Friday 10 May 2013

वर्णाश्रम धर्म -८-


       || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख शुक्ल १, (अहोरात्र),  शुक्रवार, वि० स० २०७०

सन्यासी के धर्म

गत ब्लॉग से आगे...सन्यासी को यदि वस्त्र धारण करने की आवश्यकता हो तो एक कौपीन और एक ऊपर से ओढने को बस, इतना ही वस्त्र रखे और आपत्काल को छोड़कर दण्ड और कमंडलु के अतिरिक्त और कोई वस्तु अपने पास न रखे | पहले देख कर पैर रखे, वस्त्र से छान कर जल पिए, सत्यपूत वाणी बोले और मन से भलीभाँती विचारकरकोई काम करे | मौन रूप वाणी का दण्ड, निष्क्रियतारूप शरीर का दण्ड और प्राणायामरूप मन का दण्ड ये तीनो दण्ड जिसके पास नहीं है, वह केवल बाँसका दण्ड ले लेने मात्र से (त्रिदण्डी) सन्यासी थोड़े ही हो जायेगा | जातिच्युत अथवा गोघातक आदि पतित लोगों को छोडकर चारो वर्ण की भिक्षा करे | अनिश्चित सात घरों से माँगे, उनमे जो कुछ भी मिल जाये, उसी से संतुस्ट रहे | बस्ती के बाहर जलाशय पर जाकर जल छिड़क कर स्थल-शुद्धि करे और समय पर कोई आ जाये तो उसको भी भाग देकर बचे हुए सम्पूर्ण अन्न को चुपचाप खा ले (आगे के लये बचा कर न रखे) | जितेन्द्रिय, अनासक्त, आत्माराम, आत्मप्रेमी, आत्मनिष्ठ और समदर्शी होकर अकेला ही पृथ्वीतल पर विचरे |     

मुनि को चाहिये की निर्भय और निर्जन देश में रहे और मेरी भक्ति से निर्मल चित होकर अपने आत्मा का मेरे साथ अभेद-पुर्वक चिन्तन करे | ज्ञाननिष्ठ होकर अपने आत्मा के बंधन और मोक्ष का इस प्रकार विचार करे की इन्द्रिय-चान्चाल्तय ही बंधन है और उनका संयम ही मोक्ष है | इसलिए मुनि को चाहिये की छहों इन्द्रियों (मन एवं पाँच ज्ञानेन्द्रियों) को जीत कर समस्त क्षुद्र कामनाओं का परीत्याग करके अन्त:करण में परमानन्द का अनुभव करके निरंतर मेरी ही भावना करता हुआ स्वछंद विचरे | भिक्षा भी अधिकतर वानप्रस्थियों के यहाँ से ही ले; क्योकि शिलोच्छ-वृति से प्राप्त हुए अन्न के खाने से बुद्धि शीघ्र ही शुद्ध चित और निर्मोह हो जाने से (जीवन-मुक्तिकी)  सिद्धि हो जाती है | इस नाशवान द्रश्य-प्रपन्न्च को कभी वास्तविक न समझे; इनमे अनाशक्त रह कर लौकिक और परलौकिक समस्त कामनाओं (काम्य-कर्मों) से उपराम हो जाय | मन वाणी और प्राण का संघातरूप यह सम्पूर्ण जगत मायामय ही है-ऐसे विचार द्वारा अंत:करण में निश्चय करके स्व-स्वरूप में स्तिथ हो जाय और फिर इसका स्मरण भी न करे |.... शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!     
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Ram