श्रीरामचरितमानस
बालकाण्ड
प्रथम
सोपान-मंगलाचरण
श्लोक
:
*
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां
च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥
भावार्थ:-अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और
मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना करता हूँ॥1॥
*
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां
विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥
भावार्थ:-श्रद्धा
और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥2॥
*
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो
हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
भावार्थ:-ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ,
जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥
*
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे
विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥4॥
भावार्थ:-श्री
सीतारामजी के गुणसमूह रूपी पवित्र वन में विहार करने वाले, विशुद्ध विज्ञान सम्पन्न कवीश्वर श्री वाल्मीकिजी और कपीश्वर श्री
हनुमानजी की मैं वन्दना करता हूँ॥4॥
*
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं
सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥
भावार्थ:-उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करने वाली, क्लेशों को हरने
वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों को करने वाली श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री
सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥5॥
*
यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव
भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव
हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं
तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥6॥
भावार्थ:-जिनकी
माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं,
जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य जगत्
सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के
लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से पर (सब कारणों के
कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहलाने वाले भगवान हरि की मैं वंदना करता हूँ॥6॥
*
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे
निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय
तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति॥7॥
भावार्थ:-अनेक
पुराण,
वेद और (तंत्र) शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और
कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख
के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है॥7॥
सोरठा
:
*
जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ
अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥
भावार्थ:-जिन्हें
स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी
और सुंदर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ
गुणों के धाम (श्री गणेशजी) मुझ पर कृपा करें॥1॥
*
मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन।
जासु
कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन॥2॥
भावार्थ:-जिनकी
कृपा से गूँगा बहुत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर
चढ़ जाता है,
वे कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयालु (भगवान) मुझ पर
द्रवित हों (दया करें)॥2॥
*
नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
करउ
सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥3॥
भावार्थ:-जो
नीलकमल के समान श्यामवर्ण हैं, पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान
जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीरसागर पर शयन करते हैं, वे
भगवान् (नारायण) मेरे हृदय में निवास करें॥3॥
*
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि
दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥
भावार्थ:-जिनका
कुंद के पुष्प और चन्द्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो
पार्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करने वाले (शंकरजी) मुझ पर कृपा करें॥4॥
गुरु
वंदना
*
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह
तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
भावार्थ:-मैं
उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र
और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने
के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥
चौपाई
:
*
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ
मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
भावार्थ:-मैं
गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि
(सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह
अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव
रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥
*
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन
मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥
भावार्थ:-वह
रज सुकृति (पुण्यवान् पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और
सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी
सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में
करने वाली है॥2॥
*
श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन
मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
भावार्थ:-श्री
गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश
अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में
आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥
*
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं
राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥
भावार्थ:-उसके
हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के
दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई
पड़ने लगते हैं-॥4॥
दोहा
:
*
जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक
देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
भावार्थ:-जैसे
सिद्धांजन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान
पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत सी खानें
देखते हैं॥1॥
चौपाई
:
*
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं
करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
भावार्थ:-श्री
गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों
को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता
हूँ॥1॥
ब्राह्मण-संत
वंदना
*
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन
समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥
भावार्थ:-पहले
पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान
संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ॥2॥
*
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो
सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥
भावार्थ:-संतों
का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल
नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है,
संत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे
वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है, संत
का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए
वह विशद है और कपास में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संत
का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है, इसलिए वह गुणमय
है।) (जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने
का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता
है, उसी प्रकार) संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों
(दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश
प्राप्त किया है॥3॥
*
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम
भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥
भावार्थ:-संतों
का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज
(प्रयाग) है। जहाँ (उस संत समाज रूपी प्रयागराज में) राम भक्ति रूपी गंगाजी की
धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं॥4॥
*
बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि
हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5॥
भावार्थ:-विधि
और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली
सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान विष्णु और शंकरजी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से
सुशोभित हैं,
जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देने वाली हैं॥5॥
*
बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि
सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥
भावार्थ:-(उस
संत समाज रूपी प्रयाग में) अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (संत
समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही
में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है॥6॥
*
अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥7॥
भावार्थ:-वह
तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देने वाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥7॥
दोहा
:
*
सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं
चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥
भावार्थ:-जो
मनुष्य इस संत समाज रूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और
फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते
ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों फल पा जाते हैं॥2॥
चौपाई
:
*
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि
आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥
भावार्थ:-इस
तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और
बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की
महिमा छिपी नहीं है॥1॥
*
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर
थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥
भावार्थ:-वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तांत)
कही है। जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में
विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं॥2॥
*
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो
जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥
भावार्थ:-उनमें
से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति
(ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना
चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥
*
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत
मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
भावार्थ:-सत्संग
के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता
नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है
और सब साधन तो फूल है॥4॥
*
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि
बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥
भावार्थ:-दुष्ट
भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा
सुहावना हो जाता है (सुंदर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग
से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी
साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात् जिस प्रकार साँप
का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को
नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर
भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई
प्रभाव नहीं पड़ता।)॥5॥
*
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो
मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥
भावार्थ:-ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों
की वाणी भी संत महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, वह
मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले
से मणियों के गुण समूह नहीं कहे जा सकते॥6॥
दोहा
:
*
बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि
गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥
भावार्थ:-मैं
संतों को प्रणाम करता हूँ,
जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र
है और न शत्रु! जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और
जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत
शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।)॥3 (क)॥
*
संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय
सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)
भावार्थ:-संत
सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और
स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को
सुनकर कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 3 (ख)॥
खल
वंदना
चौपाई
:
*
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर
हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥1॥
भावार्थ:-अब
मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन,
अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की
हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने
में हर्ष और बसने में विषाद होता है॥1॥
*
हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे
पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥2॥
भावार्थ:-जो
हरि और हर के यश रूपी पूर्णिमा के चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं (अर्थात जहाँ
कहीं भगवान विष्णु या शंकर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे
बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों
के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित रूपी घी के लिए जिनका मन
मक्खी के समान है (अर्थात् जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और
स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के
बने-बनाए काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं)॥2॥
*तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय
केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥3॥
भावार्थ:-जो
तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी
बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल तारे) के समान है और जिनके
कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है॥3॥
*
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउँ
खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥4॥
भावार्थ:-जैसे
ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों
का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुख
वाले) शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों
का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं॥4॥
*
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
बहुरि
सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥5॥
भावार्थ:-पुनः
उनको राजा पृथु (जिन्होंने भगवान का यश सुनने के लिए दस हजार कान माँगे थे) के
समान जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानों से दूसरों के
पापों को सुनते हैं। फिर इन्द्र के समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा (मदिरा) नीकी और हितकारी मालूम देती है (इन्द्र के लिए भी
सुरानीक अर्थात् देवताओं की सेना हितकारी है)॥5॥
*
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥6॥
भावार्थ:-जिनको
कठोर वचन रूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखों से दूसरों के दोषों को
देखते हैं॥6॥
दोहा
:
*
उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि
पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥
भावार्थ:-दुष्टों
की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह जन
प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है॥4॥
चौपाई
:
*
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस
पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥1॥
भावार्थ:-मैंने
अपनी ओर से विनती की है,
परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे। कौओं को बड़े प्रेम से
पालिए, परन्तु वे क्या कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं?॥1॥
संत-असंत
वंदना
*
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत
एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥
भावार्थ:-अब
मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही
दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह
अंतर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते
हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात् संतों का बिछुड़ना
मरने के समान दुःखदायी होता है और असंतों का मिलना।)॥2॥
*
उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा
सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥3॥
भावार्थ:-दोनों
(संत और असंत) जगत में एक साथ पैदा होते हैं, पर (एक साथ पैदा
होने वाले) कमल और जोंक की तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। (कमल दर्शन और स्पर्श
से सुख देता है, किन्तु जोंक शरीर का स्पर्श पाते ही रक्त
चूसने लगती है।) साधु अमृत के समान (मृत्यु रूपी संसार से उबारने वाला) और असाधु
मदिरा के समान (मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करने वाला) है,
दोनों को उत्पन्न करने वाला जगत रूपी अगाध समुद्र एक ही है। (शास्त्रों
में समुद्रमन्थन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गई है।)॥3॥
*भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा
सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥
गुन
अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥
भावार्थ:-भले
और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात् कर्मनाशा और
हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं,
किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता
है॥4-5॥
दोहा
:
*
भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा
सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥
भावार्थ:-भला
भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किए रहता है। अमृत की सराहना अमर
करने में होती है और विष की मारने में॥5॥
चौपाई
:
*
खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि
तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥1॥
भावार्थ:-दुष्टों
के पापों और अवगुणों की और साधुओं के गुणों की कथाएँ- दोनों ही अपार और अथाह
समुद्र हैं। इसी से कुछ गुण और दोषों का वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता॥1॥
*
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं
बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥2॥
भावार्थ:-भले-बुरे
सभी ब्रह्मा के पैदा किए हुए हैं, पर गुण और दोषों को विचार कर
वेदों ने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण
कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है॥2॥
*
दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव
देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥3॥
माया
ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी
मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥4॥
सरग
नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥5॥
भावार्थ:-दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु,
सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन
(सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर,
सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा,
ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।) वेद-शास्त्रों
ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है॥3-5॥
दोहा
:
*
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत
हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
भावार्थ:-विधाता
ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी
हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥6॥
चौपाई
:
*
अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल
सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥
भावार्थ:-विधाता
जब इस प्रकार का (हंस का सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर
मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु)
भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं॥1॥
*
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ
करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥2॥
भावार्थ:-भगवान
के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते
हैं,
वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥2॥
*
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं
अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥
भावार्थ:-जो
(वेषधारी) ठग हैं,
उन्हें भी अच्छा (साधु का सा) वेष बनाए देखकर वेष के प्रताप से जगत
पूजता है, परन्तु एक न एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं,
अंत तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि,
रावण और राहु का हाल हुआ ॥3॥
*
किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
हानि
कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥4॥
भावार्थ:-बुरा
वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत में
जाम्बवान् और हनुमान्जी का हुआ। बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है,
यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं॥4॥
*
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु
असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥5॥
भावार्थ:-पवन
के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग
से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु
के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं॥5॥
*
धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
सोइ
जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥6॥
भावार्थ:-कुसंग
के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर
स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है और वही धुआँ जल, अग्नि
और पवन के संग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बन जाता है॥6॥
दोहा
:
*
ग्रह भेजष जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं
कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7 (क)॥
भावार्थ:-ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र- ये
सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार में बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं
विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं॥7 (क)॥
*
सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि
सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7 (ख)॥
भावार्थ:-महीने
के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है (एक का नाम शुक्ल और दूसरे
का नाम कृष्ण रख दिया)। एक को चन्द्रमा का बढ़ाने वाला और दूसरे को उसका घटाने
वाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया॥7 (ख)॥
रामरूप
से जीवमात्र की वंदना :
*
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
बंदउँ
सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥7(ग)॥
भावार्थ:-जगत
में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके
चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ॥7 (ग)॥
*
देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
बंदउँ
किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥7 (घ)
भावार्थ:-देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ।
अब सब मुझ पर कृपा कीजिए॥7 (घ)॥
चौपाई
:
*
आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय
राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥1॥
भावार्थ:-चौरासी
लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी
और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री
सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ॥1॥
तुलसीदासजी
की दीनता और राम भक्तिमयी कविता की महिमा
*
जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥
निज
बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाहीं॥2॥
भावार्थ:-मुझको
अपना दास जानकर कृपा की खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिए। मुझे अपने
बुद्धि-बल का भरोसा नहीं है, इसीलिए मैं सबसे विनती करता
हूँ॥2॥
*
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
सूझ
न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राउ॥3॥
भावार्थ:-मैं
श्री रघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी
बुद्धि छोटी है और श्री रामजी का चरित्र अथाह है। इसके लिए मुझे उपाय का एक भी अंग
अर्थात् कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं,
किन्तु मनोरथ राजा है॥3॥
*
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं
सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥4॥
भावार्थ:-मेरी
बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमृत
पाने की है, पर जगत में जुड़ती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी
ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेंगे॥4॥
*
जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
हँसिहहिं
कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥5॥
भावार्थ:-जैसे
बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-पिता उन्हें
प्रसन्न मन से सुनते हैं, किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचार वाले लोग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण
किए रहते हैं (अर्थात् जिन्हें पराए दोष ही प्यारे लगते हैं), हँसेंगे॥5॥
*
निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
जे
पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥6॥
भावार्थ:-रसीली
हो या अत्यन्त फीकी,
अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्तु जो
दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष
जगत में बहुत नहीं हैं॥6॥
*
जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई॥
सज्जन
सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥7॥
भावार्थ:-हे
भाई! जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात् अपनी ही उन्नति से
प्रसन्न होते हैं)। समुद्र सा तो कोई एक बिरला ही सज्जन होता है, जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है॥7॥
दोहा
:
*
भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं
सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥8॥
भावार्थ:-मेरा
भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परन्तु मुझे एक विश्वास
है कि इसे सुनकर सज्जन सभी सुख पावेंगे और दुष्ट हँसी उड़ावेंगे॥8॥
चौपाई
:
*
खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
हंसहि
बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥1॥
भावार्थ:-किन्तु
दुष्टों के हँसने से मेरा हित ही होगा। मधुर कण्ठ वाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा
करते हैं। जैसे बगुले हंस को और मेंढक पपीहे को हँसते हैं, वैसे ही मलिन मन वाले दुष्ट निर्मल वाणी को हँसते हैं॥1॥
*
कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
भाषा
भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जो हँसें नहिं खोरी॥2॥
भावार्थ:-जो
न तो कविता के रसिक हैं और न जिनका श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम है, उनके लिए भी यह कविता सुखद हास्यरस का काम देगी। प्रथम तो यह भाषा की रचना
है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है, इससे
यह हँसने के योग्य ही है, हँसने में उन्हें कोई दोष नहीं॥2॥
*
प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी॥
हरि
हर पद रति मति न कुतर की। तिन्ह कहँ मधुर कथा रघुबर की॥3॥
भावार्थ:-जिन्हें
न तो प्रभु के चरणों में प्रेम है और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी। जिनकी श्री हरि (भगवान विष्णु) और श्री
हर (भगवान शिव) के चरणों में प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करने वाली नहीं है
(जो श्री हरि-हर में भेद की या ऊँच-नीच की कल्पना नहीं करते), उन्हें श्री रघुनाथजी की यह कथा मीठी लगेगी॥3॥
*
राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि
न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥4॥
भावार्थ:-सज्जनगण
इस कथा को अपने जी में श्री रामजी की भक्ति से भूषित जानकर सुंदर वाणी से सराहना
करते हुए सुनेंगे। मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में
ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ॥4॥
*
आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
भाव
भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥5॥
भावार्थ:-नाना
प्रकार के अक्षर,
अर्थ और अलंकार, अनेक प्रकार की छंद रचना,
भावों और रसों के अपार भेद और कविता के भाँति-भाँति के गुण-दोष होते
हैं॥5॥
*
कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥6॥
भावार्थ:-इनमें
से काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर (शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूँ॥6॥
दोहा
:
*
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो
बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक॥9॥
भावार्थ:-मेरी
रचना सब गुणों से रहित है,
इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है। उसे
विचारकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान है,
इसको सुनेंगे॥9॥
चौपाई
:
*
एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मंगल
भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥1॥
भावार्थ:-इसमें
श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों
को हरने वाला है, जिसे पार्वतीजी सहित भगवान शिवजी सदा जपा
करते हैं॥1॥
*
भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोउ॥
बिधुबदनी
सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी॥2॥
भावार्थ:-जो
अच्छे कवि के द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी राम
नाम के बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चन्द्रमा के समान मुख वाली सुंदर स्त्री सब
प्रकार से सुसज्जित होने पर भी वस्त्र के बिना शोभा नहीं देती॥2॥
*सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥
सादर
कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥3॥
भावार्थ:-इसके
विपरीत,
कुकवि की रची हुई सब गुणों से रहित कविता को भी, राम के नाम एवं यश से अंकित जानकर, बुद्धिमान लोग
आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं, क्योंकि संतजन भौंरे की भाँति
गुण ही को ग्रहण करने वाले होते हैं॥3॥
*जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रगट एहि माहीं॥
सोइ
भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा॥4॥
भावार्थ:-यद्यपि
मेरी इस रचना में कविता का एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्री
रामजी का प्रताप प्रकट है। मेरे मन में यही एक भरोसा है। भले संग से भला, किसने बड़प्पन नहीं पाया?॥4॥
*धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
भनिति
भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥5॥
भावार्थ:-धुआँ
भी अगर के संग से सुगंधित होकर अपने स्वाभाविक कड़ुवेपन को छोड़ देता है। मेरी
कविता अवश्य भद्दी है,
परन्तु इसमें जगत का कल्याण करने वाली रामकथा रूपी उत्तम वस्तु का
वर्णन किया गया है। (इससे यह भी अच्छी ही समझी जाएगी।)॥5॥
छंद
:
*मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।
गति
कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥
प्रभु
सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी
भव
अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥
भावार्थ:-तुलसीदासजी
कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की कथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने
वाली है। मेरी इस भद्दी कविता रूपी नदी की चाल पवित्र जल वाली नदी (गंगाजी) की चाल
की भाँति टेढ़ी है। प्रभु श्री रघुनाथजी के सुंदर यश के संग से यह कविता सुंदर तथा
सज्जनों के मन को भाने वाली हो जाएगी। श्मशान की अपवित्र राख भी श्री महादेवजी के
अंग के संग से सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करने वाली होती है।
दोहाः
*प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।
दारु
बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥10 क॥
भावार्थ:-श्री
रामजी के यश के संग से मेरी कविता सभी को अत्यन्त प्रिय लगेगी। जैसे मलय पर्वत के
संग से काष्ठमात्र (चंदन बनकर) वंदनीय हो जाता है, फिर क्या
कोई काठ (की तुच्छता) का विचार करता है?॥10 (क)॥
*स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा
ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥10 ख॥
भावार्थ:-श्यामा
गो काली होने पर भी उसका दूध उज्ज्वल और बहुत गुणकारी होता है। यही समझकर सब लोग
उसे पीते हैं। इसी तरह गँवारू भाषा में होने पर भी श्री सीतारामजी के यश को
बुद्धिमान लोग बड़े चाव से गाते और सुनते हैं॥10 (ख)॥
चौपाई
:
*मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप
किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥1॥
भावार्थ:-मणि, माणिक और मोती की जैसी सुंदर छबि है, वह साँप,
पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और
नवयुवती स्त्री के शरीर को पाकर ही ये सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं॥1॥
*तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति
हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥2॥
भावार्थ:-इसी
तरह,
बुद्धिमान लोग कहते हैं कि सुकवि की कविता भी उत्पन्न और कहीं होती
है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात कवि की वाणी से उत्पन्न हुई कविता वहाँ
शोभा पाती है, जहाँ उसका विचार, प्रचार
तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है)। कवि के स्मरण करते ही उसकी
भक्ति के कारण सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी आती हैं॥2॥
*राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
कबि
कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥3॥
भावार्थ:-सरस्वतीजी
की दौड़ी आने की वह थकावट रामचरित रूपी सरोवर में उन्हें नहलाए बिना दूसरे करोड़ों
उपायों से भी दूर नहीं होती। कवि और पण्डित अपने हृदय में ऐसा विचारकर कलियुग के
पापों को हरने वाले श्री हरि के यश का ही गान करते हैं॥3॥
*कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय
सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥4॥
भावार्थ:-संसारी
मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं (कि मैं क्यों
इसके बुलाने पर आई)। बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को
सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं॥4॥
*जौं बरषइ बर बारि बिचारू। हो हिं कबित मुकुतामनि चारू॥5॥
भावार्थ:-इसमें
यदि श्रेष्ठ विचार रूपी जल बरसता है तो मुक्ता मणि के समान सुंदर कविता होती है॥5॥
दोहा
:
*जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं
सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥11॥
भावार्थ:-उन
कविता रूपी मुक्तामणियों को युक्ति से बेधकर फिर रामचरित्र रूपी सुंदर तागे में
पिरोकर सज्जन लोग अपने निर्मल हृदय में धारण करते हैं, जिससे अत्यन्त अनुराग रूपी शोभा होती है (वे आत्यन्तिक प्रेम को प्राप्त
होते हैं)॥11॥
चौपाई
:
*जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
चलत
कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़े॥1॥
भावार्थ:-जो
कराल कलियुग में जन्मे हैं,
जिनकी करनी कौए के समान है और वेष हंस का सा है, जो वेदमार्ग को छोड़कर कुमार्ग पर चलते हैं, जो कपट
की मूर्ति और कलियुग के पापों के भाँड़ें हैं॥1॥
*बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥
तिन्ह
महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरम ध्वज धंधक धोरी॥2॥
भावार्थ:-जो
श्री रामजी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन (लोभ),
क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो धींगाधींगी करने वाले, धर्मध्वजी (धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दम्भी) और कपट के धन्धों का
बोझ ढोने वाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी
गिनती है॥2॥
*जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ ॥
ताते
मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥3॥
भावार्थ:-यदि
मैं अपने सब अवगुणों को कहने लगूँ तो कथा बहुत बढ़ जाएगी और मैं पार नहीं पाऊँगा।
इससे मैंने बहुत कम अवगुणों का वर्णन किया है। बुद्धिमान लोग थोड़े ही में समझ
लेंगे॥3॥
*समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
एतेहु
पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥4॥
भावार्थ:-मेरी
अनेकों प्रकार की विनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष
नहीं देगा। इतने पर भी जो शंका करेंगे, वे तो मुझसे भी अधिक
मूर्ख और बुद्धि के कंगाल हैं॥4॥
*कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कहँ
रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥5॥
भावार्थ:-मैं
न तो कवि हूँ,
न चतुर कहलाता हूँ, अपनी बुद्धि के अनुसार
श्री रामजी के गुण गाता हूँ। कहाँ तो श्री रघुनाथजी के अपार चरित्र, कहाँ संसार में आसक्त मेरी बुद्धि !॥5॥।
*जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
समुझत
अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥6॥
भावार्थ:-जिस
हवा से सुमेरु जैसे पहाड़ उड़ जाते हैं, कहिए तो, उसके सामने रूई किस गिनती में है। श्री रामजी की असीम प्रभुता को समझकर
कथा रचने में मेरा मन बहुत हिचकता है-॥6॥
दोहा
:
*सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
नेति
नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥12॥
भावार्थ:-सरस्वतीजी, शेषजी, शिवजी, ब्रह्माजी,
शास्त्र, वेद और पुराण- ये सब 'नेति-नेति' कहकर (पार नहीं पाकर 'ऐसा नहीं', ऐसा नहीं कहते हुए) सदा जिनका गुणगान
किया करते हैं॥12॥
चौपाई
:
*सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥
तहाँ
बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥1॥
भावार्थ:-यद्यपि
प्रभु श्री रामचन्द्रजी की प्रभुता को सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते हैं, तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा। इसमें वेद ने ऐसा कारण बताया है कि भजन का
प्रभाव बहुत तरह से कहा गया है। (अर्थात भगवान की महिमा का पूरा वर्णन तो कोई कर
नहीं सकता, परन्तु जिससे जितना बन पड़े उतना भगवान का गुणगान
करना चाहिए, क्योंकि भगवान के गुणगान रूपी भजन का प्रभाव
बहुत ही अनोखा है, उसका नाना प्रकार से शास्त्रों में वर्णन
है। थोड़ा सा भी भगवान का भजन मनुष्य को सहज ही भवसागर से तार देता है)॥1॥
*एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥
ब्यापक
बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥2॥
भावार्थ:-जो
परमेश्वर एक है,
जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और
नाम नहीं है, जो अजन्मा, सच्चिदानन्द
और परमधाम है और जो सबमें व्यापक एवं विश्व रूप हैं, उन्हीं
भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकार की लीला की है॥2॥
*सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥
जेहि
जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥3॥
भावार्थ:-वह
लीला केवल भक्तों के हित के लिए ही है, क्योंकि भगवान परम
कृपालु हैं और शरणागत के बड़े प्रेमी हैं। जिनकी भक्तों पर बड़ी ममता और कृपा है,
जिन्होंने एक बार जिस पर कृपा कर दी, उस पर
फिर कभी क्रोध नहीं किया॥3॥
*गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥
बुध
बरनहिं हरि जस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥4॥
भावार्थ:-वे
प्रभु श्री रघुनाथजी गई हुई वस्तु को फिर प्राप्त कराने वाले, गरीब नवाज (दीनबन्धु), सरल स्वभाव, सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान लोग उन श्री हरि का
यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल (मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम) देने
वाली बनाते हैं॥4॥
*तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥
मुनिन्ह
प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥5॥
भावार्थ:-उसी
बल से (महिमा का यथार्थ वर्णन नहीं, परन्तु महान फल
देने वाला भजन समझकर भगवत्कृपा के बल पर ही) मैं श्री रामचन्द्रजी के चरणों में
सिर नवाकर श्री रघुनाथजी के गुणों की कथा कहूँगा। इसी विचार से (वाल्मीकि, व्यास आदि) मुनियों ने पहले हरि की कीर्ति गाई है। भाई! उसी मार्ग पर चलना
मेरे लिए सुगम होगा॥5॥
दोहा
:
*अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
चढ़ि
पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥13॥
भावार्थ:-जो
अत्यन्त बड़ी श्रेष्ठ नदियाँ हैं, यदि राजा उन पर पुल बँधा देता
है, तो अत्यन्त छोटी चींटियाँ भी उन पर चढ़कर बिना ही
परिश्रम के पार चली जाती हैं। (इसी प्रकार मुनियों के वर्णन के सहारे मैं भी श्री
रामचरित्र का वर्णन सहज ही कर सकूँगा)॥13॥
चौपाई
:
*एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
ब्यास
आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥1॥
भावार्थ:-इस
प्रकार मन को बल दिखलाकर मैं श्री रघुनाथजी की सुहावनी कथा की रचना करूँगा। व्यास
आदि जो अनेकों श्रेष्ठ कवि हो गए हैं, जिन्होंने बड़े आदर
से श्री हरि का सुयश वर्णन किया है॥1॥
कवि
वंदना
*
चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
कलि
के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥2॥
भावार्थ:-मैं
उन सब (श्रेष्ठ कवियों) के चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ, वे मेरे सब मनोरथों को पूरा करें। कलियुग के भी उन कवियों को मैं प्रणाम
करता हूँ, जिन्होंने श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का वर्णन
किया है॥2॥
*
जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
भए
जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥3॥
भावार्थ:-जो
बड़े बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं, जिन्होंने भाषा में हरि
चरित्रों का वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं,
जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन
सबको मैं सारा कपट त्यागकर प्रणाम करता हूँ॥3॥
*
होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
जो
प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥4॥
भावार्थ:-आप
सब प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिए कि साधु समाज में मेरी कविता का सम्मान हो, क्योंकि बुद्धिमान लोग जिस कविता का आदर नहीं करते, मूर्ख
कवि ही उसकी रचना का व्यर्थ परिश्रम करते हैं॥4॥
*
कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम
सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥5॥
भावार्थ:-कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है, जो गंगाजी की तरह
सबका हित करने वाली हो। श्री रामचन्द्रजी की कीर्ति तो बड़ी सुंदर (सबका अनन्त
कल्याण करने वाली ही) है, परन्तु मेरी कविता भद्दी है। यह
असामंजस्य है (अर्थात इन दोनों का मेल नहीं मिलता), इसी की
मुझे चिन्ता है॥5॥
*
तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥6॥
भावार्थ:-परन्तु
हे कवियों! आपकी कृपा से यह बात भी मेरे लिए सुलभ हो सकती है। रेशम की सिलाई टाट
पर भी सुहावनी लगती है॥6॥
दोहा
:
*
सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
सहज
बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥14 क॥
भावार्थ:-चतुर
पुरुष उसी कविता का आदर करते हैं, जो सरल हो और जिसमें निर्मल
चरित्र का वर्णन हो तथा जिसे सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक बैर को भूलकर सराहना करने
लगें॥14 (क)॥
सो
न होई बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
करहु
कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥14 ख॥
भावार्थ:-ऐसी
कविता बिना निर्मल बुद्धि के होती नहीं और मेरी बुद्धि का बल बहुत ही थोड़ा है, इसलिए बार-बार निहोरा करता हूँ कि हे कवियों! आप कृपा करें, जिससे मैं हरि यश का वर्णन कर सकूँ॥14 (ख)॥
*
कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।
बालबिनय
सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल॥14 ग॥
भावार्थ:-कवि
और पण्डितगण! आप जो रामचरित्र रूपी मानसरोवर के सुंदर हंस हैं, मुझ बालक की विनती सुनकर और सुंदर रुचि देखकर मुझ पर कृपा करें॥14
(ग)॥
वाल्मीकि, वेद, ब्रह्मा, देवता, शिव, पार्वती आदि की वंदना
सोरठा
:
*
बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।
सखर
सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥14 घ॥
भावार्थ:-मैं
उन वाल्मीकि मुनि के चरण कमलों की वंदना करता हूँ, जिन्होंने
रामायण की रचना की है, जो खर (राक्षस) सहित होने पर भी (खर
(कठोर) से विपरीत) बड़ी कोमल और सुंदर है तथा जो दूषण (राक्षस) सहित होने पर भी
दूषण अर्थात् दोष से रहित है॥14 (घ)॥
*
बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
जिन्हहि
न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥14 ङ॥
भावार्थ:-मैं
चारों वेदों की वन्दना करता हूँ, जो संसार समुद्र के पार होने के
लिए जहाज के समान हैं तथा जिन्हें श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करते स्वप्न
में भी खेद (थकावट) नहीं होता॥14 (ङ)॥
*
बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं कीन्ह जहँ।
संत
सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥14च॥
भावार्थ:-मैं
ब्रह्माजी के चरण रज की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने भवसागर
बनाया है, जहाँ से एक ओर संतरूपी अमृत, चन्द्रमा और कामधेनु निकले और दूसरी ओर दुष्ट मनुष्य रूपी विष और मदिरा
उत्पन्न हुए॥14 (च)॥
दोहा
:
*
बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।
होइ
प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥14 छ॥
भावार्थ:-देवता, ब्राह्मण, पंडित, ग्रह- इन
सबके चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर कहता हूँ कि आप प्रसन्न होकर मेरे सारे सुंदर
मनोरथों को पूरा करें॥14 (छ)॥
चौपाई
:
*
पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
मज्जन
पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥1॥
भावार्थ:-फिर
मैं सरस्वती और देवनदी गंगाजी की वंदना करता हूँ। दोनों पवित्र और मनोहर चरित्र
वाली हैं। एक (गंगाजी) स्नान करने और जल पीने से पापों को हरती है और दूसरी
(सरस्वतीजी) गुण और यश कहने और सुनने से अज्ञान का नाश कर देती है॥1॥
*
गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥
सेवक
स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥2॥
भावार्थ:-श्री
महेश और पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ, जो मेरे गुरु और
माता-पिता हैं, जो दीनबन्धु और नित्य दान करने वाले हैं,
जो सीतापति श्री रामचन्द्रजी के सेवक, स्वामी
और सखा हैं तथा मुझ तुलसीदास का सब प्रकार से कपटरहित (सच्चा) हित करने वाले हैं॥2॥
*
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल
आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥3॥
भावार्थ:-जिन
शिव-पार्वती ने कलियुग को देखकर, जगत के हित के लिए, शाबर मन्त्र समूह की रचना की, जिन मंत्रों के अक्षर
बेमेल हैं, जिनका न कोई ठीक अर्थ होता है और न जप ही होता है,
तथापि श्री शिवजी के प्रताप से जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥3॥
*
सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥
सुमिरि
सिवा सिव पाइ पसाऊ। बस्नउँ रामचरित चित चाऊ॥4॥
भावार्थ:-वे
उमापति शिवजी मुझ पर प्रसन्न होकर (श्री रामजी की) इस कथा को आनन्द और मंगल की मूल
(उत्पन्न करने वाली) बनाएँगे। इस प्रकार पार्वतीजी और शिवजी दोनों का स्मरण करके
और उनका प्रसाद पाकर मैं चाव भरे चित्त से श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥4॥
*
भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
जे
एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥5॥
होइहहिं
राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी॥6॥
भावार्थ:-मेरी
कविता श्री शिवजी की कृपा से ऐसी सुशोभित होगी, जैसी तारागणों के
सहित चन्द्रमा के साथ रात्रि शोभित होती है, जो इस कथा को
प्रेम सहित एवं सावधानी के साथ समझ-बूझकर कहें-सुनेंगे, वे
कलियुग के पापों से रहित और सुंदर कल्याण के भागी होकर श्री रामचन्द्रजी के चरणों
के प्रेमी बन जाएँगे॥5-6॥
दोहा
:
*
सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।
