|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख शुक्ल, द्वितिया, रविवार, वि० स० २०७०
जिज्ञासु के कर्तव्य एवं सबके धर्म
गत ब्लॉग से आगे…(अब तक सिद्ध ज्ञानी के धर्म कहे, अब जिज्ञासु के कर्तव्य बताते है ) जिस
विचारवान को इन अत्यन्त दुखमय विषय-वासनाओं से वैराग्य हो गया है और मेरें
भागवत-धर्मों से जो अनभिग्य है, वह किन्ही ‘विरक्त’ मुनिवर को गुरु जानकर वह अति आदरपूर्वक भक्ति और श्रद्धा से तबतक उनकी
सेवा-श्रुश्नामें लगा रहे जबतक की उसको ब्रह्मज्ञान न हो जाए; तथा उनकी कभी किसी
से निंदा न करे | जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य-इन छ: शत्रुओं को
नहीं जीता, जिसके इन्द्रिय रुपी घोड़े अति प्रचंड हो रहे है, तथा जो ज्ञान और
वैराग्य से शून्य है, तथापि दण्ड-कमण्डलु से पेट पालता है, वह यति धर्म का घातक है और अपनी इन्द्रियों के
अधिष्ठाता देवताओं को, अपने को और अपने अंत:करण में स्तिथ मुझको ठगता है; वासना के
वशीभूत हुआ वह इस लोक और परलोक दोनों और से मारा जाता है |
सबके
धर्म
शान्ति और अहिंसा यति (सन्यासी) के मुख्य धर्म है, तप और
ईश्वर-चिन्तन वानप्रस्थ के धर्म है, प्राणियों की रक्षा और यज्ञ करना गृहस्थ के
मुख्य धर्म है तथा गुरु की सेवा ही ब्रह्मचारी का परम धर्म है | ऋतुगामी गृहस्थ के
लिए भी ब्रह्मचर्य, तप, शौच, संतोष और भूत-दया-ये आवश्यक धर्म है और मेरी उपासना
करना तो मनुष्यमात्र का परम धर्म है | इस प्रकार स्वधर्म-पालन के द्वारा जो
सम्पूर्ण प्राणियों में मेरी भावना रखता हुआ अनन्यभाव से मेरा भजन करता है, वः
शीघ्र ही मेरी विसुद्ध भक्ति पाता है | हे उद्धव ! मेरी अनपायिनी (जिसका कभी हास
नहीं होता, ऐसी) भक्ति के द्वारा वह सम्पूर्ण लोकों के स्वामी और सबकी उत्पति,
स्तिथी और लय आदि के कारण मुझ परब्रह्म को प्राप्त हो जाता है | इस प्रकार
स्वधर्म-पालन से जिसका अन्तकरण निर्मल हो गया है और जो मेरी गति को जान गया है,
ज्ञान-विज्ञान से संपन्न हुआ वह शीघ्र ही मुझको प्राप्त करलेता है |
वर्णाश्रमचारियों के धर्म, आचार और लक्षण ये ही है; इन्ही का यदि मेरी भक्ति के
सहित आचरण किया जाये तो ये परम नि:श्रेयस (मोक्ष) के कारण हो जाते है | हे साधो !
तुमने जो पुछा था की स्वधर्म का पालन भक्त किस प्रकार मुझको प्राप्त कर सकता है सो
सब मैंने तुमसे कह दिया | (भागवत, एकादश स्कन्द)
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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