श्रीरामचरितमानस
बालकाण्ड
श्री
राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का यज्ञशाला में प्रवेश
चौपाई
:
*
सीय स्वयंबरू देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥
लखन
कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥1॥
भावार्थ:-चलकर
सीताजी के स्वयंवर को देखना चाहिए। देखें ईश्वर किसको बड़ाई देते हैं। लक्ष्मणजी ने
कहा- हे नाथ! जिस पर आपकी कृपा होगी, वही बड़ाई का पात्र
होगा (धनुष तोड़ने का श्रेय उसी को प्राप्त होगा)॥1॥
*
हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥
पुनि
मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥2॥
भावार्थ:-इस
श्रेष्ठ वाणी को सुनकर सब मुनि प्रसन्न हुए। सभी ने सुख मानकर आशीर्वाद दिया। फिर
मुनियों के समूह सहित कृपालु श्री रामचन्द्रजी धनुष यज्ञशाला देखने चले॥2॥
*
रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥
चले
सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥3॥
भावार्थ:-दोनों
भाई रंगभूमि में आए हैं,
ऐसी खबर जब सब नगर निवासियों ने पाई, तब बालक,
जवान, बूढ़े, स्त्री,
पुरुष सभी घर और काम-काज को भुलाकर चल दिए॥3॥
*
देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥
तुरत
सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहु सब काहू॥4॥
भावार्थ:-जब
जनकजी ने देखा कि बड़ी भीड़ हो गई है, तब उन्होंने सब
विश्वासपात्र सेवकों को बुलवा लिया और कहा- तुम लोग तुरंत सब लोगों के पास जाओ और
सब किसी को यथायोग्य आसन दो॥4॥
दोहा
:
*
कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
उत्तम
मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥240॥
भावार्थ:-उन
सेवकों ने कोमल और नम्र वचन कहकर उत्तम, मध्यम, नीच और लघु (सभी श्रेणी के) स्त्री-पुरुषों को अपने-अपने योग्य स्थान पर
बैठाया॥240॥
चौपाई
:
*
राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥
गुन
सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥1॥
भावार्थ:-उसी
समय राजकुमार (राम और लक्ष्मण) वहाँ आए। (वे ऐसे सुंदर हैं) मानो साक्षात मनोहरता
ही उनके शरीरों पर छा रही हो। सुंदर साँवला और गोरा उनका शरीर है। वे गुणों के
समुद्र,
चतुर और उत्तम वीर हैं॥1॥
*
राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
जिन्ह
कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥2॥
भावार्थ:-वे
राजाओं के समाज में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो तारागणों के
बीच दो पूर्ण चन्द्रमा हों। जिनकी जैसी भावना थी, प्रभु की
मूर्ति उन्होंने वैसी ही देखी॥2॥
*
देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥
डरे
कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥3॥
भावार्थ:-महान
रणधीर (राजा लोग) श्री रामचन्द्रजी के रूप को ऐसा देख रहे हैं, मानो स्वयं वीर रस शरीर धारण किए हुए हों। कुटिल राजा प्रभु को देखकर डर
गए, मानो बड़ी भयानक मूर्ति हो॥3॥
*
रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा।
पुरबासिन्ह
देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥4॥
भावार्थ:-छल
से जो राक्षस वहाँ राजाओं के वेष में (बैठे) थे, उन्होंने
प्रभु को प्रत्यक्ष काल के समान देखा। नगर निवासियों ने दोनों भाइयों को मनुष्यों
के भूषण रूप और नेत्रों को सुख देने वाला देखा॥4॥
दोहा
:
*
नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज-निज रुचि अनुरूप।
जनु
सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥241॥
भावार्थ:-स्त्रियाँ
हृदय में हर्षित होकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें देख रही हैं। मानो श्रृंगार
रस ही परम अनुपम मूर्ति धारण किए सुशोभित हो रहा हो॥241॥
चौपाई
:
*
बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥
जनक
जाति अवलोकहिं कैसें। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥1॥
भावार्थ:-विद्वानों
को प्रभु विराट रूप में दिखाई दिए, जिसके बहुत से मुँह,
हाथ, पैर, नेत्र और सिर
हैं। जनकजी के सजातीय (कुटुम्बी) प्रभु को किस तरह (कैसे प्रिय रूप में) देख रहे
हैं, जैसे सगे सजन (संबंधी) प्रिय लगते हैं॥1॥
*
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥
जोगिन्ह
परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥2॥
भावार्थ:-जनक
समेत रानियाँ उन्हें अपने बच्चे के समान देख रही हैं, उनकी प्रीति का वर्णन नहीं किया जा सकता। योगियों को वे शांत, शुद्ध, सम और स्वतः प्रकाश परम तत्व के रूप में
दिखे॥2॥
*
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
रामहि
चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥3॥
भावार्थ:-हरि
भक्तों ने दोनों भाइयों को सब सुखों के देने वाले इष्ट देव के समान देखा। सीताजी
जिस भाव से श्री रामचन्द्रजी को देख रही हैं, वह स्नेह और सुख तो
कहने में ही नहीं आता॥3॥
*
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥
एहि
बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥4॥
भावार्थ:-उस
(स्नेह और सुख) का वे हृदय में अनुभव कर रही हैं, पर वे भी
उसे कह नहीं सकतीं। फिर कोई कवि उसे किस प्रकार कह सकता है। इस प्रकार जिसका जैसा
भाव था, उसने कोसलाधीश श्री रामचन्द्रजी को वैसा ही देखा॥4॥
दोहा
:
*
राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
सुंदर
स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥242॥
भावार्थ:-सुंदर
साँवले और गोरे शरीर वाले तथा विश्वभर के नेत्रों को चुराने वाले कोसलाधीश के
कुमार राज समाज में (इस प्रकार) सुशोभित हो रहे हैं॥242॥
चौपाई
:
*
सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥
सरद
चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥1॥
भावार्थ:-दोनों
मूर्तियाँ स्वभाव से ही (बिना किसी बनाव-श्रृंगार के) मन को हरने वाली हैं। करोड़ों
कामदेवों की उपमा भी उनके लिए तुच्छ है। उनके सुंदर मुख शरद् (पूर्णिमा) के
चन्द्रमा की भी निंदा करने वाले (उसे नीचा दिखाने वाले) हैं और कमल के समान नेत्र
मन को बहुत ही भाते हैं॥1॥
*
चितवनि चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहिं बरनी॥
कल
कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥2॥
भावार्थ:-सुंदर
चितवन (सारे संसार के मन को हरने वाले) कामदेव के भी मन को हरने वाली है। वह हृदय
को बहुत ही प्यारी लगती है,
पर उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सुंदर गाल हैं, कानों में चंचल (झूमते हुए) कुंडल हैं। ठोड़ और अधर (होठ) सुंदर हैं,
कोमल वाणी है॥2॥
*
कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥
भाल
बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥3॥
भावार्थ:-हँसी, चन्द्रमा की किरणों का तिरस्कार करने वाली है। भौंहें टेढ़ी और नासिका
मनोहर है। (ऊँचे) चौड़े ललाट पर तिलक झलक रहे हैं (दीप्तिमान हो रहे हैं)। (काले
घुँघराले) बालों को देखकर भौंरों की पंक्तियाँ भी लजा जाती हैं॥3॥
*
पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाईं। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥
रेखें
रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥4॥
भावार्थ:-पीली
चौकोनी टोपियाँ सिरों पर सुशोभित हैं, जिनके बीच-बीच में
फूलों की कलियाँ बनाई (काढ़ी) हुई हैं। शंख के समान सुंदर (गोल) गले में मनोहर तीन
रेखाएँ हैं, जो मानो तीनों लोकों की सुंदरता की सीमा (को बता
रही) हैं॥4॥
दोहा
:
*
कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ
कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥243॥
भावार्थ:-हृदयों
पर गजमुक्ताओं के सुंदर कंठे और तुलसी की मालाएँ सुशोभित हैं। उनके कंधे बैलों के
कंधे की तरह (ऊँचे तथा पुष्ट) हैं, ऐंड़ (खड़े होने की
शान) सिंह की सी है और भुजाएँ विशाल एवं बल की भंडार हैं॥243॥
चौपाई
:
*
कटि तूनीर पीत पट बाँधें। कर सर धनुष बाम बर काँधें॥
पीत
जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥1॥
भावार्थ:-कमर
में तरकस और पीताम्बर बाँधे हैं। (दाहिने) हाथों में बाण और बाएँ सुंदर कंधों पर
धनुष तथा पीले यज्ञोपवीत (जनेऊ) सुशोभित हैं। नख से लेकर शिखा तक सब अंग सुंदर हैं, उन पर महान शोभा छाई हुई है॥1॥
*
देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
हरषे
जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥2॥
भावार्थ:-उन्हें
