Saturday 2 March 2013

उन्नति का स्वरुप -9-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभ तिथि-पंचांग

फाल्गुन कृष्ण, पन्चमी, शनिवार, वि० स० २०६९
 

गत ब्लॉग से आगे.....आत्मा की उत्थान ही उन्नति है और आत्मा का पतन ही अवनति है | जिस साधन या क्रिया से आत्मा की उन्नति होती है, वही कार्य या साधन उन्नति का उपाय है और जिनसे आत्मा का पतन हो, वही अवनति के कारण है | दैवी सम्पति के सुरभित पुष्प जब ह्रदय में खिल उठते है, तभी मनुष्य की यथार्थ उन्नति होती है, तभी उसके अन्तस्थल से उठी हुई सुन्दर सुगन्ध बाहर भी चारो और फैल कर  सबको सुखी बनाती है | इसके विपरीत जब मनुष्य आसुरी सम्पति के कूड़े-कचरे  और मल से ह्रदय भर जाता है , तभी मनुष्य की अवनति समझी जाती है | ऐसे मनुष्य के ह्रदय में पापो की सडन पैदा होकर चारो और फैल जाती है और फिर वही बाहर निकल कर संक्रामक व्याधि की भाँती सबको आक्रान्त कर दुखी कर डालती है !

भौतिक पदार्थो की प्राप्ति-अप्राप्ति से आत्मा की अवनति-उन्नति का कोई खास-सम्बन्ध  नहीं है | यह सम्बन्ध तो अन्दर के भावो से है | एक मनुष्य झूठ बोलकर धन कमाता है और दूसरा असत्य का आश्रय लेकर धन कमाने की अपेक्षा दरिद्र रहना ही उत्तम समझता है | एक मनुष्य दम्भ रचकर मान-बड़ाई प्राप्त करता है और दूसरा सरलता से अपमान सहता हुआ अपना जीवन बिताता है | इनमे पहले दोनों उन्नति के मोह में आत्मा का पतन करते है | और दुसरे आत्मा की यथार्थ उन्नति करते है |  संसार के भोग्य पदार्थो के लिए अन्त:करण के सद्गुणों को नष्ट कर उनके स्थान  में दुर्गुणों को भर लेना ‘घर फूक कर तमाशा देखने’ से भी बढकर मूर्खता है | जिस घर में मनुष्य सुखपूर्वक निवास करता है, सर्दी-गर्मी से बचता है, उसी घर को यदि थोड़ी देर के मनोरंजन के लिए मूर्खतावश जलाकर भस्म कर दे और सदा के लिए निराश्रय हो जाए तो उससे बड़ा मूढ़ और कौन होगा; परन्तु जो लोग केवल थोड़े-से जीवन-काल के साथ रहनेवाले भौतिक पदार्थो के संग्रह के लिए ह्रदय के परम आश्रयरूप दैवी गुणों को वहाँ से निकाल दे, उनकी मूर्खता के सामने तो उपयुक्त मूढ़ भी बुद्धिमान ही समझा जायेगा |..शेष अगले ब्लॉग में         

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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Ram