श्रीरामचरित मानस
बालकाण्ड
प्रतापभानु
की कथा
चौपाई
:
*
सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥
बिस्व
बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥1॥
भावार्थ:-हे
मुनि! वह पवित्र और प्राचीन कथा सुनो, जो शिवजी ने
पार्वती से कही थी। संसार में प्रसिद्ध एक कैकय देश है। वहाँ सत्यकेतु नाम का राजा
रहता (राज्य करता) था॥1॥
*
धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥
तेहि
कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥2॥
भावार्थ:-वह
धर्म की धुरी को धारण करने वाला, नीति की खान, तेजस्वी, प्रतापी, सुशील और
बलवान था, उसके दो वीर पुत्र हुए, जो
सब गुणों के भंडार और बड़े ही रणधीर थे॥2॥
*
राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥
अपर
सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥3॥
भावार्थ:-राज्य
का उत्तराधिकारी जो बड़ा लड़का था, उसका नाम प्रतापभानु था। दूसरे
पुत्र का नाम अरिमर्दन था, जिसकी भुजाओं में अपार बल था और
जो युद्ध में (पर्वत के समान) अटल रहता था॥3॥
*
भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती॥
जेठे
सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥4॥
भावार्थ:-भाई-भाई
में बड़ा मेल और सब प्रकार के दोषों और छलों से रहित (सच्ची) प्रीति थी। राजा ने
जेठे पुत्र को राज्य दे दिया और आप भगवान (के भजन) के लिए वन को चल दिए॥4॥
दोहा
:
*
जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस।
प्रजा
पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥153॥
भावार्थ:-जब
प्रतापभानु राजा हुआ,
देश में उसकी दुहाई फिर गई। वह वेद में बताई हुई विधि के अनुसार
उत्तम रीति से प्रजा का पालन करने लगा। उसके राज्य में पाप का कहीं लेश भी नहीं रह
गया॥153॥
चौपाई
:
*
नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥
सचिव
सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥1॥
भावार्थ:-राजा
का हित करने वाला और शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान धर्मरुचि नामक उसका मंत्री था।
इस प्रकार बुद्धिमान मंत्री और बलवान तथा वीर भाई के साथ ही स्वयं राजा भी बड़ा
प्रतापी और रणधीर था॥1॥
*
सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥
सेन
बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥2॥
भावार्थ:-साथ
में अपार चतुरंगिणी सेना थी, जिसमें असंख्य योद्धा थे,
जो सब के सब रण में जूझ मरने वाले थे। अपनी सेना को देखकर राजा बहुत
प्रसन्न हुआ और घमाघम नगाड़े बजने लगे॥2॥
*
बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥
जहँ
तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआईं॥3॥
भावार्थ:-दिग्विजय
के लिए सेना सजाकर वह राजा शुभ दिन (मुहूर्त) साधकर और डंका बजाकर चला। जहाँ-तहाँ
बहुतसी लड़ाइयाँ हुईं। उसने सब राजाओं को बलपूर्वक जीत लिया॥3॥
*
सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हे॥
सकल
अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥4॥
भावार्थ:-अपनी
भुजाओं के बल से उसने सातों द्वीपों (भूमिखण्डों) को वश में कर लिया और राजाओं से
दंड (कर) ले-लेकर उन्हें छोड़ दिया। सम्पूर्ण पृथ्वी मंडल का उस समय प्रतापभानु ही
एकमात्र (चक्रवर्ती) राजा था॥4॥
दोहा
:
*
स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।
अरथ
धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥154॥
भावार्थ:-संसारभर
को अपनी भुजाओं के बल से वश में करके राजा ने अपने नगर में प्रवेश किया। राजा अर्थ, धर्म और काम आदि के सुखों का समयानुसार सेवन करता था॥154॥
चौपाई
:
*
भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥
सब
दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥1॥
भावार्थ:-राजा
प्रतापभानु का बल पाकर भूमि सुंदर कामधेनु (मनचाही वस्तु देने वाली) हो गई। (उनके
राज्य में) प्रजा सब (प्रकार के) दुःखों से रहित और सुखी थी और सभी स्त्री-पुरुष
सुंदर और धर्मात्मा थे॥1॥
*
सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥
गुर
सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥2॥
भावार्थ:-धर्मरुचि
मंत्री का श्री हरि के चरणों में प्रेम था। वह राजा के हित के लिए सदा उसको नीति
सिखाया करता था। राजा गुरु,
देवता, संत, पितर और
ब्राह्मण- इन सबकी सदा सेवा करता रहता था॥2॥
*भूप
धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥
दिन
प्रति देइ बिबिध बिधि दाना। सुनइ सास्त्र बर बेद पुराना॥3॥
भावार्थ:-वेदों
में राजाओं के जो धर्म बताए गए हैं, राजा सदा आदरपूर्वक
और सुख मानकर उन सबका पालन करता था। प्रतिदिन अनेक प्रकार के दान देता और उत्तम
शास्त्र, वेद और पुराण सुनता था॥3॥
*
नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा॥
बिप्रभवन
सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह विचित्र बनाए॥4॥
भावार्थ:-उसने
बहुत सी बावलियाँ,
कुएँ, तालाब, फुलवाड़ियाँ
सुंदर बगीचे, ब्राह्मणों के लिए घर और देवताओं के सुंदर
विचित्र मंदिर सब तीर्थों में बनवाए॥4॥
दोहा
:
*
जहँ लजि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।
बार
सहस्र सहस्र नृप किए सहित अनुराग॥155॥
भावार्थ:-वेद
और पुराणों में जितने प्रकार के यज्ञ कहे गए हैं, राजा ने
एक-एक करके उन सब यज्ञों को प्रेम सहित हजार-हजार बार किया॥155॥
चौपाई
:
*
हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥
करइ
जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥1॥
भावार्थ:-(राजा
के) हृदय में किसी फल की टोह (कामना) न थी। राजा बड़ा ही बुद्धिमान और ज्ञानी था।
वह ज्ञानी राजा कर्म,
मन और वाणी से जो कुछ भी धर्म करता था, सब
भगवान वासुदेव को अर्पित करते रहता था॥1॥
*
चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥
बिंध्याचल
गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥2॥
भावार्थ:-एक
बार वह राजा एक अच्छे घोड़े पर सवार होकर, शिकार का सब सामान
सजाकर विंध्याचल के घने जंगल में गया और वहाँ उसने बहुत से उत्तम-उत्तम हिरन
मारे॥2॥
*
फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
बड़
बिधु नहिं समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोध बस उगिलत नाहीं॥3॥
भावार्थ:-राजा
ने वन में फिरते हुए एक सूअर को देखा। (दाँतों के कारण वह ऐसा दिख पड़ता था) मानो
चन्द्रमा को ग्रसकर (मुँह में पकड़कर) राहु वन में आ छिपा हो। चन्द्रमा बड़ा होने से
उसके मुँह में समाता नहीं है और मानो क्रोधवश वह भी उसे उगलता नहीं है॥3॥
*
कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
घुरुघुरात
हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥4॥
भावार्थ:-यह
तो सूअर के भयानक दाँतों की शोभा कही गई। (इधर) उसका शरीर भी बहुत विशाल और मोटा
था। घोड़े की आहट पाकर वह घुरघुराता हुआ कान उठाए चौकन्ना होकर देख रहा था॥4॥
दोहा
:
*
नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।
चपरि
चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥156॥
भावार्थ:-नील
पर्वत के शिखर के समान विशाल (शरीर वाले) उस सूअर को देखकर राजा घोड़े को चाबुक
लगाकर तेजी से चला और उसने सूअर को ललकारा कि अब तेरा बचाव नहीं हो सकता॥156॥
चौपाई
:
*
आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥
तुरत
कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥1॥
भावार्थ:-अधिक
शब्द करते हुए घोड़े को (अपनी तरफ) आता देखकर सूअर पवन वेग से भाग चला। राजा ने
तुरंत ही बाण को धनुष पर चढ़ाया। सूअर बाण को देखते ही धरती में दुबक गया॥1॥
*
तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥
प्रगटत
दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ सँग लागा॥2॥
भावार्थ:-राजा
तक-तककर तीर चलाता है,
परन्तु सूअर छल करके शरीर को बचाता जाता है। वह पशु कभी प्रकट होता
और कभी छिपता हुआ भाग जाता था और राजा भी क्रोध के वश उसके साथ (पीछे) लगा चला
जाता था॥2॥
*
गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥
अति
अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥3॥
भावार्थ:-सूअर
बहुत दूर ऐसे घने जंगल में चला गया, जहाँ हाथी-घोड़े का
निबाह (गमन) नहीं था। राजा बिलकुल अकेला था और वन में क्लेश भी बहुत था, फिर भी राजा ने उस पशु का पीछा नहीं छोड़ा॥3॥
*
कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥
अगम
देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥4॥
भावार्थ:-राजा
को बड़ा धैर्यवान देखकर,
सूअर भागकर पहाड़ की एक गहरी गुफा में जा घुसा। उसमें जाना कठिन
देखकर राजा को बहुत पछताकर लौटना पड़ा, पर उस घोर वन में वह
रास्ता भूल गया॥4॥
दोहा
:
*खेद
खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत।
खोजत
ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥157॥
भावार्थ:-बहुत
परिश्रम करने से थका हुआ और घोड़े समेत भूख-प्यास से व्याकुल राजा नदी-तालाब
खोजता-खोजता पानी बिना बेहाल हो गया॥157॥
चौपाई
:
*
फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥
जासु
देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥1॥
भावार्थ:-
वन में फिरते-फिरते उसने एक आश्रम देखा, वहाँ कपट से मुनि
का वेष बनाए एक राजा रहता था, जिसका देश राजा प्रतापभानु ने
छीन लिया था और जो सेना को छोड़कर युद्ध से भाग गया था॥1॥
*
समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥
गयउ
न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥2॥
भावार्थ:-प्रतापभानु
का समय (अच्छे दिन) जानकर और अपना कुसमय (बुरे दिन) अनुमानकर उसके मन में बड़ी
ग्लानि हुई। इससे वह न तो घर गया और न अभिमानी होने के कारण राजा प्रतापभानु से ही
मिला (मेल किया)॥2॥
*
रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥
तासु
समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहिं तब चीन्हा॥3॥
भावार्थ:-दरिद्र
की भाँति मन ही में क्रोध को मारकर वह राजा तपस्वी के वेष में वन में रहता था।
राजा (प्रतापभानु) उसी के पास गया। उसने तुरंत पहचान लिया कि यह प्रतापभानु है॥3॥
*
राउ तृषित नहिं सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥
उतरि
तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥4॥
भावार्थ:-राजा
प्यासा होने के कारण (व्याकुलता में) उसे पहचान न सका। सुंदर वेष देखकर राजा ने
उसे महामुनि समझा और घोड़े से उतरकर उसे प्रणाम किया, परन्तु बड़ा
चतुर होने के कारण राजा ने उसे अपना नाम नहीं बताया॥4॥
दोहा
:
*
भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरू दीन्ह देखाइ।
मज्जन
पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥158॥
भावार्थ:-राजा
को प्यासा देखकर उसने सरोवर दिखला दिया। हर्षित होकर राजा ने घोड़े सहित उसमें
स्नान और जलपान किया॥158॥
चौपाई
:
*
गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥
आसन
दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥1॥
भावार्थ:-सारी
थकावट मिट गई,
राजा सुखी हो गया। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और
सूर्यास्त का समय जानकर उसने (राजा को बैठने के लिए) आसन दिया। फिर वह तपस्वी कोमल
वाणी से बोला- ॥1॥
*को
तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें॥
चक्रबर्ति
के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥2॥
भावार्थ:-तुम
कौन हो?
सुंदर युवक होकर, जीवन की परवाह न करके वन में
अकेले क्यों फिर रहे हो? तुम्हारे चक्रवर्ती राजा के से
लक्षण देखकर मुझे बड़ी दया आती है॥2॥
*
नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥
फिरत
अहेरें परेउँ भुलाई। बड़ें भाग देखेउँ पद आई॥3॥
भावार्थ:-(राजा
ने कहा-) हे मुनीश्वर! सुनिए, प्रतापभानु नाम का एक राजा है,
मैं उसका मंत्री हूँ। शिकार के लिए फिरते हुए राह भूल गया हूँ। बड़े
भाग्य से यहाँ आकर मैंने आपके चरणों के दर्शन पाए हैं॥3॥
*
हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥
कह
मुनि तात भयउ अँधिआरा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥4॥
भावार्थ:-हमें
आपका दर्शन दुर्लभ था,
इससे जान पड़ता है कुछ भला होने वाला है। मुनि ने कहा- हे तात!
अँधेरा हो गया। तुम्हारा नगर यहाँ से सत्तर योजन पर है॥4॥
दोहा
:
*
निसा घोर गंभीर बन पंथ न सुनहु सुजान।
बसहु
आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥159 (क)॥
भावार्थ:-हे
सुजान! सुनो,
घोर अँधेरी रात है, घना जंगल है, रास्ता नहीं है, ऐसा समझकर तुम आज यहीं ठहर जाओ,
सबेरा होते ही चले जाना॥159 (क)॥
*
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु
आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥159(ख)॥
भावार्थ:-तुलसीदासजी
कहते हैं- जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है, वैसी ही सहायता मिल
जाती है। या तो वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है॥159 (ख)॥
चौपाई
:
*
भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥
नृप
बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥1॥
भावार्थ:-हे
नाथ! बहुत अच्छा,
ऐसा कहकर और उसकी आज्ञा सिर चढ़ाकर, घोड़े को
वृक्ष से बाँधकर राजा बैठ गया। राजा ने उसकी बहुत प्रकार से प्रशंसा की और उसके
चरणों की वंदना करके अपने भाग्य की सराहना की॥1॥
*
पुनि बोलेउ मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥
मोहि
मुनीस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥2॥
भावार्थ:-फिर
सुंदर कोमल वाणी से कहा- हे प्रभो! आपको पिता जानकर मैं ढिठाई करता हूँ। हे
मुनीश्वर! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम (धाम) विस्तार से बतलाइए॥2॥
*
तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुहृद सो कपट सयाना॥
बैरी
पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥3॥
भावार्थ:-राजा
ने उसको नहीं पहचाना,
पर वह राजा को पहचान गया था। राजा तो शुद्ध हृदय था और वह कपट करने
में चतुर था। एक तो वैरी, फिर जाति का क्षत्रिय, फिर राजा। वह छल-बल से अपना काम बनाना चाहता था॥3॥
*
समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥
ससरल
बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥4॥
भावार्थ:-वह
शत्रु अपने राज्य सुख को समझ करके (स्मरण करके) दुःखी था। उसकी छाती (कुम्हार के)
आँवे की आग की तरह (भीतर ही भीतर) सुलग रही थी। राजा के सरल वचन कान से सुनकर, अपने वैर को यादकर वह हृदय में हर्षित हुआ॥4॥
दोहा
:
*
कपट बोरि बानी मृदल बोलेउ जुगुति समेत।
नाम
हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत॥160॥
भावार्थ:-वह
कपट में डुबोकर बड़ी युक्ति के साथ कोमल वाणी बोला- अब हमारा नाम भिखारी है, क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत (घर-द्वारहीन) हैं॥160॥
चौपाई
:
*
कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥
सदा
रहहिं अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥1॥
भावार्थ:-राजा
ने कहा- जो आपके सदृश विज्ञान के निधान और सर्वथा अभिमानरहित होते हैं, वे अपने स्वरूप को सदा छिपाए रहते हैं, क्योंकि
कुवेष बनाकर रहने में ही सब तरह का कल्याण है (प्रकट संत वेश में मान होने की
सम्भावना है और मान से पतन की)॥1॥
*
तेहि तें कहहिं संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें॥
तुम्ह
सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥2॥
भावार्थ:-इसी
से तो संत और वेद पुकारकर कहते हैं कि परम अकिंचन (सर्वथा अहंकार, ममता और मानरहित) ही भगवान को प्रिय होते हैं। आप सरीखे निर्धन, भिखारी और गृहहीनों को देखकर ब्रह्मा और शिवजी को भी संदेह हो जाता है (कि
वे वास्तविक संत हैं या भिखारी)॥2॥
*
जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥
सहज
प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥3॥
भावार्थ:-आप
जो हों सो हों (अर्थात् जो कोई भी हों), मैं आपके चरणों में
नमस्कार करता हूँ। हे स्वामी! अब मुझ पर कृपा कीजिए। अपने ऊपर राजा की स्वाभाविक
प्रीति और अपने विषय में उसका अधिक विश्वास देखकर॥2॥
*
सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥
सुनु
सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥4॥
भावार्थ:-सब
प्रकार से राजा को अपने वश में करके, अधिक स्नेह दिखाता
हुआ वह (कपट-तपस्वी) बोला- हे राजन्! सुनो, मैं तुमसे सत्य
कहता हूँ, मुझे यहाँ रहते बहुत समय बीत गया॥4॥
दोहा
:
*
अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।
लोकमान्यता
अनल सम कर तप कानन दाहु॥161 क॥
भावार्थ:-अब
तक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपने को किसी पर प्रकट करता हूँ, क्योंकि लोक में प्रतिष्ठा अग्नि के समान है, जो तप
रूपी वन को भस्म कर डालती है॥161 (क)॥
सोरठा
:
*
तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।
सुंदर
केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥161 ख॥
भावार्थ:-तुलसीदासजी
कहते हैं- सुंदर वेष देखकर मूढ़ नहीं (मूढ़ तो मूढ़ ही हैं), चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं। सुंदर मोर को देखो, उसका वचन तो अमृत के समान है और आहार साँप का है॥161 (ख)॥
चौपाई
:
*
तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥
प्रभु
जानत सब बिनहिं जनाए। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥1॥
भावार्थ:-(कपट-तपस्वी
ने कहा-) इसी से मैं जगत में छिपकर रहता हूँ। श्री हरि को छोड़कर किसी से कुछ भी
प्रयोजन नहीं रखता। प्रभु तो बिना जनाए ही सब जानते हैं। फिर कहो संसार को रिझाने
से क्या सिद्धि मिलेगी॥1॥
*
तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥
अब
जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥2॥
भावार्थ:-तुम
पवित्र और सुंदर बुद्धि वाले हो, इससे मुझे बहुत ही प्यारे हो और
तुम्हारी भी मुझ पर प्रीति और विश्वास है। हे तात! अब यदि मैं तुमसे कुछ छिपाता
हूँ, तो मुझे बहुत ही भयानक दोष लगेगा॥2॥
*
जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥
देखा
स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥3॥
भावार्थ:-ज्यों-ज्यों
वह तपस्वी उदासीनता की बातें कहता था, त्यों ही त्यों
राजा को विश्वास उत्पन्न होता जाता था। जब उस बगुले की तरह ध्यान लगाने वाले
(कपटी) मुनि ने राजा को कर्म, मन और वचन से अपने वश में जाना,
तब वह बोला- ॥3॥
*
नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोलेउ पुनि सिरु नाई॥
कहहु
नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥4॥
भावार्थ:-हे
भाई! हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने फिर सिर नवाकर कहा- मुझे अपना अत्यन्त
(अनुरागी) सेवक जानकर अपने नाम का अर्थ समझाकर कहिए॥4॥
दोहा
:
*
आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।
नाम
एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥162॥
भावार्थ:-(कपटी
मुनि ने कहा-) जब सबसे पहले सृष्टि उत्पन्न हुई थी, तभी मेरी
उत्पत्ति हुई थी। तबसे मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की, इसी
से मेरा नाम एकतनु है॥162॥
चौपाई
:
*जनि
आचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥
तप
बल तें जग सृजइ बिधाता। तप बल बिष्नु भए परित्राता॥1॥
भावार्थ:-हे
पुत्र! मन में आश्चर्य मत करो, तप से कुछ भी दुर्लभ नहीं है,
तप के बल से ब्रह्मा जगत को रचते हैं। तप के ही बल से विष्णु संसार
