|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण, तृतीया, शनिवार, वि०
स० २०६९
गत ब्लॉग से आगे... धोबी से सोचा आची आफत आई, यह साधु
क्या चाहते है ? न मालूम क्या हो जाए ? मेरे लिए हरिनाम न लेना ही अच्छा है | यह
निश्चय करके उसने कहा ‘महाराज ! तुम लोगो को कुछ काम-काज तो है नहीं, इससे सभी कुछ
कर सकते हो | हम गरीब आदमी मेहनत करके पेट भरते है | बताइये मैं कपडे धोऊ या
हरिनाम लूँ |’
प्रभु ने कहा ‘धोबी ! यदि तुम दोनों काम एक साथ न कर सको तो
तुम्हारे कपडे मुझे दो | मैं कपडे धोता हूँ | तुम हरि बोलो |’
इस बात को सुनकर भक्तों को और धोबी को बड़ा आश्चर्य हुआ | अब
धोबी दे देखा इस साधु से तो पिण्ड छुटना बड़ा ही कठिन है | क्या किया जाय जो भाग्य में होगा वही होगा - यह सोचकर प्रभु की और
देखकर धोबी कहने लगा ‘साधु महाराज ! तुम्हे कपडे तो नहीं धोने पड़ेंगे ? जल्दी
बताओ, मुझे क्या बोलना पड़ेगा, मैं वही बोलता हूँ |’ अबतक धोबी ने मुख ऊपर की और
नहीं किया था | अबकी बार उसने कपडे धोने छोड़कर प्रभु की और देखकर उपर्युक्त शब्द
कहे |
धोबी ने देखा साधु करुणाभरी दृष्टी से उसकी और देख रहे है
और उनकी आँखों से आसुओं की धरा बह रही है
यह देखकर धोबी मुग्ध-सा होकर बोला, ‘कहो महाराज ! मैं क्या बोलू – ‘भाई !
बोलो ‘हरी बोल’ |’
धोबी बोला | प्रभु ने कहा धोबी ! फिर ‘हरी बोल’ बोलो, धोबी
ने फिर कहा हरी बोल | इस प्रकार धोबी ने
प्रभुके अनुरोध से दो बार ‘हरिबोल’ , ‘हरी बोल’ कहा | तदन्तर वह अपने आपे में नहीं
रहा और विहल हो उठा | बिलकुल इच्छा न होने पर भी ग्रहग्रस्त की तरह अपने आप ही
‘हरी बोल’ , ‘हरी बोल’ पुकारने लगा | ज्यो-ज्यो हरी बोल पुकारता है , त्यों-त्यों
विहलता बढ़ रही है |पुकारते-पुकारते अंत में वह बेहोश हो गया | आँखों से हजारो-लाखों
धाराए बहने लगी | वह दोनों भुजाये ऊपरको उठाकर ‘हरी बोल’, ‘हरी बोल’ पुकारता हुआ
नाचने लगा | शेष अगले ब्लॉग में ....
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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