Saturday, 20 April 2013

आनंद की लहरें -4-

|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल, नवमीशनिवारवि० स० २०७०


इस संसारमें सभी सरायके मुसाफिर हैं, थोड़ी देरके लिए एक जगह टिके हैं, सभीको समयपर यहाँसे चल देना है, घर-मकान किसीका नहीं है, फिर इनके लिए किसीसे लड़ना क्यों चाहिए ?


जगतमें जड़ कुछ भी नहीं है, हमारी जड़वृत्ति ही हमें जड़के  दर्शन करा रही है, असलमें तो जहाँ  देखो, वहीं वह परम सुखस्वरूप नित्य चेतन भरा हुआ है! तुम-हम कोई उससे भिन्न  नहीं! फिर दुःख क्यों पा रहे हो? सर्वदा-सर्वदा निजानन्दमें निमग्न रहो!



जहाँ गुणोंका साम्राज्य नहीं है वहीं चले जाओ! फिर निर्भय और निश्चिन्त हो जाओगे! ये गुण ही दु:खोंकी राशि हैं!   


पराये पापोंके प्रायश्चित्तकी चिन्ता न करो, पहले अपने पापोंका प्रायश्चित्त करो!


किसीके दोषोको देखकर उससे घृणा न करो और न उसका बुरा चाहो! यदि ऐसा न करोगे तो उसका दोष तो न मालूम कब दूर होगा; पर तुम्हारे अपने अंदर घृणा, क्रोध, द्वेष और हिंसाको अवश्य ही स्थान मिल जायगा! उसमे तो एक ही दोष था; परंतु तुममें चार दोष आ जायेंगे! हो सकता है, तुम्हारे और उसके दोषोंके नाम अलग-अलग हों! 

दूसरेके पापोंको प्रकाश करने के बदले सुहृद् बनकर उनको ढंको! सुई छेद करती है,
पर सूत  अपने शरीरका अंश देकर भी उस छेदको भर देता है! इसी प्रकार दूसरेके छिद्रोंको भर देनेके लिए अपना शरीर अर्पण कर दो, पर छिद्र न करो! धागा बनो सुई नहीं ! 



श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, आनंद की लहरें पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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Ram