का पालन करने वाले बने हैं॥1॥
*
तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥
भयउ
नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥2॥
भावार्थ:-तप
ही के बल से रुद्र संहार करते हैं। संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं जो तप से न मिल
सके। यह सुनकर राजा को बड़ा अनुराग हुआ। तब वह (तपस्वी) पुरानी कथाएँ कहने लगा॥2॥
*
करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥
उदभव
पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥3॥
भावार्थ:-कर्म, धर्म और अनेकों प्रकार के इतिहास कहकर वह वैराग्य और ज्ञान का निरूपण करने
लगा। सृष्टि की उत्पत्ति, पालन (स्थिति) और संहार (प्रलय) की
अपार आश्चर्यभरी कथाएँ उसने विस्तार से कही॥3॥
*
सुनि महीप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहन तब लयउ॥
कह
तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥4॥
भावार्थ:-राजा
सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और तब वह उसे अपना नाम बताने लगा। तपस्वी ने
कहा- राजन ! मैं तुमको जानता हूँ। तुमने कपट किया, वह मुझे
अच्छा लगा॥4॥
सोरठा
:
*
सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।
मोहि
तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥163॥
भावार्थ:-हे
राजन्! सुनो,
ऐसी नीति है कि राजा लोग जहाँ-तहाँ अपना नाम नहीं कहते। तुम्हारी
वही चतुराई समझकर तुम पर मेरा बड़ा प्रेम हो गया है॥163॥
चौपाई
:
*
नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥
गुर
प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥1॥
भावार्थ:-तुम्हारा
नाम प्रतापभानु है,
महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन्! गुरु की कृपा से मैं
सब जानता हूँ, पर अपनी हानि समझकर कहता नहीं॥1॥
*
देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥
उपजि
परी ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥2॥
भावार्थ:-हे
तात! तुम्हारा स्वाभाविक सीधापन (सरलता), प्रेम, विश्वास और नीति में निपुणता देखकर मेरे मन में तुम्हारे ऊपर बड़ी ममता
उत्पन्न हो गई है, इसीलिए मैं तुम्हारे पूछने पर अपनी कथा
कहता हूँ॥2॥
*
अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥
सुनि
सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥3॥
भावार्थ:-अब
मैं प्रसन्न हूँ,
इसमें संदेह न करना। हे राजन्! जो मन को भावे वही माँग लो। सुंदर
(प्रिय) वचन सुनकर राजा हर्षित हो गया और (मुनि के) पैर पकड़कर उसने बहुत प्रकार से
विनती की॥3॥
*
कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥
प्रभुहि
तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥4॥
भावार्थ:-हे
दयासागर मुनि! आपके दर्शन से ही चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म,
काम और मोक्ष) मेरी मुट्ठी में आ गए। तो भी स्वामी को प्रसन्न देखकर
मैं यह दुर्लभ वर माँगकर (क्यों न) शोकरहित हो जाऊँ॥4॥
दोहा
:
*
जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।
एकछत्र
रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥164॥
भावार्थ:-मेरा
शरीर वृद्धावस्था,
मृत्यु और दुःख से रहित हो जाए, मुझे युद्ध
में कोई जीत न सके और पृथ्वी पर मेरा सौ कल्पतक एकछत्र अकण्टक राज्य हो॥164॥
चौपाई
:
*
कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥
कालउ
तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥1॥
भावार्थ:-तपस्वी
ने कहा- हे राजन्! ऐसा ही हो, पर एक बात कठिन है, उसे भी सुन लो। हे पृथ्वी के स्वामी! केवल ब्राह्मण कुल को छोड़ काल भी
तुम्हारे चरणों पर सिर नवाएगा॥1॥
*
तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥
जौं
बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥2॥
भावार्थ:-तप
के बल से ब्राह्मण सदा बलवान रहते हैं। उनके क्रोध से रक्षा करने वाला कोई नहीं
है। हे नरपति! यदि तुम ब्राह्मणों को वश में कर लो, तो ब्रह्मा,
विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जाएँगे॥2॥
*
चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥
बिप्र
श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहिं कवनेहुँ काला॥3॥
भावार्थ:-ब्राह्मण
कुल से जोर जबर्दस्ती नहीं चल सकती, मैं दोनों भुजा
उठाकर सत्य कहता हूँ। हे राजन्! सुनो, ब्राह्मणों के शाप
बिना तुम्हारा नाश किसी काल में नहीं होगा॥3॥
*
हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥
तव
प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्बकाल कल्याना॥4॥
भावार्थ:-राजा
उसके वचन सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ और कहने लगा- हे स्वामी! मेरा नाश अब नहीं होगा।
हे कृपानिधान प्रभु! आपकी कृपा से मेरा सब समय कल्याण होगा॥4॥
दोहा
:
*
एवमस्तु कहि कपट मुनि बोला कुटिल बहोरि।
मिलब
हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥165॥
भावार्थ:-'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहकर वह कुटिल कपटी मुनि फिर
बोला- (किन्तु) तुम मेरे मिलने तथा अपने राह भूल जाने की बात किसी से (कहना नहीं,
यदि) कह दोगे, तो हमारा दोष नहीं॥165॥
चौपाई
:
*
तातें मैं तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥
छठें
श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥1॥
भावार्थ:-हे
राजन्! मैं तुमको इसलिए मना करता हूँ कि इस प्रसंग को कहने से तुम्हारी बड़ी हानि
होगी। छठे कान में यह बात पड़ते ही तुम्हारा नाश हो जाएगा, मेरा यह वचन सत्य जानना॥1॥
*
यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥
आन
उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥2॥
भावार्थ:-हे
प्रतापभानु! सुनो,
इस बात के प्रकट करने से अथवा ब्राह्मणों के शाप से तुम्हारा नाश
होगा और किसी उपाय से, चाहे ब्रह्मा और शंकर भी मन में क्रोध
करें, तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी॥2॥
*
सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥
राखइ
गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥3॥
भावार्थ:-राजा
ने मुनि के चरण पकड़कर कहा- हे स्वामी! सत्य ही है। ब्राह्मण और गुरु के क्रोध से, कहिए, कौन रक्षा कर सकता है? यदि
ब्रह्मा भी क्रोध करें, तो गुरु बचा लेते हैं, पर गुरु से विरोध करने पर जगत में कोई भी बचाने वाला नहीं है॥3॥
*
जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें॥
एकहिं
डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥4॥
भावार्थ:-यदि
मैं आपके कथन के अनुसार नहीं चलूँगा, तो (भले ही) मेरा
नाश हो जाए। मुझे इसकी चिन्ता नहीं है। मेरा मन तो हे प्रभो! (केवल) एक ही डर से
डर रहा है कि ब्राह्मणों का शाप बड़ा भयानक होता है॥4॥
दोहा
:
*
होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।
तुम्ह
तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ॥166॥
भावार्थ:-वे
ब्राह्मण किस प्रकार से वश में हो सकते हैं, कृपा करके वह भी
बताइए। हे दीनदयालु! आपको छोड़कर और किसी को मैं अपना हितू नहीं देखता॥166॥
चौपाई
:
*
सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥
अहइ
एक अति सुगम उपाई। तहाँ परन्तु एक कठिनाई॥1॥
भावार्थ:-(तपस्वी
ने कहा-) हे राजन् !सुनो,
संसार में उपाय तो बहुत हैं, पर वे कष्ट साध्य
हैं (बड़ी कठिनता से बनने में आते हैं) और इस पर भी सिद्ध हों या न हों (उनकी सफलता
निश्चित नहीं है) हाँ, एक उपाय बहुत सहज है, परन्तु उसमें भी एक कठिनता है॥1॥
*
मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥
आजु
लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥2॥
भावार्थ:-हे
राजन्! वह युक्ति तो मेरे हाथ है, पर मेरा जाना
तुम्हारे नगर में हो नहीं सकता। जब से पैदा हुआ हूँ, तब से
आज तक मैं किसी के घर अथवा गाँव नहीं गया॥2॥
*
जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥
सुनि
महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥3॥
भावार्थ:-परन्तु
यदि नहीं जाता हूँ,
तो तुम्हारा काम बिगड़ता है। आज यह बड़ा असमंजस आ पड़ा है। यह सुनकर
राजा कोमल वाणी से बोला, हे नाथ! वेदों में ऐसी नीति कही है
कि- ॥3॥
*
बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥
जलधि
अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥4॥
भावार्थ:-बड़े
लोग छोटों पर स्नेह करते ही हैं। पर्वत अपने सिरों पर सदा तृण (घास) को धारण किए
रहते हैं। अगाध समुद्र अपने मस्तक पर फेन को धारण करता है और धरती अपने सिर पर सदा
धूलि को धारण किए रहती है॥4॥
दोहा
:
*
अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल।
मोहि
लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥167॥
भावार्थ:-ऐसा
कहकर राजा ने मुनि के चरण पकड़ लिए। (और कहा-) हे स्वामी! कृपा कीजिए। आप संत हैं।
दीनदयालु हैं। (अतः) हे प्रभो! मेरे लिए इतना कष्ट (अवश्य) सहिए॥167॥
चौपाई
:
*
जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥
सत्य
कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥1॥
भावार्थ:-राजा
को अपने अधीन जानकर कपट में प्रवीण तपस्वी बोला- हे राजन्! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत में मुझे कुछ भी
दुर्लभ नहीं है॥1॥
*
अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥
जोग
जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥2॥
भावार्थ:-मैं
तुम्हारा काम अवश्य करूँगा,
(क्योंकि) तुम, मन, वाणी
और शरीर (तीनों) से मेरे भक्त हो। पर योग, युक्ति, तप और मंत्रों का प्रभाव तभी फलीभूत होता है जब वे छिपाकर किए जाते हैं॥2॥
*
जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥
अन्न
सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥3॥
भावार्थ:-हे
नरपति! मैं यदि रसोई बनाऊँ और तुम उसे परोसो और मुझे कोई जानने न पावे, तो उस अन्न को जो-जो खाएगा, सो-सो तुम्हारा आज्ञाकारी
बन जाएगा॥3॥
*
पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥
जाइ
उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू॥4॥
भावार्थ:-यही
नहीं,
उन (भोजन करने वालों) के घर भी जो कोई भोजन करेगा, हे राजन्! सुनो, वह भी तुम्हारे अधीन हो जाएगा। हे
राजन्! जाकर यही उपाय करो और वर्षभर (भोजन कराने) का संकल्प कर लेना॥4॥
दोहा
:
*
नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
मैं
तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं करबि जेवनार॥168॥
भावार्थ:-नित्य
नए एक लाख ब्राह्मणों को कुटुम्ब सहित निमंत्रित करना। मैं तुम्हारे सकंल्प (के
काल अर्थात एक वर्ष) तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा॥168॥
चौपाई
:
*
एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥
करिहहिं
बिप्र होममख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥1॥
भावार्थ:-हे
राजन्! इस प्रकार बहुत ही थोड़े परिश्रम से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो
जाएँगे। ब्राह्मण हवन,
यज्ञ और सेवा-पूजा करेंगे, तो उस प्रसंग
(संबंध) से देवता भी सहज ही वश में हो जाएँगे॥1॥
*
और एक तोहि कहउँ लखाऊ। मैं एहिं बेष न आउब काऊ॥
तुम्हरे
उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥2॥
भावार्थ:-मैं
एक और पहचान तुमको बताए देता हूँ कि मैं इस रूप में कभी न आऊँगा। हे राजन्! मैं
अपनी माया से तुम्हारे पुरोहित को हर लाऊँगा॥2॥\
*
तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥
मैं
धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥3॥
भावार्थ:-तप
के बल से उसे अपने समान बनाकर एक वर्ष यहाँ रखूँगा और हे राजन्! सुनो, मैं उसका रूप बनाकर सब प्रकार से तुम्हारा काम सिद्ध करूँगा॥3॥
*
गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे॥
मैं
तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचैहउँ सोवतहि निकेता॥4॥
भावार्थ:-हे
राजन्! रात बहुत बीत गई,
अब सो जाओ। आज से तीसरे दिन मुझसे तुम्हारी भेंट होगी। तप के बल से
मैं घोड़े सहित तुमको सोते ही में घर पहुँचा दूँगा॥4॥
दोहा
:
*
मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।
जब
एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥169॥
भावार्थ:-मैं
वही (पुरोहित का) वेश धरकर आऊँगा। जब एकांत में तुमको बुलाकर सब कथा सुनाऊँगा, तब तुम मुझे पहचान लेना॥169॥
चौपाई
:
*
सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥
श्रमित
भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥1॥
भावार्थ:-राजा
ने आज्ञा मानकर शयन किया और वह कपट-ज्ञानी आसन पर जा बैठा। राजा थका था, (उसे) खूब (गहरी) नींद आ गई। पर वह कपटी कैसे सोता। उसे तो बहुत चिन्ता हो
रही थी॥1॥
*
कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥
परम
मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥2॥
भावार्थ:-(उसी
समय) वहाँ कालकेतु राक्षस आया, जिसने सूअर बनकर राजा को भटकाया
था। वह तपस्वी राजा का बड़ा मित्र था और खूब छल-प्रपंच जानता था॥2॥
*
तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥
प्रथमहिं
भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥3॥
भावार्थ:-उसके
सौ पुत्र और दस भाई थे,
जो बड़े ही दुष्ट, किसी से न जीते जाने वाले और
देवताओं को दुःख देने वाले थे। ब्राह्मणों, संतों और देवताओं
को दुःखी देखकर राजा ने उन सबको पहले ही युद्ध में मार डाला था॥3॥
*
तेहिं खल पाछिल बयरु सँभारा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा॥
जेहिं
रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥4॥
भावार्थ:-उस
दुष्ट ने पिछला बैर याद करके तपस्वी राजा से मिलकर सलाह विचारी (षड्यंत्र किया) और
जिस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा
(प्रतापभानु) कुछ भी न समझ सका॥4॥
दोहा
:
*
रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।
अजहुँ
देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥170॥
भावार्थ:-तेजस्वी
शत्रु अकेला भी हो तो भी उसे छोटा नहीं समझना चाहिए। जिसका सिर मात्र बचा था, वह राहु आज तक सूर्य-चन्द्रमा को दुःख देता है॥170॥
*
तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥
मित्रहि
कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥1॥
भावार्थ:-तपस्वी
राजा अपने मित्र को देख प्रसन्न हो उठकर मिला और सुखी हुआ। उसने मित्र को सब कथा
कह सुनाई,
तब राक्षस आनंदित होकर बोला॥1॥
*
अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥
परिहरि
सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥2॥
भावार्थ:-हे
राजन्! सुनो,
जब तुमने मेरे कहने के अनुसार (इतना) काम कर लिया, तो अब मैंने शत्रु को काबू में कर ही लिया (समझो)। तुम अब चिन्ता त्याग सो
रहो। विधाता ने बिना ही दवा के रोग दूर कर दिया॥2॥
*
कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथें दिवस मिलब मैं आई॥
तापस
नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥3॥
भावार्थ:-कुल
सहित शत्रु को जड़-मूल से उखाड़-बहाकर, (आज से) चौथे दिन
मैं तुमसे आ मिलूँगा। (इस प्रकार) तपस्वी राजा को खूब दिलासा देकर वह महामायावी और
अत्यन्त क्रोधी राक्षस चला॥3॥
*
भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥
नृपहि
नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥4॥
भावार्थ:-उसने
प्रतापभानु राजा को घोड़े सहित क्षणभर में घर पहुँचा दिया। राजा को रानी के पास
सुलाकर घोड़े को अच्छी तरह से घुड़साल में बाँध दिया॥4॥
दोहा
:
*
राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।
लै
राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥171॥
भावार्थ:-फिर
वह राजा के पुरोहित को उठा ले गया और माया से उसकी बुद्धि को भ्रम में डालकर उसे
उसने पहाड़ की खोह में ला रखा॥171॥
चौपाई
:
*
आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥
जागेउ
नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥1॥
भावार्थ:-वह
आप पुरोहित का रूप बनाकर उसकी सुंदर सेज पर जा लेटा। राजा सबेरा होने से पहले ही
जागा और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आश्चर्य माना॥1॥
*
मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहिं जेहिं जान न रानी॥
कानन
गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥2॥
भावार्थ:-मन
में मुनि की महिमा का अनुमान करके वह धीरे से उठा, जिसमें रानी
न जान पावे। फिर उसी घोड़े पर चढ़कर वन को चला गया। नगर के किसी भी स्त्री-पुरुष ने
नहीं जाना॥2॥
*
गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥
उपरोहितहि
देख जब राजा। चकित बिलोक सुमिरि सोइ काजा॥3॥
भावार्थ:-दो
पहर बीत जाने पर राजा आया। घर-घर उत्सव होने लगे और बधावा बजने लगा। जब राजा ने
पुरोहित को देखा,
तब वह (अपने) उसी कार्य का स्मरणकर उसे आश्चर्य से देखने लगा॥3॥
*
जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥
समय
जान उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥4॥
भावार्थ:-राजा
को तीन दिन युग के समान बीते। उसकी बुद्धि कपटी मुनि के चरणों में लगी रही।
निश्चित समय जानकर पुरोहित (बना हुआ राक्षस) आया और राजा के साथ की हुई गुप्त सलाह
के अनुसार (उसने अपने) सब विचार उसे समझाकर कह दिए॥4॥
दोहा
:
*
नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
बरे
तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥172॥
भावार्थ:-(संकेत
के अनुसार) गुरु को (उस रूप में) पहचानकर राजा प्रसन्न हुआ। भ्रमवश उसे चेत न रहा
(कि यह तापस मुनि है या कालकेतु राक्षस)। उसने तुरंत एक लाख उत्तम ब्राह्मणों को
कुटुम्ब सहित निमंत्रण दे दिया॥172॥
चौपाई
:
*
उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥
मायामय
तेहिं कीन्हि रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥1॥
भावार्थ:-पुरोहित
ने छह रस और चार प्रकार के भोजन, जैसा कि वेदों में वर्णन है,
बनाए। उसने मायामयी रसोई तैयार की और इतने व्यंजन बनाए, जिन्हें कोई गिन नहीं सकता॥1॥
*
बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥
भोजन
कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥2॥
भावार्थ:-अनेक
प्रकार के पशुओं का मांस पकाया और उसमें उस दुष्ट ने ब्राह्मणों का मांस मिला
दिया। सब ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया और चरण धोकर आदर सहित बैठाया॥2॥
*
परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥
बिप्रबृंद
उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥3॥
भावार्थ:-ज्यों
ही राजा परोसने लगा,
उसी काल (कालकेतुकृत) आकाशवाणी हुई- हे ब्राह्मणों! उठ-उठकर अपने घर
जाओ, यह अन्न मत खाओ। इस (के खाने) में बड़ी हानि है॥3॥
*
भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
भूप
बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस न आव मुख बानी॥4॥
भावार्थ:-रसोई
में ब्राह्मणों का मांस बना है। (आकाशवाणी का) विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खड़े
हुए। राजा व्याकुल हो गया (परन्तु), उसकी बुद्धि मोह
में भूली हुई थी। होनहारवश उसके मुँह से (एक) बात (भी) न निकली॥4॥
दोहा
:
*बोले
बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
जाइ
निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥173॥
भावार्थ:-तब
ब्राह्मण क्रोध सहित बोल उठे- उन्होंने कुछ भी विचार नहीं किया- अरे मूर्ख राजा!
