Wednesday, 20 March 2013

भगवत प्रेम -२-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

 फाल्गुन शुक्ल, अष्टमी, बुधवार, वि० स० २०६९


गत ब्लॉग से आगे .....जिनको भगवान में प्रेम हो गया है और जो अपने उस परम प्रेमी के चिन्तनमें सदा चित को लगाये रखते है वे सारे त्रैलोक्यका वैभव मिलने पर भी आधे क्षण के लिए भी चित को प्रियतम के चिन्तन से नहीं हटाते | ऐसा भागवतकार कहते है |

जो भगवान के प्रेमी है, उन्हें यदि भगवतप्रेम के लिए नरकयंत्रणा भी भोगनी पड़े तो उसमे भी उन्हें भगवदइच्छा जानकार आनन्द ही होता है | उन्हें नरक-स्वर्ग या सुख-दुःख के साथ कोई सरोकार नहीं होता | वे तो जहाँ, जिस अवस्था में अपने प्रियतम भगवान की स्मृति रहती है, उसी में परम सुखी रहते है, इसीसे कुन्ती देवी ने दुःख का वरदान माँगा था |

भगवान के प्रमियों की दृष्टी में यह दुनिया इस रूप में नहीं रहती | उनके लिए सारी दुनिया ही बदल जाती है, उन्हें दीखता है सब कुछ भगवान का, सब कुछ भगवान और सब कुछ भगवान लीला | फिर वे किसमे, कहाँ और क्योंकर दुःख-सुख समझे |

गीता में भगवान कहते है ‘जो सर्वत्र मुझको देखता है और सबको मुझमे देखता है, उससे मैं अलग नहीं होता और वह मुझसे अलग नहीं होता |’       

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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Ram