देखकर सब लोग सुखी हुए। नेत्र एकटक (निमेष शून्य) हैं और तारे (पुतलियाँ) भी नहीं
चलते। जनकजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए। तब उन्होंने जाकर मुनि के चरण कमल
पकड़ लिए॥2॥
*
करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
जहँ
जहँ जाहिं कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥3॥
भावार्थ:-विनती
करके अपनी कथा सुनाई और मुनि को सारी रंगभूमि (यज्ञशाला) दिखलाई। (मुनि के साथ)
दोनों श्रेष्ठ राजकुमार जहाँ-जहाँ जाते हैं, वहाँ-वहाँ सब कोई
आश्चर्यचकित हो देखने लगते हैं॥3॥
*
निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
भलि
रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥4॥
भावार्थ:-सबने
रामजी को अपनी-अपनी ओर ही मुख किए हुए देखा, परन्तु इसका कुछ भी
विशेष रहस्य कोई नहीं जान सका। मुनि ने राजा से कहा- रंगभूमि की रचना बड़ी सुंदर है
(विश्वामित्र- जैसे निःस्पृह, विरक्त और ज्ञानी मुनि से रचना
की प्रशंसा सुनकर) राजा प्रसन्न हुए और उन्हें बड़ा सुख मिला॥4॥
दोहा
:
*
सब मंचन्ह तें मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
मुनि
समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥244॥
भावार्थ:-सब
मंचों से एक मंच अधिक सुंदर, उज्ज्वल और विशाल था। (स्वयं)
राजा ने मुनि सहित दोनों भाइयों को उस पर बैठाया॥244॥
चौपाई
:
*
प्रभुहि देखि सब नृप हियँ हारे। जनु राकेश उदय भएँ तारे॥
असि
प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥1॥
भावार्थ:-
प्रभु को देखकर सब राजा हृदय में ऐसे हार गए (निराश एवं उत्साहहीन हो गए) जैसे
पूर्ण चन्द्रमा के उदय होने पर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं। (उनके तेज को देखकर)
सबके मन में ऐसा विश्वास हो गया कि रामचन्द्रजी ही धनुष को तोड़ेंगे, इसमें संदेह नहीं॥1॥
*
बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
अस
बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥2॥
भावार्थ:-(इधर
उनके रूप को देखकर सबके मन में यह निश्चय हो गया कि) शिवजी के विशाल धनुष को (जो
संभव है न टूट सके) बिना तोड़े भी सीताजी श्री रामचन्द्रजी के ही गले में जयमाला
डालेंगी (अर्थात दोनों तरह से ही हमारी हार होगी और विजय रामचन्द्रजी के हाथ रहेगी)।
(यों सोचकर वे कहने लगे) हे भाई! ऐसा विचारकर यश, प्रताप,
बल और तेज गँवाकर अपने-अपने घर चलो॥2॥
*
बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥
तोरेहुँ
धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥3॥
भावार्थ:-दूसरे
राजा,
जो अविवेक से अंधे हो रहे थे और अभिमानी थे, यह
बात सुनकर बहुत हँसे। (उन्होंने कहा) धनुष तोड़ने पर भी विवाह होना कठिन है (अर्थात
सहज ही में हम जानकी को हाथ से जाने नहीं देंगे), फिर बिना
तोड़े तो राजकुमारी को ब्याह ही कौन सकता है॥3॥
*
एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
यह
सुनि अवर महिप मुसुकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥4॥
भावार्थ:-काल
ही क्यों न हो,
एक बार तो सीता के लिए उसे भी हम युद्ध में जीत लेंगे। यह घमंड की
बात सुनकर दूसरे राजा, जो धर्मात्मा, हरिभक्त
और सयाने थे, मुस्कुराए॥4॥
सोरठा
:
*
सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।
जीति
को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥245॥
भावार्थ:-(उन्होंने
कहा-) राजाओं के गर्व दूर करके (जो धनुष किसी से नहीं टूट सकेगा उसे तोड़कर) श्री
रामचन्द्रजी सीताजी को ब्याहेंगे। (रही युद्ध की बात, सो) महाराज दशरथ के रण में बाँके पुत्रों को युद्ध में तो जीत ही कौन सकता
है॥245॥
चौपाई
:
*
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
सिख
हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥1॥
भावार्थ:-गाल
बजाकर व्यर्थ ही मत मरो। मन के लड्डुओं से भी कहीं भूख बुझती है? हमारी परम पवित्र (निष्कपट) सीख को सुनकर सीताजी को अपने जी में साक्षात
जगज्जननी समझो (उन्हें पत्नी रूप में पाने की आशा एवं लालसा छोड़ दो),॥1॥
*
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
सुंदर
सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥2॥
भावार्थ:-और
श्री रघुनाथजी को जगत का पिता (परमेश्वर) विचार कर, नेत्र भरकर
उनकी छबि देख लो (ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलेगा)। सुंदर, सुख
देने वाले और समस्त गुणों की राशि ये दोनों भाई शिवजी के हृदय में बसने वाले हैं
(स्वयं शिवजी भी जिन्हें सदा हृदय में छिपाए रखते हैं, वे
तुम्हारे नेत्रों के सामने आ गए हैं)॥2॥
*
सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥
करहु
जाइ जा कहुँ जोइ भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥3॥
भावार्थ:-समीप
आए हुए (भगवत्दजर्शन रूप) अमृत के समुद्र को छोड़कर तुम (जगज्जननी जानकी को पत्नी
रूप में पाने की दुराशा रूप मिथ्या) मृगजल को देखकर दौड़कर क्यों मरते हो? फिर (भाई!) जिसको जो अच्छा लगे, वही जाकर करो। हमने
तो (श्री रामचन्द्रजी के दर्शन करके) आज जन्म लेने का फल पा लिया (जीवन और जन्म को
सफल कर लिया)॥3॥
*
अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥
देखहिं
सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥4॥
भावार्थ:-ऐसा
कहकर अच्छे राजा प्रेम मग्न होकर श्री रामजी का अनुपम रूप देखने लगे। (मनुष्यों की
तो बात ही क्या) देवता लोग भी आकाश से विमानों पर चढ़े हुए दर्शन कर रहे हैं और
सुंदर गान करते हुए फूल बरसा रहे हैं॥4॥
श्री
सीताजी का यज्ञशाला में प्रवेश
दोहा
:
*
जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाइ।
चतुर
सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लिवाइ॥246॥
भावार्थ:-तब
सुअवसर जानकर जनकजी ने सीताजी को बुला भेजा। सब चतुर और सुंदर सखियाँ आरदपूर्वक
उन्हें लिवा चलीं॥246॥
चौपाई
:
*
सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥
उपमा
सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥1॥
भावार्थ:-रूप
और गुणों की खान जगज्जननी जानकीजी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता। उनके लिए मुझे
(काव्य की) सब उपमाएँ तुच्छ लगती हैं, क्योंकि वे लौकिक
स्त्रियों के अंगों से अनुराग रखने वाली हैं (अर्थात् वे जगत की स्त्रियों के
अंगों को दी जाती हैं)। (काव्य की उपमाएँ सब त्रिगुणात्मक, मायिक
जगत से ली गई हैं, उन्हें भगवान की स्वरूपा शक्ति श्री
जानकीजी के अप्राकृत, चिन्मय अंगों के लिए प्रयुक्त करना
उनका अपमान करना और अपने को उपहासास्पद बनाना है)॥1॥
*
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥
जौं
पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥2॥
भावार्थ:-सीताजी
के वर्णन में उन्हीं उपमाओं को देकर कौन कुकवि कहलाए और अपयश का भागी बने (अर्थात
सीताजी के लिए उन उपमाओं का प्रयोग करना सुकवि के पद से च्युत होना और अपकीर्ति
मोल लेना है,
कोई भी सुकवि ऐसी नादानी एवं अनुचित कार्य नहीं करेगा।) यदि किसी
स्त्री के साथ सीताजी की तुलना की जाए तो जगत में ऐसी सुंदर युवती है ही कहाँ
(जिसकी उपमा उन्हें दी जाए)॥2॥
*
गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥
बिष
बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥3॥
भावार्थ:-(पृथ्वी
की स्त्रियों की तो बात ही क्या, देवताओं की स्त्रियों को भी यदि
देखा जाए तो हमारी अपेक्षा कहीं अधिक दिव्य और सुंदर हैं, तो
उनमें) सरस्वती तो बहुत बोलने वाली हैं, पार्वती
अंर्द्धांगिनी हैं (अर्थात अर्ध-नारीनटेश्वर के रूप में उनका आधा ही अंग स्त्री का
है, शेष आधा अंग पुरुष-शिवजी का है), कामदेव
की स्त्री रति पति को बिना शरीर का (अनंग) जानकर बहुत दुःखी रहती है और जिनके विष
और मद्य-जैसे (समुद्र से उत्पन्न होने के नाते) प्रिय भाई हैं, उन लक्ष्मी के समान तो जानकीजी को कहा ही कैसे जाए॥3॥
*
जौं छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छपु सोई॥
सोभा
रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू॥4॥
भावार्थ:-(जिन
लक्ष्मीजी की बात ऊपर कही गई है, वे निकली थीं खारे समुद्र से,
जिसको मथने के लिए भगवान ने अति कर्कश पीठ वाले कच्छप का रूप धारण
किया, रस्सी बनाई गई महान विषधर वासुकि नाग की, मथानी का कार्य किया अतिशय कठोर मंदराचल पर्वत ने और उसे मथा सारे देवताओं
और दैत्यों ने मिलकर। जिन लक्ष्मी को अतिशय शोभा की खान और अनुपम सुंदरी कहते हैं,