तू जाकर परिवार सहित राक्षस हो॥173॥
चौपाई
:
*
छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥
ईश्वर
राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥1॥
भावार्थ:-रे
नीच क्षत्रिय! तूने तो परिवार सहित ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें नष्ट करना चाहा था, ईश्वर ने हमारे धर्म की रक्षा की। अब तू परिवार सहित नष्ट होगा॥1॥
*
संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
नृप
सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥2॥
भावार्थ:-एक
वर्ष के भीतर तेरा नाश हो जाए, तेरे कुल में कोई पानी देने
वाला तक न रहेगा। शाप सुनकर राजा भय के मारे अत्यन्त व्याकुल हो गया। फिर सुंदर
आकाशवाणी हुई-॥2॥
*
बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
चकित
बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥3॥
भावार्थ:-हे
ब्राह्मणों! तुमने विचार कर शाप नहीं दिया। राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया।
आकाशवाणी सुनकर सब ब्राह्मण चकित हो गए। तब राजा वहाँ गया, जहाँ भोजन बना था॥3॥
*
तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥
सब
प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥4॥
भावार्थ:-(देखा
तो) वहाँ न भोजन था,
न रसोइया ब्राह्मण ही था। तब राजा मन में अपार चिन्ता करता हुआ
लौटा। उसने ब्राह्मणों को सब वृत्तान्त सुनाया और (बड़ा ही) भयभीत और व्याकुल होकर
वह पृथ्वी पर गिर पड़ा॥4॥
दोहा
:
*
भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
किएँ
अन्यथा दोइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥174॥
भावार्थ:-हे
राजन! यद्यपि तुम्हारा दोष नहीं है, तो भी होनहार नहीं
मिटता। ब्राह्मणों का शाप बहुत ही भयानक होता है, यह किसी
तरह भी टाले टल नहीं सकता॥174॥
चौपाई
:
*
अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥
सोचहिं
दूषन दैवहि देहीं। बिरचत हंस काग किए जेहीं॥1॥
भावार्थ:-ऐसा
कहकर सब ब्राह्मण चले गए। नगरवासियों ने (जब) यह समाचार पाया, तो वे चिन्ता करने और विधाता को दोष देने लगे, जिसने
हंस बनाते-बनाते कौआ कर दिया (ऐसे पुण्यात्मा राजा को देवता बनाना चाहिए था,
सो राक्षस बना दिया)॥1॥
*
उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥
तेहिं
खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥2॥
भावार्थ:-पुरोहित
को उसके घर पहुँचाकर असुर (कालकेतु) ने (कपटी) तपस्वी को खबर दी। उस दुष्ट ने
जहाँ-तहाँ पत्र भेजे,
जिससे सब (बैरी) राजा सेना सजा-सजाकर (चढ़) दौड़े॥2॥
*
घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होइ लराई॥
जूझे
सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥3॥
भावार्थ:-और
उन्होंने डंका बजाकर नगर को घेर लिया। नित्य प्रति अनेक प्रकार से लड़ाई होने लगी।
(प्रताप भानु के) सब योद्धा (शूरवीरों की) करनी करके रण में जूझ मरे। राजा भी भाई
सहित खेत रहा॥3॥
*
सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥
रिपु
जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥4॥
भावार्थ:-सत्यकेतु
के कुल में कोई नहीं बचा। ब्राह्मणों का शाप झूठा कैसे हो सकता था। शत्रु को जीतकर
नगर को (फिर से) बसाकर सब राजा विजय और यश पाकर अपने-अपने नगर को चले गए॥4॥
रावणादि
का जन्म,
तपस्या और उनका ऐश्वर्य तथा अत्याचार
दोहा
:
*
भरद्वाज सुनु जाहि जब होई बिधाता बाम।
धूरि
मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥175॥
भावार्थ:-(याज्ञवल्क्यजी
कहते हैं-) हे भरद्वाज! सुनो, विधाता जब जिसके विपरीत होते
हैं, तब उसके लिए धूल सुमेरु पर्वत के समान (भारी और कुचल
डालने वाली), पिता यम के समान (कालरूप) और रस्सी साँप के
समान (काट खाने वाली) हो जाती है॥175॥
चौपाई:
*
काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥
दस
सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥1॥
भावार्थ:-हे
मुनि! सुनो,
समय पाकर वही राजा परिवार सहित रावण नामक राक्षस हुआ। उसके दस सिर
और बीस भुजाएँ थीं और वह बड़ा ही प्रचण्ड शूरवीर था॥1॥
*
भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा॥
सचिव
जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू॥2॥
भावार्थ:-अरिमर्दन
नामक जो राजा का छोटा भाई था, वह बल का धाम कुम्भकर्ण हुआ।
उसका जो मंत्री था, जिसका नाम धर्मरुचि था, वह रावण का सौतेला छोटा भाई हुआ ॥2॥
*
नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥
रहे
जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥3॥
भावार्थ:-उसका
विभीषण नाम था,
जिसे सारा जगत जानता है। वह विष्णुभक्त और ज्ञान-विज्ञान का भंडार
था और जो राजा के पुत्र और सेवक थे, वे सभी बड़े भयानक राक्षस
हुए॥3॥
*
कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका॥
कृपा
रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥4॥
भावार्थ:-वे
सब अनेकों जाति के,
मनमाना रूप धारण करने वाले, दुष्ट, कुटिल, भयंकर, विवेकरहित,
निर्दयी, हिंसक, पापी और
संसार भर को दुःख देने वाले हुए, उनका वर्णन नहीं हो सकता॥4॥
दोहा
:
*
उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
तदपि
महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥176॥
भावार्थ:-यद्यपि
वे पुलस्त्य ऋषि के पवित्र,
निर्मल और अनुपम कुल में उत्पन्न हुए, तथापि
ब्राह्मणों के शाप के कारण वे सब पाप रूप हुए॥176॥
चौपाई
:
*
कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥
गयउ
निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥1॥
भावार्थ:-तीनों
भाइयों ने अनेकों प्रकार की बड़ी ही कठिन तपस्या की, जिसका वर्णन
नहीं हो सकता। (उनका उग्र) तप देखकर ब्रह्माजी उनके पास गए और बोले- हे तात! मैं
प्रसन्न हूँ, वर माँगो॥1॥
*
करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥
हम
काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥2॥
भावार्थ:-रावण
ने विनय करके और चरण पकड़कर कहा- हे जगदीश्वर! सुनिए, वानर और
मनुष्य- इन दो जातियों को छोड़कर हम और किसी के मारे न मरें। (यह वर दीजिए)॥2॥
*
एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
पुनि
प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥3॥
भावार्थ:-(शिवजी
कहते हैं कि-) मैंने और ब्रह्मा ने मिलकर उसे वर दिया कि ऐसा ही हो, तुमने बड़ा तप किया है। फिर ब्रह्माजी कुंभकर्ण के पास गए। उसे देखकर उनके
मन में बड़ा आश्चर्य हुआ॥3॥
*
जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥
सारद
प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥4॥
भावार्थ:-जो
यह दुष्ट नित्य आहार करेगा,
तो सारा संसार ही उजाड़ हो जाएगा। (ऐसा विचारकर) ब्रह्माजी ने
सरस्वती को प्रेरणा करके उसकी बुद्धि फेर दी। (जिससे) उसने छह महीने की नींद
माँगी॥4॥
दोहा
:
*
गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
तेहिं
मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥177॥
भावार्थ:-फिर
ब्रह्माजी विभीषण के पास गए और बोले- हे पुत्र! वर माँगो। उसने भगवान के चरणकमलों
में निर्मल (निष्काम और अनन्य) प्रेम माँगा॥177॥
चौपाई
:
*
तिन्हहि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥
मय
तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥1॥
भावार्थ:-उनको
वर देकर ब्रह्माजी चले गए और वे (तीनों भाई) हर्षित हेकर अपने घर लौट आए। मय दानव
की मंदोदरी नाम की कन्या परम सुंदरी और स्त्रियों में शिरोमणि थी॥1॥
*
सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥
हरषित
भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥2॥
भावार्थ:-मय
ने उसे लाकर रावण को दिया। उसने जान लिया कि यह राक्षसों का राजा होगा। अच्छी
स्त्री पाकर रावण प्रसन्न हुआ और फिर उसने जाकर दोनों भाइयों का विवाह कर दिया॥2॥
*
गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥
सोइ
मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनि भवन अपारा॥3॥
भावार्थ:-समुद्र
के बीच में त्रिकूट नामक पर्वत पर ब्रह्मा का बनाया हुआ एक बड़ा भारी किला था।
(महान मायावी और निपुण कारीगर) मय दानव ने उसको फिर से सजा दिया। उसमें मणियों से
जड़े हुए सोने के अनगिनत महल थे॥3॥
*
भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥
तिन्ह
तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥4॥
भावार्थ:-जैसी
नागकुल के रहने की (पाताल लोक में) भोगावती पुरी है और इन्द्र के रहने की
(स्वर्गलोक में) अमरावती पुरी है, उनसे भी अधिक सुंदर और बाँका वह
दुर्ग था। जगत में उसका नाम लंका प्रसिद्ध हुआ॥4॥
दोहा
:
*
खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव।
कनक
कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव॥178 क॥
भावार्थ:-उसे
चारों ओर से समुद्र की अत्यन्त गहरी खाई घेरे हुए है। उस (दुर्ग) के मणियों से जड़ा
हुआ सोने का मजबूत परकोटा है, जिसकी कारीगरी का वर्णन नहीं
किया जा सकता॥178 (क)॥
*
हरि प्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।
सूर
प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥178 ख॥
भावार्थ:-भगवान
की प्रेरणा से जिस कल्प में जो राक्षसों का राजा (रावण) होता है, वही शूर, प्रतापी, अतुलित
बलवान् अपनी सेना सहित उस पुरी में बसता है॥178 (ख)॥
चौपाई
:
*
रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥
अब
तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥1॥
भावार्थ:-(पहले)
वहाँ बड़े-बड़े योद्धा राक्षस रहते थे। देवताओं ने उन सबको युद्द में मार डाला। अब
इंद्र की प्रेरणा से वहाँ कुबेर के एक करोड़ रक्षक (यक्ष लोग) रहते हैं॥1॥
*दसमुख
कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई॥
देखि
बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥2॥
भावार्थ:-रावण
को कहीं ऐसी खबर मिली,
तब उसने सेना सजाकर किले को जा घेरा। उस बड़े विकट योद्धा और उसकी बड़ी
सेना को देखकर यक्ष अपने प्राण लेकर भाग गए॥2॥
*
फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥
सुंदर
सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥3॥
भावार्थ:-तब
रावण ने घूम-फिरकर सारा नगर देखा। उसकी (स्थान संबंधी) चिन्ता मिट गई और उसे बहुत
ही सुख हुआ। उस पुरी को स्वाभाविक ही सुंदर और (बाहर वालों के लिए) दुर्गम अनुमान
करके रावण ने वहाँ अपनी राजधानी कायम की॥3॥
*
जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हें॥
एक
बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥4॥
भावार्थ:-योग्यता
के अनुसार घरों को बाँटकर रावण ने सब राक्षसों को सुखी किया। एक बार वह कुबेर पर
चढ़ दौड़ा और उससे पुष्पक विमान को जीतकर ले आया॥4॥
दोहा
:
*
कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।
मनहुँ
तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥179॥
भावार्थ:-फिर
उसने जाकर (एक बार) खिलवाड़ ही में कैलास पर्वत को उठा लिया और मानो अपनी भुजाओं का
बल तौलकर,
बहुत सुख पाकर वह वहाँ से चला आया॥179॥
चौपाई
:
*
सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥
नित
नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥1॥
भावार्थ:-सुख, सम्पत्ति, पुत्र, सेना,
सहायक, जय, प्रताप,
बल, बुद्धि और बड़ाई- ये सब उसके नित्य नए
(वैसे ही) बढ़ते जाते थे, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता
है॥1॥
*
अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥
करइ
पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहूँ पुर त्रासा॥2॥
भावार्थ:-अत्यन्त
बलवान् कुम्भकर्ण सा उसका भाई था, जिसके जोड़ का
योद्धा जगत में पैदा ही नहीं हुआ। वह मदिरा पीकर छह महीने सोया करता था। उसके
जागते ही तीनों लोकों में तहलका मच जाता था॥2॥
*
जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥
समर
धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥3॥
भावार्थ:-यदि
वह प्रतिदिन भोजन करता,
तब तो सम्पूर्ण विश्व शीघ्र ही चौपट (खाली) हो जाता। रणधीर ऐसा था
कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (लंका में) उसके ऐसे असंख्य बलवान वीर थे॥3॥
*
बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥
जेहि
न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥4॥
भावार्थ:-
मेघनाद रावण का बड़ा लड़का था, जिसका जगत के योद्धाओं में पहला
नंबर था। रण में कोई भी उसका सामना नहीं कर सकता था। स्वर्ग में तो (उसके भय से)
नित्य भगदड़ मची रहती थी॥4॥
दोहा
:
*
कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
एक
एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥180॥
भावार्थ:-(इनके
अतिरिक्त) दुर्मुख,
अकम्पन, वज्रदन्त, धूमकेतु
और अतिकाय आदि ऐसे अनेक योद्धा थे, जो अकेले ही सारे जगत को
जीत सकते थे॥180॥
चौपाई
:
*
कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥
दसमुख
बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥1॥
भावार्थ:-सभी
राक्षस मनमाना रूप बना सकते थे और (आसुरी) माया जानते थे। उनके दया-धर्म स्वप्न
में भी नहीं था। एक बार सभा में बैठे हुए रावण ने अपने अगणित परिवार को देखा-॥1॥
*
सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निसाचर जाती॥
सेन
बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥2॥
भावार्थ:-पुत्र-पौत्र, कुटुम्बी और सेवक ढेर-के-ढेर थे। (सारी) राक्षसों की जातियों को तो गिन ही
कौन सकता था! अपनी सेना को देखकर स्वभाव से ही अभिमानी रावण क्रोध और गर्व में सनी
हुई वाणी बोला-॥2॥
*
सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥
ते
सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥3॥
भावार्थ:-हे
समस्त राक्षसों के दलों! सुनो, देवतागण हमारे शत्रु हैं। वे
सामने आकर युद्ध नहीं करते। बलवान शत्रु को देखकर भाग जाते हैं॥3॥
*
तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
द्विजभोजन
मख होम सराधा। सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥4॥
भावार्थ:-उनका
मरण एक ही उपाय से हो सकता है, मैं समझाकर कहता हूँ। अब उसे
सुनो। (उनके बल को बढ़ाने वाले) ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, हवन और श्राद्ध- इन सबमें जाकर तुम बाधा डालो॥4॥
दोहा
:
*
छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
तब
मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥181॥
भावार्थ:-भूख
से दुर्बल और बलहीन होकर देवता सहज ही में आ मिलेंगे। तब उनको मैं मार डालूँगा
अथवा भलीभाँति अपने अधीन करके (सर्वथा पराधीन करके) छोड़ दूँगा॥181॥
चौपाई
:
*
मेघनाद कहूँ पुनि हँकरावा। दीन्हीं सिख बलु बयरु बढ़ावा॥
जे
सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥1॥
भावार्थ:-फिर
उसने मेघनाद को बुलवाया और सिखा-पढ़ाकर उसके बल और देवताओं के प्रति बैरभाव को
उत्तेजना दी। (फिर कहा-) हे पुत्र ! जो देवता रण में धीर और बलवान् हैं और
जिन्हें लड़ने का अभिमान है॥1॥
*
तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँघी॥
एहि
बिधि सबही अग्या दीन्हीं। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥2॥
भावार्थ:-उन्हें
युद्ध में जीतकर बाँध लाना। बेटे ने उठकर पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया। इसी
तरह उसने सबको आज्ञा दी और आप भी हाथ में गदा लेकर चल दिया॥2॥
*
चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी॥
रावन
आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥3॥
भावार्थ:-रावण
के चलने से पृथ्वी डगमगाने लगी और उसकी गर्जना से देवरमणियों के गर्भ गिरने लगे।
रावण को क्रोध सहित आते हुए सुनकर देवताओं ने सुमेरु पर्वत की गुफाएँ तकीं (भागकर
सुमेरु की गुफाओं का आश्रय लिया)॥3॥
*
दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
पुनि
पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥4॥
भावार्थ:-दिक्पालों
के सारे सुंदर लोकों को रावण ने सूना पाया। वह बार-बार भारी सिंहगर्जना करके
देवताओं को ललकार-ललकारकर गालियाँ देता था॥4॥
*
रन मद मत्त फिरइ गज धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा॥
रबि
ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥5॥
भावार्थ:-रण
के मद में मतवाला होकर वह अपनी जोड़ी का योद्धा खोजता हुआ जगत भर में दौड़ता फिरा, परन्तु उसे ऐसा योद्धा कहीं नहीं मिला। सूर्य, चन्द्रमा,
वायु, वरुण, कुबेर,
अग्नि, काल और यम आदि सब अधिकारी,॥5॥
*
किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥
ब्रह्मसृष्टि
जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥6॥
भावार्थ:-किन्नर, सिद्ध, मनुष्य, देवता और नाग-
सभी के पीछे वह हठपूर्वक पड़ गया (किसी को भी उसने शांतिपूर्वक नहीं बैठने दिया)।
ब्रह्माजी की सृष्टि में जहाँ तक शरीरधारी स्त्री-पुरुष थे, सभी
रावण के अधीन हो गए॥6॥
*
आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥7॥
भावार्थ:-डर
के मारे सभी उसकी आज्ञा का पालन करते थे और नित्य आकर नम्रतापूर्वक उसके चरणों में
सिर नवाते थे॥7॥
दोहा
:
*
भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
मंडलीक
मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥182 क॥
भावार्थ:-उसने
भुजाओं के बल से सारे विश्व को वश में कर लिया, किसी को स्वतंत्र
नहीं रहने दिया। (इस प्रकार) मंडलीक राजाओं का शिरोमणि (सार्वभौम सम्राट) रावण
अपनी इच्छानुसार राज्य करने लगा॥182 (क)॥
*
देव जच्छ गंधर्ब नर किंनर नाग कुमारि।
जीति
बरीं निज बाहु बल बहु सुंदर बर नारि॥182 ख॥
भावार्थ:-देवता, यक्ष, गंधर्व, मनुष्य, किन्नर और नागों की कन्याओं तथा बहुत सी अन्य सुंदरी और उत्तम स्त्रियों
को उसने अपनी भुजाओं के बल से जीतकर ब्याह लिया॥182 (ख)॥
चौपाई
:
*
इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥
प्रथमहिं
जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥1॥
भावार्थ:-मेघनाद
से उसने जो कुछ कहा,
उसे उसने (मेघनाद ने) मानो पहले से ही कर रखा था (अर्थात् रावण के
कहने भर की देर थी, उसने आज्ञापालन में तनिक भी देर नहीं
की।) जिनको (रावण ने मेघनाद से) पहले ही आज्ञा दे रखी थी, उन्होंने
जो करतूतें की उन्हें सुनो॥1॥
*
देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
करहिं
उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥2॥
भावार्थ:-सब
राक्षसों के समूह देखने में बड़े भयानक, पापी और देवताओं को
दुःख देने वाले थे। वे असुरों के समूह उपद्रव करते थे और माया से अनेकों प्रकार के
रूप धरते थे॥2॥
*
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥
जेहिं
जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥3॥
भावार्थ:-जिस
प्रकार धर्म की जड़ कटे,
वे वही सब वेदविरुद्ध काम करते थे। जिस-जिस स्थान में वे गो और
ब्राह्मणों को पाते थे, उसी नगर, गाँव
और पुरवे में आग लगा देते थे॥3॥
*
सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरु मान न कोई॥
नहिं
हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहु सुनिअ न बेद पुराना॥4॥
भावार्थ:-(उनके
डर से) कहीं भी शुभ आचरण (ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, श्राद्ध आदि) नहीं होते थे। देवता, ब्राह्मण और गुरु
को कोई नहीं मानता था। न हरिभक्ति थी, न यज्ञ, तप और ज्ञान था। वेद और पुराण तो स्वप्न में भी सुनने को नहीं मिलते थे॥4॥
छन्द
:
*
जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
आपुनु
उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥
अस
भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना।
तेहि
बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥
भावार्थ:-जप, योग, वैराग्य, तप तथा यज्ञ में
(देवताओं के) भाग पाने की बात रावण कहीं कानों से सुन पाता, तो
(उसी समय) स्वयं उठ दौड़ता। कुछ भी रहने नहीं पाता, वह सबको
पकड़कर विध्वंस कर डालता था। संसार में ऐसा भ्रष्ट आचरण फैल गया कि धर्म तो कानों
में सुनने में नहीं आता था, जो कोई वेद और पुराण कहता,
उसको बहुत तरह से त्रास देता और देश से निकाल देता था।
सोरठा
:
*
बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
हिंसा
पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥183॥
भावार्थ:-राक्षस
लोग जो घोर अत्याचार करते थे, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
हिंसा पर ही जिनकी प्रीति है, उनके पापों का क्या
ठिकाना॥183॥
मासपारायण, छठा विश्राम
पृथ्वी
और देवतादि की करुण पुकार
चौपाई
:
*
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥
मानहिं
मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥1॥
भावार्थ:-पराए
धन और पराई स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और
साधुओं (की सेवा करना तो दूर रहा, उल्टे उन) से सेवा करवाते
थे॥1॥
*
जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
अतिसय
देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥2॥
भावार्थ:-(श्री
शिवजी कहते हैं कि-) हे भवानी! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों
को राक्षस ही समझना। इस प्रकार धर्म के प्रति (लोगों की) अतिशय ग्लानि (अरुचि,
अनास्था) देखकर पृथ्वी अत्यन्त भयभीत एवं व्याकुल हो गई॥2॥
*
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही।
सकल
धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥3॥
भावार्थ:-(वह
सोचने लगी कि) पर्वतों,
नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं जान पड़ता, जितना भारी मुझे एक परद्रोही (दूसरों का अनिष्ट करने वाला) लगता है।
पृथ्वी सारे धर्मों को विपरीत देख रही है, पर रावण से भयभीत
हुई वह कुछ बोल नहीं सकती॥3॥
*धेनु
रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
निज
संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥4॥
भावार्थ:-(अंत
में) हृदय में सोच-विचारकर,
गो का रूप धारण कर धरती वहाँ गई, जहाँ सब
देवता और मुनि (छिपे) थे। पृथ्वी ने रोककर उनको अपना दुःख सुनाया, पर किसी से कुछ काम न बना॥4॥
छन्द
:
*
सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
सँग
गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥
ब्रह्माँ
सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
जा
करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥
भावार्थ:-तब
देवता,
मुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्माजी के लोक (सत्यलोक) को गए। भय और
शोक से अत्यन्त व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गो का शरीर धारण किए हुए उनके साथ थी।
ब्रह्माजी सब जान गए। उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं
चलने का। (तब उन्होंने पृथ्वी से कहा कि-) जिसकी तू दासी है, वही अविनाशी हमारा और तुम्हारा दोनों का सहायक है॥
सोरठा
:
*
धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरि पद सुमिरु।
जानत
जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥184॥
भावार्थ:-ब्रह्माजी
ने कहा- हे धरती! मन में धीरज धारण करके श्री हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु
अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं, वे तुम्हारी कठिन विपत्ति का
नाश करेंगे॥184॥
चौपाई
:
*
बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
पुर
बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥1॥
भावार्थ:-सब
देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहाँ पावें ताकि उनके सामने पुकार
(फरियाद) करें। कोई बैकुंठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था कि वही प्रभु
क्षीरसमुद्र में निवास करते हैं॥1॥
*
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
तेहिं
समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेउँ॥2॥
भावार्थ:-जिसके
हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती है, प्रभु वहाँ (उसके
लिए) सदा उसी रीति से प्रकट होते हैं। हे पार्वती! उस समाज में मैं भी था। अवसर
पाकर मैंने एक बात कही-॥2॥
*
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस
काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥3॥
भावार्थ:-मैं
तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ,
ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों॥3॥
*
अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
मोर
बचन सब के मन माना। साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥4॥
भावार्थ:-वे
चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं
आसक्ति नहीं है),
वे प्रेम से प्रकट होते हैं, जैसे अग्नि।
(अग्नि अव्यक्त रूप से सर्वत्र व्याप्त है, परन्तु जहाँ उसके
लिए अरणिमन्थनादि साधन किए जाते हैं, वहाँ वह प्रकट होती है।
इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त भगवान भी प्रेम से प्रकट होते हैं।) मेरी बात सबको
प्रिय लगी। ब्रह्माजी ने 'साधु-साधु' कहकर
बड़ाई की॥4॥
दोहा
:
*
सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
अस्तुति
करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥185॥
भावार्थ:-मेरी
बात सुनकर ब्रह्माजी के मन में बड़ा हर्ष हुआ, उनका तन पुलकित हो
गया और नेत्रों से (प्रेम के) आँसू बहने लगे। तब वे धीरबुद्धि ब्रह्माजी सावधान
होकर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे॥185॥
छन्द
:
*
जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
गो
द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥
पालन
सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो
सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥1॥
भावार्थ:-हे
देवताओं के स्वामी,
सेवकों को सुख देने वाले, शरणागत की रक्षा
करने वाले भगवान! आपकी जय हो! जय हो!! हे गो-ब्राह्मणों का हित करने वाले, असुरों का विनाश करने वाले, समुद्र की कन्या (श्री
लक्ष्मीजी) के प्रिय स्वामी! आपकी जय हो! हे देवता और पृथ्वी का पालन करने वाले!
