|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैसाख कृष्ण, वरूथिनी एकादशी (स्मार्त), शुक्रवार, वि० स० २०७०
ब्रह्मचारी के धर्म
गत ब्लॉग से आगे ..ग्रहस्थाश्रम में न जानेवाला ब्रह्मचारी स्त्रियों का
दर्शन, स्पर्श, उनसे वार्तालाप तथा हँसी-मसखरी आदि कभी न करे तथा न किसी भी
नर-मादा प्राणियों को विषय-रत होते दूर से भी देखे |
हे यदुकूलनंदन ! शौच, आचमन, स्नान, संध्योपासना, सरलता,
तीर्थसेवन, जप, अस्प्रश्य, अभक्ष्य और आवच्य का त्याग; समस्त प्राणियों में मुझे
देखना तथा मन, वाणी और शरीर-संयम ये धर्म सभी आश्रमों के है | इस प्रकार नैष्ठीक ब्रह्मचर्य का पालन करने
वाला अग्नि के समान तेजस्वी होता है | तीव्र तप के द्वारा उसकी कर्म-वासना दग्ध हो
जाने के कारण चित निर्मल हो जाने से वह मेरा भक्त हो जाता है और अंत में मेरे परम
पद को प्राप्त होता है |
यदि अपने इच्छित शास्त्रों का अध्ययन समाप्त कर चुकने पर
गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की इच्छा हो तो गुरु को दक्षिणा देकर उनकी अनुमति से
स्नान आदि करे अर्थात समावर्तन-संस्कार करके ब्रह्मचर्य-आश्रम के उपरान्त ग्रहस्थ
अथवा वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश करे अथवा विरक्त हो तो संन्यास ले ले | इस प्रकार
एक आश्रम को छोड़कर एनी आश्रम को अवश्य ग्रहण करे; मेरा भक्त होकर अन्यथा आचरण कभी
न करे अर्थात निराश्रम रहकर स्वछंद व्यवहार में प्रवृत न हो |.. शेष अगले ब्लॉग
में ...
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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