उनको प्रकट करने में हेतु बने ये सब असुंदर एवं स्वाभाविक ही कठोर
उपकरण। ऐसे उपकरणों से प्रकट हुई लक्ष्मी श्री जानकीजी की समता को कैसे पा सकती
हैं। हाँ, (इसके विपरीत) यदि छबि रूपी अमृत का समुद्र हो,
परम रूपमय कच्छप हो, शोभा रूप रस्सी हो,
श्रृंगार (रस) पर्वत हो और (उस छबि के समुद्र को) स्वयं कामदेव अपने
ही करकमल से मथे,॥4॥
दोहा
:
*
एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
तदपि
सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥247॥
भावार्थ:-इस
प्रकार (का संयोग होने से) जब सुंदरता और सुख की मूल लक्ष्मी उत्पन्न हो, तो भी कवि लोग उसे (बहुत) संकोच के साथ सीताजी के समान कहेंगे॥247॥<
(जिस
सुंदरता के समुद्र को कामदेव मथेगा वह सुंदरता भी प्राकृत, लौकिक सुंदरता ही होगी, क्योंकि कामदेव स्वयं भी
त्रिगुणमयी प्रकृति का ही विकार है। अतः उस सुंदरता को मथकर प्रकट की हुई लक्ष्मी
भी उपर्युक्त लक्ष्मी की अपेक्षा कहीं अधिक सुंदर और दिव्य होने पर भी होगी
प्राकृत ही, अतः उसके साथ भी जानकीजी की तुलना करना कवि के
लिए बड़े संकोच की बात होगी। जिस सुंदरता से जानकीजी का दिव्यातिदिव्य परम दिव्य
विग्रह बना है, वह सुंदरता उपर्युक्त सुंदरता से भिन्न
अप्राकृत है- वस्तुतः लक्ष्मीजी का अप्राकृत रूप भी यही है। वह कामदेव के मथने में
नहीं आ सकती और वह जानकीजी का स्वरूप ही है, अतः उनसे भिन्न
नहीं और उपमा दी जाती है भिन्न वस्तु के साथ। इसके अतिरिक्त जानकीजी प्रकट हुई हैं
स्वयं अपनी महिमा से, उन्हें प्रकट करने के लिए किसी भिन्न
उपकरण की अपेक्षा नहीं है। अर्थात शक्ति शक्तिमान से अभिन्न, अद्वैत तत्व है, अतएव अनुपमेय है, यही गूढ़ दार्शनिक तत्व भक्त शिरोमणि कवि ने इस अभूतोपमालंकार के द्वारा
बड़ी सुंदरता से व्यक्त किया है।)
चौपाई
:
*
चलीं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥
सोह
नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥1॥
भावार्थ:-सयानी
सखियाँ सीताजी को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हुई चलीं। सीताजी के नवल शरीर
पर सुंदर साड़ी सुशोभित है। जगज्जननी की महान छबि अतुलनीय है॥1॥
*
भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए॥
रंगभूमि
जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥2॥
भावार्थ:-सब
आभूषण अपनी-अपनी जगह पर शोभित हैं, जिन्हें सखियों ने
अंग-अंग में भलीभाँति सजाकर पहनाया है। जब सीताजी ने रंगभूमि में पैर रखा, तब उनका (दिव्य) रूप देखकर स्त्री, पुरुष सभी मोहित
हो गए॥2॥
*हरषि
सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि प्रसून अपछरा गाईं॥
पानि
सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥3॥
भावार्थ:-देवताओं
ने हर्षित होकर नगाड़े बजाए और पुष्प बरसाकर अप्सराएँ गाने लगीं। सीताजी के करकमलों
में जयमाला सुशोभित है। सब राजा चकित होकर अचानक उनकी ओर देखने लगे॥3॥
*
सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥
मुनि
समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥4॥
भावार्थ:-सीताजी
चकित चित्त से श्री रामजी को देखने लगीं, तब सब राजा लोग मोह
के वश हो गए। सीताजी ने मुनि के पास (बैठे हुए) दोनों भाइयों को देखा तो उनके
नेत्र अपना खजाना पाकर ललचाकर वहीं (श्री रामजी में) जा लगे (स्थिर हो गए)॥4॥
दोहा
:
*
गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि।
लागि
बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥248॥
भावार्थ:-परन्तु
गुरुजनों की लाज से तथा बहुत बड़े समाज को देखकर सीताजी सकुचा गईं। वे श्री
रामचन्द्रजी को हृदय में लाकर सखियों की ओर देखने लगीं॥248॥
चौपाई
:
*
राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥
सोचहिं
सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी का रूप और सीताजी की छबि देखकर स्त्री-पुरुषों ने पलक मारना छोड़ दिया
(सब एकटक उन्हीं को देखने लगे)। सभी अपने मन में सोचते हैं, पर कहते सकुचाते हैं। मन ही मन वे विधाता से विनय करते हैं-॥1॥
*
हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥
बिनु
बिचार पनु तजि नरनाहू। सीय राम कर करै बिबाहू॥2॥
भावार्थ:-हे
विधाता! जनक की मूढ़ता को शीघ्र हर लीजिए और हमारी ही ऐसी सुंदर बुद्धि उन्हें
दीजिए कि जिससे बिना ही विचार किए राजा अपना प्रण छोड़कर सीताजी का विवाह रामजी से
कर दें॥2॥
*जगु
भल कहिहि भाव सब काहू। हठ कीन्हें अंतहुँ उर दाहू॥
एहिं
लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥3॥
भावार्थ:-संसार
उन्हें भला कहेगा,
क्योंकि यह बात सब किसी को अच्छी लगती है। हठ करने से अंत में भी
हृदय जलेगा। सब लोग इसी लालसा में मग्न हो रहे हैं कि जानकीजी के योग्य वर तो यह
साँवला ही है॥3॥
बंदीजनों
द्वारा जनकप्रतिज्ञा की घोषणा राजाओं से धनुष न उठना, जनक की निराशाजनक वाणी
*
तब बंदीजन जनक बोलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥
कह
नृपु जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥4॥
भावार्थ:-तब
राजा जनक ने वंदीजनों (भाटों) को बुलाया। वे विरुदावली (वंश की कीर्ति) गाते हुए
चले आए। राजा ने कहा- जाकर मेरा प्रण सबसे कहो। भाट चले, उनके हृदय में कम आनंद न था॥4॥
दोहा
:
*
बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
पन
बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥249॥
भावार्थ:-भाटों
ने श्रेष्ठ वचन कहा- हे पृथ्वी की पालना करने वाले सब राजागण! सुनिए। हम अपनी भुजा
उठाकर जनकजी का विशाल प्रण कहते हैं-॥249॥
चौपाई
:
*
नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥
रावनु
बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥1॥
भावार्थ:-राजाओं
की भुजाओं का बल चन्द्रमा है, शिवजी का धनुष राहु है, वह भारी है, कठोर है, यह सबको
विदित है। बड़े भारी योद्धा रावण और बाणासुर भी इस धनुष को देखकर गौं से (चुपके से)
चलते बने (उसे उठाना तो दूर रहा, छूने तक की हिम्मत न
हुई)॥1॥
*
सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥
त्रिभुवन
जय समेत बैदेही। बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥2॥
भावार्थ:-उसी
शिवजी के कठोर धनुष को आज इस राज समाज में जो भी तोड़ेगा, तीनों लोकों की विजय के साथ ही उसको जानकीजी बिना किसी विचार के हठपूर्वक
वरण करेंगी॥2॥
*
सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥
परिकर
बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्ट देवन्ह सिर नाई॥3॥
भावार्थ:-प्रण
सुनकर सब राजा ललचा उठे। जो वीरता के अभिमानी थे, वे मन में
बहुत ही तमतमाए। कमर कसकर अकुलाकर उठे और अपने इष्टदेवों को सिर नवाकर चले॥3॥
*
तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥
जिन्ह
के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥4॥
भावार्थ:-वे
तमककर (बड़े ताव से) शिवजी के धनुष की ओर देखते हैं और फिर निगाह जमाकर उसे पकड़ते
हैं,
करोड़ों भाँति से जोर लगाते हैं, पर वह उठता ही
नहीं। जिन राजाओं के मन में कुछ विवेक है, वे तो धनुष के पास
ही नहीं जाते॥4॥
दोहा
:
*
तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ॥
मनहुँ
पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥250॥
भावार्थ:-वे
मूर्ख राजा तमककर (किटकिटाकर) धनुष को पकड़ते हैं, परन्तु जब
नहीं उठता तो लजाकर चले जाते हैं, मानो वीरों की भुजाओं का
बल पाकर वह धनुष अधिक-अधिक भारी होता जाता है॥250॥
चौपाई
:
*
भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
डगइ
न संभु सरासनु कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥1॥
भावार्थ:-तब
दस हजार राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगे, तो भी वह उनके टाले
नहीं टलता। शिवजी का वह धनुष कैसे नहीं डिगता था, जैसे कामी
पुरुष के वचनों से सती का मन (कभी) चलायमान नहीं होता॥1॥
*
सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥
कीरति
बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥2॥
भावार्थ:-सब
राजा उपहास के योग्य हो गए,
जैसे वैराग्य के बिना संन्यासी उपहास के योग्य हो जाता है। कीर्ति,
विजय, बड़ी वीरता- इन सबको वे धनुष के हाथों
बरबस हारकर चले गए॥2॥
*
श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥
नृपन्ह
बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥3॥
भावार्थ:-राजा
लोग हृदय से हारकर श्रीहीन (हतप्रभ) हो गए और अपने-अपने समाज में जा बैठे। राजाओं
