Thursday, 21 March 2013

पदरत्नाकर १९- (राग वसन्त-ताल कहरवा)


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

 फाल्गुन शुक्ल,  नवमी, गुरुवार, वि० स० २०६९


हे राधे ! हे श्याम-प्रियतमे ! हम हैं अतिशय पामर, दीन ।

भोग-रागमय, काम-कलुषमय मन प्रपच-रत, नित्य मलीन ॥ 

चितम, दिव्य तुम्हारा दुर्लभ यह चिन्मय रसमय दरबार ।

ऋषि-मुनि-ज्ञानी-योगीका भी नहीं यहाँ प्रवेश-‌अधिकार ॥ 

फिर हम जैसे पामर प्राणी कैसे इसमें करें प्रवेश ।

मनके कुटिल, बनाये सुन्दर ऊपरसे प्रेमीका वेश ॥ 

पर राधे ! यह सुनो हमारी दैन्यभरी अति करुण पुकार ।

पड़े एक कोनेमें जो हम देख सकें रसमय दरबार ॥ 

अथवा जूती साफ करें, झाड़ू दें-सौंपो यह शुचि काम ।

रजकणके लगते ही होंगे नाश हमारे पाप तमाम ॥ 

होगा दभ दूर, फिर पाकर कृपा तुम्हारीका कण-लेश ।

जिससे हम भी हो जायेंगे रहने लायक तव पद-देश ॥ 

जैसे-तैसे हैं, पर स्वामिनि ! हैं हम सदा तुम्हारे दास ।

तुम्हीं दया कर दोष हरो, फिर दे दो निज पद-तलमें वास ॥ 

सहज दयामयि ! दीनवत्सला ! ऐसा करो स्नेहका दान ।

जीवन-मधुप धन्य हो जिससे कर पद-पङङ्कज-मधुका पान ॥ 

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, पदरत्नाकर पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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Ram