तौ
फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥15॥
भावार्थ:-यदि
मु्झ पर श्री शिवजी और पार्वतीजी की स्वप्न में भी सचमुच प्रसन्नता हो, तो मैंने इस भाषा कविता का जो प्रभाव कहा है, वह सब
सच हो॥15॥
श्री
सीताराम-धाम-परिकर वंदना
चौपाई
:
*
बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥
प्रनवउँ
पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥1॥
भावार्थ:-मैं
अति पवित्र श्री अयोध्यापुरी और कलियुग के पापों का नाश करने वाली श्री सरयू नदी
की वन्दना करता हूँ। फिर अवधपुरी के उन नर-नारियों को प्रणाम करता हूँ, जिन पर प्रभु श्री रामचन्द्रजी की ममता थोड़ी नहीं है (अर्थात् बहुत है)॥1॥
*
सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥
बंदउँ
कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥2॥
भावार्थ:-उन्होंने
(अपनी पुरी में रहने वाले) सीताजी की निंदा करने वाले (धोबी और उसके समर्थक
पुर-नर-नारियों) के पाप समूह को नाश कर उनको शोकरहित बनाकर अपने लोक (धाम) में बसा
दिया। मैं कौशल्या रूपी पूर्व दिशा की वन्दना करता हूँ, जिसकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है॥2॥
*
प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
दसरथ
राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥3॥
करउँ
प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
जिन्हहि
बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥4॥
भावार्थ:-जहाँ
(कौशल्या रूपी पूर्व दिशा) से विश्व को सुख देने वाले और दुष्ट रूपी कमलों के लिए
पाले के समान श्री रामचन्द्रजी रूपी सुंदर चंद्रमा प्रकट हुए। सब रानियों सहित
राजा दशरथजी को पुण्य और सुंदर कल्याण की मूर्ति मानकर मैं मन, वचन और कर्म से प्रणाम करता हूँ। अपने पुत्र का सेवक जानकर वे मुझ पर कृपा
करें, जिनको रचकर ब्रह्माजी ने भी बड़ाई पाई तथा जो श्री
रामजी के माता और पिता होने के कारण महिमा की सीमा हैं॥3-4॥
सोरठा
:
*
बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत
दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥16॥
भावार्थ:-मैं
अवध के राजा श्री दशरथजी की वन्दना करता हूँ, जिनका श्री रामजी
के चरणों में सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयालु प्रभु के
बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीर को मामूली तिनके की तरह त्याग दिया॥16॥
चौपाई
:
*
प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
जोग
भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥1॥
भावार्थ:-मैं
परिवार सहित राजा जनकजी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्री रामजी
के चरणों में गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोग में
छिपा रखा था, परन्तु श्री रामचन्द्रजी को देखते ही वह प्रकट
हो गया॥1॥
*
प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
राम
चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥2॥
भावार्थ:-(भाइयों
में) सबसे पहले मैं श्री भरतजी के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता तथा जिनका मन श्री रामजी के
चरणकमलों में भौंरे की तरह लुभाया हुआ है, कभी उनका पास नहीं
छोड़ता॥2॥
*
बंदउँ लछिमन पद जल जाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
रघुपति
कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥3॥
भावार्थ:-मैं
श्री लक्ष्मणजी के चरण कमलों को प्रणाम करता हूँ, जो शीतल
सुंदर और भक्तों को सुख देने वाले हैं। श्री रघुनाथजी की कीर्ति रूपी विमल पताका
में जिनका (लक्ष्मणजी का) यश (पताका को ऊँचा करके फहराने वाले) दंड के समान हुआ॥3॥
*
सेष सहस्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
सदा
सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर॥4॥
भावार्थ:-जो
हजार सिर वाले और जगत के कारण (हजार सिरों पर जगत को धारण कर रखने वाले) शेषजी हैं, जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिए अवतार लिया, वे गुणों की खान कृपासिन्धु सुमित्रानंदन श्री लक्ष्मणजी मुझ पर सदा
प्रसन्न रहें॥4॥
*
रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥
महाबीर
बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥5॥
भावार्थ:-मैं
श्री शत्रुघ्नजी के चरणकमलों को प्रणाम करता हूँ, जो बड़े वीर,
सुशील और श्री भरतजी के पीछे चलने वाले हैं। मैं महावीर श्री
हनुमानजी की विनती करता हूँ, जिनके यश का श्री रामचन्द्रजी
ने स्वयं (अपने श्रीमुख से) वर्णन किया है॥5॥
सोरठा
:
*
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु
हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥17॥
भावार्थ:-मैं
पवनकुमार श्री हनुमान्जी को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्ट रूपी वन
को भस्म करने के लिए अग्निरूप हैं, जो ज्ञान की घनमूर्ति हैं
और जिनके हृदय रूपी भवन में धनुष-बाण धारण किए श्री रामजी निवास करते हैं॥17॥
चौपाई
:
*
कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥
बंदउँ
सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥1॥
भावार्थ:-वानरों
के राजा सुग्रीवजी,
रीछों के राजा जाम्बवानजी, राक्षसों के राजा
विभीषणजी और अंगदजी आदि जितना वानरों का समाज है, सबके सुंदर
चरणों की मैं वदना करता हूँ, जिन्होंने अधम (पशु और राक्षस
आदि) शरीर में भी श्री रामचन्द्रजी को प्राप्त कर लिया॥1॥
*
रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
बंदउँ
पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥2॥
भावार्थ:-पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने श्री रामजी के चरणों के उपासक हैं, मैं
उन सबके चरणकमलों की वंदना करता हूँ, जो श्री रामजी के
निष्काम सेवक हैं॥2॥
*
सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
प्रनवउँ
सबहि धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥3॥
भावार्थ:-शुकदेवजी, सनकादि, नारदमुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी
श्रेष्ठ मुनि हैं, मैं धरती पर सिर टेककर उन सबको प्रणाम
करता हूँ, हे मुनीश्वरों! आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा
कीजिए॥3॥
*
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके
जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥4॥
भावार्थ:-राजा
जनक की पुत्री,
जगत की माता और करुणा निधान श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री
जानकीजी के दोनों चरण कमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से
निर्मल बुद्धि पाऊँ॥4॥
*
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥
राजीवनयन
धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक॥5॥
भावार्थ:-फिर
मैं मन,
वचन और कर्म से कमलनयन, धनुष-बाणधारी, भक्तों की विपत्ति का नाश करने और उन्हें सुख देने वाले भगवान् श्री
रघुनाथजी के सर्व समर्थ चरण कमलों की वन्दना करता हूँ॥5॥
दोहा
:
*
गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ
सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥18॥
भावार्थ:-जो
वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं, परन्तु वास्तव में अभिन्न (एक) हैं, उन श्री
सीतारामजी के चरणों की मैं वंदना करता हूँ, जिन्हें
दीन-दुःखी बहुत ही प्रिय हैं॥18॥
श्री
नाम वंदना और नाम महिमा
चौपाई
:
*
बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि
हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥
भावार्थ:-मैं
श्री रघुनाथजी के नाम 'राम' की वंदना करता हूँ, जो
कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु
अर्थात् 'र' 'आ' और 'म' रूप से बीज है। वह 'राम' नाम ब्रह्मा, विष्णु और
शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भंडार है॥1॥
*महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा
जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥2॥
भावार्थ:-जो
महामंत्र है,
जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी
में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस 'राम' नाम के प्रभाव से
ही सबसे पहले पूजे जाते हैं॥2॥
*
जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस
नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी॥3॥
भावार्थ:-आदिकवि
श्री वाल्मीकिजी रामनाम के प्रताप को जानते हैं, जो उल्टा
नाम ('मरा', 'मरा') जपकर पवित्र हो गए। श्री शिवजी के इस वचन को सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र
नाम के समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति (श्री शिवजी) के साथ
राम-नाम का जप करती रहती हैं॥3॥
*
हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
नाम
प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥4॥
भावार्थ:-नाम
के प्रति पार्वतीजी के हृदय की ऐसी प्रीति देखकर श्री शिवजी हर्षित हो गए और
उन्होंने स्त्रियों में भूषण रूप (पतिव्रताओं में शिरोमणि) पार्वतीजी को अपना भूषण
बना लिया। (अर्थात् उन्हें अपने अंग में धारण करके अर्धांगिनी बना लिया)। नाम के
प्रभाव को श्री शिवजी भलीभाँति जानते हैं, जिस (प्रभाव) के
कारण कालकूट जहर ने उनको अमृत का फल दिया॥4॥
दोहा
:
*
बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।
राम
नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥19॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी की भक्ति वर्षा ऋतु है, तुलसीदासजी कहते हैं कि उत्तम
सेवकगण धान हैं और 'राम' नाम के दो
सुंदर अक्षर सावन-भादो के महीने हैं॥19॥
चौपाई
:
*
आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
ससुमिरत
सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥1॥
भावार्थ:-दोनों
अक्षर मधुर और मनोहर हैं,
जो वर्णमाला रूपी शरीर के नेत्र हैं, भक्तों
के जीवन हैं तथा स्मरण करने में सबके लिए सुलभ और सुख देने वाले हैं और जो इस लोक
में लाभ और परलोक में निर्वाह करते हैं (अर्थात् भगवान के दिव्य धाम में दिव्य
देह से सदा भगवत्सेवा में नियुक्त रखते हैं।)॥1॥
*
कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
बरनत
बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥2॥
भावार्थ:-ये
कहने,
सुनने और स्मरण करने में बहुत ही अच्छे (सुंदर और मधुर) हैं,
तुलसीदास को तो श्री राम-लक्ष्मण के समान प्यारे हैं। इनका ('र' और 'म' का) अलग-अलग वर्णन करने में प्रीति बिलगाती है (अर्थात बीज मंत्र की
दृष्टि से इनके उच्चारण, अर्थ और फल में भिन्नता दिख पड़ती
है), परन्तु हैं ये जीव और ब्रह्म के समान स्वभाव से ही साथ
रहने वाले (सदा एक रूप और एक रस),॥2॥
*
नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
भगति
सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन॥3॥
भावार्थ:-ये
दोनों अक्षर नर-नारायण के समान सुंदर भाई हैं, ये जगत का पालन और
विशेष रूप से भक्तों की रक्षा करने वाले हैं। ये भक्ति रूपिणी सुंदर स्त्री के
कानों के सुंदर आभूषण (कर्णफूल) हैं और जगत के हित के लिए निर्मल चन्द्रमा और
सूर्य हैं॥3॥
*
स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
जन
मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥4॥
भावार्थ:-ये
सुंदर गति (मोक्ष) रूपी अमृत के स्वाद और तृप्ति के समान हैं, कच्छप और शेषजी के समान पृथ्वी के धारण करने वाले हैं, भक्तों के मन रूपी सुंदर कमल में विहार करने वाले भौंरे के समान हैं और
जीभ रूपी यशोदाजी के लिए श्री कृष्ण और बलरामजी के समान (आनंद देने वाले) हैं॥4॥
दोहा
:
*
एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी
रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥20॥
भावार्थ:-तुलसीदासजी
कहते हैं- श्री रघुनाथजी के नाम के दोनों अक्षर बड़ी शोभा देते हैं, जिनमें से एक (रकार) छत्ररूप (रेफ र्) से और दूसरा (मकार) मुकुटमणि
(अनुस्वार) रूप से सब अक्षरों के ऊपर है॥20॥
चौपाई
:
*
समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम
रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥1॥
भावार्थ:-समझने
में नाम और नामी दोनों एक से हैं, किन्तु दोनों में परस्पर स्वामी
और सेवक के समान प्रीति है (अर्थात् नाम और नामी में पूर्ण एकता होने पर भी जैसे
स्वामी के पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नाम के पीछे नामी
चलते हैं। प्रभु श्री रामजी अपने 'राम' नाम का ही अनुगमन करते हैं (नाम लेते ही वहाँ आ जाते हैं)। नाम और रूप
दोनों ईश्वर की उपाधि हैं, ये (भगवान के नाम और रूप) दोनों
अनिर्वचनीय हैं, अनादि हैं और सुंदर (शुद्ध भक्तियुक्त)
बुद्धि से ही इनका (दिव्य अविनाशी) स्वरूप जानने में आता है॥1॥
*
को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू॥
देखिअहिं
रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥2॥
भावार्थ:-इन
(नाम और रूप) में कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है। इनके गुणों का तारतम्य (कमी-बेशी) सुनकर साधु पुरुष
स्वयं ही समझ लेंगे। रूप नाम के अधीन देखे जाते हैं, नाम के
बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता॥2॥
*
रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥
सुमिरिअ
नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥3॥
भावार्थ:-कोई
सा विशेष रूप बिना उसका नाम जाने हथेली पर रखा हुआ भी पहचाना नहीं जा सकता और रूप
के बिना देखे भी नाम का स्मरण किया जाए तो विशेष प्रेम के साथ वह रूप हृदय में आ
जाता है॥3॥
*
नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
अगुन
सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥4॥
भावार्थ:-नाम
और रूप की गति की कहानी (विशेषता की कथा) अकथनीय है। वह समझने में सुखदायक है, परन्तु उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। निर्गुण और सगुण के बीच में नाम
सुंदर साक्षी है और दोनों का यथार्थ ज्ञान कराने वाला चतुर दुभाषिया है॥4॥
दोहा
:
*
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी
भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥21॥
भावार्थ:-तुलसीदासजी
कहते हैं,
यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है, तो मुख रूपी द्वार की जीभ रूपी देहली पर रामनाम रूपी मणि-दीपक को रख॥21॥
चौपाई
:
*
नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
ब्रह्मसुखहि
अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥1॥
भावार्थ:-ब्रह्मा
के बनाए हुए इस प्रपंच (दृश्य जगत) से भलीभाँति छूटे हुए वैराग्यवान् मुक्त योगी
पुरुष इस नाम को ही जीभ से जपते हुए (तत्व ज्ञान रूपी दिन में) जागते हैं और नाम
तथा रूप से रहित अनुपम,
अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुख का अनुभव करते
हैं॥1॥
*
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
साधक
नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥2॥
भावार्थ:-जो
परमात्मा के गूढ़ रहस्य को (यथार्थ महिमा को) जानना चाहते हैं, वे (जिज्ञासु) भी नाम को जीभ से जपकर उसे जान लेते हैं। (लौकिक सिद्धियों
के चाहने वाले अर्थार्थी) साधक लौ लगाकर नाम का जप करते हैं और अणिमादि (आठों)
सिद्धियों को पाकर सिद्ध हो जाते हैं॥2॥
*
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
राम
भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥3॥
भावार्थ:-(संकट
से घबड़ाए हुए) आर्त भक्त नाम जप करते हैं, तो उनके बड़े भारी
बुरे-बुरे संकट मिट जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं। जगत में चार प्रकार के (1-
अर्थार्थी-धनादि की चाह से भजने वाले, 2-आर्त
संकट की निवृत्ति के लिए भजने वाले, 3-जिज्ञासु-भगवान को
जानने की इच्छा से भजने वाले, 4-ज्ञानी-भगवान को तत्व से
जानकर स्वाभाविक ही प्रेम से भजने वाले) रामभक्त हैं और चारों ही पुण्यात्मा,
पापरहित और उदार हैं॥3॥
*
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
चहुँ
जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥4॥
भावार्थ:-चारों
ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है, इनमें ज्ञानी भक्त
प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं। यों तो चारों युगों में और चारों ही वेदों में
नाम का प्रभाव है, परन्तु कलियुग में विशेष रूप से है। इसमें
तो (नाम को छोड़कर) दूसरा कोई उपाय ही नहीं है॥4॥
दोहा
:
*
सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम
सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥22॥
भावार्थ:-जो
सब प्रकार की (भोग और मोक्ष की भी) कामनाओं से रहित और श्री रामभक्ति के रस में
लीन हैं,
उन्होंने भी नाम के सुंदर प्रेम रूपी अमृत के सरोवर में अपने मन को
मछली बना रखा है (अर्थात् वे नाम रूपी सुधा का निरंतर आस्वादन करते रहते हैं,
क्षणभर भी उससे अलग होना नहीं चाहते)॥22॥
चौपाई
:
*
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरें
मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग िनज बस निज बूतें॥1॥
भावार्थ:-निर्गुण
और सगुण ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मति में नाम इन
दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनों को अपने वश में कर
रखा है॥1॥
*
प्रौढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
एकु
दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥2॥
उभय
अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
ब्यापकु
एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनँद रासी॥3॥
भावार्थ:-सज्जनगण
इस बात को मुझ दास की ढिठाई या केवल काव्योक्ति न समझें। मैं अपने मन के विश्वास, प्रेम और रुचि की बात कहता हूँ। (िनर्गुण और सगुण) दोनों प्रकार के
ब्रह्म का ज्ञान अग्नि के समान है। निर्गुण उस अप्रकट अग्नि के समान है, जो काठ के अंदर है, परन्तु दिखती नहीं और सगुण उस
प्रकट अग्नि के समान है, जो प्रत्यक्ष दिखती है।
(तत्त्वतः दोनों एक ही हैं, केवल प्रकट-अप्रकट के भेद
से भिन्न मालूम होती हैं। इसी प्रकार निर्गुण और सगुण तत्त्वतः एक ही हैं। इतना होने
पर भी) दोनों ही जानने में बड़े कठिन हैं, परन्तु नाम से
दोनों सुगम हो जाते हैं। इसी से मैंने नाम को (निर्गुण) ब्रह्म से और (सगुण) राम
से बड़ा कहा है, ब्रह्म व्यापक है, एक
है, अविनाशी है, सत्ता, चैतन्य और आनन्द की घन राशि है॥2-3॥
*
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥
नाम
निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥4॥
भावार्थ:-ऐसे
विकाररहित प्रभु के हृदय में रहते भी जगत के सब जीव दीन और दुःखी हैं। नाम का
निरूपण करके (नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर) नाम का जतन करने से (श्रद्धापूर्वक नाम जप रूपी
साधन करने से) वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है, जैसे रत्न
के जानने से उसका मूल्य॥4॥
दोहा
:
*
निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
कहउँ
नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥23॥
भावार्थ:-इस
प्रकार निर्गुण से नाम का प्रभाव अत्यंत बड़ा है। अब अपने विचार के अनुसार कहता
हूँ,
कि नाम (सगुण) राम से भी बड़ा है॥23॥
चौपाई
:
*
राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥
नामु
सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी ने भक्तों के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर
साधुओं को सुखी किया,
परन्तु भक्तगण प्रेम के साथ नाम का जप करते हुए सहज ही में आनन्द और
कल्याण के घर हो जाते हैं॥1॥।
*
राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
रिषि
हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी॥2॥
सहित
दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
भंजेउ
राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू॥3॥
भावार्थ:-श्री
रामजी ने एक तपस्वी की स्त्री (अहिल्या) को ही तारा, परन्तु नाम
ने करोड़ों दुष्टों की बिगड़ी बुद्धि को सुधार दिया। श्री रामजी ने ऋषि विश्वामिश्र
के हित के लिए एक सुकेतु यक्ष की कन्या ताड़का की सेना और पुत्र (सुबाहु) सहित
समाप्ति की, परन्तु नाम अपने भक्तों के दोष, दुःख और दुराशाओं का इस तरह नाश कर देता है जैसे सूर्य रात्रि का। श्री
रामजी ने तो स्वयं शिवजी के धनुष को तोड़ा, परन्तु नाम का
प्रताप ही संसार के सब भयों का नाश करने वाला है॥2-3॥
*
दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥
निसिचर
निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥4॥
भावार्थ:-प्रभु
श्री रामजी ने (भयानक) दण्डक वन को सुहावना बनाया, परन्तु नाम
ने असंख्य मनुष्यों के मनों को पवित्र कर दिया। श्री रघुनाथजी ने राक्षसों के समूह
को मारा, परन्तु नाम तो कलियुग के सारे पापों की जड़ उखाड़ने
वाला है॥4॥
दोहा
:
*
सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम
उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥24॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी ने तो शबरी,
जटायु आदि उत्तम सेवकों को ही मुक्ति दी, परन्तु
नाम ने अगनित दुष्टों का उद्धार किया। नाम के गुणों की कथा वेदों में प्रसिद्ध है॥24॥
चौपाई
:
*
राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ ॥
नाम
गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामजी ने सुग्रीव और विभीषण दोनों को ही अपनी शरण में रखा, यह सब कोई जानते हैं, परन्तु नाम ने अनेक गरीबों पर
कृपा की है। नाम का यह सुंदर विरद लोक और वेद में विशेष रूप से प्रकाशित है॥1॥
*
राम भालु कपि कटुक बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
नामु
लेत भवसिन्धु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥2॥
भावार्थ:-श्री
रामजी ने तो भालू और बंदरों की सेना बटोरी और समुद्र पर पुल बाँधने के लिए थोड़ा
परिश्रम नहीं किया,
परन्तु नाम लेते ही संसार समुद्र सूख जाता है। सज्जनगण! मन में
विचार कीजिए (कि दोनों में कौन बड़ा है)॥2॥
*
राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा॥
राजा
रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥3॥
सेवक
सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥
फिरत
सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥4॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी ने कुटुम्ब सहित रावण को युद्ध में मारा, तब सीता सहित उन्होंने अपने नगर (अयोध्या) में प्रवेश किया। राम राजा हुए,
अवध उनकी राजधानी हुई, देवता और मुनि सुंदर
वाणी से जिनके गुण गाते हैं, परन्तु सेवक (भक्त) प्रेमपूर्वक
नाम के स्मरण मात्र से बिना परिश्रम मोह की प्रबल सेना को जीतकर प्रेम में मग्न
हुए अपने ही सुख में विचरते हैं, नाम के प्रसाद से उन्हें
सपने में भी कोई चिन्ता नहीं सताती॥3-4॥
दोहा
:
*
ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित
सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥25॥
भावार्थ:-इस
प्रकार नाम (निर्गुण) ब्रह्म और (सगुण) राम दोनों से बड़ा है। यह वरदान देने वालों
को भी वर देने वाला है। श्री शिवजी ने अपने हृदय में यह जानकर ही सौ करोड़ राम
चरित्र में से इस 'राम' नाम को (साररूप से चुनकर) ग्रहण किया है॥25॥
मासपारायण, पहला विश्राम
चौपाई
:
*
नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
सुक
सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥1॥
भावार्थ:-नाम
ही के प्रसाद से शिवजी अविनाशी हैं और अमंगल वेष वाले होने पर भी मंगल की राशि
हैं। शुकदेवजी और सनकादि सिद्ध, मुनि, योगी
गण नाम के ही प्रसाद से ब्रह्मानन्द को भोगते हैं॥1॥
*नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
नामु
जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥2॥
भावार्थ:-नारदजी
ने नाम के प्रताप को जाना है। हरि सारे संसार को प्यारे हैं, (हरि को हर प्यारे हैं) और आप (श्री नारदजी) हरि और हर दोनों को प्रिय हैं।
नाम के जपने से प्रभु ने कृपा की, जिससे प्रह्लाद, भक्त शिरोमणि हो गए॥2॥
*
ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
सुमिरि
पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥3॥
भावार्थ:-ध्रुवजी
ने ग्लानि से (विमाता के वचनों से दुःखी होकर सकाम भाव से) हरि नाम को जपा और उसके
प्रताप से अचल अनुपम स्थान (ध्रुवलोक) प्राप्त किया। हनुमान्जी ने पवित्र नाम का
स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा है॥3॥
*
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
कहौं
कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥4॥
भावार्थ:-नीच
अजामिल,
गज और गणिका (वेश्या) भी श्री हरि के नाम के प्रभाव से मुक्त हो गए।
मैं नाम की बड़ाई कहाँ तक कहूँ, राम भी नाम के गुणों को नहीं
गा सकते॥4॥
दोहा
:
*
नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो
सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥26॥
भावार्थ:-कलियुग
में राम का नाम कल्पतरु (मन चाहा पदार्थ देने वाला) और कल्याण का निवास (मुक्ति का