आपकी लीला अद्भुत है, उसका भेद कोई नहीं जानता। ऐसे जो
स्वभाव से ही कृपालु और दीनदयालु हैं, वे ही हम पर कृपा
करें॥1॥
*
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
अबिगत
गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥
जेहि
लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा।
निसि
बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥2॥
भावार्थ:-हे
अविनाशी,
सबके हृदय में निवास करने वाले (अन्तर्यामी), सर्वव्यापक,
परम आनंदस्वरूप, अज्ञेय, इन्द्रियों से परे, पवित्र चरित्र, माया से रहित मुकुंद (मोक्षदाता)! आपकी जय हो! जय हो!! (इस लोक और परलोक
के सब भोगों से) विरक्त तथा मोह से सर्वथा छूटे हुए (ज्ञानी) मुनिवृन्द भी अत्यन्त
अनुरागी (प्रेमी) बनकर जिनका रात-दिन ध्यान करते हैं और जिनके गुणों के समूह का
गान करते हैं, उन सच्चिदानंद की जय हो॥2॥
*
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो
करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
जो
भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
मन
बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुरजूथा॥3॥
भावार्थ:-जिन्होंने
बिना किसी दूसरे संगी अथवा सहायक के अकेले ही (या स्वयं अपने को त्रिगुणरूप-
ब्रह्मा,
विष्णु, शिवरूप- बनाकर अथवा बिना किसी
उपादान-कारण के अर्थात् स्वयं ही सृष्टि का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बनकर) तीन
प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, वे पापों का नाश करने वाले
भगवान हमारी सुधि लें। हम न भक्ति जानते हैं, न पूजा,
जो संसार के (जन्म-मृत्यु के) भय का नाश करने वाले, मुनियों के मन को आनंद देने वाले और विपत्तियों के समूह को नष्ट करने वाले
हैं। हम सब देवताओं के समूह, मन, वचन
और कर्म से चतुराई करने की बान छोड़कर उन (भगवान) की शरण (आए) हैं॥3॥
*
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
जेहि
दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
भव
बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
मुनि
सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥4॥
भावार्थ:-सरस्वती, वेद, शेषजी और सम्पूर्ण ऋषि कोई भी जिनको नहीं जानते,
जिन्हें दीन प्रिय हैं, ऐसा वेद पुकारकर कहते
हैं, वे ही श्री भगवान हम पर दया करें। हे संसार रूपी समुद्र
के (मथने के) लिए मंदराचल रूप, सब प्रकार से सुंदर, गुणों के धाम और सुखों की राशि नाथ! आपके चरण कमलों में मुनि, सिद्ध और सारे देवता भय से अत्यन्त व्याकुल होकर नमस्कार करते हैं॥4॥
भगवान्
का वरदान
दोहा
:
*
जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह।
गगनगिरा
गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥186॥
भावार्थ:-देवताओं
और पृथ्वी को भयभीत जानकर और उनके स्नेहयुक्त वचन सुनकर शोक और संदेह को हरने वाली
गंभीर आकाशवाणी हुई॥186॥
चौपाई
:
*
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
अंसन्ह
सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥1॥
भावार्थ:-हे
मुनि,
सिद्ध और देवताओं के स्वामियों! डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का
रूप धारण करूँगा और उदार (पवित्र) सूर्यवंश में अंशों सहित मनुष्य का अवतार
लूँगा॥1॥
*
कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
ते
दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नर भूपा॥2॥
भावार्थ:-कश्यप
और अदिति ने बड़ा भारी तप किया था। मैं पहले ही उनको वर दे चुका हूँ। वे ही दशरथ और
कौसल्या के रूप में मनुष्यों के राजा होकर श्री अयोध्यापुरी में प्रकट हुए हैं॥2॥
*
तिन्ह कें गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
नारद
बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥3॥
भावार्थ:-उन्हीं
के घर जाकर मैं रघुकुल में श्रेष्ठ चार भाइयों के रूप में अवतार लूँगा। नारद के सब
वचन मैं सत्य करूँगा और अपनी पराशक्ति के सहित अवतार लूँगा॥3॥
*
हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥
गगन
ब्रह्मबानी सुनि काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥4॥
भावार्थ:-मैं
पृथ्वी का सब भार हर लूँगा। हे देववृंद! तुम निर्भय हो जाओ। आकाश में ब्रह्म
(भगवान) की वाणी को कान से सुनकर देवता तुरंत लौट गए। उनका हृदय शीतल हो गया॥4॥
*
तब ब्रह्माँ धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥5॥
भावार्थ:-तब
ब्रह्माजी ने पृथ्वी को समझाया। वह भी निर्भय हुई और उसके जी में भरोसा (ढाढस) आ
गया॥5॥
दोहा
:
*
निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
बानर
तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥187॥
भावार्थ:-देवताओं
को यही सिखाकर कि वानरों का शरीर धर-धरकर तुम लोग पृथ्वी पर जाकर भगवान के चरणों
की सेवा करो,
ब्रह्माजी अपने लोक को चले गए॥187॥
चौपाई
:
*
गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा॥
जो
कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥1॥
भावार्थ:-सब
देवता अपने-अपने लोक को गए। पृथ्वी सहित सबके मन को शांति मिली। ब्रह्माजी ने जो
कुछ आज्ञा दी,
उससे देवता बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने (वैसा करने में) देर नहीं
की॥1॥
*बनचर
देह धरी छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥
गिरि
तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥2॥
भावार्थ:-पृथ्वी
पर उन्होंने वानरदेह धारण की। उनमें अपार बल और प्रताप था। सभी शूरवीर थे, पर्वत, वृक्ष और नख ही उनके शस्त्र थे। वे धीर
बुद्धि वाले (वानर रूप देवता) भगवान के आने की राह देखने लगे॥2॥
राजा
दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ,
रानियों का गर्भवती होना
*
गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
यह
सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥3॥
भावार्थ:-वे
(वानर) पर्वतों और जंगलों में जहाँ-तहाँ अपनी-अपनी सुंदर सेना बनाकर भरपूर छा गए।
यह सब सुंदर चरित्र मैंने कहा। अब वह चरित्र सुनो जिसे बीच ही में छोड़ दिया था॥3॥
*
अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
धरम
धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति भति सारँगपानी॥4॥
भावार्थ:-अवधपुरी
में रघुकुल शिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए, जिनका नाम वेदों
में विख्यात है। वे धर्मधुरंधर, गुणों के भंडार और ज्ञानी
थे। उनके हृदय में शांर्गधनुष धारण करने वाले भगवान की भक्ति थी और उनकी बुद्धि भी
उन्हीं में लगी रहती थी॥4॥
दोहा
:
*
कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
पति
अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥188॥
भावार्थ:-उनकी
कौसल्या आदि प्रिय रानियाँ सभी पवित्र आचरण वाली थीं। वे (बड़ी) विनीत और पति के
अनुकूल (चलने वाली) थीं और श्री हरि के चरणकमलों में उनका दृढ़ प्रेम था॥188॥
चौपाई
:
*
एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर
गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1॥
भावार्थ:-एक
बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरु के
घर गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत विनय की॥1॥
*
निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥
धरहु
धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥2॥
भावार्थ:-राजा
ने अपना सारा सुख-दुःख गुरु को सुनाया। गुरु वशिष्ठजी ने उन्हें बहुत प्रकार से
समझाया (और कहा-) धीरज धरो,
तुम्हारे चार पुत्र होंगे, जो तीनों लोकों में
प्रसिद्ध और भक्तों के भय को हरने वाले होंगे॥2॥
*
सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
भगति
सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥3॥
भावार्थ:-वशिष्ठजी
ने श्रृंगी ऋषि को बुलवाया और उनसे शुभ पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया। मुनि के भक्ति
सहित आहुतियाँ देने पर अग्निदेव हाथ में चरु (हविष्यान्न खीर) लिए प्रकट हुए॥3॥
दोहा
:
*जो
बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥
यह
हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥4॥
भावार्थ:-(और
दशरथ से बोले-) वशिष्ठ ने हृदय में जो कुछ विचारा था, तुम्हारा वह सब काम सिद्ध हो गया। हे राजन्! (अब) तुम जाकर इस हविष्यान्न
(पायस) को, जिसको जैसा उचित हो, वैसा
भाग बनाकर बाँट दो॥4॥
दोहा
:
*
तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ।
परमानंद
मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥189॥
भावार्थ:-तदनन्तर
अग्निदेव सारी सभा को समझाकर अन्तर्धान हो गए। राजा परमानंद में मग्न हो गए, उनके हृदय में हर्ष समाता न था॥189॥
चौपाई
:
*
तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥
अर्ध
भाग कौसल्यहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥1॥
भावार्थ:-उसी
समय राजा ने अपनी प्यारी पत्नियों को बुलाया। कौसल्या आदि सब (रानियाँ) वहाँ चली
आईं। राजा ने (पायस का) आधा भाग कौसल्या को दिया, (और शेष)
आधे के दो भाग किए॥1॥
*
कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
कौसल्या
कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥2॥
भावार्थ:-वह
(उनमें से एक भाग) राजा ने कैकेयी को दिया। शेष जो बच रहा उसके फिर दो भाग हुए और
राजा ने उनको कौसल्या और कैकेयी के हाथ पर रखकर (अर्थात् उनकी अनुमति लेकर) और इस
प्रकार उनका मन प्रसन्न करके सुमित्रा को दिया॥2॥
*
एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
जा
दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥3॥
भावार्थ:-इस
प्रकार सब स्त्रियाँ गर्भवती हुईं। वे हृदय में बहुत हर्षित हुईं। उन्हें बड़ा सुख
मिला। जिस दिन से श्री हरि (लीला से ही) गर्भ में आए, सब लोकों में सुख और सम्पत्ति छा गई॥3॥
*
मंदिर महँ सब राजहिं रानीं। सोभा सील तेज की खानीं॥
सुख
जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥4॥
भावार्थ:-शोभा, शील और तेज की खान (बनी हुई) सब रानियाँ महल में सुशोभित हुईं। इस प्रकार
कुछ समय सुखपूर्वक बीता और वह अवसर आ गया, जिसमें प्रभु को
प्रकट होना था॥4॥
श्री
भगवान् का प्राकट्य और बाललीला का आनंद
दोहा
:
*
जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर
अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥190॥
भावार्थ:-योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी
अनुकूल हो गए। जड़ और चेतन सब हर्ष से भर गए। (क्योंकि) श्री राम का जन्म सुख का
मूल है॥190॥
चौपाई
:
*
नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस
अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥1॥
भावार्थ:-पवित्र
चैत्र का महीना था,
नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित् मुहूर्त था।
दोपहर का समय था। न बहुत सर्दी थी, न धूप (गरमी) थी। वह
पवित्र समय सब लोकों को शांति देने वाला था॥1॥
*
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥
बन
कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥2॥
भावार्थ:-शीतल, मंद और सुगंधित पवन बह रहा था। देवता हर्षित थे और संतों के मन में (बड़ा)
चाव था। वन फूले हुए थे, पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा
रहे थे और सारी नदियाँ अमृत की धारा बहा रही थीं॥2॥
*
सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥
गगन
बिमल संकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥3॥
भावार्थ:-जब
ब्रह्माजी ने वह (भगवान के प्रकट होने का) अवसर जाना तब (उनके समेत) सारे देवता
विमान सजा-सजाकर चले। निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया। गंधर्वों के दल
गुणों का गान करने लगे॥3॥
*
बरषहिं सुमन सुअंजुलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥
अस्तुति
करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥4॥
भावार्थ:-और
सुंदर अंजलियों में सजा-सजाकर पुष्प बरसाने लगे। आकाश में घमाघम नगाड़े बजने लगे।
नाग,
मुनि और देवता स्तुति करने लगे और बहुत प्रकार से अपनी-अपनी सेवा
(उपहार) भेंट करने लगे॥4॥
दोहा
:
*
सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।
जगनिवास
प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥191
भावार्थ:-देवताओं
के समूह विनती करके अपने-अपने लोक में जा पहुँचे। समस्त लोकों को शांति देने वाले, जगदाधार प्रभु प्रकट हुए॥191॥
छन्द
:
*
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित
महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन
अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन
बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥1॥
भावार्थ:-दीनों
पर दया करने वाले,
कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को
हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई। नेत्रों को आनंद
देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने
(खास) आयुध (धारण किए हुए) थे, (दिव्य) आभूषण और वनमाला पहने
थे, बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर
राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए॥1॥
*
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
माया
गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
करुना
सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो
मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥2॥
भावार्थ:-दोनों
हाथ जोड़कर माता कहने लगी- हे अनंत! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और
पुराण तुम को माया,
गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैं। श्रुतियाँ और संतजन
दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते
हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे
कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं॥2॥
*
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम
उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥
उपजा
जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि
कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥3॥
भावार्थ:-वेद
कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के
समूह (भरे) हैं। वे तुम मेरे गर्भ में रहे- इस हँसी की बात के सुनने पर धीर
(विवेकी) पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती (विचलित हो जाती है)। जब माता को
ज्ञान उत्पन्न हुआ,
तब प्रभु मुस्कुराए। वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं। अतः
उन्होंने (पूर्व जन्म की) सुंदर कथा कहकर माता को समझाया, जिससे
उन्हें पुत्र का (वात्सल्य) प्रेम प्राप्त हो (भगवान के प्रति पुत्र भाव हो
जाए)॥3॥
*
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै
सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
सुनि
बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह
चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥4॥
भावार्थ:-माता
की वह बुद्धि बदल गई,
तब वह फिर बोली- हे तात! यह रूप छोड़कर अत्यन्त प्रिय बाललीला करो,
(मेरे लिए) यह सुख परम अनुपम होगा। (माता का) यह वचन सुनकर देवताओं
के स्वामी सुजान भगवान ने बालक (रूप) होकर रोना शुरू कर दिया। (तुलसीदासजी कहते
हैं-) जो इस चरित्र का गान करते हैं, वे श्री हरि का पद पाते
हैं और (फिर) संसार रूपी कूप में नहीं गिरते॥4॥
दोहा
:
*
बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज
इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥192॥
भावार्थ:-ब्राह्मण, गो, देवता और संतों के लिए भगवान ने मनुष्य का अवतार
लिया। वे (अज्ञानमयी, मलिना) माया और उसके गुण (सत्,
रज, तम) और (बाहरी तथा भीतरी) इन्द्रियों से
परे हैं। उनका (दिव्य) शरीर अपनी इच्छा से ही बना है (किसी कर्म बंधन से परवश होकर
त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं)॥192॥
चौपाई
:
*
सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आईं सब रानी॥
हरषित
जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥1॥
भावार्थ:-बच्चे
के रोने की बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियाँ उतावली होकर दौड़ी चली आईं।
दासियाँ हर्षित होकर जहाँ-तहाँ दौड़ीं। सारे पुरवासी आनंद में मग्न हो गए॥1॥
*
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहु ब्रह्मानंद समाना॥
परम
प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठन करत मति धीरा॥2॥
भावार्थ:-राजा
दशरथजी पुत्र का जन्म कानों से सुनकर मानो ब्रह्मानंद में समा गए। मन में अतिशय
प्रेम है,
शरीर पुलकित हो गया। (आनंद में अधीर हुई) बुद्धि को धीरज देकर (और
प्रेम में शिथिल हुए शरीर को संभालकर) वे उठना चाहते हैं॥2॥
*
जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
परमानंद
पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥3॥
भावार्थ:-जिनका
नाम सुनने से ही कल्याण होता है, वही प्रभु मेरे घर आए हैं। (यह
सोचकर) राजा का मन परम आनंद से पूर्ण हो गया। उन्होंने बाजे वालों को बुलाकर कहा
कि बाजा बजाओ॥3॥
*
गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
अनुपम
बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥4॥
भावार्थ:-गुरु
वशिष्ठजी के पास बुलावा गया। वे ब्राह्मणों को साथ लिए राजद्वार पर आए। उन्होंने
जाकर अनुपम बालक को देखा,
जो रूप की राशि है और जिसके गुण कहने से समाप्त नहीं होते॥4॥
दोहा
:
*
नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।
हाटक
धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥193॥
भावार्थ:-फिर
राजा ने नांदीमुख श्राद्ध करके सब जातकर्म-संस्कार आदि किए और ब्राह्मणों को सोना, गो, वस्त्र और मणियों का दान दिया॥193॥
चौपाई
:
*
ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥
सुमनबृष्टि
अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥1॥
भावार्थ:-ध्वजा, पताका और तोरणों से नगर छा गया। जिस प्रकार से वह सजाया गया, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता। आकाश से फूलों की वर्षा हो रही है,
सब लोग ब्रह्मानंद में मग्न हैं॥1॥
*
बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाईं। सहज सिंगार किएँ उठि धाईं॥
कनक
कलस मंगल भरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥2॥
भावार्थ:-स्त्रियाँ
झुंड की झुंड मिलकर चलीं। स्वाभाविक श्रृंगार किए ही वे उठ दौड़ीं। सोने का कलश
लेकर और थालों में मंगल द्रव्य भरकर गाती हुईं राजद्वार में प्रवेश करती हैं॥2॥
*
करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥
मागध
सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥3॥
भावार्थ:-वे
आरती करके निछावर करती हैं और बार-बार बच्चे के चरणों पर गिरती हैं। मागध, सूत, वन्दीजन और गवैये रघुकुल के स्वामी के पवित्र
गुणों का गान करते हैं॥3॥
*
सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥
मृगमद
चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥4॥
भावार्थ:-राजा
ने सब किसी को भरपूर दान दिया। जिसने पाया उसने भी नहीं रखा (लुटा दिया)। (नगर की)
सभी गलियों के बीच-बीच में कस्तूरी, चंदन और केसर की
कीच मच गई॥4॥
दोहा
:
*
गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।
हरषवंत
सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥194॥
भावार्थ:-घर-घर
मंगलमय बधावा बजने लगा,
क्योंकि शोभा के मूल भगवान प्रकट हुए हैं। नगर के स्त्री-पुरुषों के
झुंड के झुंड जहाँ-तहाँ आनंदमग्न हो रहे हैं॥194॥
चौपाई
:
*
कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥
वह
सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥1॥
भावार्थ:-कैकेयी
और सुमित्रा- इन दोनों ने भी सुंदर पुत्रों को जन्म दिया। उस सुख, सम्पत्ति, समय और समाज का वर्णन सरस्वती और सर्पों
के राजा शेषजी भी नहीं कर सकते॥1॥
*
अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
देखि
भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥2॥
भावार्थ:-अवधपुरी
इस प्रकार सुशोभित हो रही है, मानो रात्रि प्रभु से मिलने आई
हो और सूर्य को देखकर मानो मन में सकुचा गई हो, परन्तु फिर
भी मन में विचार कर वह मानो संध्या बन (कर रह) गई हो॥2॥
*
अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अबीर मनहुँ अरुनारी॥
मंदिर
मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥3॥
भावार्थ:-अगर
की धूप का बहुत सा धुआँ मानो (संध्या का) अंधकार है और जो अबीर उड़ रहा है, वह उसकी ललाई है। महलों में जो मणियों के समूह हैं, वे
मानो तारागण हैं। राज महल का जो कलश है, वही मानो श्रेष्ठ
चन्द्रमा है॥3॥
*
भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मुखर समयँ जनु सानी॥
कौतुक
देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥4॥
भावार्थ:-राजभवन
में जो अति कोमल वाणी से वेदध्वनि हो रही है, वही मानो समय से
(समयानुकूल) सनी हुई पक्षियों की चहचहाहट है। यह कौतुक देखकर सूर्य भी (अपनी चाल)
भूल गए। एक महीना उन्होंने जाता हुआ न जाना (अर्थात उन्हें एक महीना वहीं बीत
गया)॥4॥
दोहा
:
*
मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
रथ
समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥195॥
भावार्थ:-
महीने भर का दिन हो गया। इस रहस्य को कोई नहीं जानता। सूर्य अपने रथ सहित वहीं रुक
गए,
फिर रात किस तरह होती॥195॥
चौपाई
:
*
यह रहस्य काहूँ नहिं जाना। दिनमनि चले करत गुनगाना॥
देखि
महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥1॥
भावार्थ:-यह
रहस्य किसी ने नहीं जाना। सूर्यदेव (भगवान श्री रामजी का) गुणगान करते हुए चले। यह
महोत्सव देखकर देवता,
मुनि और नाग अपने भाग्य की सराहना करते हुए अपने-अपने घर चले॥1॥
*
औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥
काकभुसुंडि
संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥2॥
भावार्थ:-हे
पार्वती! तुम्हारी बुद्धि (श्री रामजी के चरणों में) बहुत दृढ़ है, इसलिए मैं और भी अपनी एक चोरी (छिपाव) की बात कहता हूँ, सुनो। काकभुशुण्डि और मैं दोनों वहाँ साथ-साथ थे, परन्तु
मनुष्य रूप में होने के कारण हमें कोई जान न सका॥2॥
*
परमानंद प्रेम सुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥
यह
सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥3॥
भावार्थ:-परम
आनंद और प्रेम के सुख में फूले हुए हम दोनों मगन मन से (मस्त हुए) गलियों में
(तन-मन की सुधि) भूले हुए फिरते थे, परन्तु यह शुभ
चरित्र वही जान सकता है, जिस पर श्री रामजी की कृपा हो॥3॥
*
तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥
गज
रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥4॥
भावार्थ:-उस
अवसर पर जो जिस प्रकार आया और जिसके मन को जो अच्छा लगा, राजा ने उसे वही दिया। हाथी, रथ, घोड़े, सोना, गायें, हीरे और भाँति-भाँति के वस्त्र राजा ने दिए॥4॥
दोहा
:
*
मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहिं असीस।
सकल
तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥196॥
भावार्थ:-राजा
