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श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण, दशमी, शुक्रवार, वि० स० २०६९
मायाशक्ति अनिर्वचनीय है
गत ब्लॉग से आगे.... कोई-कोई परमात्मरूपा
महाशक्ति की इस मायाशक्ति को अनिर्वचनीय कहते है, सो भी ठीक ही है; क्योकि यह
शक्ति उस सर्वशक्तिमती महाशक्तिकी अपनी ही तो शक्ति है | जब वह अनिर्वचनीय है, तब
उसकी अपनी अनिर्वचनीय क्यों न होगी ?
मायाशक्ति और महाशक्ति
कोई-कोई कहते है कि इस मायाशक्तिका ही नाम महाशक्ति,
प्रकृति, विद्या, अविद्या, ज्ञान, अज्ञान आदि है, महाशक्ति पृथक वस्तु नहीं है |
सो उनका यह कथन भी एक दृष्टि से सत्य ही है; क्योकि महाशक्ति परमात्मरूपा
महाशक्तिकी ही शक्ति है और वही जीवों के बाधने के लिए अज्ञान या अविद्यारूप से और
उनकी बंधन-मुक्ति के लिये ज्ञान या विद्यारूपसे अपना स्वरुप प्रगट करती है, तब
इनसे भिन्न कैसे रही? हाँ, जो मायाशक्तिको ही शक्ति मानते वे तो माया के अधिष्ठान
ब्रह्म को ही अस्वीकार करते है, इस लिए वे अवश्य ही माया के चक्कर में पड़े हुए है
|
निर्गुण और सगुण
कोई इस परमात्मरूपा महाशक्ति को
निर्गुण कहते है और कोई सगुण | ये दोनों बाते भी ठीक है, क्योकि उस एक के ही ये दो
नाम है | जब मायाशक्ति क्रियाशील रहती है, तब उसका अधिष्ठान महाशक्ति सगुण कहलाती
है | और जब वह महाशक्ति में मिली रहती है, तब महाशक्ति निर्गुण है | इन अनिरवचनीया
परमात्मरूपा महाशक्तिमें परस्परविरोधी गुणों का नित्य सामजस्य है | वे जिस समय
निर्गुण है, उस समय भी उनमे गुणमयी मायाशक्ति छिपी हुई मौजूद है और जब वे सगुण
कहलाती है उस समय वे भी सगुण कहलाती है उस समय भी भी वे गुणमयी मायाशक्तिकी
अदीश्वरी और सर्वतन्त्रस्वतन्त्र होने से
वस्तुत: निर्गुण भी है, तात्पर्य की उनमे निर्गुण और सगुण दोनों लक्षण सभी
समय वर्तमान है | जो जिस भाव से उन्हें देखता है, उनका उनका वैसा ही रूप भान होता
है | असल में वे कैसी है , क्या है , इस बात को वाही जानती है |... शेष अगले
ब्लॉग में....
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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