घर) है,
जिसको स्मरण करने से भाँग सा (निकृष्ट) तुलसीदास तुलसी के समान
(पवित्र) हो गया॥26॥
चौपाई
:
*
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
बेद
पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥1॥
भावार्थ:-(केवल
कलियुग की ही बात नहीं है,)
चारों युगों में, तीनों काल में और तीनों
लोकों में नाम को जपकर जीव शोकरहित हुए हैं। वेद, पुराण और
संतों का मत यही है कि समस्त पुण्यों का फल श्री रामजी में (या राम नाम में) प्रेम
होना है॥1॥
*
ध्यानु प्रथम जुग मख बिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
कलि
केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना॥2॥
भावार्थ:-पहले
(सत्य) युग में ध्यान से,
दूसरे (त्रेता) युग में यज्ञ से और द्वापर में पूजन से भगवान
प्रसन्न होते हैं, परन्तु कलियुग केवल पाप की जड़ और मलिन है,
इसमें मनुष्यों का मन पाप रूपी समुद्र में मछली बना हुआ है (अर्थात
पाप से कभी अलग होना ही नहीं चाहता, इससे ध्यान, यज्ञ और पूजन नहीं बन सकते)॥2॥
*
नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
राम
नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥3॥
भावार्थ:-ऐसे
कराल (कलियुग के) काल में तो नाम ही कल्पवृक्ष है, जो स्मरण
करते ही संसार के सब जंजालों को नाश कर देने वाला है। कलियुग में यह राम नाम
मनोवांछित फल देने वाला है, परलोक का परम हितैषी और इस लोक
का माता-पिता है (अर्थात परलोक में भगवान का परमधाम देता है और इस लोक में
माता-पिता के समान सब प्रकार से पालन और रक्षण करता है।)॥3॥
*
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
कालनेमि
कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥4॥
भावार्थ:-कलियुग
में न कर्म है,
न भक्ति है और न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक
आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के) लिए राम नाम ही बुद्धिमान
और समर्थ श्री हनुमान्जी हैं॥4॥
दोहा
:
*
राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक
जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥27॥
भावार्थ:-राम
नाम श्री नृसिंह भगवान है,
कलियुग हिरण्यकशिपु है और जप करने वाले जन प्रह्लाद के समान हैं,
यह राम नाम देवताओं के शत्रु (कलियुग रूपी दैत्य) को मारकर जप करने
वालों की रक्षा करेगा॥27॥
चौपाई
:
*
भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि
सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥1॥॥
भावार्थ:-अच्छे
भाव (प्रेम) से,
बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से,
किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है। उसी
(परम कल्याणकारी) राम नाम का स्मरण करके और श्री रघुनाथजी को मस्तक नवाकर मैं
रामजी के गुणों का वर्णन करता हूँ॥1॥
श्री
रामगुण और श्री रामचरित् की महिमा
*
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
राम
सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥2॥
भावार्थ:-वे
(श्री रामजी) मेरी (बिगड़ी) सब तरह से सुधार लेंगे, जिनकी कृपा
कृपा करने से नहीं अघाती। राम से उत्तम स्वामी और मुझ सरीखा बुरा सेवक! इतने पर भी
उन दयानिधि ने अपनी ओर देखकर मेरा पालन किया है॥2॥
*
लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
गनी
गरीब ग्राम नर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥3॥
भावार्थ:-लोक
और वेद में भी अच्छे स्वामी की यही रीति प्रसिद्ध है कि वह विनय सुनते ही प्रेम को
पहचान लेता है। अमीर-गरीब,
गँवार-नगर निवासी, पण्डित-मूर्ख, बदनाम-यशस्वी॥3॥
*
सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥
साधु
सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥4॥
भावार्थ:-सुकवि-कुकवि, सभी नर-नारी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार राजा की सराहना करते हैं और साधु,
बुद्धिमान, सुशील, ईश्वर
के अंश से उत्पन्न कृपालु राजा-॥4॥
*
सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
यह
प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥5॥
भावार्थ:-सबकी
सुनकर और उनकी वाणी,
भक्ति, विनय और चाल को पहचानकर सुंदर (मीठी)
वाणी से सबका यथायोग्य सम्मान करते हैं। यह स्वभाव तो संसारी राजाओं का है,
कोसलनाथ श्री रामचन्द्रजी तो चतुरशिरोमणि हैं॥5॥
*
रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥6॥
भावार्थ:-श्री
रामजी तो विशुद्ध प्रेम से ही रीझते हैं, पर जगत में मुझसे
बढ़कर मूर्ख और मलिन बुद्धि और कौन होगा?॥6॥
दोहा
:
*
सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
उपल
किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥28 क॥
भावार्थ:-तथापि
कृपालु श्री रामचन्द्रजी मुझ दुष्ट सेवक की प्रीति और रुचि को अवश्य रखेंगे, जिन्होंने पत्थरों को जहाज और बंदर-भालुओं को बुद्धिमान मंत्री बना लिया॥28
(क)॥
*
हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
साहिब
सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥28 ख॥
भावार्थ:-सब
लोग मुझे श्री रामजी का सेवक कहते हैं और मैं भी (बिना लज्जा-संकोच के) कहलाता हूँ
(कहने वालों का विरोध नहीं करता), कृपालु श्री रामजी इस निन्दा को
सहते हैं कि श्री सीतानाथजी, जैसे स्वामी का तुलसीदास सा
सेवक है॥28 (ख)॥
चौपाई
:
*
अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
समुझि
सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥1॥
भावार्थ:-यह
मेरी बहुत बड़ी ढिठाई और दोष है, मेरे पाप को सुनकर नरक ने भी
नाक सिकोड़ ली है (अर्थात नरक में भी मेरे लिए ठौर नहीं है)। यह समझकर मुझे अपने
ही कल्पित डर से डर हो रहा है, किन्तु भगवान श्री
रामचन्द्रजी ने तो स्वप्न में भी इस पर (मेरी इस ढिठाई और दोष पर) ध्यान नहीं
दिया॥1॥
*
सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
कहत
नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥2॥
भावार्थ:-वरन
मेरे प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने तो इस बात को सुनकर, देखकर और
अपने सुचित्त रूपी चक्षु से निरीक्षण कर मेरी भक्ति और बुद्धि की (उलटे) सराहना की,
क्योंकि कहने में चाहे बिगड़ जाए (अर्थात् मैं चाहे अपने को भगवान
का सेवक कहता-कहलाता रहूँ), परन्तु हृदय में अच्छापन होना
चाहिए। (हृदय में तो अपने को उनका सेवक बनने योग्य नहीं मानकर पापी और दीन ही
मानता हूँ, यह अच्छापन है।) श्री रामचन्द्रजी भी दास के हृदय
की (अच्छी) स्थिति जानकर रीझ जाते हैं॥2॥
*
रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥
जेहिं
अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली॥3॥
भावार्थ:-प्रभु
के चित्त में अपने भक्तों की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती (वे उसे भूल जाते हैं) और
उनके हृदय (की अच्छाई-नेकी) को सौ-सौ बार याद करते रहते हैं। जिस पाप के कारण
उन्होंने बालि को व्याध की तरह मारा था, वैसी ही कुचाल फिर
सुग्रीव ने चली॥3॥
*
सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहूँ सो न राम हियँ हेरी॥
ते
भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥4॥
भावार्थ:-वही
करनी विभीषण की थी,
परन्तु श्री रामचन्द्रजी ने स्वप्न में भी उसका मन में विचार नहीं
किया। उलटे भरतजी से मिलने के समय श्री रघुनाथजी ने उनका सम्मान किया और राजसभा
में भी उनके गुणों का बखान किया॥4॥
दोहा
:
*
प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।
तुलसी
कहूँ न राम से साहिब सील निधान॥29 क॥
भावार्थ:-प्रभु
(श्री रामचन्द्रजी) तो वृक्ष के नीचे और बंदर डाली पर (अर्थात कहाँ मर्यादा
पुरुषोत्तम सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्री रामजी और कहाँ पेड़ों की शाखाओं पर कूदने
वाले बंदर),
परन्तु ऐसे बंदरों को भी उन्होंने अपने समान बना लिया। तुलसीदासजी
कहते हैं कि श्री रामचन्द्रजी सरीखे शीलनिधान स्वामी कहीं भी नहीं हैं॥29 (क)॥
*
राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।
जौं
यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥29 ख॥
भावार्थ:-हे
श्री रामजी! आपकी अच्छाई से सभी का भला है (अर्थात आपका कल्याणमय स्वभाव सभी का
कल्याण करने वाला है) यदि यह बात सच है तो तुलसीदास का भी सदा कल्याण ही होगा॥29 (ख)॥
*
एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
बरनउँ
रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥29 ग॥
भावार्थ:-इस
प्रकार अपने गुण-दोषों को कहकर और सबको फिर सिर नवाकर मैं श्री रघुनाथजी का निर्मल
यश वर्णन करता हूँ,
जिसके सुनने से कलियुग के पाप नष्ट हो जाते हैं॥29 (ग)॥
चौपाई
:
*
जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
कहिहउँ
सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥1॥
भावार्थ:-मुनि
याज्ञवल्क्यजी ने जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी को सुनाई थी, उसी संवाद को मैं बखानकर कहूँगा, सब सज्जन सुख का
अनुभव करते हुए उसे सुनें॥1॥
*
संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
सोइ
सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥2॥
भावार्थ:-शिवजी
ने पहले इस सुहावने चरित्र को रचा, फिर कृपा करके
पार्वतीजी को सुनाया। वही चरित्र शिवजी ने काकभुशुण्डिजी को रामभक्त और अधिकारी
पहचानकर दिया॥2॥
*
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
ते
श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥3॥
भावार्थ:-उन
काकभुशुण्डिजी से फिर याज्ञवल्क्यजी ने पाया और उन्होंने फिर उसे भरद्वाजजी को
गाकर सुनाया। वे दोनों वक्ता और श्रोता (याज्ञवल्क्य और भरद्वाज) समान शील वाले और
समदर्शी हैं और श्री हरि की लीला को जानते हैं॥3॥
*
जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥
औरउ
जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥4॥
भावार्थ:-वे
अपने ज्ञान से तीनों कालों की बातों को हथेली पर रखे हुए आँवले के समान
(प्रत्यक्ष) जानते हैं। और भी जो सुजान (भगवान की लीलाओं का रहस्य जानने वाले) हरि
भक्त हैं,
वे इस चरित्र को नाना प्रकार से कहते, सुनते
और समझते हैं॥4॥
दोहा
:
*
मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी
नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥30 क॥
भावार्थ:-फिर
वही कथा मैंने वाराह क्षेत्र में अपने गुरुजी से सुनी, परन्तु उस समय मैं लड़कपन के कारण बहुत बेसमझ था, इससे
उसको उस प्रकार (अच्छी तरह) समझा नहीं॥30 (क)॥
*
श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।
किमि
समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥30ख॥
भावार्थ:-श्री
रामजी की गूढ़ कथा के वक्ता (कहने वाले) और श्रोता (सुनने वाले) दोनों ज्ञान के
खजाने (पूरे ज्ञानी) होते हैं। मैं कलियुग के पापों से ग्रसा हुआ महामूढ़ जड़ जीव
भला उसको कैसे समझ सकता था?॥30 ख॥
चौपाई
:
*
तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
भाषाबद्ध
करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥1॥
भावार्थ:-तो
भी गुरुजी ने जब बार-बार कथा कही, तब बुद्धि के अनुसार कुछ समझ
में आई। वही अब मेरे द्वारा भाषा में रची जाएगी, जिससे मेरे
मन को संतोष हो॥1॥
*
जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
निज
संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥2॥
भावार्थ:-जैसा
कुछ मुझमें बुद्धि और विवेक का बल है, मैं हृदय में हरि
की प्रेरणा से उसी के अनुसार कहूँगा। मैं अपने संदेह, अज्ञान
और भ्रम को हरने वाली कथा रचता हूँ, जो संसार रूपी नदी के
पार करने के लिए नाव है॥2॥
*
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
रामकथा
कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥3॥
भावार्थ:-रामकथा
पण्डितों को विश्राम देने वाली, सब मनुष्यों को प्रसन्न करने
वाली और कलियुग के पापों का नाश करने वाली है। रामकथा कलियुग रूपी साँप के लिए
मोरनी है और विवेक रूपी अग्नि के प्रकट करने के लिए अरणि (मंथन की जाने वाली
लकड़ी) है, (अर्थात इस कथा से ज्ञान की प्राप्ति होती है)॥3॥
*
रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
सोइ
बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥4॥
भावार्थ:-रामकथा
कलियुग में सब मनोरथों को पूर्ण करने वाली कामधेनु गौ है और सज्जनों के लिए सुंदर
संजीवनी जड़ी है। पृथ्वी पर यही अमृत की नदी है, जन्म-मरण
रूपी भय का नाश करने वाली और भ्रम रूपी मेंढकों को खाने के लिए सर्पिणी है॥4॥
*
असुर सेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥
संत
समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥5॥
भावार्थ:-यह
रामकथा असुरों की सेना के समान नरकों का नाश करने वाली और साधु रूप देवताओं के कुल
का हित करने वाली पार्वती (दुर्गा) है। यह संत-समाज रूपी क्षीर समुद्र के लिए
लक्ष्मीजी के समान है और सम्पूर्ण विश्व का भार उठाने में अचल पृथ्वी के समान है॥5॥
*
जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
रामहि
प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥6॥
भावार्थ:-यमदूतों
के मुख पर कालिख लगाने के लिए यह जगत में यमुनाजी के समान है और जीवों को मुक्ति
देने के लिए मानो काशी ही है। यह श्री रामजी को पवित्र तुलसी के समान प्रिय है और
तुलसीदास के लिए हुलसी (तुलसीदासजी की माता) के समान हृदय से हित करने वाली है॥6॥
*
सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥
सदगुन
सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥7॥
भावार्थ:-यह
रामकथा शिवजी को नर्मदाजी के समान प्यारी है, यह सब सिद्धियों की
तथा सुख-सम्पत्ति की राशि है। सद्गुण रूपी देवताओं के उत्पन्न और पालन-पोषण करने
के लिए माता अदिति के समान है। श्री रघुनाथजी की भक्ति और प्रेम की परम सीमा सी
है॥7॥
दोहा
:
*
रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
तुलसी
सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥31॥
भावार्थ:-तुलसीदासजी
कहते हैं कि रामकथा मंदाकिनी नदी है, सुंदर (निर्मल)
चित्त चित्रकूट है और सुंदर स्नेह ही वन है, जिसमें श्री
सीतारामजी विहार करते हैं॥31॥
चौपाई
:
*
रामचरित चिंतामति चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥
जग
मंगल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी का चरित्र सुंदर चिन्तामणि है और संतों की सुबुद्धि रूपी स्त्री का
सुंदर श्रंगार है। श्री रामचन्द्रजी के गुण-समूह जगत् का कल्याण करने वाले और
मुक्ति,
धन, धर्म और परमधाम के देने वाले हैं॥1॥
*
सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
जननि
जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥2॥
भावार्थ:-ज्ञान, वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु हैं और संसार रूपी भयंकर रोग का नाश करने
के लिए देवताओं के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये श्री सीतारामजी के प्रेम
के उत्पन्न करने के लिए माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म
और नियमों के बीज हैं॥2॥
*
समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥
सचिव
सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के॥3॥
भावार्थ:-पाप, संताप और शोक का नाश करने वाले तथा इस लोक और परलोक के प्रिय पालन करने
वाले हैं। विचार (ज्ञान) रूपी राजा के शूरवीर मंत्री और लोभ रूपी अपार समुद्र के
सोखने के लिए अगस्त्य मुनि हैं॥3॥
*
काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥
अतिथि
पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥4॥
भावार्थ:-भक्तों
के मन रूपी वन में बसने वाले काम, क्रोध और कलियुग के पाप रूपी
हाथियों को मारने के लिए सिंह के बच्चे हैं। शिवजी के पूज्य और प्रियतम अतिथि हैं
और दरिद्रता रूपी दावानल के बुझाने के लिए कामना पूर्ण करने वाले मेघ हैं॥4॥
*
मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥
हरन
मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥5॥
भावार्थ:-विषय
रूपी साँप का जहर उतारने के लिए मन्त्र और महामणि हैं। ये ललाट पर लिखे हुए कठिनता
से मिटने वाले बुरे लेखों (मंद प्रारब्ध) को मिटा देने वाले हैं। अज्ञान रूपी
अन्धकार को हरण करने के लिए सूर्य किरणों के समान और सेवक रूपी धान के पालन करने
में मेघ के समान हैं॥5॥
*
अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥
सुकबि
सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥6॥
भावार्थ:-मनोवांछित
वस्तु देने में श्रेष्ठ कल्पवृक्ष के समान हैं और सेवा करने में हरि-हर के समान
सुलभ और सुख देने वाले हैं। सुकवि रूपी शरद् ऋतु के मन रूपी आकाश को सुशोभित करने
के लिए तारागण के समान और श्री रामजी के भक्तों के तो जीवन धन ही हैं॥6॥
*
सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥
सेवक
मन मानस मराल से। पावन गंग तरंग माल से॥7॥
भावार्थ:-सम्पूर्ण
पुण्यों के फल महान भोगों के समान हैं। जगत का छलरहित (यथार्थ) हित करने में
साधु-संतों के समान हैं। सेवकों के मन रूपी मानसरोवर के लिए हंस के समान और पवित्र
करने में गंगाजी की तरंगमालाओं के समान हैं॥7॥
दोहा
:
*
कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
दहन
राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥32 क॥
भावार्थ:-श्री
रामजी के गुणों के समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल
और कलियुग के कपट, दम्भ और पाखण्ड को जलाने के लिए वैसे ही
हैं, जैसे ईंधन के लिए प्रचण्ड अग्नि॥32 (क)॥
*
रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन
कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥32 ख॥
भावार्थ:-रामचरित्र
पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणों के समान सभी को सुख देने वाले हैं, परन्तु सज्जन रूपी कुमुदिनी और चकोर के चित्त के लिए तो विशेष हितकारी और
महान लाभदायक हैं॥32 (ख)॥
चौपाई
:
*
कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥
सो
सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबंध बिचित्र बनाई॥1॥
भावार्थ:-जिस
प्रकार श्री पार्वतीजी ने श्री शिवजी से प्रश्न किया और जिस प्रकार से श्री शिवजी
ने विस्तार से उसका उत्तर कहा, वह सब कारण मैं विचित्र कथा की
रचना करके गाकर कहूँगा॥1॥
*
जेहिं यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करै सुनि सोई॥
कथा
अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥2॥
रामकथा
कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
नाना
भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥3॥
भावार्थ:-जिसने
यह कथा पहले न सुनी हो,
वह इसे सुनकर आश्चर्य न करे। जो ज्ञानी इस विचित्र कथा को सुनते हैं,
वे यह जानकर आश्चर्य नहीं करते कि संसार में रामकथा की कोई सीमा
नहीं है (रामकथा अनंत है)। उनके मन में ऐसा विश्वास रहता है। नाना प्रकार से श्री
रामचन्द्रजी के अवतार हुए हैं और सौ करोड़ तथा अपार रामायण हैं॥2-3॥
*
कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥
करिअ
न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सादर रति मानी॥4॥
भावार्थ:-कल्पभेद
के अनुसार श्री हरि के सुंदर चरित्रों को मुनीश्वरों ने अनेकों प्रकार से गया है।
हृदय में ऐसा विचार कर संदेह न कीजिए और आदर सहित प्रेम से इस कथा को सुनिए॥4॥
दोहा
:
*
राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।
सुनि
आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥33॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी अनन्त हैं,
उनके गुण भी अनन्त हैं और उनकी कथाओं का विस्तार भी असीम है। अतएव
जिनके विचार निर्मल हैं, वे इस कथा को सुनकर आश्चर्य नहीं
मानेंगे॥3॥
चौपाई
:
*
एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥
पुनि
सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥1॥
भावार्थ:-इस
प्रकार सब संदेहों को दूर करके और श्री गुरुजी के चरणकमलों की रज को सिर पर धारण
करके मैं पुनः हाथ जोड़कर सबकी विनती करता हूँ, जिससे कथा की रचना
में कोई दोष स्पर्श न करने पावे॥1॥
मानस
निर्माण की तिथि
*
सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥
संबत
सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥2॥
भावार्थ:-अब
मैं आदरपूर्वक श्री शिवजी को सिर नवाकर श्री रामचन्द्रजी के गुणों की निर्मल कथा
कहता हूँ। श्री हरि के चरणों पर सिर रखकर संवत् 1631 में इस
कथा का आरंभ करता हूँ॥2॥
*
नौमी भौम बार मधुमासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥
जेहि
दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल जहाँ चलि आवहिं॥3॥
भावार्थ:-चैत्र
मास की नवमी तिथि मंगलवार को श्री अयोध्याजी में यह चरित्र प्रकाशित हुआ। जिस दिन
श्री रामजी का जन्म होता है, वेद कहते हैं कि उस दिन सारे
तीर्थ वहाँ (श्री अयोध्याजी में) चले आते हैं॥3॥
*
असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥
जन्म
महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥4॥
भावार्थ:-असुर-नाग, पक्षी, मनुष्य, मुनि और देवता
सब अयोध्याजी में आकर श्री रघुनाथजी की सेवा करते हैं। बुद्धिमान लोग जन्म का
महोत्सव मनाते हैं और श्री रामजी की सुंदर कीर्ति का गान करते हैं॥4॥
दोहा
:
*
मज्जहिं सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।
जपहिं
राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर॥34॥
भावार्थ:-सज्जनों
के बहुत से समूह उस दिन श्री सरयूजी के पवित्र जल में स्नान करते हैं और हृदय में
सुंदर श्याम शरीर श्री रघुनाथजी का ध्यान करके उनके नाम का जप करते हैं॥34॥
चौपाई
:
*
दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥
नदी
पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥1॥
भावार्थ:-वेद-पुराण
कहते हैं कि श्री सरयूजी का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है। यह नदी बड़ी ही पवित्र है, इसकी महिमा अनन्त है, जिसे विमल बुद्धि वाली
सरस्वतीजी भी नहीं कह सकतीं॥1॥
*
राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि॥
चारि
खानि जग जीव अपारा। अवध तजें तनु नहिं संसारा॥2॥
भावार्थ:-यह
शोभायमान अयोध्यापुरी श्री रामचन्द्रजी के परमधाम की देने वाली है, सब लोकों में प्रसिद्ध है और अत्यन्त पवित्र है। जगत में (अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज और जरायुज) चार खानि (प्रकार) के
अनन्त जीव हैं, इनमें से जो कोई भी अयोध्याजी में शरीर छोड़ते
हैं, वे फिर संसार में नहीं आते (जन्म-मृत्यु के चक्कर से
छूटकर भगवान के परमधाम में निवास करते हैं)॥2॥
*
सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी॥
बिमल
कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा॥3॥
भावार्थ:-इस
अयोध्यापुरी को सब प्रकार से मनोहर, सब सिद्धियों की
देने वाली और कल्याण की खान समझकर मैंने इस निर्मल कथा का आरंभ किया, जिसके सुनने से काम, मद और दम्भ नष्ट हो जाते हैं॥3॥
*
रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
मन
करि बिषय अनल बन जरई। होई सुखी जौं एहिं सर परई॥4॥
भावार्थ:-इसका
नाम रामचरित मानस है,
जिसके कानों से सुनते ही शांति मिलती है। मन रूपी हाथी विषय रूपी
दावानल में जल रहा है, वह यदि इस रामचरित मानस रूपी सरोवर में
आ पड़े तो सुखी हो जाए॥4॥
*
रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन॥
त्रिबिध
दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥5॥
भावार्थ:-यह
रामचरित मानस मुनियों का प्रिय है, इस सुहावने और
पवित्र मानस की शिवजी ने रचना की। यह तीनों प्रकार के दोषों, दुःखों और दरिद्रता को तथा कलियुग की कुचालों और सब पापों का नाश करने
वाला है॥5॥
*
रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
तातें
रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥6॥
भावार्थ:-श्री
महादेवजी ने इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वतीजी से कहा। इसी
से शिवजी ने इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुंदर 'रामचरित मानस' नाम रखा॥6॥
*
कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥7॥
भावार्थ:-मैं
उसी सुख देने वाली सुहावनी रामकथा को कहता हूँ, हे सज्जनों!
आदरपूर्वक मन लगाकर इसे सुनिए॥7॥
मानस
का रूप और माहात्म्य
दोहा
:
*
जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
अब
सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥35॥
भावार्थ:-यह
रामचरित मानस जैसा है,
जिस प्रकार बना है और जिस हेतु से जगत में इसका प्रचार हुआ, अब वही सब कथा मैं श्री उमा-महेश्वर का स्मरण करके कहता हूँ॥35॥
चौपाई
:
*
संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥
करइ
मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥1॥
भावार्थ:-श्री
शिवजी की कृपा से उसके हृदय में सुंदर बुद्धि का विकास हुआ, जिससे यह तुलसीदास श्री रामचरित मानस का कवि हुआ। अपनी बुद्धि के अनुसार
तो वह इसे मनोहर ही बनाता है, किन्तु फिर भी हे सज्जनो!