को (असफल) देखकर जनक अकुला उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोध में सने हुए थे॥3॥
*
दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनिहम जो पनु ठाना॥
देव
दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥4॥
भावार्थ:-मैंने
जो प्रण ठाना था,
उसे सुनकर द्वीप-द्वीप के अनेकों राजा आए। देवता और दैत्य भी मनुष्य
का शरीर धारण करके आए तथा और भी बहुत से रणधीर वीर आए॥4॥
दोहा
:
*
कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरतिअति कमनीय।
पावनिहार
बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥251॥
भावार्थ:-परन्तु
धनुष को तोड़कर मनोहर कन्या,
बड़ी विजय और अत्यन्त सुंदर कीर्ति को पाने वाला मानो ब्रह्मा ने
किसी को रचा ही नहीं॥251॥
चौपाई
:
*
कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥
रहउ
चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥1॥
भावार्थ:-कहिए, यह लाभ किसको अच्छा नहीं लगता, परन्तु किसी ने भी
शंकरजी का धनुष नहीं चढ़ाया। अरे भाई! चढ़ाना और तोड़ना तो दूर रहा, कोई तिल भर भूमि भी छुड़ा न सका॥1॥
*
अब जनि कोउ भाखे भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
तजहु
आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥2॥
भावार्थ:-अब
कोई वीरता का अभिमानी नाराज न हो। मैंने जान लिया, पृथ्वी
वीरों से खाली हो गई। अब आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाओ, ब्रह्मा
ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं॥2॥
*
सुकृतु जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआँरि रहउ का करऊँ॥
जौं
जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥3॥
भावार्थ:-यदि
प्रण छोड़ता हूँ,
तो पुण्य जाता है, इसलिए क्या करूँ, कन्या कुँआरी ही रहे। यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरों से शून्य है, तो प्रण करके उपहास का पात्र न बनता॥3॥
श्री
लक्ष्मणजी का क्रोध
*
जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥
माखे
लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥4॥
भावार्थ:-जनक
के वचन सुनकर सभी स्त्री-पुरुष जानकीजी की ओर देखकर दुःखी हुए, परन्तु लक्ष्मणजी तमतमा उठे, उनकी भौंहें टेढ़ी हो
गईं, होठ फड़कने लगे और नेत्र क्रोध से लाल हो गए॥4॥
दोहा
:
*
कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
नाइ
राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥252॥
भावार्थ:-श्री
रघुवीरजी के डर से कुछ कह तो सकते नहीं, पर जनक के वचन
उन्हें बाण से लगे। (जब न रह सके तब) श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाकर
वे यथार्थ वचन बोले-॥252॥
चौपाई
:
*
रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥
कही
जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥1॥
भावार्थ:-रघुवंशियों
में कोई भी जहाँ होता है,
उस समाज में ऐसे वचन कोई नहीं कहता, जैसे
अनुचित वचन रघुकुल शिरोमणि श्री रामजी को उपस्थित जानते हुए भी जनकजी ने कहे
हैं॥1॥
*
सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥
जौं
तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥2॥
भावार्थ:-हे
सूर्य कुल रूपी कमल के सूर्य! सुनिए, मैं स्वभाव ही से
कहता हूँ, कुछ अभिमान करके नहीं, यदि
आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं ब्रह्माण्ड को गेंद की तरह उठा
लूँ॥2॥
*काचे
घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥
तव
प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥3॥
भावार्थ:-और
उसे कच्चे घड़े की तरह फोड़ डालूँ। मैं सुमेरु पर्वत को मूली की तरह तोड़ सकता हूँ, हे भगवन्! आपके प्रताप की महिमा से यह बेचारा पुराना धनुष तो कौन चीज
है॥3॥
*
नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥
कमल
नाल जिमि चाप चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥4॥
भावार्थ:-ऐसा
जानकर हे नाथ! आज्ञा हो तो कुछ खेल करूँ, उसे भी देखिए। धनुष
को कमल की डंडी की तरह चढ़ाकर उसे सौ योजन तक दौड़ा लिए चला जाऊँ॥4॥
दोहा
:
*
तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
जौं
न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥253॥
भावार्थ:-हे
नाथ! आपके प्रताप के बल से धनुष को कुकुरमुत्ते (बरसाती छत्ते) की तरह तोड़ दूँ।
यदि ऐसा न करूँ तो प्रभु के चरणों की शपथ है, फिर मैं धनुष और
तरकस को कभी हाथ में भी न लूँगा॥253॥
चौपाई
:
*
लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥
सकल
लोग सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥1॥
भावार्थ:-ज्यों
ही लक्ष्मणजी क्रोध भरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओं के हाथी काँप गए।
सभी लोग और सब राजा डर गए। सीताजी के हृदय में हर्ष हुआ और जनकजी सकुचा गए॥1॥
*
गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥
सयनहिं
रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥2॥
भावार्थ:-गुरु
विश्वामित्रजी,
श्री रघुनाथजी और सब मुनि मन में प्रसन्न हुए और बार-बार पुलकित
होने लगे। श्री रामचन्द्रजी ने इशारे से लक्ष्मण को मना किया और प्रेम सहित अपने
पास बैठा लिया॥2॥
*
बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥
उठहु
राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥3॥
भावार्थ:-विश्वामित्रजी
शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी बोले- हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोड़ो और हे तात! जनक का संताप मिटाओ॥3॥
*
सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
ठाढ़े
भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥4॥
भावार्थ:-गुरु
के वचन सुनकर श्री रामजी ने चरणों में सिर नवाया। उनके मन में न हर्ष हुआ, न विषाद और वे अपनी ऐंड़ (खड़े होने की शान) से जवान सिंह को भी लजाते हुए
सहज स्वभाव से ही उठ खड़े हुए ॥4॥
दोहा
:
*
उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।
बिकसे
संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥254॥
भावार्थ:-मंच
रूपी उदयाचल पर रघुनाथजी रूपी बाल सूर्य के उदय होते ही सब संत रूपी कमल खिल उठे
और नेत्र रूपी भौंरे हर्षित हो गए॥254॥
चौपाई
:
*
नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥
मानी
महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥1॥
भावार्थ:-राजाओं
की आशा रूपी रात्रि नष्ट हो गई। उनके वचन रूपी तारों के समूह का चमकना बंद हो गया।
(वे मौन हो गए)। अभिमानी राजा रूपी कुमुद संकुचित हो गए और कपटी राजा रूपी उल्लू
छिप गए॥1॥
*
भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥
गुर
पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्हसन आयसु मागा॥2॥
भावार्थ:-मुनि
और देवता रूपी चकवे शोकरहित हो गए। वे फूल बरसाकर अपनी सेवा प्रकट कर रहे हैं।
प्रेम सहित गुरु के चरणों की वंदना करके श्री रामचन्द्रजी ने मुनियों से आज्ञा
माँगी॥2॥
*
सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥
चलत
राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥3॥
भावार्थ:-समस्त
जगत के स्वामी श्री रामजी सुंदर मतवाले श्रेष्ठ हाथी की सी चाल से स्वाभाविक ही
चले। श्री रामचन्द्रजी के चलते ही नगर भर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो गए और उनके
शरीर रोमांच से भर गए॥3॥
*
बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥
तौ
सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं॥4॥
भावार्थ:-उन्होंने
पितर और देवताओं की वंदना करके अपने पुण्यों का स्मरण किया। यदि हमारे पुण्यों का
कुछ भी प्रभाव हो,
तो हे गणेश गोसाईं! रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को कमल की डंडी की
भाँति तोड़ डालें॥4॥
दोहा
:
*
रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता
मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥255॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी को (वात्सल्य) प्रेम के साथ देखकर और सखियों को समीप बुलाकर सीताजी की
माता स्नेहवश बिलखकर (विलाप करती हुई सी) ये वचन बोलीं-॥255॥
चौपाई
:
*
सखि सब कौतुक देख निहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥
कोउ
न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥1॥
भावार्थ:-हे
सखी! ये जो हमारे हितू कहलाते हैं, वे भी सब तमाशा
