Monday, 27 May 2013

भक्त के लक्षण -५-


        || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, तृतीया, सोमवार, वि० स० २०७०

 
गत ब्लॉग में ...५. भक्त किसी ने द्वेष नहीं करता या किसी पर क्रोध नहीं करता | किससे करे ? किस पर करे ? सारा जगत तो उसे स्वामी का स्वरुप दीखता है | शिवजी महाराज कहते है –

उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध |
निज प्रभुमय देखहि जगत केहि सन करही बिरोध ||

  भक्त विनय, नम्रता और प्रेम की मूर्ति होता है |

६. भक्त किसी वस्तु की कामना नहीं करता,उसे वह वस्तु प्राप्त है जिसके सामने सब कुछ तुच्छ है,तब व किसकी कामना करे और क्यों करे ? वस्तुत: प्रेम में कोई कामना रहती ही नहीं | प्रेम में देना है, वहाँ लेने का कोई नाम ही नहीं है | यही काम और प्रेम का बड़ा भरी भेद है | काम में प्रेमास्पद के द्वारा अपने सुख की चाह है और प्रेम में अपने द्वारा प्रेमास्पद को सुखी बनाने की उत्कट इच्छा है | उसके लिए वही सबसे बड़ा सुख है, जिससे उसके प्रेमास्पद को सुख मिले, चाहे वह अपने लिये कितने ही भयानक कष्ट का कारण हो | प्रेमास्पद के सुख को देख कर प्रेमी की भयानक पीड़ा तुरंत महान सुख के रूप में परिणत हो जाती है | अत एव भगवान का भक्त कभी कामी नहीं होता, वह तो चातक की भातीं मेघ रूप भगवान की और सदा एकटक दृष्टि से निहारा करता है | बदल यदि न बरसे या जल के बदले ओले बरसावे, तो भी व प्रेम के नेम का पक्का पपीहा उधर से मुँह नही मोड़ता |

रटत रटत रसना लटी तृषा सूखि गये अंग |
‘तुलसी’ चातक प्रेम को, नित नूतन रूचि रंग ||

बरषि परुष पाहन पयद, पंख करे टुक टुक |
‘तुलसी’ परी न चाहिये, चतुर चातकहि चूक ||

 यही दशा भक्त की है |... शेष अगले ब्लॉग में .

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!     
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Ram