सुंदर चित्त से सुनकर इसे आप सुधार लीजिए॥1॥
*
सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
बरषहिं
राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी॥2॥
भावार्थ:-सुंदर
(सात्त्वकी) बुद्धि भूमि है, हृदय ही उसमें गहरा स्थान है,
वेद-पुराण समुद्र हैं और साधु-संत मेघ हैं। वे (साधु रूपी मेघ) श्री
रामजी के सुयश रूपी सुंदर, मधुर, मनोहर
और मंगलकारी जल की वर्षा करते हैं॥2॥
*
लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥
प्रेम
भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥3॥
भावार्थ:-सगुण
लीला का जो विस्तार से वर्णन करते हैं, वही राम सुयश रूपी
जल की निर्मलता है, जो मल का नाश करती है और जिस प्रेमाभक्ति
का वर्णन नहीं किया जा सकता, वही इस जल की मधुरता और सुंदर
शीतलता है॥3॥
*
सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥
मेधा
महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥4॥
भरेउ
सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥5॥
भावार्थ:-वह
(राम सुयश रूपी) जल सत्कर्म रूपी धान के लिए हितकर है और श्री रामजी के भक्तों का
तो जीवन ही है। वह पवित्र जल बुद्धि रूपी पृथ्वी पर गिरा और सिमटकर सुहावने कान
रूपी मार्ग से चला और मानस (हृदय) रूपी श्रेष्ठ स्थान में भरकर वहीं स्थिर हो गया।
वही पुराना होकर सुंदर,
रुचिकर, शीतल और सुखदाई हो गया॥4-5॥
दोहा
:
*
सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
तेइ
एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥36॥
भावार्थ:-इस
कथा में बुद्धि से विचारकर जो चार अत्यन्त सुंदर और उत्तम संवाद (भुशुण्डि-गरुड़, शिव-पार्वती, याज्ञवल्क्य-भरद्वाज और तुलसीदास और
संत) रचे हैं, वही इस पवित्र और सुंदर सरोवर के चार मनोहर
घाट हैं॥36॥
चौपाई
:
*
सप्त प्रबंध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥
रघुपति
महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥1॥
भावार्थ:-सात
काण्ड ही इस मानस सरोवर की सुंदर सात सीढ़ियाँ हैं, जिनको ज्ञान
रूपी नेत्रों से देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है। श्री रघुनाथजी की निर्गुण
(प्राकृतिक गुणों से अतीत) और निर्बाध (एकरस) महिमा का जो वर्णन किया जाएगा,
वही इस सुंदर जल की अथाह गहराई है॥1॥
*
राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥
पुरइनि
सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई॥2॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी और सीताजी का यश अमृत के समान जल है। इसमें जो उपमाएँ दी गई हैं, वही तरंगों का मनोहर विलास है। सुंदर चौपाइयाँ ही इसमें घनी फैली हुई
पुरइन (कमलिनी) हैं और कविता की युक्तियाँ सुंदर मणि (मोती) उत्पन्न करने वाली
सुहावनी सीपियाँ हैं॥2॥
*
छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥
अरथ
अनूप सुभाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा॥3॥
भावार्थ:-जो
सुंदर छन्द,
सोरठे और दोहे हैं, वही इसमें बहुरंगे कमलों
के समूह सुशोभित हैं। अनुपम अर्थ, ऊँचे भाव और सुंदर भाषा ही
पराग (पुष्परज), मकरंद (पुष्परस) और सुगंध हैं॥3॥
*
सुकृत पुंज मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥
धुनि
अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती॥4॥
भावार्थ:-सत्कर्मों
(पुण्यों) के पुंज भौंरों की सुंदर पंक्तियाँ हैं, ज्ञान,
वैराग्य और विचार हंस हैं। कविता की ध्वनि वक्रोक्ति, गुण और जाति ही अनेकों प्रकार की मनोहर मछलियाँ हैं॥4॥
*
अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥
नव
रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा॥5॥
भावार्थ:-अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष- ये चारों,
ज्ञान-विज्ञान का विचार के कहना, काव्य के नौ
रस, जप, तप, योग
और वैराग्य के प्रसंग- ये सब इस सरोवर के सुंदर जलचर जीव हैं॥5॥
*
सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जलबिहग समाना॥
संतसभा
चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥6॥
भावार्थ:-सुकृती
(पुण्यात्मा) जनों के,
साधुओं के और श्री रामनाम के गुणों का गान ही विचित्र जल पक्षियों
के समान है। संतों की सभा ही इस सरोवर के चारों ओर की अमराई (आम की बगीचियाँ) हैं
और श्रद्धा वसन्त ऋतु के समान कही गई है॥6॥
*
भगति निरूपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥
सम
जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पद रति रस बेद बखाना॥7॥
भावार्थ:-नाना
प्रकार से भक्ति का निरूपण और क्षमा, दया तथा दम
(इन्द्रिय निग्रह) लताओं के मण्डप हैं। मन का निग्रह, यम
(अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह), नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर
प्रणिधान) ही उनके फूल हैं, ज्ञान फल है और श्री हरि के
चरणों में प्रेम ही इस ज्ञान रूपी फल का रस है। ऐसा वेदों ने कहा है॥7॥
*
औरउ कथा अनेक प्रसंगा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा॥8॥
भावार्थ:-इस
(रामचरित मानस) में और भी जो अनेक प्रसंगों की कथाएँ हैं, वे ही इसमें तोते, कोयल आदि रंग-बिरंगे पक्षी हैं॥8॥
दोहा
:
*
पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।
माली
सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥37॥
भावार्थ:-कथा
में जो रोमांच होता है,
वही वाटिका, बाग और वन है और जो सुख होता है,
वही सुंदर पक्षियों का विहार है। निर्मल मन ही माली है, जो प्रेमरूपी जल से सुंदर नेत्रों द्वारा उनको सींचता है॥37॥
चौपाई
:
*
जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥
सदा
सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥1॥
भावार्थ:-जो
लोग इस चरित्र को सावधानी से गाते हैं, वे ही इस तालाब के
चतुर रखवाले हैं और जो स्त्री-पुरुष सदा आदरपूर्वक इसे सुनते हैं, वे ही इस सुंदर मानस के अधिकारी उत्तम देवता हैं॥1॥
*
अति खल जे बिषई बग कागा। एहि सर निकट न जाहिं अभागा॥
संबुक
भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥2॥
भावार्थ:-जो
अति दुष्ट और विषयी हैं,
वे अभागे बगुले और कौए हैं, जो इस सरोवर के
समीप नहीं जाते, क्योंकि यहाँ (इस मानस सरोवर में) घोंघे,
मेंढक और सेवार के समान विषय रस की नाना कथाएँ नहीं हैं॥2॥
*
तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥
आवत
ऐहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥3॥
भावार्थ:-इसी
कारण बेचारे कौवे और बगुले रूपी विषयी लोग यहाँ आते हुए हृदय में हार मान जाते हैं, क्योंकि इस सरोवर तक आने में कठिनाइयाँ बहुत हैं। श्री रामजी की कृपा बिना
यहाँ नहीं आया जाता॥3॥
*
कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
गृह
कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥4॥
भावार्थ:-घोर
कुसंग ही भयानक बुरा रास्ता है, उन कुसंगियों के वचन ही बाघ,
सिंह और साँप हैं। घर के कामकाज और गृहस्थी के भाँति-भाँति के जंजाल
ही अत्यंत दुर्गम बड़े-बड़े पहाड़ हैं॥4॥
*
बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥5॥
भावार्थ:-मोह, मद और मान ही बहुत से बीहड़ वन हैं और नाना प्रकार के कुतर्क ही भयानक
नदियाँ हैं॥5॥
दोहा
:
*
जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ।
तिन्ह
कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥38॥
भावार्थ:-जिनके
पास श्रद्धा रूपी राह खर्च नहीं है और संतों का साथ नहीं है और जिनको श्री
रघुनाथजी प्रिय हैं,
उनके लिए यह मानस अत्यंत ही अगम है। (अर्थात् श्रद्धा, सत्संग और भगवत्प्रेम के बिना कोई इसको नहीं पा सकता)॥38॥
चौपाई
:
*
जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नीद जुड़ाई होई॥
जड़ता
जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥1॥
भावार्थ:-यदि
कोई मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँ तक पहुँच भी जाए, तो वहाँ जाते ही
उसे नींद रूपी ज़ूडी आ जाती है। हृदय में मूर्खता रूपी बड़ा कड़ा जाड़ा लगने लगता
है, जिससे वहाँ जाकर भी वह अभागा स्नान नहीं कर पाता॥1॥
*
करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना।
जौं
बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥2॥
भावार्थ:-उससे
उस सरोवर में स्नान और उसका जलपान तो किया नहीं जाता, वह अभिमान सहित लौट आता है। फिर यदि कोई उससे (वहाँ का हाल) पूछने आता है,
तो वह (अपने अभाग्य की बात न कहकर) सरोवर की निंदा करके उसे समझाता
है॥2॥
*
सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ
सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥3॥
भावार्थ:-ये
सारे विघ्न उसको नहीं व्यापते (बाधा नहीं देते) जिसे श्री रामचंद्रजी सुंदर कृपा
की दृष्टि से देखते हैं। वही आदरपूर्वक इस सरोवर में स्नान करता है और महान्
भयानक त्रिताप से (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तापों से) नहीं जलता॥3॥
*
ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह कें राम चरन भल भाऊ॥
जो
नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥4॥
भावार्थ:-जिनके
मन में श्री रामचंद्रजी के चरणों में सुंदर प्रेम है, वे इस सरोवर को कभी नहीं छोड़ते। हे भाई! जो इस सरोवर में स्नान करना चाहे,
वह मन लगाकर सत्संग करे॥4॥
*
अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ
हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥5॥
भावार्थ:-ऐसे
मानस सरोवर को हृदय के नेत्रों से देखकर और उसमें गोता लगाकर कवि की बुद्धि निर्मल
हो गई,
हृदय में आनंद और उत्साह भर गया और प्रेम तथा आनंद का प्रवाह उमड़
आया॥5॥
*चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरित सो।
सरजू
नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥6॥
भावार्थ:-उससे
वह सुंदर कविता रूपी नदी बह निकली, जिसमें श्री रामजी
का निर्मल यश रूपी जल भरा है। इस (कवितारूपिणी नदी) का नाम सरयू है, जो संपूर्ण सुंदर मंगलों की जड़ है। लोकमत और वेदमत इसके दो सुंदर किनारे
हैं॥6॥
*
नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥7॥
भावार्थ:-यह
सुंदर मानस सरोवर की कन्या सरयू नदी बड़ी पवित्र है और कलियुग के (छोटे-बड़े) पाप
रूपी तिनकों और वृक्षों को जड़ से उखाड़ फेंकने वाली है॥7॥
दोहा
:
*
श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
संतसभा
अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥39॥
भावार्थ:-तीनों
प्रकार के श्रोताओं का समाज ही इस नदी के दोनों किनारों पर बसे हुए पुरवे, गाँव और नगर में है और संतों की सभा ही सब सुंदर मंगलों की जड़ अनुपम
अयोध्याजी हैं॥39॥
चौपाई
:
*
रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
सानुज
राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥1॥
भावार्थ:-सुंदर
कीर्ति रूपी सुहावनी सरयूजी रामभक्ति रूपी गंगाजी में जा मिलीं। छोटे भाई लक्ष्मण
सहित श्री रामजी के युद्ध का पवित्र यश रूपी सुहावना महानद सोन उसमें आ मिला॥1॥
*
जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
त्रिबिध
ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरूप सिंधु समुहानी॥2॥
भावार्थ:-दोनों
के बीच में भक्ति रूपी गंगाजी की धारा ज्ञान और वैराग्य के सहित शोभित हो रही है।
ऐसी तीनों तापों को डराने वाली यह तिमुहानी नदी रामस्वरूप रूपी समुद्र की ओर जा
रही है॥2॥
*मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥
बिच
बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥3॥
भावार्थ:-इस
(कीर्ति रूपी सरयू) का मूल मानस (श्री रामचरित) है और यह (रामभक्ति रूपी) गंगाजी
में मिली है,
इसलिए यह सुनने वाले सज्जनों के मन को पवित्र कर देगी। इसके बीच-बीच
में जो भिन्न-भिन्न प्रकार की विचित्र कथाएँ हैं, वे ही मानो
नदी तट के आस-पास के वन और बाग हैं॥3॥
*
उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥
रघुबर
जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई॥4॥
भावार्थ:-श्री
पार्वतीजी और शिवजी के विवाह के बाराती इस नदी में बहुत प्रकार के असंख्य जलचर जीव
हैं। श्री रघुनाथजी के जन्म की आनंद-बधाइयाँ ही इस नदी के भँवर और तरंगों की
मनोहरता है॥4॥
दोहाः
*
बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।
नृप
रानी परिजन सुकृत मधुकर बारि बिहंग॥40॥
भावार्थ:-चारों
भाइयों के जो बालचरित हैं,
वे ही इसमें खिले हुए रंग-बिरंगे बहुत से कमल हैं। महाराज श्री
दशरथजी तथा उनकी रानियों और कुटुम्बियों के सत्कर्म (पुण्य) ही भ्रमर और जल पक्षी
हैं॥40॥
चौपाई
:
*
सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥
नदी
नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥1॥
भावार्थ:-श्री
सीताजी के स्वयंवर की जो सुन्दर कथा है, वह इस नदी में
सुहावनी छबि छा रही है। अनेकों सुंदर विचारपूर्ण प्रश्न ही इस नदी की नावें हैं और
उनके विवेकयुक्त उत्तर ही चतुर केवट हैं॥1॥
*
सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥
घोर
धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥2॥
भावार्थ:-इस
कथा को सुनकर पीछे जो आपस में चर्चा होती है, वही इस नदी के
सहारे-सहारे चलने वाले यात्रियों का समाज शोभा पा रहा है। परशुरामजी का क्रोध इस
नदी की भयानक धारा है और श्री रामचंद्रजी के श्रेष्ठ वचन ही सुंदर बँधे हुए घाट
हैं॥2॥
*
सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥
कहत
सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥3॥
भावार्थ:-भाइयों
सहित श्री रामचंद्रजी के विवाह का उत्साह ही इस कथा नदी की कल्याणकारिणी बाढ़ है, जो सभी को सुख देने वाली है। इसके कहने-सुनने में जो हर्षित और पुलकित
होते हैं, वे ही पुण्यात्मा पुरुष हैं, जो प्रसन्न मन से इस नदी में नहाते हैं॥3॥
*
राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा।
काई
कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥4॥
भावार्थ:-श्री
रामचंद्रजी के राजतिलक के लिए जो मंगल साज सजाया गया, वही मानो पर्व के समय इस नदी पर यात्रियों के समूह इकट्ठे हुए हैं। कैकेयी
की कुबुद्धि ही इस नदी में काई है, जिसके फलस्वरूप बड़ी भारी
विपत्ति आ पड़ी॥4॥
दोहा
:
*
समन अमित उतपात सब भरत चरित जपजाग।
कलि
अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥
भावार्थ:-संपूर्ण
अनगिनत उत्पातों को शांत करने वाला भरतजी का चरित्र नदी तट पर किया जाने वाला
जपयज्ञ है। कलियुग के पापों और दुष्टों के अवगुणों के जो वर्णन हैं, वे ही इस नदी के जल का कीचड़ और बगुले-कौए हैं॥41॥
चौपाई
:
*
कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
हिम
हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥1॥
भावार्थ:-यह
कीर्तिरूपिणी नदी छहों ऋतुओं में सुंदर है। सभी समय यह परम सुहावनी और अत्यंत पवित्र
है। इसमें शिव-पार्वती का विवाह हेमंत ऋतु है। श्री रामचंद्रजी के जन्म का उत्सव
सुखदायी शिशिर ऋतु है॥1॥
*
बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू॥
ग्रीषम
दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥2॥
भावार्थ:-श्री
रामचंद्रजी के विवाह समाज का वर्णन ही आनंद-मंगलमय ऋतुराज वसंत है। श्री रामजी का
वनगमन दुःसह ग्रीष्म ऋतु है और मार्ग की कथा ही कड़ी धूप और लू है॥2॥
*
बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥
राम
राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥3॥
भावार्थ:-राक्षसों
के साथ घोर युद्ध ही वर्षा ऋतु है, जो देवकुल रूपी धान
के लिए सुंदर कल्याण करने वाली है। रामचंद्रजी के राज्यकाल का जो सुख, विनम्रता और बड़ाई है, वही निर्मल सुख देने वाली
सुहावनी शरद् ऋतु है॥3॥
*
सती सिरोमनि सिय गुन गाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
भरत
सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥4॥
भावार्थ:-सती-शिरोमणि
श्री सीताजी के गुणों की जो कथा है, वही इस जल का
निर्मल और अनुपम गुण है। श्री भरतजी का स्वभाव इस नदी की सुंदर शीतलता है, जो सदा एक सी रहती है और जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता॥4॥
दोहा
:
*
अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
भायप
भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास॥42॥
भावार्थ:-चारों
भाइयों का परस्पर देखना,
बोलना, मिलना, एक-दूसरे
से प्रेम करना, हँसना और सुंदर भाईपना इस जल की मधुरता और
सुगंध है॥42॥
चौपाई
:
*
आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
अदभुत
सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥1॥
भावार्थ:-मेरा
आर्तभाव,
विनय और दीनता इस सुंदर और निर्मल जल का कम हलकापन नहीं है (अर्थात्
अत्यंत हलकापन है)। यह जल बड़ा ही अनोखा है, जो सुनने से ही
गुण करता है और आशा रूपी प्यास को और मन के मैल को दूर कर देता है॥1॥
*
राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी॥
भव
श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥2॥
भावार्थ:-यह
जल श्री रामचंद्रजी के सुंदर प्रेम को पुष्ट करता है, कलियुग के समस्त पापों और उनसे होने वाली ग्लानि को हर लेता है। (संसार के
जन्म-मृत्यु रूप) श्रम को सोख लेता है, संतोष को भी संतुष्ट
करता है और पाप, दरिद्रता और दोषों को नष्ट कर देता है॥2॥
*
काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
सादर
मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥3॥
भावार्थ:-यह
जल काम,
क्रोध, मद और मोह का नाश करने वाला और निर्मल
ज्ञान और वैराग्य को बढ़ाने वाला है। इसमें आदरपूर्वक स्नान करने से और इसे पीने
से हृदय में रहने वाले सब पाप-ताप मिट जाते हैं॥3॥
*
जिन्ह एहिं बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥
तृषित
निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी॥4॥
भावार्थ:-जिन्होंने
इस (राम सुयश रूपी) जल से अपने हृदय को नहीं धोया, वे कायर
कलिकाल के द्वारा ठगे गए। जैसे प्यासा हिरन सूर्य की किरणों के रेत पर पड़ने से
उत्पन्न हुए जल के भ्रम को वास्तविक जल समझकर पीने को दौड़ता है और जल न पाकर
दुःखी होता है, वैसे ही वे (कलियुग से ठगे हुए) जीव भी
(विषयों के पीछे भटककर) दुःखी होंगे॥4॥
दोहा
:
*
मति अनुहारि सुबारि गुन गन गनि मन अन्हवाइ।
सुमिरि
भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥43 क॥
भावार्थ:-अपनी
बुद्धि के अनुसार इस सुंदर जल के गुणों को विचार कर, उसमें अपने
मन को स्नान कराकर और श्री भवानी-शंकर को स्मरण करके कवि (तुलसीदास) सुंदर कथा
कहता है॥43 (क)॥
याज्ञवल्क्य-भरद्वाज
संवाद तथा प्रयाग माहात्म्य
*
अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद।
कहउँ
जुगल मुनिबर्य कर मिलन सुभग संबाद ॥43 ख॥
भावार्थ:-मैं
अब श्री रघुनाथजी के चरण कमलों को हृदय में धारण कर और उनका प्रसाद पाकर दोनों
श्रेष्ठ मुनियों के मिलन का सुंदर संवाद वर्णन करता हूँ॥43 (ख)॥
चौपाई
:
*
भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
तापस
सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥1॥
भावार्थ:-भरद्वाज
मुनि प्रयाग में बसते हैं,
उनका श्री रामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है। वे तपस्वी, निगृहीत चित्त, जितेन्द्रिय, दया
के निधान और परमार्थ के मार्ग में बड़े ही चतुर हैं॥1॥
*
माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव
दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥2॥
भावार्थ:-माघ
में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं, तब सब लोग तीर्थराज
प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर
और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं॥।2॥
*
पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
भरद्वाज
आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥3॥
भावार्थ:-श्री
वेणीमाधवजी के चरणकमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित
होते हैं। भरद्वाजजी का आश्रम बहुत ही पवित्र, परम रमणीय और
श्रेष्ठ मुनियों के मन को भाने वाला है॥3॥
*
तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
मज्जहिं
प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥4॥
भावार्थ:-तीर्थराज
प्रयाग में जो स्नान करने जाते हैं, उन ऋषि-मुनियों का
समाज वहाँ (भरद्वाज के आश्रम में) जुटता है। प्रातःकाल सब उत्साहपूर्वक स्नान करते
हैं और फिर परस्पर भगवान् के गुणों की कथाएँ कहते हैं॥4॥
दोहा
:
*
ब्रह्म निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।
ककहिं
भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥44॥
भावार्थ:-ब्रह्म
का निरूपण,
धर्म का विधान और तत्त्वों के विभाग का वर्णन करते हैं तथा
ज्ञान-वैराग्य से युक्त भगवान् की भक्ति का कथन करते हैं॥44॥
चौपाई
:
*
एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
प्रति
संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥1॥
भावार्थ:-इसी
प्रकार माघ के महीनेभर स्नान करते हैं और फिर सब अपने-अपने आश्रमों को चले जाते
हैं। हर साल वहाँ इसी तरह बड़ा आनंद होता है। मकर में स्नान करके मुनिगण चले जाते
हैं॥1॥
*
एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
जागबलिक
मुनि परम बिबेकी। भरद्वाज राखे पद टेकी॥2॥
भावार्थ:-एक
बार पूरे मकरभर स्नान करके सब मुनीश्वर अपने-अपने आश्रमों को लौट गए। परम ज्ञानी
याज्ञवल्क्य मुनि को चरण पकड़कर भरद्वाजजी ने रख लिया॥2॥
*
सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥
करि
पूजा मुनि सुजसु बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥3॥
भावार्थ:-आदरपूर्वक
उनके चरण कमल धोए और बड़े ही पवित्र आसन पर उन्हें बैठाया। पूजा करके मुनि
याज्ञवल्क्यजी के सुयश का वर्णन किया और फिर अत्यंत पवित्र और कोमल वाणी से बोले-॥3॥
*
नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥
कहत
सो मोहि लागत भय लाजा। जौं न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥4॥
भावार्थ:-हे
नाथ! मेरे मन में एक बड़ा संदेह है, वेदों का तत्त्व सब
आपकी मुट्ठी में है (अर्थात् आप ही वेद का तत्त्व जानने वाले होने के कारण मेरा
संदेह निवारण कर सकते हैं) पर उस संदेह को कहते मुझे भय और लाज आती है (भय इसलिए
कि कहीं आप यह न समझें कि मेरी परीक्षा ले रहा है, लाज इसलिए
कि इतनी आयु बीत गई, अब तक ज्ञान न हुआ) और यदि नहीं कहता तो
बड़ी हानि होती है (क्योंकि अज्ञानी बना रहता हूँ)॥4॥
दोहा
:
*
संत कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
होइ
न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥45॥
भावार्थ:-हे
प्रभो! संत लोग ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनिजन
भी यही बतलाते हैं कि गुरु के साथ छिपाव करने से हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता॥45॥
चौपाई
:
*
अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
राम
नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा॥1॥
भावार्थ:-यही
सोचकर मैं अपना अज्ञान प्रकट करता हूँ। हे नाथ! सेवक पर कृपा करके इस अज्ञान का
नाश कीजिए। संतों,
पुराणों और उपनिषदों ने राम नाम के असीम प्रभाव का गान किया है॥1॥
*
संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
आकर
चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं॥2॥
भावार्थ:-कल्याण
स्वरूप,
ज्ञान और गुणों की राशि, अविनाशी भगवान्
शम्भु निरंतर राम नाम का जप करते रहते हैं। संसार में चार जाति के जीव हैं,
काशी में मरने से सभी परम पद को प्राप्त करते हैं॥2॥
*सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया॥
रामु
कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥3॥
भावार्थ:-हे
मुनिराज! वह भी राम (नाम) की ही महिमा है, क्योंकि शिवजी
महाराज दया करके (काशी में मरने वाले जीव को) राम नाम का ही उपदेश करते हैं (इसी
से उनको परम पद मिलता है)। हे प्रभो! मैं आपसे पूछता हूँ कि वे राम कौन हैं?