ने सबके मन को संतुष्ट किया। (इसी से) सब लोग जहाँ-तहाँ आशीर्वाद दे रहे थे कि
तुलसीदास के स्वामी सब पुत्र (चारों राजकुमार) चिरजीवी (दीर्घायु) हों॥196॥
चौपाई
:
*
कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥
नामकरन
कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥1॥
भावार्थ:-इस
प्रकार कुछ दिन बीत गए। दिन और रात जाते हुए जान नहीं पड़ते। तब नामकरण संस्कार का
समय जानकर राजा ने ज्ञानी मुनि श्री वशिष्ठजी को बुला भेजा॥1॥
*
करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥
इन्ह
के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥2॥
भावार्थ:-मुनि
की पूजा करके राजा ने कहा- हे मुनि! आपने मन में जो विचार रखे हों, वे नाम रखिए। (मुनि ने कहा-) हे राजन्! इनके अनुपम नाम हैं, फिर भी मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहूँगा॥2॥
*जो
आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
सो
सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥3॥
भावार्थ:-ये
जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (आनंदसिंधु) के
एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र)
का नाम 'राम' है, जो सुख का भवन और सम्पूर्ण लोकों को शांति देने वाला है॥3॥
*
बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
जाके
सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥4॥
भावार्थ:-जो
संसार का भरण-पोषण करते हैं, उन (आपके दूसरे पुत्र) का नाम 'भरत' होगा, जिनके स्मरण मात्र
से शत्रु का नाश होता है, उनका वेदों में प्रसिद्ध 'शत्रुघ्न' नाम है॥4॥
दोहा
:
*
लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
गुरु
बसिष्ठछ तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥197॥
भावार्थ:-जो
शुभ लक्षणों के धाम,
श्री रामजी के प्यारे और सारे जगत के आधार हैं, गुरु वशिष्ठाजी ने उनका 'लक्ष्मण' ऐसा श्रेष्ठन नाम रखा है॥197॥
चौपाई
:
*
धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥
मुनि
धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥1॥
भावार्थ:-गुरुजी
ने हृदय में विचार कर ये नाम रखे (और कहा-) हे राजन्! तुम्हारे चारों पुत्र वेद
के तत्त्व (साक्षात् परात्पर भगवान) हैं। जो मुनियों के धन, भक्तों के सर्वस्व और शिवजी के प्राण हैं, उन्होंने
(इस समय तुम लोगों के प्रेमवश) बाल लीला के रस में सुख माना है॥1॥
*
बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥
भरत
सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥2॥
भावार्थ:-बचपन
से ही श्री रामचन्द्रजी को अपना परम हितैषी स्वामी जानकर लक्ष्मणजी ने उनके चरणों
में प्रीति जोड़ ली। भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइयों मंज स्वामी और सेवक की जिस
प्रीति की प्रशंसा है,
वैसी प्रीति हो गई॥2॥
*स्याम
गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥
चारिउ
सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥3॥
भावार्थ:-श्याम
और गौर शरीर वाली दोनों सुंदर जोड़ियों की शोभा को देखकर माताएँ तृण तोड़ती हैं
(जिसमें दीठ न लग जाए)। यों तो चारों ही पुत्र शील, रूप और गुण
के धाम हैं, तो भी सुख के समुद्र श्री रामचन्द्रजी सबसे अधिक
हैं॥3॥
*
हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥
कबहुँ
उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥4॥
भावार्थ:-उनके
हृदय में कृपा रूपी चन्द्रमा प्रकाशित है। उनकी मन को हरने वाली हँसी उस (कृपा
रूपी चन्द्रमा) की किरणों को सूचित करती है। कभी गोद में (लेकर) और कभी उत्तम
पालने में (लिटाकर) माता 'प्यारे ललना!' कहकर दुलार करती है॥4॥
दोहा
:
*
ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।
सो
अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद॥198॥
भावार्थ:-जो
सर्वव्यापक,
निरंजन (मायारहित), निर्गुण, विनोदरहित और अजन्मे ब्रह्म हैं, वही प्रेम और भक्ति
के वश कौसल्याजी की गोद में (खेल रहे) हैं॥198॥
चौपाई
:
*
काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥
नअरुन
चरन पंकज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥1॥
भावार्थ:-उनके
नीलकमल और गंभीर (जल से भरे हुए) मेघ के समान श्याम शरीर में करोड़ों कामदेवों की
शोभा है। लाल-लाल चरण कमलों के नखों की (शुभ्र) ज्योति ऐसी मालूम होती है जैसे
(लाल) कमल के पत्तों पर मोती स्थिर हो गए हों॥1॥
*
रेख कुलिस ध्वज अंकुस सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥
कटि
किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहिं देखा॥2॥
भावार्थ:-(चरणतलों
में) वज्र,
ध्वजा और अंकुश के चिह्न शोभित हैं। नूपुर (पेंजनी) की ध्वनि सुनकर
मुनियों का भी मन मोहित हो जाता है। कमर में करधनी और पेट पर तीन रेखाएँ (त्रिवली)
हैं। नाभि की गंभीरता को तो वही जानते हैं, जिन्होंने उसे
देखा है॥2॥
*
भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
उर
मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥3॥
भावार्थ:-बहुत
से आभूषणों से सुशोभित विशाल भुजाएँ हैं। हृदय पर बाघ के नख की बहुत ही निराली छटा
है। छाती पर रत्नों से युक्त मणियों के हार की शोभा और ब्राह्मण (भृगु) के चरण
चिह्न को देखते ही मन लुभा जाता है॥3॥
*
कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥
दुइ
दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥4॥
भावार्थ:-कंठ
शंख के समान (उतार-चढ़ाव वाला, तीन रेखाओं से सुशोभित) है और
ठोड़ी बहुत ही सुंदर है। मुख पर असंख्य कामदेवों की छटा छा रही है। दो-दो सुंदर
दँतुलियाँ हैं, लाल-लाल होठ हैं। नासिका और तिलक (के
सौंदर्य) का तो वर्णन ही कौन कर सकता है॥4॥
*
सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥
चिक्कन
कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥5॥
भावार्थ:-सुंदर
कान और बहुत ही सुंदर गाल हैं। मधुर तोतले शब्द बहुत ही प्यारे लगते हैं। जन्म के
समय से रखे हुए चिकने और घुँघराले बाल हैं, जिनको माता ने बहुत
प्रकार से बनाकर सँवार दिया है॥5॥
*
पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥
रूप
सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा॥6॥
भावार्थ:-शरीर
पर पीली झँगुली पहनाई हुई है। उनका घुटनों और हाथों के बल चलना मुझे बहुत ही
प्यारा लगता है। उनके रूप का वर्णन वेद और शेषजी भी नहीं कर सकते। उसे वही जानता
है,
जिसने कभी स्वप्न में भी देखा हो॥6॥
दोहा
:
*
सुख संदोह मोह पर ग्यान गिरा गोतीत।
दंपति
परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥199॥
भावार्थ:-जो
सुख के पुंज,
मोह से परे तथा ज्ञान, वाणी और इन्द्रियों से
अतीत हैं, वे भगवान दशरथ-कौसल्या के अत्यन्त प्रेम के वश
होकर पवित्र बाललीला करते हैं॥199॥
चौपाई
:
*
एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
जिन्ह
रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥1॥
भावार्थ:-इस
प्रकार (सम्पूर्ण) जगत के माता-पिता श्री रामजी अवधपुर के निवासियों को सुख देते
हैं,
जिन्होंने श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति जोड़ी है, हे भवानी! उनकी यह प्रत्यक्ष गति है (कि भगवान उनके प्रेमवश बाललीला करके
उन्हें आनंद दे रहे हैं)॥1॥
*
रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥
जीव
चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥2॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी से विमुख रहकर मनुष्य चाहे करोड़ों उपाय करे, परन्तु उसका संसार बंधन कौन छुड़ा सकता है। जिसने सब चराचर जीवों को अपने
वश में कर रखा है, वह माया भी प्रभु से भय खाती है॥2॥
*
भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥
मन
क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥3॥
भावार्थ:-भगवान
उस माया को भौंह के इशारे पर नचाते हैं। ऐसे प्रभु को छोड़कर कहो, (और) किसका भजन किया जाए। मन, वचन और कर्म से चतुराई
छोड़कर भजते ही श्री रघुनाथजी कृपा करेंगे॥3॥
*
एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥
लै
उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालने घालि झुलावै॥4॥
भावार्थ:-इस
प्रकार से प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बालक्रीड़ा की और समस्त नगर निवासियों को सुख
दिया। कौसल्याजी कभी उन्हें गोद में लेकर हिलाती-डुलाती और कभी पालने में लिटाकर
झुलाती थीं॥4॥
दोहा
:
*
प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
सुत
सनेह बस माता बालचरित कर गान॥200॥
भावार्थ:-प्रेम
में मग्न कौसल्याजी रात और दिन का बीतना नहीं जानती थीं। पुत्र के स्नेहवश माता
उनके बालचरित्रों का गान किया करतीं॥200॥
चौपाई
:
*
एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए॥
निज
कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥1॥
भावार्थ:-एक
बार माता ने श्री रामचन्द्रजी को स्नान कराया और श्रृंगार करके पालने पर पौढ़ा
दिया। फिर अपने कुल के इष्टदेव भगवान की पूजा के लिए स्नान किया॥1॥
*
करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥
बहुरि
मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥2॥
भावार्थ:-पूजा
करके नैवेद्य चढ़ाया और स्वयं वहाँ गईं, जहाँ रसोई बनाई गई
थी। फिर माता वहीं (पूजा के स्थान में) लौट आई और वहाँ आने पर पुत्र को (इष्टदेव
भगवान के लिए चढ़ाए हुए नैवेद्य का) भोजन करते देखा॥2॥
*
गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥
बहुरि
आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई॥3।
भावार्थ:-माता
भयभीत होकर (पालने में सोया था, यहाँ किसने लाकर बैठा दिया,
इस बात से डरकर) पुत्र के पास गई, तो वहाँ
बालक को सोया हुआ देखा। फिर (पूजा स्थान में लौटकर) देखा कि वही पुत्र वहाँ (भोजन
कर रहा) है। उनके हृदय में कम्प होने लगा और मन को धीरज नहीं होता॥3॥
*
इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥
देखि
राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥4॥
भावार्थ:-(वह
सोचने लगी कि) यहाँ और वहाँ मैंने दो बालक देखे। यह मेरी बुद्धि का भ्रम है या और
कोई विशेष कारण है?
प्रभु श्री रामचन्द्रजी माता को घबड़ाई हुई देखकर मधुर मुस्कान से
हँस दिए॥4॥
दोहा
:
*
देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखंड।
रोम
रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥201॥
भावार्थ:-फिर
उन्होंने माता को अपना अखंड अद्भुत रूप दिखलाया, जिसके एक-एक
रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड लगे हुए हैं॥201॥
चौपाई
:
*
अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥
काल
कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥1॥
भावार्थ:-अगणित
सूर्य,
चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा,
बहुत से पर्वत, नदियाँ, समुद्र,
पृथ्वी, वन, काल,
कर्म, गुण, ज्ञान और
स्वभाव देखे और वे पदार्थ भी देखे जो कभी सुने भी न थे॥1॥
*
देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥
देखा
जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥2॥
भावार्थ:-सब
प्रकार से बलवती माया को देखा कि वह (भगवान के सामने) अत्यन्त भयभीत हाथ जोड़े खड़ी
है। जीव को देखा,
जिसे वह माया नचाती है और (फिर) भक्ति को देखा, जो उस जीव को (माया से) छुड़ा देती है॥2॥
*
तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥
बिसमयवंत
देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥3॥
भावार्थ:-(माता
का) शरीर पुलकित हो गया,
मुख से वचन नहीं निकलता। तब आँखें मूँदकर उसने श्री रामचन्द्रजी के
चरणों में सिर नवाया। माता को आश्चर्यचकित देखकर खर के शत्रु श्री रामजी फिर बाल
रूप हो गए॥3॥
*
अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥
हरि
जननी बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥4॥
भावार्थ:-(माता
से) स्तुति भी नहीं की जाती। वह डर गई कि मैंने जगत्पिता परमात्मा को पुत्र करके
जाना। श्री हरि ने माता को बहुत प्रकार से समझाया (और कहा-) हे माता! सुनो, यह बात कहीं पर कहना नहीं॥4॥
दोहा
:
*
बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि।
अब
जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥202॥
भावार्थ:-कौसल्याजी
बार-बार हाथ जोड़कर विनय करती हैं कि हे प्रभो! मुझे आपकी माया अब कभी न
व्यापे॥202॥
चौपाई
:
*
बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥
कछुक
काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥1॥
भावार्थ:-भगवान
ने बहुत प्रकार से बाललीलाएँ कीं और अपने सेवकों को अत्यन्त आनंद दिया। कुछ समय
बीतने पर चारों भाई बड़े होकर कुटुम्बियों को सुख देने वाले हुए॥1॥
*
चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥
परम
मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥2॥
भावार्थ:-तब
गुरुजी ने जाकर चूड़ाकर्म-संस्कार किया। ब्राह्मणों ने फिर बहुत सी दक्षिणा पाई।
चारों सुंदर राजकुमार बड़े ही मनोहर अपार चरित्र करते फिरते हैं॥2॥
*
मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥
भोजन
करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥3॥
भावार्थ:-जो
मन,
वचन और कर्म से अगोचर हैं, वही प्रभु दशरथजी
के आँगन में विचर रहे हैं। भोजन करने के समय जब राजा बुलाते हैं, तब वे अपने बाल सखाओं के समाज को छोड़कर नहीं आते॥3॥
*
कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुकु ठुमुकु प्रभु चलहिं पराई॥
निगम
नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥4॥
भावार्थ:-कौसल्या
जब बुलाने जाती हैं,
तब प्रभु ठुमुक-ठुमुक भाग चलते हैं। जिनका वेद 'नेति' (इतना ही नहीं) कहकर निरूपण करते हैं और शिवजी
ने जिनका अन्त नहीं पाया, माता उन्हें हठपूर्वक पकड़ने के लिए
दौड़ती हैं॥4॥
*
धूसर धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥5॥।
भावार्थ:-वे
शरीर में धूल लपेटे हुए आए और राजा ने हँसकर उन्हें गोद में बैठा लिया॥5॥
दोहा
:
*भोजन
करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।
भाजि
चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥203॥
भावार्थ:-भोजन
करते हैं,
पर चित चंचल है। अवसर पाकर मुँह में दही-भात लपटाए किलकारी मारते
हुए इधर-उधर भाग चले॥203॥
चौपाई
:
*
बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥
जिन्ह
कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी की बहुत ही सरल (भोली) और सुंदर (मनभावनी) बाललीलाओं का सरस्वती, शेषजी, शिवजी और वेदों ने गान किया है। जिनका मन इन
लीलाओं में अनुरक्त नहीं हुआ, विधाता ने उन मनुष्यों को
वंचित कर दिया (नितांत भाग्यहीन बनाया)॥1॥
*
भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ
गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥2॥
भावार्थ:-ज्यों
ही सब भाई कुमारावस्था के हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। श्री रघुनाथजी (भाइयों
सहित) गुरु के घर में विद्या पढ़ने गए और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ आ
गईं॥2॥
*
जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥
बिद्या
बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिंखेल सकल नृपलीला॥3॥
भावार्थ:-चारों
वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैं, वे भगवान पढ़ें, यह बड़ा कौतुक (अचरज) है। चारों भाई विद्या, विनय,
गुण और शील में (बड़े) निपुण हैं और सब राजाओं की लीलाओं के ही खेल
खेलते हैं॥3॥
*
करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥
जिन्ह
बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥4॥
भावार्थ:-हाथों
में बाण और धनुष बहुत ही शोभा देते हैं। रूप देखते ही चराचर (जड़-चेतन) मोहित हो
जाते हैं। वे सब भाई जिन गलियों में खेलते (हुए निकलते) हैं, उन गलियों के सभी स्त्री-पुरुष उनको देखकर स्नेह से शिथिल हो जाते हैं
अथवा ठिठककर रह जाते हैं॥4॥
दोहा
:
*
कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।
प्रानहु
ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥204॥
भावार्थ:-कोसलपुर
के रहने वाले स्त्री,
पुरुष, बूढ़े और बालक सभी को कृपालु श्री
रामचन्द्रजी प्राणों से भी बढ़कर प्रिय लगते हैं॥204॥
चौपाई
:
*
बंधु सखा सँग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥
पावन
मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी भाइयों और इष्ट मित्रों को बुलाकर साथ ले लेते हैं और नित्य वन में
जाकर शिकार खेलते हैं। मन में पवित्र समझकर मृगों को मारते हैं और प्रतिदिन लाकर
राजा (दशरथजी) को दिखलाते हैं॥1॥
*
जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥
अनुज
सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥2॥
भावार्थ:-जो
मृग श्री रामजी के बाण से मारे जाते थे, वे शरीर छोड़कर
देवलोक को चले जाते थे। श्री रामचन्द्रजी अपने छोटे भाइयों और सखाओं के साथ भोजन
करते हैं और माता-पिता की आज्ञा का पालन करते हैं॥2॥
*
जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥
बेद
पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥3॥
भावार्थ:-जिस
प्रकार नगर के लोग सुखी हों, कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी वही
संयोग (लीला) करते हैं। वे मन लगाकर वेद-पुराण सुनते हैं और फिर स्वयं छोटे भाइयों
को समझाकर कहते हैं॥3॥
*
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
आयसु
मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥4॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी प्रातःकाल उठकर माता-पिता और गुरु को मस्तक नवाते हैं और आज्ञा लेकर नगर
का काम करते हैं। उनके चरित्र देख-देखकर राजा मन में बड़े हर्षित होते हैं
विश्वामित्र
का राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को माँगना, ताड़का वध
दोहा
:
*
ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
भगत
हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥205॥
भावार्थ:-जो
व्यापक,
अकल (निरवयव), इच्छारहित, अजन्मा और निर्गुण है तथा जिनका न नाम है न रूप, वही
भगवान भक्तों के लिए नाना प्रकार के अनुपम (अलौकिक) चरित्र करते हैं॥205॥
चौपाई
:
*
यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥
बिस्वामित्र
महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥1॥
भावार्थ:-यह
सब चरित्र मैंने गाकर (बखानकर) कहा। अब आगे की कथा मन लगाकर सुनो। ज्ञानी महामुनि
विश्वामित्रजी वन में शुभ आश्रम (पवित्र स्थान) जानकर बसते थे,॥1॥
*
जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥
देखत
जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥2॥
भावार्थ:-जहाँ
वे मुनि जप,
यज्ञ और योग करते थे, परन्तु मारीच और सुबाहु
से बहुत डरते थे। यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि (बहुत) दुःख पाते थे॥2॥
*
गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥
तब
मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥3॥
भावार्थ:-गाधि
के पुत्र विश्वामित्रजी के मन में चिन्ता छा गई कि ये पापी राक्षस भगवान के (मारे)
बिना न मरेंगे। तब श्रेष्ठ मुनि ने मन में विचार किया कि प्रभु ने पृथ्वी का भार
हरने के लिए अवतार लिया है॥3॥
*एहूँ
मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई॥
ग्यान
बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना॥4॥
भावार्थ:-इसी
बहाने जाकर मैं उनके चरणों का दर्शन करूँ और विनती करके दोनों भाइयों को ले आऊँ।
(अहा!) जो ज्ञान,
वैराग्य और सब गुणों के धाम हैं, उन प्रभु को
मैं नेत्र भरकर देखूँगा॥4॥
दोहा
:
*
बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।
करि
मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥206॥
भावार्थ:-बहुत
प्रकार से मनोरथ करते हुए जाने में देर नहीं लगी। सरयूजी के जल में स्नान करके वे
राजा के दरवाजे पर पहुँचे॥206॥
चौपाई
:
*
मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा॥
करि
दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥1॥
भावार्थ:-राजा
ने जब मुनि का आना सुना,
तब वे ब्राह्मणों के समाज को साथ लेकर मिलने गए और दण्डवत् करके
मुनि का सम्मान करते हुए उन्हें लाकर अपने आसन पर बैठाया॥1॥
*
चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥
बिबिध
भाँति भोजन करवावा। मुनिबर हृदयँ हरष अति पावा॥2॥
भावार्थ:-चरणों
को धोकर बहुत पूजा की और कहा- मेरे समान धन्य आज दूसरा कोई नहीं है। फिर अनेक
प्रकार के भोजन करवाए,
जिससे श्रेष्ठ मुनि ने अपने हृदय में बहुत ही हर्ष प्राप्त किया॥2॥
*पुनि
चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥
भए
मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥3॥
भावार्थ:-फिर
राजा ने चारों पुत्रों को मुनि के चरणों पर डाल दिया (उनसे प्रणाम कराया)। श्री
रामचन्द्रजी को देखकर मुनि अपनी देह की सुधि भूल गए। वे श्री रामजी के मुख की शोभा
देखते ही ऐसे मग्न हो गए,
मानो चकोर पूर्ण चन्द्रमा को देखकर लुभा गया हो॥3॥
*
तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥
केहि
कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥4॥
भावार्थ:-तब
राजा ने मन में हर्षित होकर ये वचन कहे- हे मुनि! इस प्रकार कृपा तो आपने कभी नहीं
की। आज किस कारण से आपका शुभागमन हुआ? कहिए, मैं उसे पूरा करने में देर नहीं लगाऊँगा॥4॥
*
असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥
अनुज
समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥5॥
भावार्थ:-(मुनि
ने कहा-) हे राजन्! राक्षसों के समूह मुझे बहुत सताते हैं, इसीलिए मैं तुमसे कुछ माँगने आया हूँ। छोटे भाई सहित श्री रघुनाथजी को
मुझे दो। राक्षसों के मारे जाने पर मैं सनाथ (सुरक्षित) हो जाऊँगा॥5॥
दोहा
:
*
देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म
सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥
भावार्थ:-हे
राजन्! प्रसन्न मन से इनको दो, मोह और अज्ञान को छोड़ दो। हे
स्वामी! इससे तुमको धर्म और सुयश की प्राप्ति होगी और इनका परम कल्याण होगा॥207॥
चौपाई
:
*
सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥
चौथेंपन
पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥1॥
भावार्थ:-इस
अत्यन्त अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का हृदय काँप उठा और उनके मुख की कांति फीकी पड़
गई। (उन्होंने कहा-) हे ब्राह्मण! मैंने चौथेपन में चार पुत्र पाए हैं, आपने विचार कर बात नहीं कही॥1॥
*
मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥
देह
प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥2॥
भावार्थ:-हे
मुनि! आप पृथ्वी,
गो, धन और खजाना माँग लीजिए, मैं आज बड़े हर्ष के साथ अपना सर्वस्व दे दूँगा। देह और प्राण से अधिक
प्यारा कुछ भी नहीं होता, मैं उसे भी एक पल में दे दूँगा॥2॥
*
सब सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं॥
कहँ
निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥3॥
भावार्थ:-सभी
पुत्र मुझे प्राणों के समान प्यारे हैं, उनमें भी हे प्रभो!
