|| श्रीहरिः ||
आज की शुभ तिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण, चर्तुथी, शुक्रवार, वि० स० २०६९
गत ब्लॉग से
आगे..... “अभिजात्य
प्रदर्शन सभ्यता की गरिमा है, स्वाभाविक हास्य को दबाकर केवल मुस्करा देना गौरव की
बात है; अपने स्वाभाविक स्वरुप को छिपाकर व्यक्तित्वके सर्वोत्तम पक्ष को प्रस्तुत
करना; हम जैसे है, उससे अपने की श्रेष्ठ प्रदर्शित करना; उससे अपने को श्रेष्ठ
प्रदर्शित करना; अपने रूप, चाल-ढाल, तौर-तरीको और अपने धन को जिसे हमने गरीबों से
छीना है, अच्छा समझना- यही सभ्यता है |
किसी गरीब अधनंगे व्यक्तिकी और से मुह फिरा लेना और
नम्रतापूर्वक पूछे गए उसके प्रश्न का उत्तर न देना; यदि कोई अपरिचित व्यक्ति कुछ
पूछ बैठे तो चूंकि कायदे से उसका परिचय नहीं कराया जा सकता, इसलिए बिना बोले उसकी
आँखों में उदासीन भाव से देखना- यही अभिजात्य है, यही चलन (फैशन) है; बिना किसी
शत्रुता के एक-दुसरे की हत्या कर देना यही- सभ्यता है |
आज पृथ्वी मनुष्य के रक्त से सन गयी है और उसके सुन्दर खेत
मानव के अस्थिचूर्ण से भर उठे है | एक राष्ट्र की समृद्धि के लिए दुसरे राष्ट्र का
विनाश आवश्यक है |
जिस उन्नति का यह स्वरुप है, वह क्या यथार्थ उन्नति है ? एक
देश में रहने वाले मुसलमान हिन्दुओं को और हिन्दू मुसलमानों को फुसला-धमकाकर अपने धर्म (?) में शामिल करने और एक-दुसरे को
नाश करने की चेष्टा में लगे हुए है | क्या यही उन्नति का मार्ग है ?
राग-द्वेष के विषवृक्ष को सीचते रहकर छोटे-छोटे समूहों को ही अपना स्वरुप मानना तथा एक-दुसरे
को अपना प्रतिद्ववंधी औत शत्रु समझकर सदा के लिए लड़ाई ठान लेना और मान-मर्यादा,
धन-जनादीके संग्रह में ही अल्पकालस्थायी अमूल्य मानव-जीवन को खो देना वास्तव में
उन्नति नहीं है ! ..शेष
अगले ब्लॉग में
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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