|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख शुक्ल, षष्ठी, गुरूवार, वि० स० २०७०
सेवक में जब ये सात बाते होती है, तब सेवा सर्वांगसुन्दर तथा परम कल्याणकारिणी
होती है १. विश्वाश, २.पवित्रता, ३. गौरव, ४. संयम, ५.
शुश्र्ना, ६. प्रेम, और ७. मधुर भाषण |
इसका भाव यह है की सेवक को अपने तथा अपने सेवाकार्य में
विश्वास होना चाहिये | विश्वास हुए बिना जो सेवा होगी, वह ऊपर-ऊपर से होगी-दिखावे
मात्र होगी | सेवक के ह्रदय में विशुद्ध सेवा का पवित्र भाव होना चाहिये, वह किसी
बुरी वासना-कामना को मन में रखकर सेवा करेगा (जैसे इनको सेवा से सतुष्ट करके इनके
द्वारा अमुक शत्रु को मरवाना है, आदि) तो सेवा अपवित्र हो जाएगी और उसका फल अध्:पतन
होगा | जिसकी सेवा की जाय, उसमे गौरवबुद्धि
और पूज्य बुद्धि होनी चाहिये | अपने से
नीचा मान कर या केवल दया का पात्र मानकर अहंकारपूर्ण ह्रदय से जो सेवा होगी, उसमे
सेव्य का असम्मान, अपमान और तिरस्कार होने लगेगा, जिससे उसके मन में सेवक के प्रति
सद्भाव नहीं रहेगा और ऐसी सेवा को वह अपने लिए दुःख की वस्तु मानेगा| अत: सेवा का
महत्व ही नष्ट हो जायेगा | इसलिए कहा गया है जिसकी सेवा की जाय उसे भगवान मान कर
सेवा करे | सेवक की इन्द्रियाँ संयमित होनी चाहिये-मन, इन्द्रियों का गुलाम सच्ची
सेवा कभी नहीं कर सकेगा | जिसके मन में बार-बार विषय-सेवन की प्रबल लालसा होगी, वह
सेवा क्या कर सकेगा ? सेवक को सेवापरायण होना पड़ेगा | जो मनुष्य किसी सेवा को नीची
मान कर उसे करने में हिचकेगा, वह सेवा कैसे करेगा | सेवक में सेव्य तथा सेवा के
प्रति प्रेम होना चाहिये | प्रेम होने पर कोई भी सेवा भारी नहीं लगेगी तथा सेवा
करते समय आनन्द की अनुभूति होगी, जिससे
नया-नया उत्साह मिलेगा | और साथ ही सेवक को मीठा बोलने वाला होना चाहिये |
कटुभाषी सेवक की सेवा मर्माहत करती है और
मधुरभाषी की बड़ी प्रिय लगती है | मधुर भाषण स्वयं ही एक सेवा है |
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
0 comments :
Post a Comment