राम को तो (किसी प्रकार भी) देते नहीं बनता। कहाँ अत्यन्त डरावने और क्रूर राक्षस
और कहाँ परम किशोर अवस्था के (बिलकुल सुकुमार) मेरे सुंदर पुत्र! ॥3॥
*
सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥
तब
बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥4॥
भावार्थ:-प्रेम
रस में सनी हुई राजा की वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी ने हृदय में बड़ा
हर्ष माना। तब वशिष्ठजी ने राजा को बहुत प्रकार से समझाया, जिससे राजा का संदेह नाश को प्राप्त हुआ॥4॥
*
अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥
मेरे
प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥5॥
भावार्थ:-राजा
ने बड़े ही आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और हृदय से लगाकर बहुत प्रकार से उन्हें
शिक्षा दी। (फिर कहा-) हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं। हे मुनि! (अब) आप
ही इनके पिता हैं,
दूसरा कोई नहीं॥5॥
दोहा
:
*
सौंपे भूप रिषिहि सुत बहुबिधि देइ असीस।
जननी
भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥208 क ॥
भावार्थ:-राजा
ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद देकर पुत्रों को ऋषि के हवाले कर दिया। फिर प्रभु माता
के महल में गए और उनके चरणों में सिर नवाकर चले॥208 (क)॥
सोरठा
:
*
पुरुष सिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।
कृपासिंधु
मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥208 ख॥
भावार्थ:-पुरुषों
में सिंह रूप दोनों भाई (राम-लक्ष्मण) मुनि का भय हरने के लिए प्रसन्न होकर चले।
वे कृपा के समुद्र,
धीर बुद्धि और सम्पूर्ण विश्व के कारण के भी कारण हैं॥208 (ख)॥
चौपाई
:
*
अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥
कटि
पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥1॥
भावार्थ:-भगवान
के लाल नेत्र हैं,
चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं, नील कमल और
तमाल के वृक्ष की तरह श्याम शरीर है, कमर में पीताम्बर
(पहने) और सुंदर तरकस कसे हुए हैं। दोनों हाथों में (क्रमशः) सुंदर धनुष और बाण
हैं॥1॥
*
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्वामित्र महानिधि पाई॥
प्रभु
ब्रह्मन्यदेव मैं जाना। मोहि निति पिता तजेउ भगवाना॥2॥
भावार्थ:-श्याम
और गौर वर्ण के दोनों भाई परम सुंदर हैं। विश्वामित्रजी को महान निधि प्राप्त हो
गई। (वे सोचने लगे-) मैं जान गया कि प्रभु ब्रह्मण्यदेव (ब्राह्मणों के भक्त) हैं।
मेरे लिए भगवान ने अपने पिता को भी छोड़ दिया॥2॥
*
चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहिं
बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥3॥
भावार्थ:-मार्ग
में चले जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखलाया। शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी।
श्री रामजी ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको निजपद (अपना
दिव्य स्वरूप) दिया॥3॥
*
तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥
जाते
लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥4॥
भावार्थ:-तब
ऋषि विश्वामित्र ने प्रभु को मन में विद्या का भंडार समझते हुए भी (लीला को पूर्ण
करने के लिए) ऐसी विद्या दी, जिससे भूख-प्यास न लगे और शरीर
में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो॥4॥
विश्वामित्र-यज्ञ
की रक्षा
दोहा
:
*
आयुध सर्ब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।
कंद
मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥209॥
भावार्थ:-सब
अस्त्र-शस्त्र समर्पण करके मुनि प्रभु श्री रामजी को अपने आश्रम में ले आए और
उन्हें परम हितू जानकर भक्तिपूर्वक कंद, मूल और फल का भोजन
कराया॥209॥
चौपाई
:
*प्रात
कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥
होम
करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥1॥
भावार्थ:-सबेरे
श्री रघुनाथजी ने मुनि से कहा- आप जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिए। यह सुनकर सब मुनि
हवन करने लगे। आप (श्री रामजी) यज्ञ की रखवाली पर रहे॥1॥
*
सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥
बिनु
फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥2॥
भावार्थ:-यह
समाचार सुनकर मुनियों का शत्रु कोरथी राक्षस मारीच अपने सहायकों को लेकर दौड़ा।
श्री रामजी ने बिना फल वाला बाण उसको मारा, जिससे वह सौ योजन
के विस्तार वाले समुद्र के पार जा गिरा॥2॥
*
पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥
मारि
असुर द्विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥3॥
भावार्थ:-फिर
सुबाहु को अग्निबाण मारा। इधर छोटे भाई लक्ष्मणजी ने राक्षसों की सेना का संहार कर
डाला। इस प्रकार श्री रामजी ने राक्षसों को मारकर ब्राह्मणों को निर्भय कर दिया।
तब सारे देवता और मुनि स्तुति करने लगे॥3॥
*
तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥
भगति
हेतु बहुत कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥4॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी ने वहाँ कुछ दिन और रहकर ब्राह्मणों पर दया की। भक्ति के कारण ब्राह्मणों
ने उन्हें पुराणों की बहुत सी कथाएँ कहीं, यद्यपि प्रभु सब
जानते थे॥4॥
*
तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥
धनुषजग्य
सुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥5॥
भावार्थ:-तदन्तर
मुनि ने आदरपूर्वक समझाकर कहा- हे प्रभो! चलकर एक चरित्र देखिए। रघुकुल के स्वामी
श्री रामचन्द्रजी धनुषयज्ञ (की बात) सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रजी के साथ
प्रसन्न होकर चले॥5॥
अहल्या
उद्धार
*
आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥
पूछा
मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥6॥
भावार्थ:-मार्ग
में एक आश्रम दिखाई पड़ा। वहाँ पशु-पक्षी, को भी जीव-जन्तु
नहीं था। पत्थर की एक शिला को देखकर प्रभु ने पूछा, तब मुनि
ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही॥6॥
दोहा
:
*
गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन
कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥210॥
भावार्थ:-गौतम
मुनि की स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किए बड़े धीरज से आपके चरणकमलों की
धूलि चाहती है। हे रघुवीर! इस पर कृपा कीजिए॥210॥
छन्द
:
*
परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत
रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥
अति
प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय
बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामजी के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह
तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी को देखकर वह
हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई। अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई। उसका शरीर
पुलकित हो उठा,
मुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु
के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनंद के आँसुओं) की
धारा बहने लगी॥1॥
*
धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
अति
निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥
मैं
नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
राजीव
बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥2॥
भावार्थ:-फिर
उसने मन में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और श्री रघुनाथजी की कृपा से भक्ति प्राप्त
की। तब अत्यन्त निर्मल वाणी से उसने (इस प्रकार) स्तुति प्रारंभ की- हे ज्ञान से
जानने योग्य श्री रघुनाथजी! आपकी जय हो! मैं (सहज ही) अपवित्र स्त्री हूँ, और हे प्रभो! आप जगत को पवित्र करने वाले, भक्तों को
सुख देने वाले और रावण के शत्रु हैं। हे कमलनयन! हे संसार (जन्म-मृत्यु) के भय से
छुड़ाने वाले! मैं आपकी शरण आई हूँ, (मेरी) रक्षा कीजिए,
रक्षा कीजिए॥2॥
*
मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
देखेउँ
भरि लोचन हरि भव मोचन इहइ लाभ संकर जाना॥
बिनती
प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद
कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥3॥
भावार्थ:-मुनि
ने जो मुझे शाप दिया,
सो बहुत ही अच्छा किया। मैं उसे अत्यन्त अनुग्रह (करके) मानती हूँ
कि जिसके कारण मैंने संसार से छुड़ाने वाले श्री हरि (आप) को नेत्र भरकर देखा। इसी
(आपके दर्शन) को शंकरजी सबसे बड़ा लाभ समझते हैं। हे प्रभो! मैं बुद्धि की बड़ी भोली
हूँ, मेरी एक विनती है। हे नाथ ! मैं और कोई वर नहीं माँगती,
केवल यही चाहती हूँ कि मेरा मन रूपी भौंरा आपके चरण-कमल की रज के
प्रेमरूपी रस का सदा पान करता रहे॥3॥
*
जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोई
पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
एहि
भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो
अति मन भावा सो बरु पावा गै पति लोक अनंद भरी॥4॥
भावार्थ:-जिन
चरणों से परमपवित्र देवनदी गंगाजी प्रकट हुईं, जिन्हें शिवजी ने
सिर पर धारण किया और जिन चरणकमलों को ब्रह्माजी पूजते हैं, कृपालु
हरि (आप) ने उन्हीं को मेरे सिर पर रखा। इस प्रकार (स्तुति करती हुई) बार-बार
भगवान के चरणों में गिरकर, जो मन को बहुत ही अच्छा लगा,
उस वर को पाकर गौतम की स्त्री अहल्या आनंद में भरी हुई पतिलोक को
चली गई॥4॥
दोहा
:
*
अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास
सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥211॥
भावार्थ:-प्रभु
श्री रामचन्द्रजी ऐसे दीनबंधु और बिना ही कारण दया करने वाले हैं। तुलसीदासजी कहते
हैं,
हे शठ (मन)! तू कपट-जंजाल छोड़कर उन्हीं का भजन कर॥211॥
मासपारायण, सातवाँ विश्राम
श्री
राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का जनकपुर में प्रवेश
चौपाई
:
*
चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥
गाधिसूनु
सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामजी और लक्ष्मणजी मुनि के साथ चले। वे वहाँ गए, जहाँ जगत को
पवित्र करने वाली गंगाजी थीं। महाराज गाधि के पुत्र विश्वामित्रजी ने वह सब कथा कह
सुनाई जिस प्रकार देवनदी गंगाजी पृथ्वी पर आई थीं॥1॥
*
तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
हरषि
चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥2॥
भावार्थ:-तब
प्रभु ने ऋषियों सहित (गंगाजी में) स्नान किया। ब्राह्मणों ने भाँति-भाँति के दान
पाए। फिर मुनिवृन्द के साथ वे प्रसन्न होकर चले और शीघ्र ही जनकपुर के निकट पहुँच
गए॥2॥
*
पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
बापीं
कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥3॥
भावार्थ:-श्री
रामजी ने जब जनकपुर की शोभा देखी, तब वे छोटे भाई लक्ष्मण सहित
अत्यन्त हर्षित हुए। वहाँ अनेकों बावलियाँ, कुएँ, नदी और तालाब हैं, जिनमें अमृत के समान जल है और
मणियों की सीढ़ियाँ (बनी हुई) हैं॥3॥
*
गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥
बरन
बरन बिकसे बनजाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥4॥
भावार्थ:-मकरंद
रस से मतवाले होकर भौंरे सुंदर गुंजार कर रहे हैं। रंग-बिरंगे (बहुत से) पक्षी
मधुर शब्द कर रहे हैं। रंग-रंग के कमल खिले हैं। सदा (सब ऋतुओं में) सुख देने वाला
शीतल,
मंद, सुगंध पवन बह रहा है॥4॥
दोहा
:
*
सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।
फूलत
फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥212।
भावार्थ:-पुष्प
वाटिका (फुलवारी),
बाग और वन, जिनमें बहुत से पक्षियों का निवास
है, फूलते, फलते और सुंदर पत्तों से
लदे हुए नगर के चारों ओर सुशोभित हैं॥212॥
चौपाई
:
*
बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥
चारु
बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥1॥
भावार्थ:-नगर
की सुंदरता का वर्णन करते नहीं बनता। मन जहाँ जाता है, वहीं लुभा जाता (रम जाता) है। सुंदर बाजार है, मणियों
से बने हुए विचित्र छज्जे हैं, मानो ब्रह्मा ने उन्हें अपने
हाथों से बनाया है॥1॥
*धनिक
बनिक बर धनद समाना। बैठे सकल बस्तु लै नाना।
चौहट
सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥2॥
भावार्थ:-कुबेर
के समान श्रेष्ठ धनी व्यापारी सब प्रकार की अनेक वस्तुएँ लेकर (दुकानों में) बैठे
हैं। सुंदर चौराहे और सुहावनी गलियाँ सदा सुगंध से सिंची रहती हैं॥2॥
*
मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
पुर
नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता॥3॥
भावार्थ:-सबके
घर मंगलमय हैं और उन पर चित्र कढ़े हुए हैं, जिन्हें मानो
कामदेव रूपी चित्रकार ने अंकित किया है। नगर के (सभी) स्त्री-पुरुष सुंदर, पवित्र, साधु स्वभाव वाले, धर्मात्मा,
ज्ञानी और गुणवान हैं॥3॥
*अति
अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
होत
चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥4॥
भावार्थ:-जहाँ
जनकजी का अत्यन्त अनुपम (सुंदर) निवास स्थान (महल) है, वहाँ के विलास (ऐश्वर्य) को देखकर देवता भी थकित (स्तम्भित) हो जाते हैं
(मनुष्यों की तो बात ही क्या!)। कोट (राजमहल के परकोटे) को देखकर चित्त चकित हो
जाता है, (ऐसा मालूम होता है) मानो उसने समस्त लोकों की शोभा
को रोक (घेर) रखा है॥4॥
दोहा
:
*धवल
धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।
सिय
निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥213॥
भावार्थ:-उज्ज्वल
महलों में अनेक प्रकार के सुंदर रीति से बने हुए मणि जटित सोने की जरी के परदे लगे
हैं। सीताजी के रहने के सुंदर महल की शोभा का वर्णन किया ही कैसे जा सकता है॥213॥
चौपाई
:
*
सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥
बनी
बिसाल बाजि गज साला। हय गय रख संकुल सब काला॥1॥
भावार्थ:-राजमहल
के सब दरवाजे (फाटक) सुंदर हैं, जिनमें वज्र के (मजबूत अथवा
हीरों के चमकते हुए) किवाड़ लगे हैं। वहाँ (मातहत) राजाओं, नटों,
मागधों और भाटों की भीड़ लगी रहती है। घोड़ों और हाथियों के लिए बहुत
बड़ी-बड़ी घुड़सालें और गजशालाएँ (फीलखाने) बनी हुई हैं, जो सब
समय घोड़े, हाथी और रथों से भरी रहती हैं॥1॥
*
सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥
पुर
बाहेर सर सरित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥2॥
भावार्थ:-बहुत
से शूरवीर,
मंत्री और सेनापति हैं। उन सबके घर भी राजमहल सरीखे ही हैं। नगर के
बाहर तालाब और नदी के निकट जहाँ-तहाँ बहुत से राजा लोग उतरे हुए (डेरा डाले हुए)
हैं॥2॥
*
देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई।
कौसिक
कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥3॥
भावार्थ:-(वहीं)
आमों का एक अनुपम बाग देखकर, जहाँ सब प्रकार के सुभीते थे और
जो सब तरह से सुहावना था, विश्वामित्रजी ने कहा- हे सुजान
रघुवीर! मेरा मन कहता है कि यहीं रहा जाए॥3॥
*
भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनि बृंद समेता॥
बिस्वामित्र
महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥4॥
भावार्थ:-कृपा
के धाम श्री रामचन्द्रजी 'बहुत अच्छा स्वामिन्!' कहकर वहीं मुनियों के समूह
के साथ ठहर गए। मिथिलापति जनकजी ने जब यह समाचार पाया कि महामुनि विश्वामित्र आए
हैं,॥4॥
दोहा
:
*
संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।
चले
मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥214॥
भावार्थ:-तब
उन्होंने पवित्र हृदय के (ईमानदार, स्वामिभक्त) मंत्री
बहुत से योद्धा, श्रेष्ठ ब्राह्मण, गुरु
(शतानंदजी) और अपनी जाति के श्रेष्ठ लोगों को साथ लिया और इस प्रकार प्रसन्नता के
साथ राजा मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी से मिलने चले॥214॥
चौपाई
:
*
कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥
बिप्रबृंद
सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥1॥
भावार्थ:-राजा
ने मुनि के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी ने
प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया। फिर सारी ब्राह्मणमंडली को आदर सहित प्रणाम किया और
अपना बड़ा भाग्य जानकर राजा आनंदित हुए॥1॥
*
कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥
तेहि
अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥2॥
भावार्थ:-बार-बार
कुशल प्रश्न करके विश्वामित्रजी ने राजा को बैठाया। उसी समय दोनों भाई आ पहुँचे, जो फुलवाड़ी देखने गए थे॥2॥
*
स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥
उठे
सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥3॥
भावार्थ:-सुकुमार
किशोर अवस्था वाले श्याम और गौर वर्ण के दोनों कुमार नेत्रों को सुख देने वाले और
सारे विश्व के चित्त को चुराने वाले हैं। जब रघुनाथजी आए तब सभी (उनके रूप एवं तेज
से प्रभावित होकर) उठकर खड़े हो गए। विश्वामित्रजी ने उनको अपने पास बैठा लिया॥3॥
*
भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥
मूरति
मधुर मनोहर देखी भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥4॥
भावार्थ:-दोनों
भाइयों को देखकर सभी सुखी हुए। सबके नेत्रों में जल भर आया (आनंद और प्रेम के आँसू
उमड़ पड़े) और शरीर रोमांचित हो उठे। रामजी की मधुर मनोहर मूर्ति को देखकर विदेह
(जनक) विशेष रूप से विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) हो गए॥4॥
श्री
राम-लक्ष्मण को देखकर जनकजी की प्रेम मुग्धता
दोहा
:
*
प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।
बोलेउ
मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥215॥
भावार्थ:-मन
को प्रेम में मग्न जान राजा जनक ने विवेक का आश्रय लेकर धीरज धारण किया और मुनि के
चरणों में सिर नवाकर गद्ग द् (प्रेमभरी) गंभीर वाणी से कहा- ॥215॥
चौपाई
:
*
कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥
ब्रह्म
जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥1॥
भावार्थ:-हे
नाथ! कहिए,
ये दोनों सुंदर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक?