हे कृपानिधान! मुझे समझाकर कहिए॥3॥
*
एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
नारि
बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयउ रोषु रन रावनु मारा॥4॥
भावार्थ:-एक
राम तो अवध नरेश दशरथजी के कुमार हैं, उनका चरित्र सारा
संसार जानता है। उन्होंने स्त्री के विरह में अपार दुःख उठाया और क्रोध आने पर
युद्ध में रावण को मार डाला॥4॥
दोहा
:
*
प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्यधाम
सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥46॥
भावार्थ:-हे
प्रभो! वही राम हैं या और कोई दूसरे हैं, जिनको शिवजी जपते
हैं? आप सत्य के धाम हैं और सब कुछ जानते हैं, ज्ञान विचार कर कहिए॥46॥
*
जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
जागबलिक
बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥1॥
भावार्थ:-हे
नाथ! जिस प्रकार से मेरा यह भारी भ्रम मिट जाए, आप वही कथा
विस्तारपूर्वक कहिए। इस पर याज्ञवल्क्यजी मुस्कुराकर बोले, श्री
रघुनाथजी की प्रभुता को तुम जानते हो॥1॥
*
रामभगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि मैं जानी॥
चाहहु
सुनै राम गुन गूढ़ा कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा॥2॥
भावार्थ:-तुम
मन,
वचन और कर्म से श्री रामजी के भक्त हो। तुम्हारी चतुराई को मैं जान
गया। तुम श्री रामजी के रहस्यमय गुणों को सुनना चाहते हो, इसी
से तुमने ऐसा प्रश्न किया है मानो बड़े ही मूढ़ हो॥2॥
*
तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
महामोहु
महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥3॥
भावार्थ:-हे
तात! तुम आदरपूर्वक मन लगाकर सुनो, मैं श्री रामजी की
सुंदर कथा कहता हूँ। बड़ा भारी अज्ञान विशाल महिषासुर है और श्री रामजी की कथा
(उसे नष्ट कर देने वाली) भयंकर कालीजी हैं॥3॥
सती
का भ्रम,
श्री रामजी का ऐश्वर्य और सती का खेद
*
रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
ऐसेइ
संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥4॥
भावार्थ:-श्री
रामजी की कथा चंद्रमा की किरणों के समान है, जिसे संत रूपी चकोर
सदा पान करते हैं। ऐसा ही संदेह पार्वतीजी ने किया था, तब
महादेवजी ने विस्तार से उसका उत्तर दिया था॥4॥
दोहा
:
*
कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
भयउ
समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥
भावार्थ:-अब
मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वही उमा और शिवजी का संवाद कहता हूँ। वह जिस समय और जिस
हेतु से हुआ,
उसे हे मुनि! तुम सुनो, तुम्हारा विषाद मिट
जाएगा॥47॥
चौपाई
:
*
एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
संग
सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥
भावार्थ:-एक
बार त्रेता युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी
भी थीं। ऋषि ने संपूर्ण जगत् के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया॥1॥
*
रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि
पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥2॥
भावार्थ:-मुनिवर
अगस्त्यजी ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने
परम सुख मानकर सुना। फिर ऋषि ने शिवजी से सुंदर हरिभक्ति पूछी और शिवजी ने उनको
अधिकारी पाकर (रहस्य सहित) भक्ति का निरूपण किया॥2॥
*
कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि
सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी।।3।।
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी के गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनि से
विदा माँगकर शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के साथ घर (कैलास) को चले॥3॥
*
तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता
बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥4॥
भावार्थ:-उन्हीं
दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्री हरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे
अविनाशी भगवान् उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश
में दण्डकवन में विचर रहे थे॥4॥
दोहा
:
*
हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
गुप्त
रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥48 क॥
भावार्थ:-शिवजी
हृदय में विचारते जा रहे थे कि भगवान् के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने
गुप्त रूप से अवतार लिया है, मेरे जाने से सब लोग जान
जाएँगे॥ 48 (क)॥
सोरठा
:
*
संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।
तुलसी
दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48 ख॥
भावार्थ:-श्री
शंकरजी के हृदय में इस बात को लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हो गई, परन्तु सतीजी इस भेद को नहीं जानती थीं। तुलसीदासजी कहते हैं कि शिवजी के
मन में (भेद खुलने का) डर था, परन्तु दर्शन के लोभ से उनके
नेत्र ललचा रहे थे॥48 (ख)॥
चौपाई
:
*
रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
जौं
नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥1॥
भावार्थ:-रावण
ने (ब्रह्माजी से) अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को
प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा रह जाएगा। इस
प्रकार शिवजी विचार करते थे, परन्तु कोई भी युक्ति ठीक नहीं
बैठती थी॥1॥
*
ऐहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह
नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥2॥
भावार्थ:-इस
प्रकार महादेवजी चिन्ता के वश हो गए। उसी समय नीच रावण ने जाकर मारीच को साथ लिया
और वह (मारीच) तुरंत कपट मृग बन गया॥2॥
*
करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग
बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥3॥
भावार्थ:-मूर्ख
(रावण) ने छल करके सीताजी को हर लिया। उसे श्री रामचंद्रजी के वास्तविक प्रभाव का
कुछ भी पता न था। मृग को मारकर भाई लक्ष्मण सहित श्री हरि आश्रम में आए और उसे
खाली देखकर (अर्थात् वहाँ सीताजी को न पाकर) उनके नेत्रों में आँसू भर आए॥3॥
*
बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ
जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥4॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को
खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया॥4॥
दोहा
:
*
अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे
मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए
ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप
से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं॥49॥
चौपाई
:
*
संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा ॥
भरि
लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥
भावार्थ:-श्री
शिवजी ने उसी अवसर पर श्री रामजी को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न
हुआ। उन शोभा के समुद्र (श्री रामचंद्रजी) को शिवजी ने नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया॥1॥
*
जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
चले
जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥2॥
भावार्थ:-जगत्
को पवित्र करने वाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर
कामदेव का नाश करने वाले श्री शिवजी चल पड़े। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनंद से
पुलकित होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे थे॥2॥
*
सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
संकरु
जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥3॥
भावार्थ:-सतीजी
ने शंकरजी की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। (वे मन ही मन
कहने लगीं कि) शंकरजी की सारा जगत् वंदना करता है, वे जगत् के
ईश्वर हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं॥3॥
*
तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥
भए
मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥4॥
भावार्थ:-उन्होंने
एक राजपुत्र को सच्चिदानंद परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने
प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती॥4॥
दोहा
:
*
ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो
कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥50॥
भावार्थ:-जो
ब्रह्म सर्वव्यापक,
मायारहित, अजन्मा, अगोचर,
इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?॥50॥
चौपाई
:
*
बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ
सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥
भावार्थ:-देवताओं
के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान् हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान् विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री
को खोजेंगे?॥1॥
*
संभुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
अस
संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥2॥
भावार्थ:-फिर
शिवजी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं। सती
के मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी
उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता था॥2॥
*
जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि
सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥3॥
भावार्थ:-यद्यपि
भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए।
वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा
संदेह मन में कभी न रखना चाहिए॥3॥
*
जासु कथा कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
सोइ
मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥4॥
भावार्थ:-जिनकी
कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा
ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं॥4॥
छंद
:
*
मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि
नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ
रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ
अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥
भावार्थ:-ज्ञानी
मुनि,
योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद,
पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक,
समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति,
नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मा रूप भगवान् श्री
रामजी ने अपने भक्तों के हित के लिए (अपनी इच्छा से) रघुकुल के मणिरूप में अवतार
लिया है।
सोरठा
:
*
लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
बोले
बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥
भावार्थ:-यद्यपि
शिवजी ने बहुत बार समझाया,
फिर भी सतीजी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महादेवजी मन में
भगवान् की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले-॥51॥
चौपाई
:
*
जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब
लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥
भावार्थ:-जो
तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ की छाँह में बैठा हूँ॥1॥
*
जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
चलीं
सती सिव आयसु पाई। करहिं बेचारु करौं का भाई॥2॥
भावार्थ:-जिस
प्रकार तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, (भली-भाँति)
विवेक के द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना। शिवजी की आज्ञा पाकर सती चलीं और मन में
सोचने लगीं कि भाई! क्या करूँ (कैसे परीक्षा लूँ)?॥2॥
*
इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
मोरेहु
कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥3॥
भावार्थ:-इधर
शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सती का कल्याण नहीं है। जब मेरे
समझाने से भी संदेह दूर नहीं होता तब (मालूम होता है) विधाता ही उलटे हैं, अब सती का कुशल नहीं है॥3॥
*
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस
कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥4॥
भावार्थ:-जो
कुछ राम ने रच रखा है,
वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन में) ऐसा कहकर
शिवजी भगवान् श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ
सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे॥4॥
दोहा
:
*
पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें
होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥
भावार्थ:-सती
बार-बार मन में विचार कर सीताजी का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे (सतीजी के विचारानुसार) मनुष्यों के राजा रामचंद्रजी आ रहे थे॥52॥
चौपाई
:
*
लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि
न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥
भावार्थ:-सतीजी
के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया।
वे बहुत गंभीर हो गए,
कुछ कह नहीं सके। धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजी के प्रभाव को
जानते थे॥1॥
*
सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत
जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥
भावार्थ:-सब
कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने वाले देवताओं के स्वामी श्री रामचंद्रजी सती
के कपट को जान गए,
जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान् श्री रामचंद्रजी हैं॥2॥
*
सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज
माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥
भावार्थ:-स्त्री
स्वभाव का असर तो देखो कि वहाँ (उन सर्वज्ञ भगवान् के सामने) भी सतीजी छिपाव करना
चाहती हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, श्री
रामचंद्रजी हँसकर कोमल वाणी से बोले॥3॥
*
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ
बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥
भावार्थ:-पहले
प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि
वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं?
आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?॥4॥
दोहा
:
*
राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
सती
सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥53॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सतीजी को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई
(चुपचाप) शिवजी के पास चलीं, उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो
गई॥53॥
चौपाई
:
*
मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ
उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥
भावार्थ:-कि
मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब
जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते)
सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गई॥1॥
*
जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सतीं
दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥2॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ, तब उन्होंने अपना
कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा
कि श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। (इस अवसर पर
सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें, वियोग और दुःख की कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह दूर
हो जाए तथा वे प्रकृतिस्थ हों।)॥2॥
*
फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर बेषा॥
जहँ
चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥3॥
भावार्थ:-(तब
उन्होंने) पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी और
सीताजी के साथ श्री रामचन्द्रजी सुंदर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं,
उधर ही प्रभु श्री रामचन्द्रजी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध
मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं॥3॥
*
देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत
चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥4॥
भावार्थ:-सतीजी
ने अनेक शिव,
ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक से एक बढ़कर
असीम प्रभाव वाले थे। (उन्होंने देखा कि) भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता
श्री रामचन्द्रजी की चरणवन्दना और सेवा कर रहे हैं॥4॥
दोहा
:
*
सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं
जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥
भावार्थ:-उन्होंने
अनगिनत अनुपम सती,
ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि देवता थे,
उसी के अनुकूल रूप में (उनकी) ये सब (शक्तियाँ) भी थीं॥54॥
चौपाई
:
*
देखे जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
जीव
चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥1॥
भावार्थ:-सतीजी
ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित वहाँ
उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे॥1॥
*
पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥
अवलोके
रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥2॥
भावार्थ:-(उन्होंने
देखा कि) अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्री रामचन्द्रजी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु श्री रामचन्द्रजी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित श्री
रघुनाथजी बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे॥2॥
*
सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥
हृदय
कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥3॥
भावार्थ:-(सब
जगह) वही रघुनाथजी,
वही लक्ष्मण और वही सीताजी- सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गईं। उनका
हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ
गईं॥3॥
*
बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि
पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥4॥
भावार्थ:-फिर
आँख खोलकर देखा,
तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न दिख पड़ा। तब वे बार-बार
श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ
श्री शिवजी थे॥4॥
दोहा
:
*
गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
लीन्हि
परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥55॥
भावार्थ:-जब
पास पहुँचीं,
तब श्री शिवजी ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजी की किस
प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो॥55॥
मास
पारायण,
दूसरा विश्राम
चौपाई
:
*
सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु
न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥1॥
भावार्थ:-सतीजी
ने श्री रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे
स्वामिन्! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी
ही तरह प्रणाम किया॥1॥
*
जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
तब
संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥2॥
भावार्थ:-आपने
जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा (पूरा)
विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया॥2॥
*
बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
हरि
इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥3॥
भावार्थ:-फिर
श्री रामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके
सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया। सुजान शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की
इच्छा रूपी भावी प्रबल है॥3॥
*
सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौं
अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥4॥
भावार्थ:-सतीजी
ने सीताजी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में
बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो
भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है॥4॥
शिवजी
द्वारा सती का त्याग,
शिवजी की समाधि
दोहा
:
*
परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।
प्रगटि
न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥56॥
भावार्थ:-सती
परम पवित्र हैं,
इसलिए इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है।
प्रकट करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में
बड़ा संताप है॥56॥
चौपाई
:
*तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
एहिं
तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥1॥
भावार्थ:-तब
शिवजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्री रामजी का
स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से मेरी (पति-पत्नी रूप में)
भेंट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया॥1॥
*
अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
चलत
गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥2॥
भावार्थ:-स्थिर
बुद्धि शंकरजी ऐसा विचार कर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को
चले। चलते समय सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी
दृढ़ता की॥2॥
*
अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
सुनि
नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥3॥
भावार्थ:-आपको
छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान् हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता
हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा-॥3॥
*कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
जदपि
सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥4॥
भावार्थ:-हे
कृपालु! कहिए,
आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप
सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा॥4॥
दोहा
:
*
सतीं हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह
कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥57 क॥
भावार्थ:-सतीजी
ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गए। मैंने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ होती है॥57 (क)॥
सोरठा
:
*
जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग
होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥57 ख॥
भावार्थ:-प्रीति
की सुंदर रीति देखिए कि जल भी (दूध के साथ मिलकर) दूध के समान भाव बिकता है, परन्तु फिर कपट रूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है)
और स्वाद (प्रेम) जाता रहता है॥57 (ख)॥
चौ.
*
हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहिं बरनी॥
कृपासिंधु
सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥1॥
भावार्थ:-अपनी
करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका
वर्णन नहीं किया जा सकता। (उन्होंने समझ लिया कि) शिवजी कृपा के परम अथाह सागर
हैं। इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा॥1॥
*
संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥
निज
अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥2॥
भावार्थ:-शिवजी
का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में
व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परन्तु हृदय (भीतर ही भीतर) कुम्हार के आँवे के समान अत्यन्त जलने लगा॥2॥
*
सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥
बरनत
पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥3॥
भावार्थ:-वृषकेतु
शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुंदर कथाएँ कहीं। इस
प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे॥3॥
*
तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥
संकर
सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥4॥
भावार्थ:-वहाँ
फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए।
शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला। उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गई॥4॥
दोहा
:
*सती बसहिं कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।
मरमु
न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥58॥
भावार्थ:-तब
सतीजी कैलास पर रहने लगीं। उनके मन में बड़ा दुःख था। इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं
जानता था। उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था॥58॥
चौपाई
:
*
नित नव सोचु सती उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥
मैं
जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥1॥
भावार्थ:-सतीजी
