Saturday, 30 March 2013

हरिनाम का महत्व -२-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

चैत्र कृष्ण, तृतीया, शनिवार, वि० स० २०६९

 
गत ब्लॉग से आगे... धोबी से सोचा आची आफत आई, यह साधु क्या चाहते है ? न मालूम क्या हो जाए ? मेरे लिए हरिनाम न लेना ही अच्छा है | यह निश्चय करके उसने कहा ‘महाराज ! तुम लोगो को कुछ काम-काज तो है नहीं, इससे सभी कुछ कर सकते हो | हम गरीब आदमी मेहनत करके पेट भरते है | बताइये मैं कपडे धोऊ या हरिनाम लूँ |’

प्रभु ने कहा ‘धोबी ! यदि तुम दोनों काम एक साथ न कर सको तो तुम्हारे कपडे मुझे दो | मैं कपडे धोता हूँ | तुम हरि बोलो |’

इस बात को सुनकर भक्तों को और धोबी को बड़ा आश्चर्य हुआ | अब धोबी दे देखा इस साधु से तो पिण्ड छुटना बड़ा ही कठिन है | क्या किया जाय जो  भाग्य में होगा वही होगा - यह सोचकर प्रभु की और देखकर धोबी कहने लगा ‘साधु महाराज ! तुम्हे कपडे तो नहीं धोने पड़ेंगे ? जल्दी बताओ, मुझे क्या बोलना पड़ेगा, मैं वही बोलता हूँ |’ अबतक धोबी ने मुख ऊपर की और नहीं किया था | अबकी बार उसने कपडे धोने छोड़कर प्रभु की और देखकर उपर्युक्त शब्द कहे |

धोबी ने देखा साधु करुणाभरी दृष्टी से उसकी और देख रहे है और उनकी आँखों से आसुओं की धरा बह रही है  यह देखकर धोबी मुग्ध-सा होकर बोला, ‘कहो महाराज ! मैं क्या बोलू – ‘भाई ! बोलो ‘हरी बोल’ |’

धोबी बोला | प्रभु ने कहा धोबी ! फिर ‘हरी बोल’ बोलो, धोबी ने फिर कहा  हरी बोल | इस प्रकार धोबी ने प्रभुके अनुरोध से दो बार ‘हरिबोल’ , ‘हरी बोल’ कहा | तदन्तर वह अपने आपे में नहीं रहा और विहल हो उठा | बिलकुल इच्छा न होने पर भी ग्रहग्रस्त की तरह अपने आप ही ‘हरी बोल’ , ‘हरी बोल’ पुकारने लगा | ज्यो-ज्यो हरी बोल पुकारता है , त्यों-त्यों विहलता बढ़ रही है |पुकारते-पुकारते अंत में वह बेहोश हो गया | आँखों से हजारो-लाखों धाराए बहने लगी | वह दोनों भुजाये ऊपरको उठाकर ‘हरी बोल’, ‘हरी बोल’ पुकारता हुआ नाचने लगा | शेष अगले ब्लॉग में ....  

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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Ram