देखने वाले हैं। कोई भी (इनके) गुरु विश्वामित्रजी को समझाकर नहीं कहता कि ये
(रामजी) बालक हैं, इनके लिए ऐसा हठ अच्छा नहीं। (जो धनुष
रावण और बाण- जैसे जगद्विजयी वीरों के हिलाए न हिल सका, उसे
तोड़ने के लिए मुनि विश्वामित्रजी का रामजी को आज्ञा देना और रामजी का उसे तोड़ने के
लिए चल देना रानी को हठ जान पड़ा, इसलिए वे कहने लगीं कि गुरु
विश्वामित्रजी को कोई समझाता भी नहीं)॥1॥
*
रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥
सो
धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं॥2॥
भावार्थ:-रावण
और बाणासुर ने जिस धनुष को छुआ तक नहीं और सब राजा घमंड करके हार गए, वही धनुष इस सुकुमार राजकुमार के हाथ में दे रहे हैं। हंस के बच्चे भी
कहीं मंदराचल पहाड़ उठा सकते हैं?॥2॥
*
भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥
बोली
चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥3॥
भावार्थ:-(और
तो कोई समझाकर कहे या नहीं,
राजा तो बड़े समझदार और ज्ञानी हैं, उन्हें तो
गुरु को समझाने की चेष्टा करनी चाहिए थी, परन्तु मालूम होता
है-) राजा का भी सारा सयानापन समाप्त हो गया। हे सखी! विधाता की गति कुछ जानने में
नहीं आती (यों कहकर रानी चुप हो रहीं)। तब एक चतुर (रामजी के महत्व को जानने वाली)
सखी कोमल वाणी से बोली- हे रानी! तेजवान को (देखने में छोटा होने पर भी) छोटा नहीं
गिनना चाहिए॥3॥
*
कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
रबि
मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥4॥
भावार्थ:-कहाँ
घड़े से उत्पन्न होने वाले (छोटे से) मुनि अगस्त्य और कहाँ समुद्र? किन्तु उन्होंने उसे सोख लिया, जिसका सुयश सारे
संसार में छाया हुआ है। सूर्यमंडल देखने में छोटा लगता है, पर
उसके उदय होते ही तीनों लोकों का अंधकार भाग जाता है॥4॥
दोहा
:
*
मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
महामत्त
गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥256॥
भावार्थ:-जिसके
वश में ब्रह्मा,
विष्णु, शिव और सभी देवता हैं, वह मंत्र अत्यन्त छोटा होता है। महान मतवाले गजराज को छोटा सा अंकुश वश
में कर लेता है॥256॥
चौपाई
:
*
काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपनें बस कीन्हे॥
देबि
तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुषु राम सुनु रानी॥1॥
भावार्थ:-कामदेव
ने फूलों का ही धनुष-बाण लेकर समस्त लोकों को अपने वश में कर रखा है। हे देवी! ऐसा
जानकर संदेह त्याग दीजिए। हे रानी! सुनिए, रामचन्द्रजी धनुष
को अवश्य ही तोड़ेंगे॥1॥
*
सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥
तब
रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥2॥
भावार्थ:-सखी
के वचन सुनकर रानी को (श्री रामजी के सामर्थ्य के संबंध में) विश्वास हो गया। उनकी
उदासी मिट गई और श्री रामजी के प्रति उनका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया। उस समय श्री
रामचन्द्रजी को देखकर सीताजी भयभीत हृदय से जिस-तिस (देवता) से विनती कर रही
हैं॥2॥
*
मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी॥
करहु
सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई॥3॥
भावार्थ:-वे
व्याकुल होकर मन ही मन मना रही हैं- हे महेश-भवानी! मुझ पर प्रसन्न होइए, मैंने आपकी जो सेवा की है, उसे सुफल कीजिए और मुझ पर
स्नेह करके धनुष के भारीपन को हर लीजिए॥3॥
*
गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥
बार
बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥4॥
भावार्थ:-
हे गणों के नायक,
वर देने वाले देवता गणेशजी! मैंने आज ही के लिए तुम्हारी सेवा की
थी। बार-बार मेरी विनती सुनकर धनुष का भारीपन बहुत ही कम कर दीजिए॥4॥
दोहा
:
*
देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर।
भरे
बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥257॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी की ओर देख-देखकर सीताजी धीरज धरकर देवताओं को मना रही हैं। उनके नेत्रों
में प्रेम के आँसू भरे हैं और शरीर में रोमांच हो रहा है॥257॥
चौपाई
:
*
नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥
अहह
तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥1॥
भावार्थ:-अच्छी
तरह नेत्र भरकर श्री रामजी की शोभा देखकर, फिर पिता के प्रण
का स्मरण करके सीताजी का मन क्षुब्ध हो उठा। (वे मन ही मन कहने लगीं-) अहो! पिताजी
ने बड़ा ही कठिन हठ ठाना है, वे लाभ-हानि कुछ भी नहीं समझ रहे
हैं॥1॥
*
सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई॥
कहँ
धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥2॥
भावार्थ:-मंत्री
डर रहे हैं,
इसलिए कोई उन्हें सीख भी नहीं देता, पंडितों
की सभा में यह बड़ा अनुचित हो रहा है। कहाँ तो वज्र से भी बढ़कर कठोर धनुष और कहाँ
ये कोमल शरीर किशोर श्यामसुंदर!॥2॥
*
बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥
सकल
सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥3॥
भावार्थ:-हे
विधाता! मैं हृदय में किस तरह धीरज धरूँ, सिरस के फूल के कण
से कहीं हीरा छेदा जाता है। सारी सभा की बुद्धि भोली (बावली) हो गई है, अतः हे शिवजी के धनुष! अब तो मुझे तुम्हारा ही आसरा है॥3॥
*
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥
अति
परिताप सीय मन माहीं। लव निमेष जुग सय सम जाहीं॥4॥
भावार्थ:-तुम
अपनी जड़ता लोगों पर डालकर,
श्री रघुनाथजी (के सुकुमार शरीर) को देखकर (उतने ही) हल्के हो जाओ।
इस प्रकार सीताजी के मन में बड़ा ही संताप हो रहा है। निमेष का एक लव (अंश) भी सौ
युगों के समान बीत रहा है॥4॥
दोहा
:
*
प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
खेलत
मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥258॥
भावार्थ:-प्रभु
श्री रामचन्द्रजी को देखकर फिर पृथ्वी की ओर देखती हुई सीताजी के चंचल नेत्र इस
प्रकार शोभित हो रहे हैं,
मानो चन्द्रमंडल रूपी डोल में कामदेव की दो मछलियाँ खेल रही
हों॥258॥
चौपाई
:
*
गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
लोचन
जलु रह लोचन कोना। जैसें परम कृपन कर सोना॥1॥
भावार्थ:-सीताजी
की वाणी रूपी भ्रमरी को उनके मुख रूपी कमल ने रोक रखा है। लाज रूपी रात्रि को
देखकर वह प्रकट नहीं हो रही है। नेत्रों का जल नेत्रों के कोने (कोये) में ही रह
जाता है। जैसे बड़े भारी कंजूस का सोना कोने में ही गड़ा रह जाता है॥1॥
*
सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धींरजु प्रतीति उर आनी॥
तन
मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥2॥
भावार्थ:-अपनी
बढ़ी हुई व्याकुलता जानकर सीताजी सकुचा गईं और धीरज धरकर हृदय में विश्वास ले आईं
कि यदि तन,
मन और वचन से मेरा प्रण सच्चा है और श्री रघुनाथजी के चरण कमलों में
मेरा चित्त वास्तव में अनुरक्त है,॥2॥
*
तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥
जेहि
कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥3॥
भावार्थ:-तो
सबके हृदय में निवास करने वाले भगवान मुझे रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी की दासी
अवश्य बनाएँगे। जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे
मिलता ही है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है॥3॥
*
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥
सियहि
बिलोकि तकेउ धनु कैसें। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥4॥
भावार्थ:-प्रभु
की ओर देखकर सीताजी ने शरीर के द्वारा प्रेम ठान लिया (अर्थात् यह निश्चय कर लिया
कि यह शरीर इन्हीं का होकर रहेगा या रहेगा ही नहीं) कृपानिधान श्री रामजी सब जान
गए। उन्होंने सीताजी को देखकर धनुष की ओर कैसे ताका, जैसे गरुड़जी
छोटे से साँप की ओर देखते हैं॥4॥
दोहा
:
*
लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।
पुलकि
गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥259॥
भावार्थ:-इधर
जब लक्ष्मणजी ने देखा कि रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी ने शिवजी के धनुष की ओर ताका
है,
तो वे शरीर से पुलकित हो ब्रह्माण्ड को चरणों से दबाकर निम्नलिखित
वचन बोले-॥259॥
चौपाई
:
*दिसिकुंजरहु
कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥
रामु
चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥1॥
भावार्थ:-हे
