|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, अष्टमी, शनिवार, वि० स० २०७०
संतोषी परम सुखी -१-
याद रखो-मनुष्य
की एक बड़ी कमजोरी है-उसका चिरस्थायी ‘असंतोष’ |
इसीसे वह सदा दुखी रहता है | तृष्णाकी कोई सीमा नहीं है; जितना मिले, उतनी ही
तृष्णा बढती है | भोगोंकी प्राप्ति से तृष्णा का अंत नहीं होता-वरं ज्यों-ज्यों भोग प्राप्त होते हैं, त्यों- त्यों
तृष्णा का दायरा बढ़ता ही जाता है | भोग भोगने की शक्ति चाहे नष्ट हो जाए, परन्तु
तृष्णा नहीं नष्ट होती | तृष्णा बड़े-से-बड़े धनवान, ऐश्वर्यवान को भी सदा दरिद्र बनाए रखती है, उसमें कभी जीर्णता
नहीं आती; उसका तारुण्य सदा बना ही रहता है |
याद रखो
-जिसका मन प्रत्येक परिस्थिति में संतुष्ट रहता है, वही परमसुखी है | वस्तुतः
संतोष ही वह परम धन है, जिसे पाकर मनुष्य सदा धनि बना रहता है, कोई भी अवस्था उसे
दीन-दरिद्र नहीं बना सकती | संतोष से प्राप्त होनेवाला जो महान पद है, वह
बड़े-से-बड़े सम्राटके पद से भी ऊँचा और महान है |
याद रखो
-संतोष संपन्न पुरुष ही वास्तविक साधू है | घर छोड़ने पर भी जिसको संतोष नहीं है,
वह कभी साधू नहीं हो सकता; वह तो दिन-रात असंतोष की आगमें जलता रहता है | संतोष ही
वह परम शीतल पदार्थ है, जो जलते जीवनको सुशीतल बना देता है | संतोष ही जीवन के
अन्धकार से अभिशप्त अंगोंको पर्मोज्वल्ल बनाता है |
याद रखो
-जिसको संतोष नहीं है, उसकी वृत्ति कभी एकाग्र नहीं हो सकती; वह सदा ही क्षिप्त और
चंचल बनी रहती है | असंतोष मनुष्य को चोर, ठग, डाकू और पर-हिथहरण करनेवाला असुर
बना देता है | असंतोश से ही द्वेष, क्रोध, वैर और हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है |
शील, शान्ति, प्रेम और सेवा आदि सद्गुण असंतोषी मनुष्य के जीवनमें कभी नहीं आते |
यदि इनमें से कोई कुछ समय के लिए आते हैं तो असंतोष की आगमें जलकर नष्ट हो जाते
हैं |.....शेष अगले ब्लॉग में .
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, पुस्तक कोड ३६४, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण
!!! नारायण !!! नारायण !!!
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