|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ शुक्ल, सप्तमी, रविवार, वि० स० २०७०
मनुष्य-जीवनका एकमात्र उद्देश्य – भगवतप्राप्ति -२-
गत
ब्लॉग से आगे ... याद रखो -इसलिए मनुष्यका यह कर्तव्य है की परमानंदमय भगवानकी प्राप्ति या
मोक्ष-प्राप्ति अथवा भगवत-प्रेम-प्राप्ति स्वरुप महान लक्ष्य पर सदा स्थिर रहे –
भगवत-प्राप्ति या भगवत-प्रेमको ही जीवनका एकमात्र परम उद्देश्य समझे, बुद्धिको सदा
भगवत-सम्बन्धी विचारोंमें तथा भगवत-प्राप्ति के साधानोंके अनुष्ठानमें ही लगाए रखे, पवित्र तथा भगवद-मुखी
निश्चयात्मिका बुद्धिके द्वारा मनको सदा भगवत-सम्बन्धी संकल्पों तथा स्मरणमें
संलग्न करता रहे; कभी भी अनर्थ या व्यर्थ निश्चय न करे, इन्द्रियोंको सदा
भगवत-सम्बन्धी विषयोंमें ही निरंतर इन्द्रिय, मन और बुद्धि को नियुक्त करता रहे और
आपको सदा निर्मल भगवत-प्रेमकी – परमानन्दकी प्राप्ति होती रहे |
याद रखो -जिसके कान
पर-निंदा, पर-चर्चा, असत्-वार्ता, व्यर्थकी बातचीत एवं पतनकी ओर ले जानेवाले
गान-वाद्य या कोई भी शब्द या अपनी प्रशंसाके वाक्य न सुनकर केवल सत्-चर्चा,
भगवत-लीला-कथा, भगवत-स्वरूपकी वार्ता, संतों-भक्तोंके गुणगान, जीवन को उच्च स्तरपर
पहुँचाने वाले वाक्य सुनते रहते हैं, जिनकी आँखें भोग-विषयों को न देखकर प्राकृत
जगत में सर्वत्र भगवानको और भगवानके सौंदर्यको, साधू-महात्मा तथा संतोंको, पवित्र वस्तुओं
तथा स्थानोकों देखती हैं; जिनकी इन्द्रियाँ कोमल विकारी पदार्थों, विकार उत्पन्न
करने तथा बढाने वाले अंगोंका स्पर्श न करके पवित्र करनेवाले संत-चरणोंका, जीवनमें
सात्विकता लाने वाले पदार्थोंका स्पर्श करती रहती हैं; जिनकी जिव्हा
स्वाद-लानेवाले विकारी राजस-तामस पदार्थोंका रस न चखकर सात्विक पदार्थोंका तथा
भगवद-प्रसाद का रस लेती है और जिनकी नासिका विकार उत्पन्न करनेवाले
सुगंध-द्रव्योंको छोडकर पवित्र गंधका, भगवत-प्रसादरूप गंधका और सात्विक पदार्थोंके
गंध का सेवन करती है, वे पुरुष इन इन्द्रियोंके द्वारा भगवानकी सेवा करते हैं,
इन्द्रियोंके ये पवित्र-विषय उनके मन-बुद्धिको और भी पवित्र करते रहते है और उनके
शरिरोंके द्वारा भी भगवत-सेवाका ही कार्य होता है – इस प्रकार उनके मन, बुद्धि,
इन्द्रिय तथा शरीर स्वयं भगवत-कार्यमें लगे रहते हैं, एक दूसरों को लगाते रहते हैं
| इससे उनका जीवन पवित्र, शांत, सुखमय होकर भगवत-प्राप्ति या भागवत-प्रेम
प्राप्तिके द्वारा जीवन सफल हो जाता है | अतएव सदा-सर्वदा बुद्धिको विवेकवती बनाकर
मन-इन्द्रियोंको निरंतर भगवानके पवित्र पथपर चलाते रहें – यही परम कर्तव्य है |..... शेष
अगले ब्लॉग में.
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं,
कल्याण कुञ्ज भाग – ७, पुस्तक कोड ३६४, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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