दिग्गजो! हे कच्छप! हे शेष! हे वाराह! धीरज धरकर पृथ्वी को थामे रहो, जिससे यह हिलने न पावे। श्री रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को तोड़ना चाहते
हैं। मेरी आज्ञा सुनकर सब सावधान हो जाओ॥1॥
*
चाप समीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥
सब
कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥2॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी जब धनुष के समीप आए, तब सब स्त्री-पुरुषों ने
देवताओं और पुण्यों को मनाया। सबका संदेह और अज्ञान, नीच
राजाओं का अभिमान,॥2॥
*
भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥
सिय
कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥3॥
भावार्थ:-परशुरामजी
के गर्व की गुरुता,
देवता और श्रेष्ठ मुनियों की कातरता (भय), सीताजी
का सोच, जनक का पश्चाताप और रानियों के दारुण दुःख का दावानल,॥3॥
*
संभुचाप बड़ बोहितु पाई। चढ़े जाइ सब संगु बनाई॥
राम
बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहिं कोउ कड़हारू॥4॥
भावार्थ:-ये
सब शिवजी के धनुष रूपी बड़े जहाज को पाकर, समाज बनाकर उस पर
जा चढ़े। ये श्री रामचन्द्रजी की भुजाओं के बल रूपी अपार समुद्र के पार जाना चाहते
हैं, परन्तु कोई केवट नहीं है॥4॥
जयमाला
पहनाना,
परशुराम का आगमन व क्रोध
दोहा
:
*
बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
करहिं
निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥262॥
भावार्थ:-धीर
बुद्धि वाले,
भाट, मागध और सूत लोग विरुदावली (कीर्ति) का
बखान कर रहे हैं। सब लोग घोड़े, हाथी, धन,
मणि और वस्त्र निछावर कर रहे हैं॥262॥
चौपाई
:
*
झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥
बाजहिं
बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥1॥
भावार्थ:-झाँझ, मृदंग, शंख, शहनाई, भेरी, ढोल और सुहावने नगाड़े आदि बहुत प्रकार के
सुंदर बाजे बज रहे हैं। जहाँ-तहाँ युवतियाँ मंगल गीत गा रही हैं॥1॥
*
सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥
जनक
लहेउ सुखु सोचु बिहाई। तैरत थकें थाह जनु पाई॥2॥
भावार्थ:-सखियों
सहित रानी अत्यन्त हर्षित हुईं, मानो सूखते हुए धान पर पानी पड़
गया हो। जनकजी ने सोच त्याग कर सुख प्राप्त किया। मानो तैरते-तैरते थके हुए पुरुष
ने थाह पा ली हो॥2॥
*
श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥
सीय
सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥3॥
भावार्थ:-धनुष
टूट जाने पर राजा लोग ऐसे श्रीहीन (निस्तेज) हो गए, जैसे दिन
में दीपक की शोभा जाती रहती है। सीताजी का सुख किस प्रकार वर्णन किया जाए, जैसे चातकी स्वाती का जल पा गई हो॥3॥
*
रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥
सतानंद
तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥4॥
भावार्थ:-श्री
रामजी को लक्ष्मणजी किस प्रकार देख रहे हैं, जैसे चन्द्रमा को
चकोर का बच्चा देख रहा हो। तब शतानंदजी ने आज्ञा दी और सीताजी ने श्री रामजी के
पास गमन किया॥4॥
दोहा
:
*
संग सखीं सुंदर चतुर गावहिं मंगलचार।
गवनी
बाल मराल गति सुषमा अंग अपार॥263॥
भावार्थ:-साथ
में सुंदर चतुर सखियाँ मंगलाचार के गीत गा रही हैं, सीताजी
बालहंसिनी की चाल से चलीं। उनके अंगों में अपार शोभा है॥263॥
चौपाई
:
*
सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसें। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥
कर
सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥1॥
भावार्थ:-सखियों
के बीच में सीताजी कैसी शोभित हो रही हैं, जैसे बहुत सी
छवियों के बीच में महाछवि हो। करकमल में सुंदर जयमाला है, जिसमें
विश्व विजय की शोभा छाई हुई है॥1॥
*
तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
जाइ
समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुअँरि चित्र अवरेखी॥2॥
भावार्थ:-सीताजी
के शरीर में संकोच है,
पर मन में परम उत्साह है। उनका यह गुप्त प्रेम किसी को जान नहीं पड़
रहा है। समीप जाकर, श्री रामजी की शोभा देखकर राजकुमारी
सीताजी जैसे चित्र में लिखी सी रह गईं॥2॥
*
चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
सुनत
जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥3॥
भावार्थ:-चतुर
सखी ने यह दशा देखकर समझाकर कहा- सुहावनी जयमाला पहनाओ। यह सुनकर सीताजी ने दोनों
हाथों से माला उठाई,
पर प्रेम में विवश होने से पहनाई नहीं जाती॥3॥
*
सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥
गावहिं
छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥4॥
भावार्थ:-(उस
समय उनके हाथ ऐसे सुशोभित हो रहे हैं) मानो डंडियों सहित दो कमल चन्द्रमा को डरते
हुए जयमाला दे रहे हों। इस छवि को देखकर सखियाँ गाने लगीं। तब सीताजी ने श्री
रामजी के गले में जयमाला पहना दी॥4॥
सोरठा
:
*
रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
सकुचे
सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥264॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी के हृदय पर जयमाला देखकर देवता फूल बरसाने लगे। समस्त राजागण इस प्रकार
सकुचा गए मानो सूर्य को देखकर कुमुदों का समूह सिकुड़ गया हो॥264॥
चौपाई
:
*
पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥
सुर
किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥1॥
भावार्थ:-नगर
और आकाश में बाजे बजने लगे। दुष्ट लोग उदास हो गए और सज्जन लोग सब प्रसन्न हो गए।
देवता,
किन्नर, मनुष्य, नाग और
मुनीश्वर जय-जयकार करके आशीर्वाद दे रहे हैं॥1॥
*
नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं॥
जहँ
तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरिदावलि उच्चरहीं॥2॥
भावार्थ:-देवताओं
की स्त्रियाँ नाचती-गाती हैं। बार-बार हाथों से पुष्पों की अंजलियाँ छूट रही हैं।
जहाँ-तहाँ ब्रह्म वेदध्वनि कर रहे हैं और भाट लोग विरुदावली (कुलकीर्ति) बखान रहे
हैं॥2॥
*
महिं पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा॥
करहिं
आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥3॥
भावार्थ:-पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग तीनों लोकों में यश फैल गया कि श्री रामचन्द्रजी ने धनुष
तोड़ दिया और सीताजी को वरण कर लिया। नगर के नर-नारी आरती कर रहे हैं और अपनी पूँजी
(हैसियत) को भुलाकर (सामर्थ्य से बहुत अधिक) निछावर कर रहे हैं॥3॥
*
सोहति सीय राम कै जोरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी॥
सखीं
कहहिं प्रभु पद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥4॥
भावार्थ:-श्री
सीता-रामजी की जोड़ी ऐसी सुशोभित हो रही है मानो सुंदरता और श्रृंगार रस एकत्र हो
गए हों। सखियाँ कह रही हैं- सीते! स्वामी के चरण छुओ, किन्तु सीताजी अत्यन्त भयभीत हुई उनके चरण नहीं छूतीं॥4॥
दोहा
:
*
गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
मन
बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥265॥
भावार्थ:-गौतमजी
की स्त्री अहल्या की गति का स्मरण करके सीताजी श्री रामजी के चरणों को हाथों से
स्पर्श नहीं कर रही हैं। सीताजी की अलौकिक प्रीति जानकर रघुकुल मणि श्री
रामचन्द्रजी मन में हँसे॥265॥
चौपाई
:
*
तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥
उठि
उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥1॥
भावार्थ:-उस
समय सीताजी को देखकर कुछ राजा लोग ललचा उठे। वे दुष्ट, कुपूत और मूढ़ राजा मन में बहुत तमतमाए। वे अभागे उठ-उठकर, कवच पहनकर, जहाँ-तहाँ गाल बजाने लगे॥1॥
*
लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥
तोरें
धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥2॥
भावार्थ:-कोई
कहते हैं,
सीता को छीन लो और दोनों राजकुमारों को पकड़कर बाँध लो। धनुष तोड़ने
से ही चाह नहीं सरेगी (पूरी होगी)। हमारे जीते-जी राजकुमारी को कौन ब्याह सकता है?॥2॥
*
जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥
साधु
भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥3॥
भावार्थ:-यदि
जनक कुछ सहायता करें,
तो युद्ध में दोनों भाइयों सहित उसे भी जीत लो। ये वचन सुनकर साधु
राजा बोले- इस (निर्लज्ज) राज समाज को देखकर तो लाज भी लजा गई॥3॥
*
बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई॥
सोइ
सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुँह मसि लाई॥4॥
भावार्थ:-अरे!
तुम्हारा बल,
प्रताप, वीरता, बड़ाई और
नाक (प्रतिष्ठा) तो धनुष के साथ ही चली गई। वही वीरता थी कि अब कहीं से मिली है?
