Sunday, 2 June 2013

परमार्थ की मन्दाकिनीं -2-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, नवमी, रविवार, वि० स० २०७०

संतोषी परम सुखी --

गत ब्लॉग से आगे ... याद रखो -संतोष होता है जगत की अनित्यता, दुःखमयता के निश्चयसे अथवा श्री भगवानके मंगल-विधानपर परम विश्वास होनेपर ही | जगत की कोई भी स्थिति या तो मायामय है-कुछ है नहीं या विविध रसमयी भगवानकी लीला है | माया है तो असंतोष का कोई कारण ही नहीं है; लीला है तो प्रत्येक लीलामें लीलामयके मधुर-मंगल दर्शन का परमानंद है | उसीमें चित्त रम जाता है |

 

याद रखो -जो लोग असंतोष की आगमें जलते रहते हैं-वे ही दूसरों के ह्रदयमें असंतोष की आग सुलगाकर उन्हें संतप्त कर देते हैं | वे कहते हैं की ‘असंतोष के बिना उन्नति नहीं होती | उन्नति कामि को असंतोषी होना चाहिए |’ पर यह उनकी असंतोष-वृत्तिसे उदित विकृत बुद्धि का विपरीत दर्शनमात्र है | बुद्धि जब तामसिक गुणों के वशमें होकर विकृत हो जाती है, तब मनुष्य को सब विपरीत दिखाई देता है | इसलिए वह सहज ही बुरे को भला मानकर स्वयं उसीको ग्रहण करता है और वही दुसरोंको भी समझा देना चाहता है |

 

याद रखो -संतुष्ट मनवाले पुरुषके अंदरसे जो सहज ही एक आनंद लहर निकलती रहती है, वह आसपास के लोगों को प्रभावित कर उन्हें भी आनंद प्रदान करती है | संतोषी पुरुष ही शत्रु-मित्र, सुख-दुःख, निंदा-स्तुति आदि विपरीत परिस्थितियों में समभाव रखकर भगवानका प्रिय भक्त हो सकता है और वही अपने शांत जीवन के द्वारा भगवानकी यथार्थ पूजा कर सकता है |

 

याद रखो -अकर्मण्यता, आलस्य, प्रमाद आदिका नाम संतोष नहीं है | संतोषी पुरुष ही वस्तुतः व्यवस्थित चित्त से सत्कर्म कर सकता है; क्योंकि उसका चित्त शांत और उसकी बुद्धि शुद्ध, विवेकवती एवं यथार्थ निश्चय करनेवाली होती है |....शेष अगले ब्लॉग में.         

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, पुस्तक कोड ३६४,  गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!     
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Ram