|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण एकादशी, शुक्रवार, वि०
स० २०६९
गत ब्लॉग से
आगे.....उधर जब महर्षि ने देखा की उनका पूज्य अतिथिवर्ग स्नान करके सरोवर से नहीं लौटा
और मध्यान्ह बीता जा रहा है, तब वे बेचारे दौड़े आये और किसी प्रकार अनुनय-विनय
करके बड़ी मुश्किलसे सबको यहाँ लिवा लाये | तुरंत भोजन परोसा गया और लोग लगे
आनंदपूर्वक गौतमजी की मेहमानी खाने ! इसके अनन्तर हनुमानजी का गायन प्रारंभ हुआ |
भोलेबाबा उनके मनोहर संगीत को सुनकर ऐसे मस्त हो गए की उन्हें तन-मन की सुधि न रही
| उन्होंने धीरे-धीरे एक चरण हनुमानजी की अन्जली में रख दिया | और दुसरे चरण को उनके कन्धे, मुख, कन्ठ,
वृक्षस्थल, ह्रदय के मध्यभाग, उदरदेश तथा नाभि-मण्डल से स्पर्श कराते हुए मौज से
लेट गये | यह लीला देख कर विष्णु कहने लगे ‘आज हनुमानके सामान कोई सुकृति विश्व
में कोई नहीं है | जो चरण देवताओ को भी दुर्लभ हैं तथा वेदों के द्वारा अगम्य है,
उपनिषद भी जिन्हें प्रकाश नहीं कर सकते, जिन्हें योगीजन-चिरकाल तक विविध प्रकार के
साधन करके तथा व्रत उपवासादि से शरीर को सुखाकर क्षणभर के लिए भी अपने ह्रदयदेश
में स्थापित नहीं कर सकते, प्रधान-प्रधान मुनीश्वर सहस्त्र्कोटी सवत्सरपर्यन्त तप
करके भी जिन्हें प्राप्त नहीं कर सकते, उन चरणों को अपने समस्त अंगो पर धारण करने
का अनुपम सोभाग्य आज हनुमान को अनायास ही प्राप्त हो रहा है | मैंने भी हज़ारवर्ष
तक प्रतिदिन सहस्त्रो पद्योसे आपका भक्तिभावपूर्वक अर्चन किया, परन्तु यह सोभाग्य
आपने कभी प्रदान नहीं किया |
लोक में यह वार्ता प्रसिद्द है की नारायण शंकर के परम
प्रीति भाजन है, परन्तु आज हनुमान को देख कर मुझे इस बात पर सन्देह-सा होने लगा है
और हनुमान के प्रति ईर्ष्या-सी हो रही है |’ (६९ | २४७-२४८)
भगवान विष्णु के इन प्रेम-लपेटे अटपटे वचन सुनकर शंकर मन-ही-मन
मुस्कुराने लगे और बोले नारायण ! यह आप क्या कह रहे है ! आपसे बढकर मुझे कोई और
प्रिय हो सकता है ? औरों की तो बात ही क्या, पार्वती भी मुझे आपके समान प्रिय नहीं
है | (६९| २४९)
इतने में ही माता पार्वती भी वहाँ आ पहुँची | शंकर को बहुत
देरतक लौटते न देखकर उनके मन में स्त्रीसुलभ शंका हुई की कही स्वामी नाराज़ तो नहीं
हो गए है | वे दौड़ी हुई गौतम के आश्रम में पहुची | गौतम की मेहमानी में जो कमी थी
वह उनके आगमन से पूरी हो गयी | उन्होंने भी अपने पतिकी अनुमति लेकर महर्षि का
आतिथ्य स्वीकार किया और फिर शंकर के समीप आकर उनकी और विष्णु भगवान की प्रणयगोष्ठी
में सम्मिलित हो गयी | बात-ही-बातो में उन्होंने विनोद तथा प्रणयकोप में शंकरजी के
प्रति कुछ अवज्ञात्मक शब्द कहे और उनकी मुंडमाला, पनघभूषण, दिघव्स्त्रधारण,
भ्स्मानग्लेपन और वृषाभारोहण आदि का परिहास किया | आप शंकर की अवज्ञाको नहीं सह
सके और बोल उठे ‘देवी ! आप जगतपति शंकर के
प्रति यह क्या कह रही है ? मुझे आपके ये शब्द सहे नहीं जाते | जहाँ शिव निंदा होती
हो वहाँ हम प्राण धारण नहीं कर सकते यह हमारा व्रत है | यह कह कर वे शिव-गिरिजा के
सम्मुख ही नख के द्वारा अपना सिरछेदन करने को उद्धत हो गए | शंकर जी ने बड़ी कठिनाई
से उन्हें इस कार्य से रोका |
अहा ! कैसी अद्भुत लीला है ! एक बार रामावतार के समय शंकर
ने अपनी स्वामिनी का वेश धारण करने के अपराध में सतीशिरोमणि सती का परित्याग कर
दिया था | शिव की निन्दा करने वाले वैष्णवो और विष्णु की अवज्ञा करने वाले शैवो !
इन प्रसंगों को ध्यान पूर्वक पढो और व्यर्थ दुराग्रह छोड़ शिव-विष्णु की एकता के
रहस्य को समझने की चेष्टा करो | (पद्धपुराण, पतालखंड से)
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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