Friday, 1 March 2013

उन्नति का स्वरुप -8-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभ तिथि-पंचांग

फाल्गुन कृष्ण, चर्तुथी, शुक्रवार, वि० स० २०६९

 
गत ब्लॉग से आगे..... अभिजात्य प्रदर्शन सभ्यता की गरिमा है, स्वाभाविक हास्य को दबाकर केवल मुस्करा देना गौरव की बात है; अपने स्वाभाविक स्वरुप को छिपाकर व्यक्तित्वके सर्वोत्तम पक्ष को प्रस्तुत करना; हम जैसे है, उससे अपने की श्रेष्ठ प्रदर्शित करना; उससे अपने को श्रेष्ठ प्रदर्शित करना; अपने रूप, चाल-ढाल, तौर-तरीको और अपने धन को जिसे हमने गरीबों से छीना है, अच्छा समझना- यही सभ्यता है |

किसी गरीब अधनंगे व्यक्तिकी और से मुह फिरा लेना और नम्रतापूर्वक पूछे गए उसके प्रश्न का उत्तर न देना; यदि कोई अपरिचित व्यक्ति कुछ पूछ बैठे तो चूंकि कायदे से उसका परिचय नहीं कराया जा सकता, इसलिए बिना बोले उसकी आँखों में उदासीन भाव से देखना- यही अभिजात्य है, यही चलन (फैशन) है; बिना किसी शत्रुता के एक-दुसरे की हत्या कर देना यही- सभ्यता है |

आज पृथ्वी मनुष्य के रक्त से सन गयी है और उसके सुन्दर खेत मानव के अस्थिचूर्ण से भर उठे है | एक राष्ट्र की समृद्धि के लिए दुसरे राष्ट्र का विनाश आवश्यक है |

जिस उन्नति का यह स्वरुप है, वह क्या यथार्थ उन्नति है ? एक देश में रहने वाले मुसलमान हिन्दुओं को और हिन्दू मुसलमानों को फुसला-धमकाकर  अपने धर्म (?) में शामिल करने और एक-दुसरे को नाश करने की चेष्टा में लगे हुए है | क्या यही उन्नति का मार्ग है ? 

राग-द्वेष के विषवृक्ष को सीचते रहकर छोटे-छोटे  समूहों को ही अपना स्वरुप मानना तथा एक-दुसरे को अपना प्रतिद्ववंधी औत शत्रु समझकर सदा के लिए लड़ाई ठान लेना और मान-मर्यादा, धन-जनादीके संग्रह में ही अल्पकालस्थायी अमूल्य मानव-जीवन को खो देना वास्तव में उन्नति नहीं है ! ..शेष अगले ब्लॉग में   

 श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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Ram