|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, तृतीया, सोमवार, वि० स० २०७०
गत ब्लॉग में ...५.
भक्त किसी ने द्वेष नहीं करता या किसी पर क्रोध नहीं करता | किससे करे ? किस पर
करे ? सारा जगत तो उसे स्वामी का स्वरुप दीखता है | शिवजी महाराज कहते है –
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध |
निज प्रभुमय देखहि जगत केहि सन करही बिरोध
||
भक्त विनय, नम्रता और प्रेम की मूर्ति होता है
|
६. भक्त किसी वस्तु
की कामना नहीं करता,उसे वह वस्तु प्राप्त है जिसके सामने सब कुछ तुच्छ है,तब वह किसकी कामना करे
और क्यों करे ? वस्तुत: प्रेम में कोई कामना रहती ही नहीं | प्रेम में देना है,
वहाँ लेने का कोई नाम ही नहीं है | यही काम और प्रेम
का बड़ा भरी भेद है | काम में प्रेमास्पद के द्वारा अपने सुख की चाह है
और प्रेम में अपने द्वारा प्रेमास्पद को सुखी बनाने की उत्कट इच्छा है | उसके लिए
वही सबसे बड़ा सुख है, जिससे उसके प्रेमास्पद को सुख मिले, चाहे वह अपने लिये कितने
ही भयानक कष्ट का कारण हो | प्रेमास्पद के सुख को देख कर प्रेमी की भयानक पीड़ा
तुरंत महान सुख के रूप में परिणत हो जाती है | अत एव भगवान का भक्त कभी कामी नहीं
होता, वह तो चातक की भातीं मेघ रूप भगवान की और सदा एकटक दृष्टि से निहारा करता है
| बदल यदि न बरसे या जल के बदले ओले बरसावे, तो भी वह प्रेम के नेम का पक्का पपीहा उधर से मुँह नही
मोड़ता |
रटत रटत रसना लटी तृषा सूखि गये अंग |
‘तुलसी’ चातक प्रेम को, नित नूतन रूचि रंग ||
बरषि परुष पाहन पयद, पंख करे टुक टुक |
‘तुलसी’ परी न चाहिये, चतुर चातकहि चूक ||
यही दशा भक्त की है |... शेष अगले ब्लॉग में .
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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