|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, दशमी, सोमवार, वि० स० २०७०
अपने ‘स्व’ को विस्तृत करें -१-
गत ब्लॉग से आगे ... २. याद रखो -संसार में जितने भी जड़-चेतन जीव हैं-सभीमें
भगवान भरे है, सभी भगवानके स्वरूप हैं या सभी आत्मरूप हैं-यह समझकर जिन प्राणियों से भी संपर्क प्राप्त हो, उनके रूप तथा वेश के
अनुसार मन, वाणी, शरीरसे दान, सम्मान देकर उनका पूजन या उन्हें सुख-दान करना चाहिए
| किसीभी कार्य की बात सोचते तथा किसीभी कार्य को करते समय यह पूरा ध्यान रखना
चाहिए की इससे किसी भी प्राणीका किसी प्रकार का कोई
अहित तो नहीं होगा और केवल मेरा ही नहीं, दूसरों का भी इससे हित होगा की नहीं |
याद रखो -‘स्व’
जितना ही सिमित होता है, उतना ही ‘स्वार्थ’ परिणाम में हानिकारक और गन्दा होता है
| ‘स्व’ जितना ही विशाल होता है उतना ही स्वार्थ भी परिणाम में लाभकारक और सुखदाई
होता है | जो केवल अपने व्यक्तिगत और कुटुंबके लाभके लिए सोचा करता है-इसीको स्वार्थ समझता है, वह व्यक्तिगत लाभ के लिए चराचर जीवों तथा अन्य
मनुष्योंकी तो कभी बात सोचता ही नहीं, देशको भी भूल जाता है | उसकी इश्वरभक्ति,
देशभक्ति, जनसेवा-सीमित
स्वार्थ के निम्नस्तर में उतरकर इश्वरद्रोह और देशद्रोह तथा जन संतापतकमें परिणत
हो जाती है | ऐसा ‘ईश्वरभक्त’, ‘देशभक्त’ तथा ‘सेवक’ कहलाने वाला वास्तवमें साधारण
मनुष्यकी अपेक्षा भी बहुत अधिक खतरनाक होता है-समाजके लिए, देश
तथा विश्व के लिए क्योंकि वह अपने नीचस्वार्थ भरे आचरणसे इश्वर,देश तथा सेवाके
पवित्र नामको बदनाम करता है, उनके स्वरूपको लोक दृष्टिमें गिराता है और आदर्शको
नष्ट करता है | शेष अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं,
कल्याण कुञ्ज भाग – ७, पुस्तक कोड ३६४, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण
!!! नारायण !!! नारायण !!!
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