आज की शुभतिथि-पंचांग
वैसाख कृष्ण, त्रयोदशी, मंगलवार,
वि० स० २०७०
गृहस्थ के धर्म
गत ब्लॉग से आगे...जिस ब्राह्मण को अधिक अर्थकष्ट हो, वह या तो वणिक्-वृतिके द्वारा व्यापार
आदि से उसको पार करे अथवा खडगधारण पूर्वक क्षत्रिय-वृति का अवलंबन करे; लेकिन किसी
भी दशा में नीच-सेवा रूप श्र्व-वृति का आश्रय न ले | क्षत्रिय को यदि दारिद्रय से
कष्ट हो तो या तो वैश्यवृति या मृगया (शिकार) और या ब्राह्मणवृति (पढ़ाने) से
कालयापन करे किन्तु नीच-सेवा का आश्रय कभी न ले | इसी प्रकार आपतिग्रस्त वैश्य
शूद्रवृति रूप सेवा का और शूद्रप्रतिलोम (उच्च वर्ण की स्त्री में नीच वर्ण के
पुरुष से उत्पन्न ) जाती के कारू (धुना) आदि की चटाई आदि बुनने की वृतिका आश्रय ले
| (ये सब विधान आपतकाल के लिए ही है ) | आपति से मुक्त होने पर लोभ पूर्वक नीचवृति
का आवलंबन कोई न करे |
गृहस्थ पुरुष को चाहिये की वेदाध्यन्न, स्वधा(पितृ यज्ञ),
बलिवैस्व्देव तथा अन्न-दानादि के द्वारा मेरे ही रूप देव, ऋषि, पितर और अन्य समस्त
प्राणियों की यथाशक्ति पूजा करता रहे | स्वयं प्राप्त अथवा शुद्ध वृति के द्वारा
उपार्जित धन से तथा अपने द्वारा जिनका भरण-पोषण होता हो, उन लोगो को कष्ट न
पहुचाकर न्याय-पूर्वक यज्ञादि शुभ कर्म करता रहे | अपने कुटुम्ब में ही आसक्त न
हो जाय, बड़ा कुटुम्बी होकर प्रमादवश भगवद-भजन को न भुलाये | बुद्धिमान विवेकी
को उचित है की प्रयत्क्ष प्रपंच के सामान स्वर्गादी को भी नाशवान जाने | यह
पुत्र-स्त्री-कुटुम्ब आदि का संयोग मार्ग में चलने वाले पथिकों के संयोग के सामान
आगमापायी है | निंद्रावश होने पर स्वप्न के समान जन्म-जन्मान्तर में ऐसे नाना
संयोग-वियोग होते रहते है | ऐसा विचार करके मुमुक्षु पुरुष को चाहिये की घर में
अतिथि के समान ममता और अहंकार से रहित होकर रहे, असक्तिव्श उसमे लिप्त न हो जाये |
गृह्स्थोचित कर्मो के द्वारा मेरा यजन करता हुआ मेरी भक्ति
से युक्त होकर चाहे घर में रहे, चाहे वानप्रस्थ होकर वन में बसे अथवा पुत्रवान हो
तो (स्त्री के पालन-पोषण का भार पुत्र को सौपकर) सन्यास ले ले | किन्तु जो गृह में
आसक्त है, पुत्रैश्ना और वितैष्णा से व्याकुल है, स्त्री-लम्पट, लोभी और मंदमति
है, वह मूढ़ ‘मै’ और ‘मेरा’ इस मोह बन्धन में बंध जाता है | वह सोचता है ‘अहो !
मेरे माता-पिता बूढ़े है, स्त्री बाला (छोटी अवस्था की) है, बाल-बच्चे है; मेरे
बिना ये अति दीन, अनाथ और दुखी होकर कैसे जियेंगे? इस प्रकार गृहासक्ति से विक्षिप्त-चित
हुआ यह मूढ़-बुद्धि विषय भोगो से कभी तृप्त नहीं होती और इसी चिंता में पड़ा रह कर
एक दिन घोर-अन्धकार में पडता है |.... शेष अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक
से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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