के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख समुद्र के पार कब
जाऊँगी। मैंने जो श्री रघुनाथजी का अपमान किया और फिर पति के वचनों को झूठ जाना-॥1॥
*
सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥
अब
बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥2॥
भावार्थ:-उसका
फल विधाता ने मुझको दिया,
जो उचित था वही किया, परन्तु हे विधाता! अब
तुझे यह उचित नहीं है, जो शंकर से विमुख होने पर भी मुझे
जिला रहा है॥2॥
*
कहि न जाइ कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥
जौं
प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा॥3॥
भावार्थ:-सतीजी
के हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती। बुद्धिमती सतीजी ने मन में श्री रामचन्द्रजी
का स्मरण किया और कहा- हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह
यश गाया है कि आप दुःख को हरने वाले हैं, ॥3॥
*
तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥
जौं
मोरें सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥4॥
भावार्थ:-तो
मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाए। यदि मेरा शिवजी के
चरणों में प्रेम है और मेरा यह (प्रेम का) व्रत मन, वचन और कर्म
(आचरण) से सत्य है,॥4॥
दोहा
:
*
तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।
होइ
मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥59॥
भावार्थ:-तो
हे सर्वदर्शी प्रभो! सुनिए और शीघ्र वह उपाय कीजिए, जिससे मेरा
मरण हो और बिना ही परिश्रम यह (पति-परित्याग रूपी) असह्य विपत्ति दूर हो जाए॥59॥
चौपाई
:
*
एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥
बीतें
संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥1॥
भावार्थ:-दक्षसुता
सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि
जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिवजी ने
समाधि खोली॥1॥
*राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥
जाइ
संभु पद बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥2॥
भावार्थ:-शिवजी
रामनाम का स्मरण करने लगे,
तब सतीजी ने जाना कि अब जगत के स्वामी (शिवजी) जागे। उन्होंने जाकर
शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। शिवजी ने उनको बैठने के लिए सामने आसन दिया॥2॥
*
लगे कहन हरि कथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥
देखा
बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥
भावार्थ:-शिवजी
भगवान हरि की रसमयी कथाएँ कहने लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति हुए। ब्रह्माजी ने सब
प्रकार से योग्य देख-समझकर दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना दिया॥3॥
*
बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिनामु हृदयँ तब आवा॥
नहिं
कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥4॥
भावार्थ:-जब
दक्ष ने इतना बड़ा अधिकार पाया, तब उनके हृदय में अत्यन्त
अभिमान आ गया। जगत में ऐसा कोई नहीं पैदा हुआ, जिसको प्रभुता
पाकर मद न हो॥4॥
सती
का दक्ष यज्ञ में जाना
दोहा
:
*
दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग।
नेवते
सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥60॥
भावार्थ:-दक्ष
ने सब मुनियों को बुला लिया और वे बड़ा यज्ञ करने लगे। जो देवता यज्ञ का भाग पाते
हैं,
दक्ष ने उन सबको आदर सहित निमन्त्रित किया॥60॥
चौपाई
:
*
किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥
बिष्नु
बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥1॥
भावार्थ:-(दक्ष
का निमन्त्रण पाकर) किन्नर,
नाग, सिद्ध, गन्धर्व और
सब देवता अपनी-अपनी स्त्रियों सहित चले। विष्णु, ब्रह्मा और
महादेवजी को छोड़कर सभी देवता अपना-अपना विमान सजाकर चले॥1॥
*
सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुंदर बिधि नाना॥
सुर
सुंदरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥2॥
भावार्थ:-सतीजी
ने देखा,
अनेकों प्रकार के सुंदर विमान आकाश में चले जा रहे हैं, देव-सुन्दरियाँ मधुर गान कर रही हैं, जिन्हें सुनकर
मुनियों का ध्यान छूट जाता है॥2॥
*
पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥
जौं
महेसु मोहि आयसु देहीं। कछु िदन जाइ रहौं मिस एहीं॥3॥
भावार्थ:-सतीजी
ने (विमानों में देवताओं के जाने का कारण) पूछा, तब शिवजी ने
सब बातें बतलाईं। पिता के यज्ञ की बात सुनकर सती कुछ प्रसन्न हुईं और सोचने लगीं
कि यदि महादेवजी मुझे आज्ञा दें, तो इसी बहाने कुछ दिन पिता
के घर जाकर रहूँ॥3॥
*
पति परित्याग हृदयँ दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥
बोली
सती मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी॥4॥
भावार्थ:-क्योंकि
उनके हृदय में पति द्वारा त्यागी जाने का बड़ा भारी दुःख था, पर अपना अपराध समझकर वे कुछ कहती न थीं। आखिर सतीजी भय, संकोच और प्रेमरस में सनी हुई मनोहर वाणी से बोलीं- ॥4॥
दोहा
:
*
पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।
तौ
मैं जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥61॥
भावार्थ:-हे
प्रभो! मेरे पिता के घर बहुत बड़ा उत्सव है। यदि आपकी आज्ञा हो तो हे कृपाधाम! मैं
आदर सहित उसे देखने जाऊँ॥61॥
चौपाई
:
*
कहेहु नीक मोरेहूँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥
दच्छ
सकल निज सुता बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥1॥
भावार्थ:-शिवजी
ने कहा- तुमने बात तो अच्छी कही, यह मेरे मन को भी पसंद आई पर
उन्होंने न्योता नहीं भेजा, यह अनुचित है। दक्ष ने अपनी सब
लड़कियों को बुलाया है, किन्तु हमारे बैर के कारण उन्होंने
तुमको भी भुला दिया॥1॥
*
ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥
जौं
बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥2॥
भावार्थ:-एक
बार ब्रह्मा की सभा में हम से अप्रसन्न हो गए थे, उसी से वे
अब भी हमारा अपमान करते हैं। हे भवानी! जो तुम बिना बुलाए जाओगी तो न शील-स्नेह ही
रहेगा और न मान-मर्यादा ही रहेगी॥2॥
*
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥
तदपि
बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥3॥
भावार्थ:-यद्यपि
इसमें संदेह नहीं कि मित्र,
स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी
जाना चाहिए तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से
कल्याण नहीं होता॥3॥
*
भाँति अनेक संभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा॥
कह
प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ॥4॥
भावार्थ:-शिवजी
ने बहुत प्रकार से समझाया,
पर होनहारवश सती के हृदय में बोध नहीं हुआ। फिर शिवजी ने कहा कि यदि
बिना बुलाए जाओगी, तो हमारी समझ में अच्छी बात न होगी॥4॥
दोहा
:
*
कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
दिए
मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥62॥
भावार्थ:-शिवजी
ने बहुत प्रकार से कहकर देख लिया, किन्तु जब सती किसी प्रकार भी
नहीं रुकीं, तब त्रिपुरारि महादेवजी ने अपने मुख्य गणों को
साथ देकर उनको बिदा कर दिया॥62॥
चौपाई
:
*
पिता भवन जब गईं भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥
सादर
भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥1॥
भावार्थ:-भवानी
जब पिता (दक्ष) के घर पहुँची, तब दक्ष के डर के मारे किसी ने उनकी
आवभगत नहीं की, केवल एक माता भले ही आदर से मिली। बहिनें
बहुत मुस्कुराती हुई मिलीं॥1॥
*
दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकी जरे सब गाता॥
सतीं
जाइ देखेउ तब जागा। कतहूँ न दीख संभु कर भागा॥2॥
भावार्थ:-दक्ष
ने तो उनकी कुछ कुशल तक नहीं पूछी, सतीजी को देखकर
उलटे उनके सारे अंग जल उठे। तब सती ने जाकर यज्ञ देखा तो वहाँ कहीं शिवजी का भाग
दिखाई नहीं दिया॥2॥
*
तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥
पाछिल
दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥3॥
भावार्थ:-तब
शिवजी ने जो कहा था,
वह उनकी समझ में आया। स्वामी का अपमान समझकर सती का हृदय जल उठा।
पिछला (पति परित्याग का) दुःख उनके हृदय में उतना नहीं व्यापा था, जितना महान् दुःख इस समय (पति अपमान के कारण) हुआ॥3॥
*
जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥
समुझि
सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥4॥
भावार्थ:-यद्यपि
जगत में अनेक प्रकार के दारुण दुःख हैं, तथापि, जाति अपमान सबसे बढ़कर कठिन है। यह समझकर सतीजी को बड़ा क्रोध हो आया।
माता ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया-बुझाया॥4॥
पति
के अपमान से दुःखी होकर सती का योगाग्नि से जल जाना, दक्ष यज्ञ
विध्वंस
दोहा
:
*
सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
सकल
सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥63॥
भावार्थ:-परन्तु
उनसे शिवजी का अपमान सहा नहीं गया, इससे उनके हृदय में
कुछ भी प्रबोध नहीं हुआ। तब वे सारी सभा को हठपूर्वक डाँटकर क्रोधभरे वचन बोलीं-॥63॥
चौपाई
:
*
सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥
सो
फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥1॥
भावार्थ:-हे
सभासदों और सब मुनीश्वरो! सुनो। जिन लोगों ने यहाँ शिवजी की निंदा की या सुनी है, उन सबको उसका फल तुरंत ही मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी भलीभाँति पछताएँगे॥1॥
*
संत संभु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥
काटिअ
तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥2॥
भावार्थ:-जहाँ
संत,
शिवजी और लक्ष्मीपति श्री विष्णु भगवान की निंदा सुनी जाए, वहाँ ऐसी मर्यादा है कि यदि अपना वश चले तो उस (निंदा करने वाले) की जीभ
काट लें और नहीं तो कान मूँदकर वहाँ से भाग जाएँ॥2॥
*जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥
पिता
मंदमति निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही॥3॥
भावार्थ:-त्रिपुर
दैत्य को मारने वाले भगवान महेश्वर सम्पूर्ण जगत की आत्मा हैं, वे जगत्पिता और सबका हित करने वाले हैं। मेरा मंदबुद्धि पिता उनकी निंदा
करता है और मेरा यह शरीर दक्ष ही के वीर्य से उत्पन्न है॥3॥
*
तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥
अस
कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥4॥
भावार्थ:-इसलिए
चन्द्रमा को ललाट पर धारण करने वाले वृषकेतु शिवजी को हृदय में धारण करके मैं इस
शरीर को तुरंत ही त्याग दूँगी। ऐसा कहकर सतीजी ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर
डाला। सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया॥4॥
दोहा
:
*
सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।
जग्य
बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥64॥ ॥
भावार्थ:-सती
का मरण सुनकर शिवजी के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे। यज्ञ विध्वंस होते देखकर
मुनीश्वर भृगुजी ने उसकी रक्षा की॥64॥
चौपाई
:
*
समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥
जग्य
बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥1॥
भावार्थ:-ये
सब समाचार शिवजी को मिले,
तब उन्होंने क्रोध करके वीरभद्र को भेजा। उन्होंने वहाँ जाकर यज्ञ
विध्वंस कर डाला और सब देवताओं को यथोचित फल (दंड) दिया॥1॥
*
भै जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु संभु बिमुख कै होई॥
यह
इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं संछेप बखानी॥2॥
भावार्थ:-दक्ष
की जगत्प्रसिद्ध वही गति हुई, जो शिवद्रोही की हुआ करती है।
यह इतिहास सारा संसार जानता है, इसलिए मैंने संक्षेप में
वर्णन किया॥2॥
पार्वती
का जन्म और तपस्या
*सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥
तेहि
कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥3॥
भावार्थ:-सती
ने मरते समय भगवान हरि से यह वर माँगा कि मेरा जन्म-जन्म में शिवजी के चरणों में
अनुराग रहे। इसी कारण उन्होंने हिमाचल के घर जाकर पार्वती के शरीर से जन्म लिया॥3॥
*जब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि संपति तहँ छाईं॥
जहँ
तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥4॥
भावार्थ:-जब
से उमाजी हिमाचल के घर जन्मीं, तबसे वहाँ सारी सिद्धियाँ और
सम्पत्तियाँ छा गईं। मुनियों ने जहाँ-तहाँ सुंदर आश्रम बना लिए और हिमाचल ने उनको
उचित स्थान दिए॥4॥
दोहा
:
*
सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।
प्रगटीं
सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति॥65॥
भावार्थ:-उस
सुंदर पर्वत पर बहुत प्रकार के सब नए-नए वृक्ष सदा पुष्प-फलयुक्त हो गए और वहाँ
बहुत तरह की मणियों की खानें प्रकट हो गईं॥65॥
चौपाई
:
*
सरिता सब पुनीत जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥
सहज
बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा॥1॥
भावार्थ:-सारी
नदियों में पवित्र जल बहता है और पक्षी, पशु, भ्रमर सभी सुखी रहते हैं। सब जीवों ने अपना स्वाभाविक बैर छोड़ दिया और
पर्वत पर सभी परस्पर प्रेम करते हैं॥1॥
*
सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ॥
नित
नूतन मंगल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू॥2॥
भावार्थ:-पार्वतीजी
के घर आ जाने से पर्वत ऐसा शोभायमान हो रहा है जैसा रामभक्ति को पाकर भक्त
शोभायमान होता है। उस (पर्वतराज) के घर नित्य नए-नए मंगलोत्सव होते हैं, जिसका ब्रह्मादि यश गाते हैं॥2॥
*
नारद समाचार सब पाए। कोतुकहीं गिरि गेह सिधाए॥
सैलराज
बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥3॥
भावार्थ:-जब
नारदजी ने ये सब समाचार सुने तो वे कौतुक ही से हिमाचल के घर पधारे। पर्वतराज ने
उनका बड़ा आदर किया और चरण धोकर उनको उत्तम आसन दिया॥3॥
*
नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा॥
निज
सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥4॥
भावार्थ:-फिर
अपनी स्त्री सहित मुनि के चरणों में सिर नवाया और उनके चरणोदक को सारे घर में
छिड़काया। हिमाचल ने अपने सौभाग्य का बहुत बखान किया और पुत्री को बुलाकर मुनि के
चरणों पर डाल दिया॥4॥
दोहा
:
*
त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि।
कहहु
सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥66॥
भावार्थ:-(और
कहा-) हे मुनिवर! आप त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ हैं, आपकी
सर्वत्र पहुँच है। अतः आप हृदय में विचार कर कन्या के दोष-गुण कहिए॥66॥
चौपाई
:
*
कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥
सुंदर
सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥1॥
भावार्थ:-नारद
मुनि ने हँसकर रहस्ययुक्त कोमल वाणी से कहा- तुम्हारी कन्या सब गुणों की खान है।
यह स्वभाव से ही सुंदर,
सुशील और समझदार है। उमा, अम्बिका और भवानी
इसके नाम हैं॥1॥
*
सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी॥
सदा
अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥2॥
भावार्थ:-कन्या
सब सुलक्षणों से सम्पन्न है, यह अपने पति को सदा प्यारी
होगी। इसका सुहाग सदा अचल रहेगा और इससे इसके माता-पिता यश पावेंगे॥2॥
*
होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥
एहि
कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़िहहिं पतिब्रत असिधारा॥3॥
भावार्थ:-यह
सारे जगत में पूज्य होगी और इसकी सेवा करने से कुछ भी दुर्लभ न होगा। संसार में
स्त्रियाँ इसका नाम स्मरण करके पतिव्रता रूपी तलवार की धार पर चढ़ जाएँगी॥3॥
*
सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥
अगुन
अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥4॥
भावार्थ:-हे
पर्वतराज! तुम्हारी कन्या सुलच्छनी है। अब इसमें जो दो-चार अवगुण हैं, उन्हें भी सुन लो। गुणहीन, मानहीन, माता-पिताविहीन, उदासीन, संशयहीन
(लापरवाह)॥4॥
दोहा
:
*
जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष।
अस
स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥
भावार्थ:-योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, नंगा
और अमंगल वेष वाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में ऐसी
ही रेखा पड़ी है॥67॥
चौपाई
:
*
सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥
नारदहूँ
यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥1॥
भावार्थ:-नारद
मुनि की वाणी सुनकर और उसको हृदय में सत्य जानकर पति-पत्नी (हिमवान् और मैना) को
दुःख हुआ और पार्वतीजी प्रसन्न हुईं। नारदजी ने भी इस रहस्य को नहीं जाना, क्योंकि सबकी बाहरी दशा एक सी होने पर भी भीतरी समझ भिन्न-भिन्न थी॥1॥
*
सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
होइ
न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥2॥
भावार्थ:-सारी
सखियाँ,
पार्वती, पर्वतराज हिमवान् और मैना सभी के
शरीर पुलकित थे और सभी के नेत्रों में जल भरा था। देवर्षि के वचन असत्य नहीं हो
सकते, (यह विचारकर) पार्वती ने उन वचनों को हृदय में धारण कर
लिया॥2॥
*
उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥
जानि
कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥3॥
भावार्थ:-उन्हें
शिवजी के चरण कमलों में स्नेह उत्पन्न हो आया, परन्तु मन में यह
संदेह हुआ कि उनका मिलना कठिन है। अवसर ठीक न जानकर उमा ने अपने प्रेम को छिपा
लिया और फिर वे सखी की गोद में जाकर बैठ गईं॥3॥
*
झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहिं दंपति सखीं सयानी॥
उर
धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥4॥
भावार्थ:-देवर्षि
की वाणी झूठी न होगी,
यह विचार कर हिमवान्, मैना और सारी चतुर
सखियाँ चिन्ता करने लगीं। फिर हृदय में धीरज धरकर पर्वतराज ने कहा- हे नाथ! कहिए,
अब क्या उपाय किया जाए?॥4॥
दोहा
:
*
कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव
दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥68॥
भावार्थ:-मुनीश्वर
ने कहा- हे हिमवान्! सुनो,
विधाता ने ललाट पर जो कुछ लिख दिया है, उसको
देवता, दानव, मनुष्य, नाग और मुनि कोई भी नहीं मिटा सकते॥68॥
चौपाई
:
*
तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥
जस
बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं॥1॥
भावार्थ:-तो
भी एक उपाय मैं बताता हूँ। यदि दैव सहायता करें तो वह सिद्ध हो सकता है। उमा को वर
तो निःसंदेह वैसा ही मिलेगा, जैसा मैंने तुम्हारे सामने
वर्णन किया है॥1॥
*
जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहिं मैं अनुमाने॥
जौं
बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥2॥
भावार्थ:-परन्तु
मैंने वर के जो-जो दोष बतलाए हैं, मेरे अनुमान से वे सभी शिवजी
में हैं। यदि शिवजी के साथ विवाह हो जाए तो दोषों को भी सब लोग गुणों के समान ही
कहेंगे॥2॥
*
जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥
भानु
कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥3॥
भावार्थ:-जैसे
विष्णु भगवान शेषनाग की शय्या पर सोते हैं, तो भी पण्डित लोग
उनको कोई दोष नहीं लगाते। सूर्य और अग्निदेव अच्छे-बुरे सभी रसों का भक्षण करते
हैं, परन्तु उनको कोई बुरा नहीं कहता॥3॥
*सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ
कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥4॥
भावार्थ:-गंगाजी
में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं
कहता। सूर्य, अग्नि और गंगाजी की भाँति समर्थ को कुछ दोष
नहीं लगता॥4॥
दोहा
:
*
जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ बिबेक अभिमान।
परहिं
कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥69॥
भावार्थ:-यदि
मूर्ख मनुष्य ज्ञान के अभिमान से इस प्रकार होड़ करते हैं, तो वे कल्पभर के लिए नरक में पड़ते हैं। भला कहीं जीव भी ईश्वर के समान
(सर्वथा स्वतंत्र) हो सकता है?॥69॥
चौपाई
:
*
सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि
मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥1॥
भावार्थ:-गंगा
जल से भी बनाई हुई मदिरा को जानकर संत लोग कभी उसका पान नहीं करते। पर वही गंगाजी
में मिल जाने पर जैसे पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीव में
भी वैसा ही भेद है॥1॥
*
संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥
दुराराध्य
पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥2॥
भावार्थ:-शिवजी
सहज ही समर्थ हैं,
क्योंकि वे भगवान हैं, इसलिए इस विवाह में सब
प्रकार कल्याण है, परन्तु महादेवजी की आराधना बड़ी कठिन है,
फिर भी क्लेश (तप) करने से वे बहुत जल्द संतुष्ट हो जाते हैं॥2॥
*
जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
जद्यपि
बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥3॥
भावार्थ:-यदि
तुम्हारी कन्या तप करे,
तो त्रिपुरारि महादेवजी होनहार को मिटा सकते हैं। यद्यपि संसार में
वर अनेक हैं, पर इसके लिए शिवजी को छोड़कर दूसरा वर नहीं है॥3॥
*
बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥
इच्छित
फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥4॥
भावार्थ:-शिवजी
वर देने वाले,
शरणागतों के दुःखों का नाश करने वाले, कृपा के
समुद्र और सेवकों के मन को प्रसन्न करने वाले हैं। शिवजी की आराधना किए बिना
करोड़ों योग और जप करने पर भी वांछित फल नहीं मिलता॥4॥
दोहा
:
*
अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
होइहि
यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥70॥
भावार्थ:-ऐसा
कहकर भगवान का स्मरण करके नारदजी ने पार्वती को आशीर्वाद दिया। (और कहा कि-) हे
पर्वतराज! तुम संदेह का त्याग कर दो, अब यह कल्याण ही
होगा॥70॥
चौपाई
:
*
कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
पतिहि
एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥1॥
भावार्थ:-यों
कहकर नारद मुनि ब्रह्मलोक को चले गए। अब आगे जो चरित्र हुआ उसे सुनो। पति को
एकान्त में पाकर मैना ने कहा- हे नाथ! मैंने मुनि के वचनों का अर्थ नहीं समझा॥1॥
*
जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरूपा॥
न
त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥2॥
भावार्थ:-जो
हमारी कन्या के अनुकूल घर,
वर और कुल उत्तम हो तो विवाह कीजिए। नहीं तो लड़की चाहे कुमारी ही
रहे (मैं अयोग्य वर के साथ उसका विवाह नहीं करना चाहती), क्योंकि
हे स्वामिन्! पार्वती मुझको प्राणों के समान प्यारी है॥2॥
*
जौं न मिलिहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥
सोइ
बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥3॥
भावार्थ:-यदि
पार्वती के योग्य वर न मिला तो सब लोग कहेंगे कि पर्वत स्वभाव से ही जड़ (मूर्ख)
होते हैं। हे स्वामी! इस बात को विचारकर ही विवाह कीजिएगा, जिसमें फिर पीछे हृदय में सन्ताप न हो॥3॥
*
अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥
बरु
पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥4॥
भावार्थ:-इस
प्रकार कहकर मैना पति के चरणों पर मस्तक रखकर गिर पड़ीं। तब हिमवान् ने प्रेम से
कहा- चाहे चन्द्रमा में अग्नि प्रकट हो जाए, पर नारदजी के वचन
झूठे नहीं हो सकते॥4॥
दोहा
:
*
प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।
पारबतिहि
निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥71॥
भावार्थ:-हे
प्रिये! सब सोच छोड़कर श्री भगवान का स्मरण करो, जिन्होंने
पार्वती को रचा है, वे ही कल्याण करेंगे॥71॥
चौपाई
:
*
अब जौं तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावनु देहू॥
करै
सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटिहि कलेसू॥1॥
भावार्थ:-अब
यदि तुम्हें कन्या पर प्रेम है, तो जाकर उसे यह शिक्षा दो कि वह
ऐसा तप करे, जिससे शिवजी मिल जाएँ। दूसरे उपाय से यह क्लेश
नहीं मिटेगा॥1॥
*
नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥
अस
बिचारि तुम्ह तजहु असंका। सबहि भाँति संकरु अकलंका॥2॥
भावार्थ:-नारदजी
के वचन रहस्य से युक्त और सकारण हैं और शिवजी समस्त सुंदर गुणों के भण्डार हैं। यह
विचारकर तुम (मिथ्या) संदेह को छोड़ दो। शिवजी सभी तरह से निष्कलंक हैं॥2॥
*
सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥
उमहि
बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥3॥
भावार्थ:-पति
के वचन सुन मन में प्रसन्न होकर मैना उठकर तुरंत पार्वती के पास गईं। पार्वती को
देखकर उनकी आँखों में आँसू भर आए। उसे स्नेह के साथ गोद में बैठा लिया॥3॥
दोहा
:
*
बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥
जगत
मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥4॥
भावार्थ:-फिर
बार-बार उसे हृदय से लगाने लगीं। प्रेम से मैना का गला भर आया, कुछ कहा नहीं जाता। जगज्जननी भवानीजी तो सर्वज्ञ ठहरीं। (माता के मन की
दशा को जानकर) वे माता को सुख देने वाली कोमल वाणी से बोलीं-॥4॥
दोहा
:
*
सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।
सुंदर
गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥72॥
भावार्थ:-माँ!