अथवा जिसका वेदों ने 'नेति' कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगल रूप धरकर नहीं आया है?॥1॥
*
सहज बिरागरूप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥
ताते
प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥2॥
भावार्थ:-मेरा
मन जो स्वभाव से ही वैराग्य रूप (बना हुआ) है, (इन्हें देखकर) इस
तरह मुग्ध हो रहा है, जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर। हे
प्रभो! इसलिए मैं आपसे सत्य (निश्छल) भाव से पूछता हूँ। हे नाथ! बताइए, छिपाव न कीजिए॥2॥
*
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥
कह
मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥3॥
भावार्थ:-इनको
देखते ही अत्यन्त प्रेम के वश होकर मेरे मन ने जबर्दस्ती ब्रह्मसुख को त्याग दिया
है। मुनि ने हँसकर कहा- हे राजन्! आपने ठीक (यथार्थ ही) कहा। आपका वचन मिथ्या
नहीं हो सकता॥3॥
*
ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥
रघुकुल
मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥4॥
भावार्थ:-जगत
में जहाँ तक (जितने भी) प्राणी हैं, ये सभी को प्रिय
हैं। मुनि की (रहस्य भरी) वाणी सुनकर श्री रामजी मन ही मन मुस्कुराते हैं (हँसकर
मानो संकेत करते हैं कि रहस्य खोलिए नहीं)। (तब मुनि ने कहा-) ये रघुकुल मणि
महाराज दशरथ के पुत्र हैं। मेरे हित के लिए राजा ने इन्हें मेरे साथ भेजा है॥4॥
दोहा
:
*
रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।
मख
राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥216॥
भावार्थ:-ये
राम और लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भाई रूप, शील और बल के धाम
हैं। सारा जगत (इस बात का) साक्षी है कि इन्होंने युद्ध में असुरों को जीतकर मेरे
यज्ञ की रक्षा की है॥216॥
चौपाई
:
*
मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ॥
सुंदर
स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥1॥
भावार्थ:-राजा
ने कहा- हे मुनि! आपके चरणों के दर्शन कर मैं अपना पुण्य प्रभाव कह नहीं सकता। ये
सुंदर श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई आनंद को भी आनंद देने वाले हैं।
*
इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥
सुनहु
नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥2॥
भावार्थ:-इनकी
आपस की प्रीति बड़ी पवित्र और सुहावनी है, वह मन को बहुत भाती
है, पर (वाणी से) कही नहीं जा सकती। विदेह (जनकजी) आनंदित
होकर कहते हैं- हे नाथ! सुनिए, ब्रह्म और जीव की तरह इनमें
स्वाभाविक प्रेम है॥2॥
*
पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥
मुनिहि
प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥3॥
भावार्थ:-राजा
बार-बार प्रभु को देखते हैं (दृष्टि वहाँ से हटना ही नहीं चाहती)। (प्रेम से) शरीर
पुलकित हो रहा है और हृदय में बड़ा उत्साह है। (फिर) मुनि की प्रशंसा करके और उनके
चरणों में सिर नवाकर राजा उन्हें नगर में लिवा चले॥3॥
*
सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥
करि
पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥4॥
भावार्थ:-एक
सुंदर महल जो सब समय (सभी ऋतुओं में) सुखदायक था, वहाँ राजा
ने उन्हें ले जाकर ठहराया। तदनन्तर सब प्रकार से पूजा और सेवा करके राजा विदा
माँगकर अपने घर गए॥4॥
दोहा
:
*
रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।
बैठे
प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥217॥
भावार्थ:-रघुकुल
के शिरोमणि प्रभु श्री रामचन्द्रजी ऋषियों के साथ भोजन और विश्राम करके भाई
लक्ष्मण समेत बैठे। उस समय पहरभर दिन रह गया था॥217॥
चौपाई
:
*लखन
हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥
प्रभु
भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥1॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी
के हृदय में विशेष लालसा है कि जाकर जनकपुर देख आवें, परन्तु प्रभु श्री रामचन्द्रजी का डर है और फिर मुनि से भी सकुचाते हैं,
इसलिए प्रकट में कुछ नहीं कहते, मन ही मन
मुस्कुरा रहे हैं॥1॥
*
राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हियँ हुलसानी॥
परम
बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥2॥
भावार्थ:-(अन्तर्यामी)
श्री रामचन्द्रजी ने छोटे भाई के मन की दशा जान ली, (तब) उनके
हृदय में भक्तवत्सलता उमड़ आई। वे गुरु की आज्ञा पाकर बहुत ही विनय के साथ सकुचाते
हुए मुस्कुराकर बोले॥2॥
*
नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥
जौं
राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥3॥
भावार्थ:-हे
नाथ! लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, किन्तु प्रभु (आप)
के डर और संकोच के कारण स्पष्ट नहीं कहते। यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं इनको नगर दिखलाकर तुरंत ही (वापस) ले आऊँ॥3॥
*
सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
धरम
सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥4॥
भावार्थ:-यह
सुनकर मुनीश्वर विश्वामित्रजी ने प्रेम सहित वचन कहे- हे राम! तुम नीति की रक्षा
कैसे न करोगे,
हे तात! तुम धर्म की मर्यादा का पालन करने वाले और प्रेम के वशीभूत
होकर सेवकों को सुख देने वाले हो॥4॥
श्री
राम-लक्ष्मण का जनकपुर निरीक्षण
दोहा
:
*
जाइ देखि आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
करहु
सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥218॥
भावार्थ:-सुख
के निधान दोनों भाई जाकर नगर देख आओ। अपने सुंदर मुख दिखलाकर सब (नगर निवासियों)
के नेत्रों को सफल करो॥218॥
चौपाई
:
*
मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥
बालक
बृंद देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥1॥
भावार्थ:-सब
लोकों के नेत्रों को सुख देने वाले दोनों भाई मुनि के चरणकमलों की वंदना करके चले।
बालकों के झुंड इन (के सौंदर्य) की अत्यन्त शोभा देखकर साथ लग गए। उनके नेत्र और
मन (इनकी माधुरी पर) लुभा गए॥1॥
*
पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा॥
तन
अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥2॥
भावार्थ:-(दोनों
भाइयों के) पीले रंग के वस्त्र हैं, कमर के (पीले)
दुपट्टों में तरकस बँधे हैं। हाथों में सुंदर धनुष-बाण सुशोभित हैं। (श्याम और गौर
वर्ण के) शरीरों के अनुकूल (अर्थात् जिस पर जिस रंग का चंदन अधिक फबे उस पर उसी
रंग के) सुंदर चंदन की खौर लगी है। साँवरे और गोरे (रंग) की मनोहर जोड़ी है॥2॥
*
केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥
सुभग
सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन॥3॥
भावार्थ:-सिंह
के समान (पुष्ट) गर्दन (गले का पिछला भाग) है, विशाल भुजाएँ हैं।
(चौड़ी) छाती पर अत्यन्त सुंदर गजमुक्ता की माला है। सुंदर लाल कमल के समान नेत्र
हैं। तीनों तापों से छुड़ाने वाला चन्द्रमा के समान मुख है॥3॥
*
कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥
चितवनि
चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेख सोभा जनु चाँकी॥4॥
भावार्थ:-कानों
में सोने के कर्णफूल (अत्यन्त) शोभा दे रहे हैं और देखते ही (देखने वाले के) चित्त
को मानो चुरा लेते हैं। उनकी चितवन (दृष्टि) बड़ी मनोहर है और भौंहें तिरछी एवं
सुंदर हैं। (माथे पर) तिलक की रेखाएँ ऐसी सुंदर हैं, मानो
(मूर्तिमती) शोभा पर मुहर लगा दी गई है॥4॥
दोहा
:
*
रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।
नख
सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥219॥
भावार्थ:-सिर
पर सुंदर चौकोनी टोपियाँ (दिए) हैं, काले और घुँघराले
बाल हैं। दोनों भाई नख से लेकर शिखा तक (एड़ी से चोटी तक) सुंदर हैं और सारी शोभा
जहाँ जैसी चाहिए वैसी ही है॥219॥
चौपाई
:
*
देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥
धाए
धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रंक निधि लूटन लागी॥1॥
भावार्थ:-जब
पुरवासियों ने यह समाचार पाया कि दोनों राजकुमार नगर देखने के लिए आए हैं, तब वे सब घर-बार और सब काम-काज छोड़कर ऐसे दौड़े मानो दरिद्री (धन का) खजाना
लूटने दौड़े हों॥1॥
*
निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
जुबतीं
भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥2॥
भावार्थ:-स्वभाव
ही से सुंदर दोनों भाइयों को देखकर वे लोग नेत्रों का फल पाकर सुखी हो रहे हैं।
युवती स्त्रियाँ घर के झरोखों से लगी हुई प्रेम सहित श्री रामचन्द्रजी के रूप को
देख रही हैं॥2॥
*
कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥
सुर
नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥3॥
भावार्थ:-वे
आपस में बड़े प्रेम से बातें कर रही हैं- हे सखी! इन्होंने करोड़ों कामदेवों की छबि
को जीत लिया है। देवता,
मनुष्य, असुर, नाग और
मुनियों में ऐसी शोभा तो कहीं सुनने में भी नहीं आती॥3॥
*
बिष्नु चारि भुज बिधि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥
अपर
देउ अस कोउ ना आही। यह छबि सखी पटतरिअ जाही॥4॥
भावार्थ:-भगवान
विष्णु के चार भुजाएँ हैं,
ब्रह्माजी के चार मुख हैं, शिवजी का विकट
(भयानक) वेष है और उनके पाँच मुँह हैं। हे सखी! दूसरा देवता भी कोई ऐसा नहीं है,
जिसके साथ इस छबि की उपमा दी जाए॥4॥
दोहा
:
*
बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख धाम।
अंग
अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥220॥
भावार्थ:-इनकी
किशोर अवस्था है,
ये सुंदरता के घर, साँवले और गोरे रंग के तथा
सुख के धाम हैं। इनके अंग-अंग पर करोड़ों-अरबों कामदेवों को निछावर कर देना
चाहिए॥220॥
चौपाई
:
*
कहहु सखी अस को तनु धारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥
कोउ
सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥1॥
भावार्थ:-हे
सखी! (भला) कहो तो ऐसा कौन शरीरधारी होगा, जो इस रूप को देखकर
मोहित न हो जाए (अर्थात यह रूप जड़-चेतन सबको मोहित करने वाला है)। (तब) कोई दूसरी
सखी प्रेम सहित कोमल वाणी से बोली- हे सयानी! मैंने जो सुना है उसे सुनो-॥1॥
*
ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा॥
मुनि
कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥2॥
भावार्थ:-ये
दोनों (राजकुमार) महाराज दशरथजी के पुत्र हैं! बाल राजहंसों का सा सुंदर जोड़ा है।
ये मुनि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करने वाले हैं, इन्होंने युद्ध के मैदान में राक्षसों को मारा है॥2॥
*
स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥
कौसल्या
सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥3॥
भावार्थ:-जिनका
श्याम शरीर और सुंदर कमल जैसे नेत्र हैं, जो मारीच और सुबाहु
के मद को चूर करने वाले और सुख की खान हैं और जो हाथ में धनुष-बाण लिए हुए हैं,
वे कौसल्याजी के पुत्र हैं, इनका नाम राम
है॥3॥
*
गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें॥
लछिमनु
नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥4॥
भावार्थ:-जिनका
रंग गोरा और किशोर अवस्था है और जो सुंदर वेष बनाए और हाथ में धनुष-बाण लिए श्री
रामजी के पीछे-पीछे चल रहे हैं, वे इनके छोटे भाई हैं, उनका नाम लक्ष्मण है। हे सखी! सुनो, उनकी माता
सुमित्रा हैं॥4॥
दोहा
:
*
बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए
देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥221॥
भावार्थ:-दोनों
भाई ब्राह्मण विश्वामित्र का काम करके और रास्ते में मुनि गौतम की स्त्री अहल्या
का उद्धार करके यहाँ धनुषयज्ञ देखने आए हैं। यह सुनकर सब स्त्रियाँ प्रसन्न
हुईं॥221॥
चौपाई
:
*
देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥
जौं
सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी की छबि देखकर कोई एक (दूसरी सखी) कहने लगी- यह वर जानकी के योग्य है।
हे सखी! यदि कहीं राजा इन्हें देख ले, तो प्रतिज्ञा छोड़कर
हठपूर्वक इन्हीं से विवाह कर देगा॥1॥
*
कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥
सखि
परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥2॥
भावार्थ:-किसी
ने कहा- राजा ने इन्हें पहचान लिया है और मुनि के सहित इनका आदरपूर्वक सम्मान किया
है,
परंतु हे सखी! राजा अपना प्रण नहीं छोड़ता। वह होनहार के वशीभूत होकर
हठपूर्वक अविवेक का ही आश्रय लिए हुए हैं (प्रण पर अड़े रहने की मूर्खता नहीं
छोड़ता)॥2॥
*
कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फल दाता॥
तौ
जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥3॥
भावार्थ:-कोई
कहती है- यदि विधाता भले हैं और सुना जाता है कि वे सबको उचित फल देते हैं, तो जानकीजी को यही वर मिलेगा। हे सखी! इसमें संदेह नहीं है॥3॥
*
जौं बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥
सखि
हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥4॥
भावार्थ:-जो
दैवयोग से ऐसा संयोग बन जाए, तो हम सब लोग कृतार्थ हो जाएँ।
हे सखी! मेरे तो इसी से इतनी अधिक आतुरता हो रही है कि इसी नाते कभी ये यहाँ
आवेंगे॥4॥
दोहा
:
*
नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
यह
संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥222॥
भावार्थ:-नहीं
तो (विवाह न हुआ तो) हे सखी! सुनो, हमको इनके दर्शन
दुर्लभ हैं। यह संयोग तभी हो सकता है, जब हमारे पूर्वजन्मों
के बहुत पुण्य हों॥222॥
चौपाई
:
*
बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबही का।
कोउ
कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदु गात किसोरा॥1॥
भावार्थ:-दूसरी
ने कहा- हे सखी! तुमने बहुत अच्छा कहा। इस विवाह से सभी का परम हित है। किसी ने
कहा- शंकरजी का धनुष कठोर है और ये साँवले राजकुमार कोमल शरीर के बालक हैं॥1॥
*
सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥
सखि
इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥2॥
भावार्थ:-हे
सयानी! सब असमंजस ही है। यह सुनकर दूसरी सखी कोमल वाणी से कहने लगी- हे सखी! इनके
संबंध में कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि ये देखने में तो छोटे हैं, पर इनका प्रभाव बहुत बड़ा है॥2॥
*
परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥
सो
कि रहिहि बिनु सिव धनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥3॥
भावार्थ:-जिनके
चरणकमलों की धूलि का स्पर्श पाकर अहल्या तर गई, जिसने बड़ा भारी पाप
किया था, वे क्या शिवजी का धनुष बिना तोड़े रहेंगे। इस
विश्वास को भूलकर भी नहीं छोड़ना चाहिए॥3॥
*
जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥
तासु
बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानीं॥4॥
भावार्थ:-जिस
ब्रह्मा ने सीता को सँवारकर (बड़ी चतुराई से) रचा है, उसी ने
विचार कर साँवला वर भी रच रखा है। उसके ये वचन सुनकर सब हर्षित हुईं और कोमल वाणी
से कहने लगीं- ऐसा ही हो॥4॥
दोहा
:
*
हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।
जाहिं
जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥223॥
भावार्थ:-
सुंदर मुख और सुंदर नेत्रों वाली स्त्रियाँ समूह की समूह हृदय में हर्षित होकर फूल
बरसा रही हैं। जहाँ-जहाँ दोनों भाई जाते हैं, वहाँ-वहाँ परम आनंद
छा जाता है॥223॥
चौपाई
:
*
पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥
अति
बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥1॥
भावार्थ:-दोनों
भाई नगर के पूरब ओर गए,
जहाँ धनुषयज्ञ के लिए (रंग) भूमि बनाई गई थी। बहुत लंबा-चौड़ा सुंदर
ढाला हुआ पक्का आँगन था, जिस पर सुंदर और निर्मल वेदी सजाई
गई थी॥1॥
*
चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बैठहिं महिपाला॥
तेहि
पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा॥2॥
भावार्थ:-चारों
ओर सोने के बड़े-बड़े मंच बने थे, जिन पर राजा लोग बैठेंगे। उनके
पीछे समीप ही चारों ओर दूसरे मचानों का मंडलाकार घेरा सुशोभित था॥2॥
*
कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥
तिन्ह
के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥3॥
भावार्थ:-वह
कुछ ऊँचा था और सब प्रकार से सुंदर था, जहाँ जाकर नगर के
लोग बैठेंगे। उन्हीं के पास विशाल एवं सुंदर सफेद मकान अनेक रंगों के बनाए गए
हैं॥3॥
*
जहँ बैठें देखहिं सब नारी। जथाजोगु निज कुल अनुहारी॥
पुर
बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥4॥
भावार्थ:-जहाँ
अपने-अपने कुल के अनुसार सब स्त्रियाँ यथायोग्य (जिसको जहाँ बैठना उचित है) बैठकर
देखेंगी। नगर के बालक कोमल वचन कह-कहकर आदरपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को
(यज्ञशाला की) रचना दिखला रहे हैं॥4॥
दोहा
:
*
सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।
तन
पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥224॥
भावार्थ:-सब
बालक इसी बहाने प्रेम के वश में होकर श्री रामजी के मनोहर अंगों को छूकर शरीर से
पुलकित हो रहे हैं और दोनों भाइयों को देख-देखकर उनके हृदय में अत्यन्त हर्ष हो
रहा है॥224॥
चौपाई
:
*
सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥
निज
निज रुचि सब लेहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी ने सब बालकों को प्रेम के वश जानकर (यज्ञभूमि के) स्थानों की
प्रेमपूर्वक प्रशंसा की। (इससे बालकों का उत्साह, आनंद और
प्रेम और भी बढ़ गया, जिससे) वे सब अपनी-अपनी रुचि के अनुसार
उन्हें बुला लेते हैं और (प्रत्येक के बुलाने पर) दोनों भाई प्रेम सहित उनके पास
चले जाते हैं॥1॥
*
राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥
लव
निमेष महुँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया॥2॥
भावार्थ:-कोमल, मधुर और मनोहर वचन कहकर श्री रामजी अपने छोटे भाई लक्ष्मण को (यज्ञभूमि
की) रचना दिखलाते हैं। जिनकी आज्ञा पाकर माया लव निमेष (पलक गिरने के चौथाई समय)
में ब्रह्माण्डों के समूह रच डालती है,॥2॥
*भगति
हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला॥
कौतुक
देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥3॥
भावार्थ:-वही
दीनों पर दया करने वाले श्री रामजी भक्ति के कारण धनुष यज्ञ शाला को चकित होकर
(आश्चर्य के साथ) देख रहे हैं। इस प्रकार सब कौतुक (विचित्र रचना) देखकर वे गुरु
के पास चले। देर हुई जानकर उनके मन में डर है॥3॥
*
जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई॥
कहि
बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआईं॥4॥
भावार्थ:-जिनके
भय से डर को भी डर लगता है,
वही प्रभु भजन का प्रभाव (जिसके कारण ऐसे महान प्रभु भी भय का नाट्य
करते हैं) दिखला रहे हैं। उन्होंने कोमल, मधुर और सुंदर
बातें कहकर बालकों को जबर्दस्ती विदा किया॥4॥
दोहा
:
*
सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
गुर
पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥225॥
भावार्थ:-फिर
भय,
प्रेम, विनय और बड़े संकोच के साथ दोनों भाई गुरु
के चरण कमलों में सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे॥225॥
चौपाई
:
*
निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥
कहत
कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥1॥
भावार्थ:-रात्रि
का प्रवेश होते ही (संध्या के समय) मुनि ने आज्ञा दी, तब सबने संध्यावंदन किया। फिर प्राचीन कथाएँ तथा इतिहास कहते-कहते सुंदर
रात्रि दो पहर बीत गई॥1॥
*
मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥
जिन्ह
के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥2॥
भावार्थ:-तब
श्रेष्ठ मुनि ने जाकर शयन किया। दोनों भाई उनके चरण दबाने लगे, जिनके चरण कमलों के (दर्शन एवं स्पर्श के) लिए वैराग्यवान् पुरुष भी
भाँति-भाँति के जप और योग करते हैं॥2॥
*तेइ
दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
बार
बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥3॥
भावार्थ:-वे
ही दोनों भाई मानो प्रेम से जीते हुए प्रेमपूर्वक गुरुजी के चरण कमलों को दबा रहे
हैं। मुनि ने बार-बार आज्ञा दी, तब श्री रघुनाथजी ने जाकर शयन
किया॥3॥
*
चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥
पुनि
पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥4॥
भावार्थ:-श्री
रामजी के चरणों को हृदय से लगाकर भय और प्रेम सहित परम सुख का अनुभव करते हुए
लक्ष्मणजी उनको दबा रहे हैं। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बार-बार कहा- हे तात! (अब)
सो जाओ। तब वे उन चरण कमलों को हृदय में धरकर लेटे रहे॥4॥
पुष्पवाटिका-निरीक्षण, सीताजी का प्रथम दर्शन, श्री सीता-रामजी का परस्पर
दर्शन
दोहा
:
*
उठे लखनु निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।
गुर
तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥226॥
भावार्थ:-रात
बीतने पर,
मुर्गे का शब्द कानों से सुनकर लक्ष्मणजी उठे। जगत के स्वामी सुजान
श्री रामचन्द्रजी भी गुरु से पहले ही जाग गए॥226॥
चौपाई
:
*
सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥
समय
जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥1॥
भावार्थ:-सब
शौचक्रिया करके वे जाकर नहाए। फिर (संध्या-अग्निहोत्रादि) नित्यकर्म समाप्त करके
उन्होंने मुनि को मस्तक नवाया। (पूजा का) समय जानकर, गुरु की
आज्ञा पाकर दोनों भाई फूल लेने चले॥1॥
*
भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥
लागे
बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥2॥
भावार्थ:-उन्होंने
जाकर राजा का सुंदर बाग देखा, जहाँ वसंत ऋतु लुभाकर रह गई है।
मन को लुभाने वाले अनेक वृक्ष लगे हैं। रंग-बिरंगी उत्तम लताओं के मंडप छाए हुए
हैं॥2॥
*नव
पल्लव फल सुमन सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए॥
चातक
कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥3॥
भावार्थ:-नए, पत्तों, फलों और फूलों से युक्त सुंदर वृक्ष अपनी
सम्पत्ति से कल्पवृक्ष को भी लजा रहे हैं। पपीहे, कोयल,
तोते, चकोर आदि पक्षी मीठी बोली बोल रहे हैं
और मोर सुंदर नृत्य कर रहे हैं॥3॥
*
मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥
बिमल
सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥4॥
भावार्थ:-बाग
के बीचोंबीच सुहावना सरोवर सुशोभित है, जिसमें मणियों की
सीढ़ियाँ विचित्र ढंग से बनी हैं। उसका जल निर्मल है, जिसमें
अनेक रंगों के कमल खिले हुए हैं, जल के पक्षी कलरव कर रहे
हैं और भ्रमर गुंजार कर रहे हैं॥4॥
दोहा
:
*
बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।
परम
रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥227॥
भावार्थ:-बाग
और सरोवर को देखकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी भाई लक्ष्मण सहित हर्षित हुए। यह बाग
(वास्तव में) परम रमणीय है,
जो (जगत को सुख देने वाले) श्री रामचन्द्रजी को सुख दे रहा है॥227॥
चौपाई
:
*चहुँ
दिसि चितइ पूँछि मालीगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥
तेहि
अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥1॥
भावार्थ:-चारों
ओर दृष्टि डालकर और मालियों से पूछकर वे प्रसन्न मन से पत्र-पुष्प लेने लगे। उसी
समय सीताजी वहाँ आईं। माता ने उन्हें गिरिजाजी (पार्वती) की पूजा करने के लिए भेजा
था॥1॥
*
संग सखीं सब सुभग सयानीं। गावहिं गीत मनोहर बानीं॥
सर
समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥2॥
भावार्थ:-साथ
में सब सुंदरी और सयानी सखियाँ हैं, जो मनोहर वाणी से
गीत गा रही हैं। सरोवर के पास गिरिजाजी का मंदिर सुशोभित है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, देखकर मन मोहित हो
जाता है॥।2॥
*
मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता॥
पूजा
कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥3॥
भावार्थ:-सखियों
सहित सरोवर में स्नान करके सीताजी प्रसन्न मन से गिरिजाजी के मंदिर में गईं।
उन्होंने बड़े प्रेम से पूजा की और अपने योग्य सुंदर वर माँगा॥3॥
*
एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई॥
तेहिं
दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥4॥
भावार्थ:-एक
सखी सीताजी का साथ छोड़कर फुलवाड़ी देखने चली गई थी। उसने जाकर दोनों भाइयों को देखा
और प्रेम में विह्वल होकर वह सीताजी के पास आई॥4॥
दोहा
:
*
तासु दसा देखी सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।
कहु
कारनु निज हरष कर पूछहिं सब मृदु बैन॥228॥
भावार्थ:-सखियों
ने उसकी दशा देखी कि उसका शरीर पुलकित है और नेत्रों में जल भरा है। सब कोमल वाणी
से पूछने लगीं कि अपनी प्रसन्नता का कारण बता॥228॥
चौपाई
:
*
देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥
स्याम
गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥1॥
भावार्थ:-(उसने
कहा-) दो राजकुमार बाग देखने आए हैं। किशोर अवस्था के हैं और सब प्रकार से सुंदर
हैं। वे साँवले और गोरे (रंग के) हैं, उनके सौंदर्य को
मैं कैसे बखानकर कहूँ। वाणी बिना नेत्र की है और नेत्रों के वाणी नहीं है॥1॥
*
सुनि हरषीं सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी॥
एक
कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥2॥
भावार्थ:-यह
सुनकर और सीताजी के हृदय में बड़ी उत्कंठा जानकर सब सयानी सखियाँ प्रसन्न हुईं। तब
एक सखी कहने लगी- हे सखी! ये वही राजकुमार हैं, जो सुना है कि कल
विश्वामित्र मुनि के साथ आए हैं॥2॥
*
जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्हे स्वबस नगर नर नारी॥
बरनत
छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥3॥
भावार्थ:-और
जिन्होंने अपने रूप की मोहिनी डालकर नगर के स्त्री-पुरुषों को अपने वश में कर लिया
है। जहाँ-तहाँ सब लोग उन्हीं की छबि का वर्णन कर रहे हैं। अवश्य (चलकर) उन्हें
देखना चाहिए,
वे देखने ही योग्य हैं॥3॥
*
तासु बचन अति सियहि सोहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥
चली
अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥4॥
भावार्थ:-उसके
वचन सीताजी को अत्यन्त ही प्रिय लगे और दर्शन के लिए उनके नेत्र अकुला उठे। उसी
प्यारी सखी को आगे करके सीताजी चलीं। पुरानी प्रीति को कोई लख नहीं पाता॥4॥
दोहा
:
*
सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।
चकित
बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥229॥
भावार्थ:-नारदजी
के वचनों का स्मरण करके सीताजी के मन में पवित्र प्रीति उत्पन्न हुई। वे चकित होकर
सब ओर इस तरह देख रही हैं,
मानो डरी हुई मृगछौनी इधर-उधर देख रही हो॥229॥
चौपाई
:
*
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
मानहुँ
मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥1॥
भावार्थ:-कंकण
(हाथों के कड़े),
करधनी और पायजेब के शब्द सुनकर श्री रामचन्द्रजी हृदय में विचार कर
लक्ष्मण से कहते हैं- (यह ध्वनि ऐसी आ रही है) मानो कामदेव ने विश्व को जीतने का
संकल्प करके डंके पर चोट मारी है॥1॥
*
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए
बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥2॥
भावार्थ:-ऐसा
कहकर श्री रामजी ने फिर कर उस ओर देखा। श्री सीताजी के मुख रूपी चन्द्रमा (को
निहारने) के लिए उनके नेत्र चकोर बन गए। सुंदर नेत्र स्थिर हो गए (टकटकी लग गई)।
मानो निमि (जनकजी के पूर्वज) ने (जिनका सबकी पलकों में निवास माना गया है, लड़की-दामाद के मिलन-प्रसंग को देखना उचित नहीं, इस
भाव से) सकुचाकर पलकें छोड़ दीं, (पलकों में रहना छोड़ दिया,
जिससे पलकों का गिरना रुक गया)॥2॥
*
देखि सीय शोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
जनु
बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥3॥
भावार्थ:-सीताजी
की शोभा देखकर श्री रामजी ने बड़ा सुख पाया। हृदय में वे उसकी सराहना करते हैं, किन्तु मुख से वचन नहीं निकलते। (वह शोभा ऐसी अनुपम है) मानो ब्रह्मा ने
अपनी सारी निपुणता को मूर्तिमान कर संसार को प्रकट करके दिखा दिया हो॥3॥
*
सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥
सब
उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥4॥
भावार्थ:-वह
(सीताजी की शोभा) सुंदरता को भी सुंदर करने वाली है। (वह ऐसी मालूम होती है) मानो
सुंदरता रूपी घर में दीपक की लौ जल रही हो। (अब तक सुंदरता रूपी भवन में अँधेरा था, वह भवन मानो सीताजी की सुंदरता रूपी दीपशिखा को पाकर जगमगा उठा है,
पहले से भी अधिक सुंदर हो गया है)। सारी उपमाओं को तो कवियों ने
जूँठा कर रखा है। मैं जनकनन्दिनी श्री सीताजी की किससे उपमा दूँ॥4॥
दोहा
:
*
सिय शोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि॥
बोले
सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥230॥
भावार्थ:-(इस
प्रकार) हृदय में सीताजी की शोभा का वर्णन करके और अपनी दशा को विचारकर प्रभु श्री
रामचन्द्रजी पवित्र मन से अपने छोटे भाई लक्ष्मण से समयानुकूल वचन बोले-॥230॥
चौपाई
:
*
तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥
पूजन
गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥1॥
भावार्थ:-हे
तात! यह वही जनकजी की कन्या है, जिसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा है।
सखियाँ इसे गौरी पूजन के लिए ले आई हैं। यह फुलवाड़ी में प्रकाश करती हुई फिर रही
है॥1॥
*
जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
सो
सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥2॥
भावार्थ:-जिसकी
अलौकिक सुंदरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। वह सब कारण
(अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें, किन्तु हे भाई!