ऐसी दुष्ट बुद्धि है, तभी तो विधाता ने
तुम्हारे मुखों पर कालिख लगा दी॥4॥
दोहा
:
*
देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।।
लखन
रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥266॥
भावार्थ:-ईर्षा, घमंड और क्रोध छोड़कर नेत्र भरकर श्री रामजी (की छबि) को देख लो। लक्ष्मण
के क्रोध को प्रबल अग्नि जानकर उसमें पतंगे मत बनो॥266॥
चौपाई
:
*बैनतेय
बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥
जिमि
चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही॥1॥
भावार्थ:-जैसे
गरुड़ का भाग कौआ चाहे,
सिंह का भाग खरगोश चाहे, बिना कारण ही क्रोध
करने वाला अपनी कुशल चाहे, शिवजी से विरोध करने वाला सब
प्रकार की सम्पत्ति चाहे,॥1॥
*
लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई॥
हरि
पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥2॥
भावार्थ:-लोभी-लालची
सुंदर कीर्ति चाहे,
कामी मनुष्य निष्कलंकता (चाहे तो) क्या पा सकता है? और जैसे श्री हरि के चरणों से विमुख मनुष्य परमगति (मोक्ष) चाहे, हे राजाओं! सीता के लिए तुम्हारा लालच भी वैसा ही व्यर्थ है॥2॥
*
कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥
रामु
सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥3॥
भावार्थ:-कोलाहल
सुनकर सीताजी शंकित हो गईं। तब सखियाँ उन्हें वहाँ ले गईं, जहाँ रानी (सीताजी की माता) थीं। श्री रामचन्द्रजी मन में सीताजी के प्रेम
का बखान करते हुए स्वाभाविक चाल से गुरुजी के पास चले॥3॥
*रानिन्ह
सहित सोच बस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥
भूप
बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥4॥
भावार्थ:-रानियों
सहित सीताजी (दुष्ट राजाओं के दुर्वचन सुनकर) सोच के वश हैं कि न जाने विधाता अब
क्या करने वाले हैं। राजाओं के वचन सुनकर लक्ष्मणजी इधर-उधर ताकते हैं, किन्तु श्री रामचन्द्रजी के डर से कुछ बोल नहीं सकते॥4॥
दोहा
:
*
अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
मनहुँ
मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप॥267॥
भावार्थ:-
उनके नेत्र लाल और भौंहें टेढ़ी हो गईं और वे क्रोध से राजाओं की ओर देखने लगे, मानो मतवाले हाथियों का झुंड देखकर सिंह के बच्चे को जोश आ गया हो॥267॥
चौपाई
:
*
खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥
तेहिं
अवसर सुनि सिवधनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥1॥
भावार्थ:-खलबली
देखकर जनकपुरी की स्त्रियाँ व्याकुल हो गईं और सब मिलकर राजाओं को गालियाँ देने
लगीं। उसी मौके पर शिवजी के धनुष का टूटना सुनकर भृगुकुल रूपी कमल के सूर्य
परशुरामजी आए॥1॥
*
देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
गौरि
सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा॥2॥
भावार्थ:-इन्हें
देखकर सब राजा सकुचा गए,
मानो बाज के झपटने पर बटेर लुक (छिप) गए हों। गोरे शरीर पर विभूति
(भस्म) बड़ी फब रही है और विशाल ललाट पर त्रिपुण्ड्र विशेष शोभा दे रहा है॥2॥
*
सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिस बस कछुक अरुन होइ आवा॥
भृकुटी
कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥3॥
भावार्थ:-सिर
पर जटा है,
सुंदर मुखचन्द्र क्रोध के कारण कुछ लाल हो आया है। भौंहें टेढ़ी और
आँखें क्रोध से लाल हैं। सहज ही देखते हैं, तो भी ऐसा जान
पड़ता है मानो क्रोध कर रहे हैं॥3॥
*
बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥
कटि
मुनिबसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥4॥
भावार्थ:-बैल
के समान (ऊँचे और पुष्ट) कंधे हैं, छाती और भुजाएँ
विशाल हैं। सुंदर यज्ञोपवीत धारण किए, माला पहने और मृगचर्म
लिए हैं। कमर में मुनियों का वस्त्र (वल्कल) और दो तरकस बाँधे हैं। हाथ में
धनुष-बाण और सुंदर कंधे पर फरसा धारण किए हैं॥4॥
दोहा
:
*
सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरूप।
धरि
मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥268॥
भावार्थ:-शांत
वेष है,
परन्तु करनी बहुत कठोर हैं, स्वरूप का वर्णन
नहीं किया जा सकता। मानो वीर रस ही मुनि का शरीर धारण करके, जहाँ
सब राजा लोग हैं, वहाँ आ गया हो॥268॥
चौपाई
:
*
देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥
पितु
समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥1॥
भावार्थ:-परशुरामजी
का भयानक वेष देखकर सब राजा भय से व्याकुल हो उठ खड़े हुए और पिता सहित अपना नाम
कह-कहकर सब दंडवत प्रणाम करने लगे॥1॥
*
जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥
जनक
बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥2॥
भावार्थ:-परशुरामजी
हित समझकर भी सहज ही जिसकी ओर देख लेते हैं, वह समझता है मानो
मेरी आयु पूरी हो गई। फिर जनकजी ने आकर सिर नवाया और सीताजी को बुलाकर प्रणाम
कराया॥2॥
*
आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गईं सयानीं॥
बिस्वामित्रु
मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥3॥
भावार्थ:-परशुरामजी
ने सीताजी को आशीर्वाद दिया। सखियाँ हर्षित हुईं और (वहाँ अब अधिक देर ठहरना ठीक न
समझकर) वे सयानी सखियाँ उनको अपनी मंडली में ले गईं। फिर विश्वामित्रजी आकर मिले
और उन्होंने दोनों भाइयों को उनके चरण कमलों पर गिराया॥3॥
*
रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥
रामहि
चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥4॥
भावार्थ:-(विश्वामित्रजी
ने कहा-) ये राम और लक्ष्मण राजा दशरथ के पुत्र हैं। उनकी सुंदर जोड़ी देखकर
परशुरामजी ने आशीर्वाद दिया। कामदेव के भी मद को छुड़ाने वाले श्री रामचन्द्रजी के
अपार रूप को देखकर उनके नेत्र थकित (स्तम्भित) हो रहे॥4॥
दोहा
:
*
बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर।
पूँछत
जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥269॥
भावार्थ:-फिर
सब देखकर,
जानते हुए भी अनजान की तरह जनकजी से पूछते हैं कि कहो, यह बड़ी भारी भीड़ कैसी है? उनके शरीर में क्रोध छा
गया॥269॥
चौपाई
:
*
समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥
सुनत
बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे॥1॥
भावार्थ:-जिस
कारण सब राजा आए थे,
राजा जनक ने वे सब समाचार कह सुनाए। जनक के वचन सुनकर परशुरामजी ने
फिरकर दूसरी ओर देखा तो धनुष के टुकड़े पृथ्वी पर पड़े हुए दिखाई दिए॥1॥
*
अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥
बेगि
देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥2॥
भावार्थ:-अत्यन्त
क्रोध में भरकर वे कठोर वचन बोले- रे मूर्ख जनक! बता, धनुष किसने तोड़ा? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो अरे मूढ़! आज मैं जहाँ तक तेरा राज्य है, वहाँ
तक की पृथ्वी उलट दूँगा॥2॥
*
अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥
सुर
मुनि नाग नगर नर नारी। सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥3॥
भावार्थ:-राजा
को अत्यन्त डर लगा,
जिसके कारण वे उत्तर नहीं देते। यह देखकर कुटिल राजा मन में बड़े
प्रसन्न हुए। देवता, मुनि, नाग और नगर
के स्त्री-पुरुष सभी सोच करने लगे, सबके हृदय में बड़ा भय
है॥3॥
*मन
पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥
भृगुपति
कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥4॥
भावार्थ:-सीताजी
की माता मन में पछता रही हैं कि हाय! विधाता ने अब बनी-बनाई बात बिगाड़ दी।
परशुरामजी का स्वभाव सुनकर सीताजी को आधा क्षण भी कल्प के समान बीतते लगा॥4॥
दोहा
:
*
सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
हृदयँ
न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥270॥
भावार्थ:-तब
श्री रामचन्द्रजी सब लोगों को भयभीत देखकर और सीताजी को डरी हुई जानकर बोले- उनके
हृदय में न कुछ हर्ष था न विषाद-॥270॥
मासपारायण
नौवाँ विश्राम
श्री
राम-लक्ष्मण और परशुराम-संवाद
चौपाई
:
*
नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयसु
काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥1॥
भावार्थ:-हे
नाथ! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर क्रोधी मुनि रिसाकर
बोले-॥1॥
*
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥
सुनहु
राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥2॥
भावार्थ:-सेवक
वह है जो सेवा का काम करे। शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के
समान मेरा शत्रु है॥2॥
*
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि
मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥3॥
भावार्थ:-वह
इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएँगे।
मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुस्कुराए और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले-॥3॥
*
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
एहि
धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥4॥
भावार्थ:-हे
गोसाईं! लड़कपन में हमने बहुत सी धनुहियाँ तोड़ डालीं, किन्तु आपने
ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा स्वरूप परशुरामजी कुपित होकर कहने लगे॥4॥
दोहा
:
*
रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही
सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥271॥
भावार्थ:-अरे
राजपुत्र! काल के वश होने से तुझे बोलने में कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार में
विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुही के समान है?॥271॥
चौपाई
:
*
लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का
छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें॥1॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी
ने हँसकर कहा- हे देव! सुनिए, हमारे जान में तो सभी धनुष एक
से ही हैं। पुराने धनुष के तोड़ने में क्या हानि-लाभ! श्री रामचन्द्रजी ने तो इसे
नवीन के धोखे से देखा था॥1॥
*
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥
बोले
चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥2॥
भावार्थ:-फिर
यह तो छूते ही टूट गया,
इसमें रघुनाथजी का भी कोई दोष नहीं है। मुनि! आप बिना ही कारण
किसलिए क्रोध करते हैं? परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर
बोले- अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना॥2॥
*
बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
बाल
ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥3॥
भावार्थ:-मैं
तुझे बालक जानकर नहीं मारता हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही जानता है।
मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षत्रियकुल का शत्रु तो विश्वभर में
विख्यात हूँ॥3॥
*
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहु
भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥4॥
भावार्थ:-अपनी
भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार उसे
ब्राह्मणों को दे डाला। हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस
फरसे को देख!॥4॥
दोहा
:
*
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह
के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥272॥
भावार्थ:-अरे
राजा के बालक! तू अपने माता-पिता को सोच के वश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है, यह गर्भों के बच्चों का भी नाश करने वाला है॥272॥