सुन,
मैं तुझे सुनाती हूँ, मैंने ऐसा स्वप्न देखा
है कि मुझे एक सुंदर गौरवर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मण ने ऐसा उपदेश दिया है-॥72॥
चौपाई
:
*
करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥
मातु
पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥1॥
भावार्थ:-हे
पार्वती! नारदजी ने जो कहा है, उसे सत्य समझकर तू जाकर तप कर।
फिर यह बात तेरे माता-पिता को भी अच्छी लगी है। तप सुख देने वाला और दुःख-दोष का
नाश करने वाला है॥1॥
*
तपबल रचइ प्रपंचु बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
तपबल
संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥2॥
भावार्थ:-तप
के बल से ही ब्रह्मा संसार को रचते हैं और तप के बल से ही बिष्णु सारे जगत का पालन
करते हैं। तप के बल से ही शम्भु (रुद्र रूप से) जगत का संहार करते हैं और तप के बल
से ही शेषजी पृथ्वी का भार धारण करते हैं॥2॥
*
तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी॥
सुनत
बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी॥3॥
भावार्थ:-हे
भवानी! सारी सृष्टि तप के ही आधार पर है। ऐसा जी में जानकर तू जाकर तप कर। यह बात
सुनकर माता को बड़ा अचरज हुआ और उसने हिमवान् को बुलाकर वह स्वप्न सुनाया॥3॥
दोहा
:
*
मातु पितहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई॥
प्रिय
परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता॥4॥
भावार्थ:-माता-पिता
को बहुत तरह से समझाकर बड़े हर्ष के साथ पार्वतीजी तप करने के लिए चलीं। प्यारे
कुटुम्बी,
पिता और माता सब व्याकुल हो गए। किसी के मुँह से बात नहीं निकलती॥4॥
दोहा
:
*बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ।
पारबती
महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥73॥
भावार्थ:-तब
वेदशिरा मुनि ने आकर सबको समझाकर कहा। पार्वतीजी की महिमा सुनकर सबको समाधान हो
गया॥73॥
चौपाई
:
*
उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥
अति
सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥1॥
भावार्थ:-प्राणपति
(शिवजी) के चरणों को हृदय में धारण करके पार्वतीजी वन में जाकर तप करने लगीं।
पार्वतीजी का अत्यन्त सुकुमार शरीर तप के योग्य नहीं था, तो भी पति के चरणों का स्मरण करके उन्होंने सब भोगों को तज दिया॥1॥
*
नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
संबत
सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥2॥
भावार्थ:-स्वामी
के चरणों में नित्य नया अनुराग उत्पन्न होने लगा और तप में ऐसा मन लगा कि शरीर की
सारी सुध बिसर गई। एक हजार वर्ष तक उन्होंने मूल और फल खाए, फिर सौ वर्ष साग खाकर बिताए॥2॥
*
कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥
बेल
पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोइ खाई॥3॥
भावार्थ:-कुछ
दिन जल और वायु का भोजन किया और फिर कुछ दिन कठोर उपवास किए, जो बेल पत्र सूखकर पृथ्वी पर गिरते थे, तीन हजार
वर्ष तक उन्हीं को खाया॥3॥
*
पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नामु तब भयउ अपरना॥
देखि
उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा॥4॥
भावार्थ:-फिर
सूखे पर्ण (पत्ते) भी छोड़ दिए, तभी पार्वती का नाम 'अपर्णा' हुआ। तप से उमा का शरीर क्षीण देखकर आकाश से
गंभीर ब्रह्मवाणी हुई-॥4॥
दोहा
:
*
भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि।
परिहरु
दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥74॥
भावार्थ:-हे
पर्वतराज की कुमारी! सुन,
तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू अब सारे असह्य क्लेशों को (कठिन तप को)
त्याग दे। अब तुझे शिवजी मिलेंगे॥74॥
चौपाई
:
*
अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥
अब
उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी॥1॥
भावार्थ:-हे
भवानी! धीर,
मुनि और ज्ञानी बहुत हुए हैं, पर ऐसा (कठोर)
तप किसी ने नहीं किया। अब तू इस श्रेष्ठ ब्रह्मा की वाणी को सदा सत्य और निरंतर
पवित्र जानकर अपने हृदय में धारण कर॥1॥
*
आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥
मिलहिं
तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥2॥
भावार्थ:-जब
तेरे पिता बुलाने को आवें,
तब हठ छोड़कर घर चली जाना और जब तुम्हें सप्तर्षि मिलें तब इस वाणी
को ठीक समझना॥2॥
*
सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥
उमा
चरित सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥3॥
भावार्थ:-(इस
प्रकार) आकाश से कही हुई ब्रह्मा की वाणी को सुनते ही पार्वतीजी प्रसन्न हो गईं और
(हर्ष के मारे) उनका शरीर पुलकित हो गया। (याज्ञवल्क्यजी भरद्वाजजी से बोले कि-)
मैंने पार्वती का सुंदर चरित्र सुनाया, अब शिवजी का
सुहावना चरित्र सुनो॥3॥
*
जब तें सतीं जाइ तनु त्यागा। तब तें सिव मन भयउ बिरागा॥
जपहिं
सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥4॥
भावार्थ:-जब
से सती ने जाकर शरीर त्याग किया, तब से शिवजी के मन में वैराग्य
हो गया। वे सदा श्री रघुनाथजी का नाम जपने लगे और जहाँ-तहाँ श्री रामचन्द्रजी के
गुणों की कथाएँ सुनने लगे॥4॥
दोहा
:
*
चिदानंद सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।
बिचरहिं
महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥75॥
भावार्थ:-चिदानन्द, सुख के धाम, मोह, मद और काम से
रहित शिवजी सम्पूर्ण लोकों को आनंद देने वाले भगवान श्री हरि (श्री रामचन्द्रजी)
को हृदय में धारण कर (भगवान के ध्यान में मस्त हुए) पृथ्वी पर विचरने लगे॥75॥
चौपाई
:
*
कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥
जदपि
अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥1॥
भावार्थ:-वे
कहीं मुनियों को ज्ञान का उपदेश करते और कहीं श्री रामचन्द्रजी के गुणों का वर्णन
करते थे। यद्यपि सुजान शिवजी निष्काम हैं, तो भी वे भगवान
अपने भक्त (सती) के वियोग के दुःख से दुःखी हैं॥1॥
*
एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती॥
नेमु
प्रेमु संकर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा॥2॥
भावार्थ:-इस
प्रकार बहुत समय बीत गया। श्री रामचन्द्रजी के चरणों में नित नई प्रीति हो रही है।
शिवजी के (कठोर) नियम,
(अनन्य) प्रेम और उनके हृदय में भक्ति की अटल टेक को (जब श्री
रामचन्द्रजी ने) देखा॥2॥
*
प्रगटे रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला॥
बहु
प्रकार संकरहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा॥3॥
भावार्थ:-तब
कृतज्ञ (उपकार मानने वाले),
कृपालु, रूप और शील के भण्डार, महान् तेजपुंज भगवान श्री रामचन्द्रजी प्रकट हुए। उन्होंने बहुत तरह से शिवजी
की सराहना की और कहा कि आपके बिना ऐसा (कठिन) व्रत कौन निबाह सकता है॥3॥
*
बहुबिधि राम सिवहि समुझावा। पारबती कर जन्मु सुनावा॥
अति
पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥4॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी ने बहुत प्रकार से शिवजी को समझाया और पार्वतीजी का जन्म सुनाया।
कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी ने विस्तारपूर्वक पार्वतीजी की अत्यन्त पवित्र करनी का
वर्णन किया॥4॥
श्री
रामजी का शिवजी से विवाह के लिए अनुरोध
दोहा
:
*
अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।
जाइ
बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥76॥
भावार्थ:-(फिर
उन्होंने शिवजी से कहा-) हे शिवजी! यदि मुझ पर आपका स्नेह है, तो अब आप मेरी विनती सुनिए। मुझे यह माँगें दीजिए कि आप जाकर पार्वती के
साथ विवाह कर लें॥76॥
चौपाई
:
*
कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥
सिर
धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥1॥
भावार्थ:-शिवजी
ने कहा- यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामी की बात भी मेटी
नहीं जा सकती। हे नाथ! मेरा यही परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञा को सिर पर रखकर
उसका पालन करूँ॥1॥
*
मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥
तुम्ह
सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥2॥
भावार्थ:-माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ
समझकर करना (मानना) चाहिए। फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ!
आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है॥2॥
*
प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना। भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥
कह
प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥3॥
भावार्थ:-शिवजी
की भक्ति,
ज्ञान और धर्म से युक्त वचन रचना सुनकर प्रभु रामचन्द्रजी संतुष्ट
हो गए। प्रभु ने कहा- हे हर! आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई। अब हमने जो कहा है,
उसे हृदय में रखना॥3॥
*
अंतरधान भए अस भाषी। संकर सोइ मूरति उर राखी॥
तबहिं
सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥4॥
भावार्थ:-इस
प्रकार कहकर श्री रामचन्द्रजी अन्तर्धान हो गए। शिवजी ने उनकी वह मूर्ति अपने हृदय
में रख ली। उसी समय सप्तर्षि शिवजी के पास आए। प्रभु महादेवजी ने उनसे अत्यन्त
सुहावने वचन कहे-॥4॥
दोहा
:
*
पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।
गिरिहि
प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥77॥
भावार्थ:-आप
लोग पार्वती के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा लीजिए और हिमाचल को कहकर (उन्हें
पार्वती को लिवा लाने के लिए भेजिए तथा) पार्वती को घर भिजवाइए और उनके संदेह को
दूर कीजिए॥77॥
कामदेव
का देवकार्य के लिए जाना और भस्म होना
दोहा
:
*
सुरन्ह कही निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।
संभु
बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥83॥
भावार्थ:-देवताओं
ने कामदेव से अपनी सारी विपत्ति कही। सुनकर कामदेव ने मन में विचार किया और हँसकर
देवताओं से यों कहा कि शिवजी के साथ विरोध करने में मेरी कुशल नहीं है॥83॥
चौपाई
:
*तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
पर
हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥1॥
भावार्थ:-तथापि
मैं तुम्हारा काम तो करूँगा, क्योंकि वेद दूसरे के उपकार को
परम धर्म कहते हैं। जो दूसरे के हित के लिए अपना शरीर त्याग देता है, संत सदा उसकी बड़ाई करते हैं॥1॥
*
अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
चलत
मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुब मरनु हमारा॥2॥
भावार्थ:-यों
कह और सबको सिर नवाकर कामदेव अपने पुष्प के धनुष को हाथ में लेकर (वसन्तादि)
सहायकों के साथ चला। चलते समय कामदेव ने हृदय में ऐसा विचार किया कि शिवजी के साथ
विरोध करने से मेरा मरण निश्चित है॥2॥
*
तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥
कोपेउ
जबहिं बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥3॥
भावार्थ:-तब
उसने अपना प्रभाव फैलाया और समस्त संसार को अपने वश में कर लिया। जिस समय उस मछली
के चिह्न की ध्वजा वाले कामदेव ने कोप किया, उस समय क्षणभर में
ही वेदों की सारी मर्यादा मिट गई॥3॥
*
ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥
सदाचार
जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सबु भागा॥4॥
भावार्थ:-ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकार के संयम, धीरज,
धर्म, ज्ञान, विज्ञान,
सदाचार, जप, योग,
वैराग्य आदि विवेक की सारी सेना डरकर भाग गई॥4॥
छंद
:
*
भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
सदग्रंथ
पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
होनिहार
का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
दुइ
माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥
भावार्थ:-विवेक
अपने सहायकों सहित भाग गया,
उसके योद्धा रणभूमि से पीठ दिखा गए। उस समय वे सब सद्ग्रन्थ रूपी
पर्वत की कन्दराओं में जा छिपे (अर्थात ज्ञान, वैराग्य,
संयम, नियम, सदाचारादि
ग्रंथों में ही लिखे रह गए, उनका आचरण छूट गया)। सारे जगत्
में खलबली मच गई (और सब कहने लगे) हे विधाता! अब क्या होने वाला है? हमारी रक्षा कौन करेगा? ऐसा दो सिर वाला कौन है,
जिसके लिए रति के पति कामदेव ने कोप करके हाथ में धनुष-बाण उठाया है?
दोहा
:
*जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
ते
निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥84॥
भावार्थ:-जगत
में स्त्री-पुरुष संज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे, वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गए॥84॥
चौपाई
:
*
सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदीं
उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं॥1॥
भावार्थ:-सबके
हृदय में काम की इच्छा हो गई। लताओं (बेलों) को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने
लगीं। नदियाँ उमड़-उमड़कर समुद्र की ओर दौड़ीं और ताल-तलैयाँ भी आपस में संगम करने
(मिलने-जुलने) लगीं॥1॥
*
जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
पसु
पच्छी नभ जल थल चारी। भए काम बस समय बिसारी॥2॥
भावार्थ:-जब
जड़ (वृक्ष,
नदी आदि) की यह दशा कही गई, तब चेतन जीवों की
करनी कौन कह सकता है? आकाश, जल और
पृथ्वी पर विचरने वाले सारे पशु-पक्षी (अपने संयोग का) समय भुलाकर काम के वश में
हो गए॥2॥
*
मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
देव
दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥3॥
भावार्थ:-सब
लोक कामान्ध होकर व्याकुल हो गए। चकवा-चकवी रात-दिन नहीं देखते। देव, दैत्य, मनुष्य, किन्नर,
सर्प, प्रेत, पिशाच,
भूत, बेताल-॥3॥
*
इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
सिद्ध
बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥4॥
भावार्थ:-ये
तो सदा ही काम के गुलाम हैं, यह समझकर मैंने इनकी दशा का
वर्णन नहीं किया। सिद्ध, विरक्त, महामुनि
और महान् योगी भी काम के वश होकर योगरहित या स्त्री के विरही हो गए॥4॥
छंद
:
*
भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं
चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला
बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ
दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥
भावार्थ:-जब
योगीश्वर और तपस्वी भी काम के वश हो गए, तब पामर मनुष्यों
की कौन कहे? जो समस्त चराचर जगत को ब्रह्ममय देखते थे,
वे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे। स्त्रियाँ सारे संसार को पुरुषमय
देखने लगीं और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घड़ी तक सारे ब्राह्मण्ड के अंदर
कामदेव का रचा हुआ यह कौतुक (तमाशा) रहा।
सोरठा
:
*
धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे।
जे
राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥85॥
भावार्थ:-किसी
ने भी हृदय में धैर्य नहीं धारण किया, कामदेव ने सबके मन
हर लिए। श्री रघुनाथजी ने जिनकी रक्षा की, केवल वे ही उस समय
बचे रहे॥85॥
चौपाई
:
*उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥
सिवहि
बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥1॥
भावार्थ:-दो
घड़ी तक ऐसा तमाशा हुआ,
जब तक कामदेव शिवजी के पास पहुँच गया। शिवजी को देखकर कामदेव डर गया,
तब सारा संसार फिर जैसा-का तैसा स्थिर हो गया।
*भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥
रुद्रहि
देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥2॥
भावार्थ:-तुरंत
ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गए, जैसे मतवाले (नशा पिए हुए) लोग
मद (नशा) उतर जाने पर सुखी होते हैं। दुराधर्ष (जिनको पराजित करना अत्यन्त ही कठिन
है) और दुर्गम (जिनका पार पाना कठिन है) भगवान (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप छह ईश्वरीय गुणों से युक्त) रुद्र (महाभयंकर) शिवजी
को देखकर कामदेव भयभीत हो गया॥2॥
*
फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
प्रगटेसि
तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥3॥
भावार्थ:-लौट
जाने में लज्जा मालूम होती है और करते कुछ बनता नहीं। आखिर मन में मरने का निश्चय
करके उसने उपाय रचा। तुरंत ही सुंदर ऋतुराज वसन्त को प्रकट किया। फूले हुए नए-नए
वृक्षों की कतारें सुशोभित हो गईं॥3॥
*
बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
जहँ
तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥4॥
भावार्थ:-वन-उपवन, बावली-तालाब और सब दिशाओं के विभाग परम सुंदर हो गए। जहाँ-तहाँ मानो प्रेम
उम़ड़ रहा है, जिसे देखकर मरे मनों में भी कामदेव जाग उठा॥4॥
छंद
:
*
जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
सीतल
सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥
बिकसे
सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।
कलहंस
पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा
भावार्थ:-मरे
हुए मन में भी कामदेव जागने लगा, वन की सुंदरता कही नहीं जा
सकती। कामरूपी अग्नि का सच्चा मित्र शीतल-मन्द-सुगंधित पवन चलने लगा। सरोवरों में
अनेकों कमल खिल गए, जिन पर सुंदर भौंरों के समूह गुंजार करने
लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे और अप्सराएँ
गा-गाकर नाचने लगीं॥
दोहा
:
*
सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।
चली
न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥86॥
भावार्थ:-कामदेव
अपनी सेना समेत करोड़ों प्रकार की सब कलाएँ (उपाए) करके हार गया, पर शिवजी की अचल समाधि न डिगी। तब कामदेव क्रोधित हो उठा॥86॥
चौपाई
:
*
देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥
सुमन
चाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥1॥
भावार्थ:-आम
के वृक्ष की एक सुंदर डाली देखकर मन में क्रोध से भरा हुआ कामदेव उस पर चढ़ गया।
उसने पुष्प धनुष पर अपने (पाँचों) बाण चढ़ाए और अत्यन्त क्रोध से (लक्ष्य की ओर)
ताककर उन्हें कान तक तान लिया॥1॥
*
छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छूटि समाधि संभु तब जागे॥
भयउ
ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥2॥
भावार्थ:-कामदेव
ने तीक्ष्ण पाँच बाण छोड़े,
जो शिवजी के हृदय में लगे। तब उनकी समाधि टूट गई और वे जाग गए।
ईश्वर (शिवजी) के मन में बहुत क्षोभ हुआ। उन्होंने आँखें खोलकर सब ओर देखा॥2॥
*
सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका॥
तब
सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवन कामु भयउ जरि छारा॥3॥
भावार्थ:-जब
आम के पत्तों में (छिपे हुए) कामदेव को देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ, जिससे तीनों लोक काँप उठे। तब शिवजी ने तीसरा नेत्र खोला, उनको देखते ही कामदेव जलकर भस्म हो गया॥3॥
*
हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥
समुझि
कामसुख सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी॥4॥
भावार्थ:-जगत
में बड़ा हाहाकर मच गया। देवता डर गए, दैत्य सुखी हुए।
भोगी लोग कामसुख को याद करके चिन्ता करने लगे और साधक योगी निष्कंटक हो गए॥4॥
छंद
:
*
जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।
रोदति
बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई॥
अति
प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
प्रभु
आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥
भावार्थ:-योगी
निष्कंटक हो गए,
कामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही मूर्च्छित हो गई।
रोती-चिल्लाती और भाँति-भाँति से करुणा करती हुई वह शिवजी के पास गई। अत्यन्त
प्रेम के साथ अनेकों प्रकार से विनती करके हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गई। शीघ्र
प्रसन्न होने वाले कृपालु शिवजी अबला (असहाय स्त्री) को देखकर सुंदर (उसको
सान्त्वना देने वाले) वचन बोले।
रति
को वरदान
दोहा
:
*
अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।
बिनु
बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु॥87॥
भावार्थ:-हे
रति! अब से तेरे स्वामी का नाम अनंग होगा। वह बिना ही शरीर के सबको व्यापेगा। अब
तू अपने पति से मिलने की बात सुन॥87॥
चौपाई
:
*
जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥
कृष्न
तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥1॥
भावार्थ:-जब
पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिए यदुवंश में श्री कृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा। मेरा यह
वचन अन्यथा नहीं होगा॥1॥
*
रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥
देवन्ह
समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥2॥
भावार्थ:-शिवजी
के वचन सुनकर रति चली गई। अब दूसरी कथा बखानकर (विस्तार से) कहता हूँ। ब्रह्मादि
देवताओं ने ये सब समाचार सुने तो वे वैकुण्ठ को चले॥2॥
*
सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
पृथक-पृथक
तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥3॥
भावार्थ:-फिर
वहाँ से विष्णु और ब्रह्मा सहित सब देवता वहाँ गए, जहाँ कृपा
के धाम शिवजी थे। उन सबने शिवजी की अलग-अलग स्तुति की, तब
शशिभूषण शिवजी प्रसन्न हो गए॥3॥
*
बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥
कह
बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥4॥
भावार्थ:-कृपा
के समुद्र शिवजी बोले- हे देवताओं! कहिए, आप किसलिए आए हैं?
ब्रह्माजी ने कहा- हे प्रभो! आप अन्तर्यामी हैं, तथापि हे स्वामी! भक्तिवश मैं आपसे विनती करता हूँ॥4॥
देवताओं
का शिवजी से ब्याह के लिए प्रार्थना करना, सप्तर्षियों का
पार्वती के पास जाना
दोहा
:
*सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।
निज
नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥88॥
भावार्थ:-हे
शंकर! सब देवताओं के मन में ऐसा परम उत्साह है कि हे नाथ! वे अपनी आँखों से आपका
विवाह देखना चाहते हैं॥88॥
चौपाई
:
*
यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन॥
कामु
जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिन्धु यह अति भल कीन्हा॥1॥
भावार्थ:-हे
कामदेव के मद को चूर करने वाले! आप ऐसा कुछ कीजिए, जिससे सब
लोग इस उत्सव को नेत्र भरकर देखें। हे कृपा के सागर! कामदेव को भस्म करके आपने रति
को जो वरदान दिया, सो बहुत ही अच्छा किया॥1॥
*
सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥
पारबतीं
तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥2॥
भावार्थ:-हे
नाथ! श्रेष्ठ स्वामियों का यह सहज स्वभाव ही है कि वे पहले दण्ड देकर फिर कृपा
किया करते हैं। पार्वती ने अपार तप किया है, अब उन्हें अंगीकार
कीजिए॥2॥
*
सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥
तब
देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥3॥
भावार्थ:-ब्रह्माजी
की प्रार्थना सुनकर और प्रभु श्री रामचन्द्रजी के वचनों को याद करके शिवजी ने
प्रसन्नतापूर्वक कहा- 'ऐसा ही हो।' तब देवताओं ने नगाड़े बजाए और फूलों की
वर्षा करके 'जय हो! देवताओं के स्वामी जय हो' ऐसा कहने लगे॥3॥
*
अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥
प्रथम
गए जहँ रहीं भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥4॥
भावार्थ:-उचित
अवसर जानकर सप्तर्षि आए और ब्रह्माजी ने तुरंत ही उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया।
वे पहले वहाँ गए जहाँ पार्वतीजी थीं और उनसे छल से भरे मीठे (विनोदयुक्त, आनंद पहुँचाने वाले) वचन बोले-॥4॥
दोहा
:
*
कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस॥
अब
भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥89॥
भावार्थ:-नारदजी
के उपदेश से तुमने उस समय हमारी बात नहीं सुनी। अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया, क्योंकि महादेवजी ने काम को ही भस्म कर डाला॥89॥
मासपारायण, तीसरा विश्राम
1 comments :
बहुत सुन्दर
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