सुनो, मेरे मंगलदायक (दाहिने) अंग फड़क रहे हैं॥2॥
*
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥
मोहि
अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥3॥
भावार्थ:-रघुवंशियों
का यह सहज (जन्मगत) स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्ग पर पैर नहीं रखता। मुझे तो
अपने मन का अत्यन्त ही विश्वास है कि जिसने (जाग्रत की कौन कहे) स्वप्न में भी
पराई स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली है॥3॥
*
जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥
मंगन
लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥4॥
भावार्थ:-रण
में शत्रु जिनकी पीठ नहीं देख पाते (अर्थात् जो लड़ाई के मैदान से भागते नहीं), पराई स्त्रियाँ जिनके मन और दृष्टि को नहीं खींच पातीं और भिखारी जिनके
यहाँ से 'नाहीं' नहीं पाते (खाली हाथ
नहीं लौटते), ऐसे श्रेष्ठ पुरुष संसार में थोड़े हैं॥4॥
दोहा
:
*
करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।
मुख
सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥231॥
भावार्थ:-
यों श्री रामजी छोटे भाई से बातें कर रहे हैं, पर मन सीताजी के
रूप में लुभाया हुआ उनके मुखरूपी कमल के छबि रूप मकरंद रस को भौंरे की तरह पी रहा
है॥231॥
चौपाई
:
*
चितवति चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृप किसोर मनु चिंता॥
जहँ
बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥1॥
भावार्थ:-सीताजी
चकित होकर चारों ओर देख रही हैं। मन इस बात की चिन्ता कर रहा है कि राजकुमार कहाँ
चले गए। बाल मृगनयनी (मृग के छौने की सी आँख वाली) सीताजी जहाँ दृष्टि डालती हैं, वहाँ मानो श्वेत कमलों की कतार बरस जाती है॥1॥
*
लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥
देखि
रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥2॥
भावार्थ:-तब
सखियों ने लता की ओट में सुंदर श्याम और गौर कुमारों को दिखलाया। उनके रूप को
देखकर नेत्र ललचा उठे,
वे ऐसे प्रसन्न हुए मानो उन्होंने अपना खजाना पहचान लिया॥2॥
*
थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
अधिक
सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥3॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी की छबि देखकर नेत्र थकित (निश्चल) हो गए। पलकों ने भी गिरना छोड़ दिया।
अधिक स्नेह के कारण शरीर विह्वल (बेकाबू) हो गया। मानो शरद ऋतु के चन्द्रमा को
चकोरी (बेसुध हुई) देख रही हो॥3॥
*
लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥
जब
सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥4॥
भावार्थ:-नेत्रों
के रास्ते श्री रामजी को हृदय में लाकर चतुरशिरोमणि जानकीजी ने पलकों के किवाड़ लगा
दिए (अर्थात नेत्र मूँदकर उनका ध्यान करने लगीं)। जब सखियों ने सीताजी को प्रेम के
वश जाना,
तब वे मन में सकुचा गईं, कुछ कह नहीं सकती
थीं॥4॥
दोहा
:
*
लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
तकिसे
जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाई॥232॥
भावार्थ:-उसी
समय दोनों भाई लता मंडप (कुंज) में से प्रकट हुए। मानो दो निर्मल चन्द्रमा बादलों
के परदे को हटाकर निकले हों॥232॥
चौपाई
:
*
सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥
मोरपंख
सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥1॥
भावार्थ:-दोनों
सुंदर भाई शोभा की सीमा हैं। उनके शरीर की आभा नीले और पीले कमल की सी है। सिर पर
सुंदर मोरपंख सुशोभित हैं। उनके बीच-बीच में फूलों की कलियों के गुच्छे लगे हैं॥1॥
*
भाल तिलक श्रम बिन्दु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥
बिकट
भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥2॥
भावार्थ:-माथे
पर तिलक और पसीने की बूँदें शोभायमान हैं। कानों में सुंदर भूषणों की छबि छाई है।
टेढ़ी भौंहें और घुँघराले बाल हैं। नए लाल कमल के समान रतनारे (लाल) नेत्र हैं॥2॥
*
चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥
मुखछबि
कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥3॥
भावार्थ:-ठोड़ी
नाक और गाल बड़े सुंदर हैं और हँसी की शोभा मन को मोल लिए लेती है। मुख की छबि तो
मुझसे कही ही नहीं जाती,
जिसे देखकर बहुत से कामदेव लजा जाते हैं॥3॥
*
उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥
सुमन
समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥4॥
भावार्थ:-वक्षःस्थल
पर मणियों की माला है। शंख के सदृश सुंदर गला है। कामदेव के हाथी के बच्चे की सूँड
के समान (उतार-चढ़ाव वाली एवं कोमल) भुजाएँ हैं, जो बल की सीमा हैं।
जिसके बाएँ हाथ में फूलों सहित दोना है, हे सखि! वह साँवला
कुँअर तो बहुत ही सलोना है॥4॥
दोहा
:
*
केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
देखि
भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥233॥
भावार्थ:-सिंह
की सी (पतली,
लचीली) कमर वाले, पीताम्बर धारण किए हुए,
शोभा और शील के भंडार, सूर्यकुल के भूषण श्री
रामचन्द्रजी को देखकर सखियाँ अपने आपको भूल गईं॥233॥
चौपाई
:
*
धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥
बहुरि
गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥1॥
भावार्थ:-एक
चतुर सखी धीरज धरकर,
हाथ पकड़कर सीताजी से बोली- गिरिजाजी का ध्यान फिर कर लेना, इस समय राजकुमार को क्यों नहीं देख लेतीं॥1॥
*
सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥
नख
सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥2॥
भावार्थ:-तब
सीताजी ने सकुचाकर नेत्र खोले और रघुकुल के दोनों सिंहों को अपने सामने (खड़े)
देखा। नख से शिखा तक श्री रामजी की शोभा देखकर और फिर पिता का प्रण याद करके उनका
मन बहुत क्षुब्ध हो गया॥2॥
*
परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहिं सभीता॥
पुनि
आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥3॥
भावार्थ:-जब
सखियों ने सीताजी को परवश (प्रेम के वश) देखा, तब सब भयभीत होकर
कहने लगीं- बड़ी देर हो गई। (अब चलना चाहिए)। कल इसी समय फिर आएँगी, ऐसा कहकर एक सखी मन में हँसी॥3॥
*
गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥
धरि
बड़ि धीर रामु उर आने। फिरी अपनपउ पितुबस जाने॥4॥
भावार्थ:-सखी
की यह रहस्यभरी वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गईं। देर हो गई जान उन्हें माता का भय
लगा। बहुत धीरज धरकर वे श्री रामचन्द्रजी को हृदय में ले आईं और (उनका ध्यान करती
हुई) अपने को पिता के अधीन जानकर लौट चलीं॥4॥
श्री
सीताजी का पार्वती पूजन एवं वरदान प्राप्ति तथा राम-लक्ष्मण संवाद
दोहा
:
*
देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि
निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥234॥
भावार्थ:-मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने सीताजी बार-बार घूम जाती हैं और श्री
रामजी की छबि देख-देखकर उनका प्रेम कम नहीं बढ़ रहा है। (अर्थात् बहुत ही बढ़ता
जाता है)॥234॥
चौपाई
:
*
जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥
प्रभु
जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥1॥
भावार्थ:-शिवजी
के धनुष को कठोर जानकर वे विसूरती (मन में विलाप करती) हुई हृदय में श्री रामजी की
साँवली मूर्ति को रखकर चलीं। (शिवजी के धनुष की कठोरता का स्मरण आने से उन्हें
चिंता होती थी कि ये सुकुमार रघुनाथजी उसे कैसे तोड़ेंगे, पिता के प्रण की स्मृति से उनके हृदय में क्षोभ था ही, इसलिए मन में विलाप करने लगीं। प्रेमवश ऐश्वर्य की विस्मृति हो जाने से ही
ऐसा हुआ, फिर भगवान के बल का स्मरण आते ही वे हर्षित हो गईं
और साँवली छबि को हृदय में धारण करके चलीं।) प्रभु श्री रामजी ने जब सुख, स्नेह, शोभा और गुणों की खान श्री जानकीजी को जाती
हुई जाना,॥1॥
*
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥
गई
भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥2॥
भावार्थ:-तब
परमप्रेम की कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूप को अपने सुंदर चित्त रूपी भित्ति पर
चित्रित कर लिया। सीताजी पुनः भवानीजी के मंदिर में गईं और उनके चरणों की वंदना
करके हाथ जोड़कर बोलीं-॥2॥
*जय
जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥
जय
गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥3॥
भावार्थ:-हे
श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की (ओर
टकटकी लगाकर देखने वाली) चकोरी! आपकी जय हो, हे हाथी के मुख
वाले गणेशजी और छह मुख वाले स्वामिकार्तिकजी की माता! हे जगज्जननी! हे बिजली की सी
कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो! ॥3॥
*
नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव
भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥4॥
भावार्थ:-आपका
न आदि है,
न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप
संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को
मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं॥4॥
दोहा
:
*
पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा
अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥235॥
भावार्थ:-पति
को इष्टदेव मानने वाली श्रेष्ठ नारियों में हे माता! आपकी प्रथम गणना है। आपकी
अपार महिमा को हजारों सरस्वती और शेषजी भी नहीं कह सकते॥235॥
चौपाई
:
*
सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि
पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥1॥
भावार्थ:-हे
(भक्तों को मुँहमाँगा) वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी!
आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा
करके देवता,
मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं॥1॥
*
मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
कीन्हेउँ
प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥2॥
भावार्थ:-मेरे
मनोरथ को आप भलीभाँति जानती हैं, क्योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी
नगरी में निवास करती हैं। इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर जानकीजी
ने उनके चरण पकड़ लिए॥2॥
*
बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥
सादर
सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥3॥
भावार्थ:-गिरिजाजी
सीताजी के विनय और प्रेम के वश में हो गईं। उन (के गले) की माला खिसक पड़ी और
मूर्ति मुस्कुराई। सीताजी ने आदरपूर्वक उस प्रसाद (माला) को सिर पर धारण किया।
गौरीजी का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं-॥3॥
*
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
नारद
बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥4॥
भावार्थ:-हे
सीता! हमारी सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मनःकामना पूरी होगी।
नारदजी का वचन सदा पवित्र (संशय, भ्रम आदि दोषों से रहित) और
सत्य है। जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही वर
तुमको मिलेगा॥4॥
छन्द
:
*
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना
निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एहि
भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी
भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
भावार्थ:-जिसमें
तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर साँवला
वर (श्री रामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा। वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है,
तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है। इस प्रकार श्री गौरीजी का
आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सब सखियाँ हृदय में हर्षित हुईं। तुलसीदासजी कहते
हैं- भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं॥
सोरठा
:
*
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल
मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥236॥
भावार्थ:-गौरीजी
को अनुकूल जानकर सीताजी के हृदय को जो हर्ष हुआ, वह कहा नहीं
जा सकता। सुंदर मंगलों के मूल उनके बाएँ अंग फड़कने लगे॥236॥
चौपाई
:
*
हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥
राम
कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥1॥
भावार्थ:-हृदय
में सीताजी के सौंदर्य की सराहना करते हुए दोनों भाई गुरुजी के पास गए। श्री
रामचन्द्रजी ने विश्वामित्र से सब कुछ कह दिया, क्योंकि उनका सरल
स्वभाव है, छल तो उसे छूता भी नहीं है॥1॥
*
सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥
सुफल
मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भय सुखारे॥2॥
भावार्थ:-फूल
पाकर मुनि ने पूजा की। फिर दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे मनोरथ सफल
हों। यह सुनकर श्री राम-लक्ष्मण सुखी हुए॥2॥
*
करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥
बिगत
दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥3॥
भावार्थ:-श्रेष्ठ
विज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी भोजन करके कुछ प्राचीन कथाएँ कहने लगे। (इतने में)
दिन बीत गया और गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई संध्या करने चले॥3॥
*
प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥
बहुरि
बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥4॥
भावार्थ:-(उधर)
पूर्व दिशा में सुंदर चन्द्रमा उदय हुआ। श्री रामचन्द्रजी ने उसे सीता के मुख के
समान देखकर सुख पाया। फिर मन में विचार किया कि यह चन्द्रमा सीताजी के मुख के समान
नहीं है॥4॥
दोहा
:
*
जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
सिय
मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥237॥
भावार्थ:-खारे
समुद्र में तो इसका जन्म,
फिर (उसी समुद्र से उत्पन्न होने के कारण) विष इसका भाई, दिन में यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज) रहता है,
और कलंकी (काले दाग से युक्त) है। बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजी के
मुख की बराबरी कैसे पा सकता है?॥237॥
चौपाई
:
*
घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥
कोक
सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥1॥
भावार्थ:-फिर
यह घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों को दुःख देने वाला है, राहु अपनी संधि में पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवे को (चकवी के वियोग का)
शोक देने वाला और कमल का बैरी (उसे मुरझा देने वाला) है। हे चन्द्रमा! तुझमें बहुत
से अवगुण हैं (जो सीताजी में नहीं हैं।)॥1॥
*
बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोषु बड़ अनुचित कीन्हे॥
सिय
मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुर पहिं चले निसा बड़ि जानी॥2॥
भावार्थ:-अतः
जानकीजी के मुख की तुझे उपमा देने में बड़ा अनुचित कर्म करने का दोष लगेगा। इस
प्रकार चन्द्रमा के बहाने सीताजी के मुख की छबि का वर्णन करके, बड़ी रात हो गई जान, वे गुरुजी के पास चले॥2॥
*
करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥
बिगत
निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥3॥
भावार्थ:-मुनि
के चरण कमलों में प्रणाम करके, आज्ञा पाकर उन्होंने विश्राम
किया, रात बीतने पर श्री रघुनाथजी जागे और भाई को देखकर ऐसा
कहने लगे-॥3॥
*
उयउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥
बोले
लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥4॥
भावार्थ:-हे
तात! देखो,
कमल, चक्रवाक और समस्त संसार को सुख देने वाला
अरुणोदय हुआ है। लक्ष्मणजी दोनों हाथ जोड़कर प्रभु के प्रभाव को सूचित करने वाली
कोमल वाणी बोले-॥4॥
दोहा
:
*
अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।
जिमि
तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥238॥
भावार्थ:-अरुणोदय
होने से कुमुदिनी सकुचा गई और तारागणों का प्रकाश फीका पड़ गया, जिस प्रकार आपका आना सुनकर सब राजा बलहीन हो गए हैं॥238॥
चौपाई
:
*
नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥
कमल
कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥1॥
भावार्थ:-सब
राजा रूपी तारे उजाला (मंद प्रकाश) करते हैं, पर वे धनुष रूपी
महान अंधकार को हटा नहीं सकते। रात्रि का अंत होने से जैसे कमल, चकवे, भौंरे और नाना प्रकार के पक्षी हर्षित हो रहे
हैं॥1॥
*
ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥
उयउ
भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥2॥
भावार्थ:-वैसे
ही हे प्रभो! आपके सब भक्त धनुष टूटने पर सुखी होंगे। सूर्य उदय हुआ, बिना ही परिश्रम अंधकार नष्ट हो गया। तारे छिप गए, संसार
में तेज का प्रकाश हो गया॥2॥
*
रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥
तव
भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी।3॥
भावार्थ:-हे
रघुनाथजी! सूर्य ने अपने उदय के बहाने सब राजाओं को प्रभु (आप) का प्रताप दिखलाया
है। आपकी भुजाओं के बल की महिमा को उद्घाटित करने (खोलकर दिखाने) के लिए ही धनुष
तोड़ने की यह पद्धति प्रकट हुई है॥3॥
*
बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥
कनित्यक्रिया
करि गरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥4॥
भावार्थ:-भाई
के वचन सुनकर प्रभु मुस्कुराए। फिर स्वभाव से ही पवित्र श्री रामजी ने शौच से
निवृत्त होकर स्नान किया और नित्यकर्म करके वे गुरुजी के पास आए। आकर उन्होंने
गुरुजी के सुंदर चरण कमलों में सिर नवाया॥4॥
*
सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥
जनक
बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥5॥
भावार्थ:-
तब जनकजी ने शतानंदजी को बुलाया और उन्हें तुरंत ही विश्वामित्र मुनि के पास भेजा।
उन्होंने आकर जनकजी की विनती सुनाई। विश्वामित्रजी ने हर्षित होकर दोनों भाइयों को
बुलाया॥5॥
दोहा
:
*
सतानंद पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।
चलहु
तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥239॥
भावार्थ:-शतानन्दजी
के चरणों की वंदना करके प्रभु श्री रामचन्द्रजी गुरुजी के पास जा बैठे। तब मुनि ने
कहा- हे तात! चलो,
जनकजी ने बुला भेजा है॥239॥
मासपारायण, आठवाँ विश्राम
नवाह्न
पारायण,
दूसरा विश्राम
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