Saturday, 23 March 2013

होली और उस पर हमारा कर्तव्य -2-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

 फाल्गुन शुक्ल, एकादशी, रविवार, वि० स० २०६९

 
गत ब्लॉग से आगे ......होली का एक नाम ‘वासन्ती नवशस्येष्टि |’ इसका अर्थ ‘वसन्तमें पैदा होने वाले नए धानका ‘यज्ञ’ होता है, यह यज्ञ फाल्गुन शुक्ल  १५ को किया जाता है | इसका प्रचार भी शायद इसी लिए हुआ हो की ऋतु-परिवर्तन के प्राक्रतिक विकार यज्ञ के धुएं से नष्ट होकर गाँव-गाँव और नगर-नगर में एक साथ ही वायु की शुद्धि हो जाए | यज्ञ से बहुत से लाभ होते है |  पर यज्ञधूम  से वायुकी शुद्धि होना तो प्राय: सभी को मान्य है अथवा नया धान किसी देवता को अर्पण किये बिना नहीं खाना चाहिये, इसी शास्त्रोक्त हेतु को प्रत्यक्ष दिखलाने के लिए सारी जातिने एक दिन ऐसा रखा है जिस दिन देवताओं के लिए देश भर में धन से यज्ञ किया जाये | आजकल भी होलीके दिन जिस जगह काठ-कंडे इक्कठे करके उसमे आग लगायी जाती है, उस जगह को पहले साफ़ करते और पूजते है और सभी ग्रामवासी उसमे कुछ-न-कुछ होमते है, यह शायद उसी ‘नवशस्येष्टि’ का बिगड़ा हुआ रूप हो | सामुदायिक यज्ञ होनेसे अब भी सभी लोग उसके लिए पहले से होम की सामग्री घर-घरमें बनाने और आसानी से वहाँतक ले जाने के लिए माला गूँथकर रखते है |

इसके अतिरिक्त यह त्यौहारके साथ ऐतिहासिक, परमार्थिक और राष्ट्रीय तत्वों का भी सम्बन्ध मालूम होता है | शेष अगले ब्लॉग में ......   

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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Ram