|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, नवमी, रविवार, वि० स० २०७०
संतोषी परम सुखी -२-
गत
ब्लॉग से आगे ... याद रखो -संतोष होता है जगत की अनित्यता,
दुःखमयता के निश्चयसे अथवा श्री भगवानके मंगल-विधानपर परम विश्वास होनेपर ही | जगत
की कोई भी स्थिति या तो मायामय है-कुछ है नहीं या विविध रसमयी भगवानकी लीला है |
माया है तो असंतोष का कोई कारण ही नहीं है; लीला है तो प्रत्येक लीलामें लीलामयके
मधुर-मंगल दर्शन का परमानंद है | उसीमें चित्त रम जाता है |
याद रखो
-जो लोग असंतोष की आगमें जलते रहते हैं-वे ही दूसरों के ह्रदयमें असंतोष की आग
सुलगाकर उन्हें संतप्त कर देते हैं | वे कहते हैं की ‘असंतोष
के बिना उन्नति नहीं होती | उन्नति कामि को असंतोषी होना चाहिए |’ पर यह
उनकी असंतोष-वृत्तिसे उदित विकृत बुद्धि का विपरीत दर्शनमात्र है | बुद्धि जब
तामसिक गुणों के वशमें होकर विकृत हो जाती है, तब मनुष्य को सब विपरीत दिखाई देता
है | इसलिए वह सहज ही बुरे को भला मानकर स्वयं उसीको ग्रहण करता है और वही
दुसरोंको भी समझा देना चाहता है |
याद रखो
-संतुष्ट मनवाले पुरुषके अंदरसे जो सहज ही एक आनंद लहर निकलती रहती है, वह आसपास
के लोगों को प्रभावित कर उन्हें भी आनंद प्रदान करती है | संतोषी पुरुष ही
शत्रु-मित्र, सुख-दुःख, निंदा-स्तुति आदि विपरीत परिस्थितियों में समभाव रखकर
भगवानका प्रिय भक्त हो सकता है और वही अपने शांत जीवन के द्वारा भगवानकी यथार्थ
पूजा कर सकता है |
याद रखो
-अकर्मण्यता, आलस्य, प्रमाद आदिका नाम संतोष नहीं है | संतोषी पुरुष ही वस्तुतः
व्यवस्थित चित्त से सत्कर्म कर सकता है; क्योंकि उसका चित्त शांत और उसकी बुद्धि
शुद्ध, विवेकवती एवं यथार्थ निश्चय करनेवाली होती है |....शेष अगले ब्लॉग में.
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, पुस्तक कोड ३६४, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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