|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल, नवमी, गुरुवार, वि० स० २०६९
हे राधे ! हे श्याम-प्रियतमे ! हम
हैं अतिशय पामर,
दीन ।
भोग-रागमय, काम-कलुषमय मन प्रपच-रत, नित्य मलीन ॥
चितम, दिव्य तुम्हारा दुर्लभ यह चिन्मय रसमय दरबार ।
ऋषि-मुनि-ज्ञानी-योगीका भी नहीं
यहाँ प्रवेश-अधिकार ॥
फिर हम जैसे पामर प्राणी कैसे इसमें
करें प्रवेश ।
मनके कुटिल, बनाये सुन्दर ऊपरसे प्रेमीका वेश ॥
पर राधे ! यह सुनो हमारी दैन्यभरी
अति करुण पुकार ।
पड़े एक कोनेमें जो हम देख सकें रसमय
दरबार ॥
अथवा जूती साफ करें, झाड़ू दें-सौंपो यह शुचि काम ।
रजकणके लगते ही होंगे नाश हमारे पाप
तमाम ॥
होगा दभ दूर, फिर पाकर कृपा तुम्हारीका कण-लेश ।
जिससे हम भी हो जायेंगे रहने लायक
तव पद-देश ॥
जैसे-तैसे हैं, पर स्वामिनि ! हैं हम सदा तुम्हारे दास ।
तुम्हीं दया कर दोष हरो, फिर दे दो निज पद-तलमें वास ॥
सहज दयामयि ! दीनवत्सला ! ऐसा करो
स्नेहका दान ।
जीवन-मधुप धन्य हो जिससे कर
पद-पङङ्कज-मधुका पान ॥
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, पदरत्नाकर पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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