश का ढेर लग गया | यह करुणापूर्ण
दृश्य देखकर ऋषिपत्नी अहिल्या ह्रदयभेदी स्वर से आर्तनाद करने लगी | उनकी
क्र्न्धनध्वनी भक्तभयहारी भगवान भूतभावन के कानो तक पहुची और उनकी समाधी टूट गयी |
वे वायुवेग से महर्षि गौतम के आश्रम पर पहुँचे | इसी प्रकार गज की करुण पुकार
सुनकर एक बार भगवान चक्रपाणी भी वैकुण्ठ से पाँव-पियादे आतुर होकर दौड़ आये थे |
धन्य भक्तवत्सलता ! दैवयोग से ब्रह्माजी तथा विष्णु भगवान भी उस समय कैलाश में ही
उपस्थित थे | उन्हें भी कोतूहलवश शंकरजी अपने साथ लिवा लाये |
भगवान त्रिलोचन ने आश्रम में पहुच कर अपने कृपाकटाक्ष से ही
सबको बात-ही-बात में जिला दिया | तब वे सब खड़े होकर भगवान मृत्युंजय की स्तुति
करने लगे | भगवान शंकर ने महर्षि गौतम से कहा ‘हम तुम्हारे इस अलोकिक साहस एवं आदर्श
त्याग पर अत्यन्त प्रसन्न है, वर माँगो |’ महर्षि बोले ‘प्रभो ! आपने यहाँ पधार कर मुझे सदा के लिए
कृतार्थ कर दिया | इससे बढ़कर मेरे लिये और कौन-सी वस्तु प्रार्थनीय हो सकती है ?
मैंने आज सब कुछ पा लिया | मेरे भाग्य की आज देवता लोग भी सराहना करते है | यदि आप
मुझ पर प्रसन्न है तो मेरी एक प्रार्थना स्वीकार कीजिये | मैं चाहता हूँ आज आप
मेरे यहाँ प्रसाद ग्रहण करे |’
भगवान के भाव के भूखे है | उनकी प्रतिज्ञा है
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयछति |
तदहं भक्त्युप्रहतम्स्रामि
प्रय्तात्मन: || (गीता ९ | २६)
इसी भाव के वशीभूत होकर उन्होंने एक दिन
श्रीराम के रूप में सबरी के बेर और श्रीकृष्णरूप में सुदामा के तन्दुलो का भोग
लगाया था | उन्होंने महर्षि की अविचल एवं निश्चल प्रीति देखकर उनका निमत्रण तुरंत
स्वीकार कर लिया और साथ ही ब्रह्मा, विष्णु को भी महर्षि का आतीथय स्वीकार करने को
राजी कर लिया |....शेष
अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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