चौपाई
:
*बिहसि
लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥
पुनि
पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥1॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी
हँसकर कोमल वाणी से बोले- अहो, मुनीश्वर तो अपने को बड़ा भारी
योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाड़ी दिखाते हैं। फूँक से पहाड़ उड़ाना चाहते
हैं॥1॥
*
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
देखि
कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥2॥
भावार्थ:-यहाँ
कोई कुम्हड़े की बतिया (छोटा कच्चा फल) नहीं है, जो तर्जनी (सबसे
आगे की) अँगुली को देखते ही मर जाती हैं। कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मैंने कुछ
अभिमान सहित कहा था॥2॥
*भृगुसुत
समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥
सुर
महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥3॥
भावार्थ:-भृगुवंशी
समझकर और यज्ञोपवीत देखकर तो जो कुछ आप कहते हैं, उसे मैं
क्रोध को रोककर सह लेता हूँ। देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गो- इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती॥3॥
*
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें॥
कोटि
कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥4॥
भावार्थ:-क्योंकि
इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपकीर्ति होती है, इसलिए आप मारें तो भी आपके पैर ही पड़ना चाहिए। आपका एक-एक वचन ही करोड़ों
वज्रों के समान है। धनुष-बाण और कुठार तो आप व्यर्थ ही धारण करते हैं॥4॥
दोहा
:
*
जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि
सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर॥273॥
भावार्थ:-इन्हें
(धनुष-बाण और कुठार को) देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो, तो उसे हे धीर महामुनि! क्षमा कीजिए। यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी क्रोध
के साथ गंभीर वाणी बोले-॥273॥
चौपाई
:
*
कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥
भानु
बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू॥1॥
भावार्थ:-हे
विश्वामित्र! सुनो,
यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है, काल के वश
होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंश रूपी पूर्ण चन्द्र का कलंक है।
यह बिल्कुल उद्दण्ड, मूर्ख और निडर है॥1॥
*
काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह
हटकहु जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥2॥
भावार्थ:-अभी
क्षण भर में यह काल का ग्रास हो जाएगा। मैं पुकारकर कहे देता हूँ, फिर मुझे दोष नहीं है। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो
हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर इसे मना कर दो॥2॥
*
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने
मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥3॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी
ने कहा- हे मुनि! आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है? आपने अपने ही मुँह से अपनी करनी अनेकों बार बहुत प्रकार से वर्णन की है॥3॥
*
नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरब्रती
तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥4॥
भावार्थ:-इतने
पर भी संतोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिए। क्रोध रोककर असह्य दुःख मत सहिए। आप
वीरता का व्रत धारण करने वाले, धैर्यवान और क्षोभरहित हैं।
गाली देते शोभा नहीं पाते॥4॥
दोहा
:
*
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान
रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥274॥
भावार्थ:-शूरवीर
तो युद्ध में करनी (शूरवीरता का कार्य) करते हैं, कहकर अपने
को नहीं जनाते। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर ही अपने प्रताप की डींग मारा
करते हैं॥274॥
चौपाई
:
*
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥
सुनत
लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥1॥
भावार्थ:-आप
तो मानो काल को हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे लिए बुलाते हैं। लक्ष्मणजी के कठोर
वचन सुनते ही परशुरामजी ने अपने भयानक फरसे को सुधारकर हाथ में ले लिया॥1॥
*
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥
बाल
बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा॥2॥
भावार्थ:-
(और बोले-) अब लोग मुझे दोष न दें। यह कडुआ बोलने वाला बालक मारे जाने के ही योग्य
है। इसे बालक देखकर मैंने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच
मरने को ही आ गया है॥2॥
*
कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥
खर
कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही॥3॥
भावार्थ:-विश्वामित्रजी
ने कहा- अपराध क्षमा कीजिए। बालकों के दोष और गुण को साधु लोग नहीं गिनते।
(परशुरामजी बोले-) तीखी धार का कुठार, मैं दयारहित और
क्रोधी और यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने-॥3॥
*
उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें॥
न
त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥4॥
भावार्थ:-उत्तर
दे रहा है। इतने पर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ, सो हे विश्वामित्र! केवल तुम्हारे शील (प्रेम) से। नहीं तो इसे इस कठोर
कुठार से काटकर थोड़े ही परिश्रम से गुरु से उऋण हो जाता॥4॥
दोहा
:
*
गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
अयमय
खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥275॥
भावार्थ:-विश्वामित्रजी
ने हृदय में हँसकर कहा- मुनि को हरा ही हरा सूझ रहा है (अर्थात सर्वत्र विजयी होने
के कारण ये श्री राम-लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं), किन्तु यह लोहमयी (केवल फौलाद की बनी हुई) खाँड़ (खाँड़ा-खड्ग) है, ऊख की (रस की) खाँड़ नहीं है (जो मुँह में लेते ही गल जाए। खेद है,)
मुनि अब भी बेसमझ बने हुए हैं, इनके प्रभाव को
नहीं समझ रहे हैं॥275॥
चौपाई
:
*
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा॥
माता
पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें॥1॥
भावार्थ:-
लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपके शील को कौन नहीं जानता? वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता से तो अच्छी तरह उऋण हो ही गए,
अब गुरु का ऋण रहा, जिसका जी में बड़ा सोच लगा
है॥1॥
*
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा॥
अब
आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥2॥
भावार्थ:-वह
मानो हमारे ही मत्थे काढ़ा था। बहुत दिन बीत गए, इससे ब्याज भी बहुत
बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब करने वाले को बुला लाइए, तो मैं
तुरंत थैली खोलकर दे दूँ॥2॥
*सुनि
कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर
परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपदोही॥3॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी
के कडुए वचन सुनकर परशुरामजी ने कुठार सम्हाला। सारी सभा हाय-हाय! करके पुकार उठी।
(लक्ष्मणजी ने कहा-) हे भृगुश्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओं के शत्रु! मैं ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूँ (तरह दे रहा
हूँ)॥3॥
*
मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बा़ढ़े॥
अनुचित
कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥4॥
भावार्थ:-आपको
कभी रणधीर बलवान् वीर नहीं मिले हैं। हे ब्राह्मण देवता ! आप घर ही में बड़े हैं।
यह सुनकर 'अनुचित है, अनुचित है' कहकर सब
लोग पुकार उठे। तब श्री रघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी को रोक दिया॥4॥
दोहा
:
*
लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
बढ़त
देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥276॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी
के उत्तर से,
जो आहुति के समान थे, परशुरामजी के क्रोध रूपी
अग्नि को बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य श्री रामचंद्रजी जल के समान (शांत करने वाले)
वचन बोले-॥276॥
चौपाई
:
*नाथ
करहु बालक पर छोहु। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥
जौं
पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥1॥
भावार्थ:-हे
नाथ ! बालक पर कृपा कीजिए। इस सीधे और दूधमुँहे बच्चे पर क्रोध न कीजिए। यदि यह
प्रभु का (आपका) कुछ भी प्रभाव जानता, तो क्या यह बेसमझ
आपकी बराबरी करता ?॥1॥
*
जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥
करिअ
कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥2॥
भावार्थ:-बालक
यदि कुछ चपलता भी करते हैं,
तो गुरु, पिता और माता मन में आनंद से भर जाते
हैं। अतः इसे छोटा बच्चा और सेवक जानकर कृपा कीजिए। आप तो समदर्शी, सुशील, धीर और ज्ञानी मुनि हैं॥2॥
*
राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसुकाने॥
हँसत
देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी॥3॥
भावार्थ:-श्री
रामचंद्रजी के वचन सुनकर वे कुछ ठंडे पड़े। इतने में लक्ष्मणजी कुछ कहकर फिर
मुस्कुरा दिए। उनको हँसते देखकर परशुरामजी के नख से शिखा तक (सारे शरीर में) क्रोध
छा गया। उन्होंने कहा- हे राम! तेरा भाई बड़ा पापी है॥3॥
*
गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूट मुख पयमुख नाहीं॥
सहज
टेढ़ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मोही॥4॥
भावार्थ:-यह
शरीर से गोरा,
पर हृदय का बड़ा काला है। यह विषमुख है, दूधमुँहा
नहीं। स्वभाव ही टेढ़ा है, तेरा अनुसरण नहीं करता (तेरे जैसा
शीलवान नहीं है)। यह नीच मुझे काल के समान नहीं देखता॥4॥
दोहा
:
*
लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।
जेहि
बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥277॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी
ने हँसकर कहा- हे मुनि! सुनिए, क्रोध पाप का मूल है, जिसके वश में होकर मनुष्य अनुचित कर्म कर बैठते हैं और विश्वभर के
प्रतिकूल चलते (सबका अहित करते) हैं॥277॥
चौपाई
:
*
मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥
टूट
चाप नहिं जुरिहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥1॥
भावार्थ:-हे
मुनिराज! मैं आपका दास हूँ। अब क्रोध त्यागकर दया कीजिए। टूटा हुआ धनुष क्रोध करने
से जुड़ नहीं जाएगा। खड़े-खड़े पैर दुःखने लगे होंगे, बैठ जाइए॥1॥
*
जौं अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई॥
बोलत
लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥2॥
भावार्थ:-यदि
धनुष अत्यन्त ही प्रिय हो,
तो कोई उपाय किया जाए और किसी बड़े गुणी (कारीगर) को बुलाकर जुड़वा
दिया जाए। लक्ष्मणजी के बोलने से जनकजी डर जाते हैं और कहते हैं- बस, चुप रहिए, अनुचित बोलना अच्छा नहीं॥2॥
*
थर थर काँपहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी॥
भृगुपति
सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होई बल हानी॥3॥
भावार्थ:-जनकपुर
के स्त्री-पुरुष थर-थर काँप रहे हैं (और मन ही मन कह रहे हैं कि) छोटा कुमार बड़ा
ही खोटा है। लक्ष्मणजी की निर्भय वाणी सुन-सुनकर परशुरामजी का शरीर क्रोध से जला
जा रहा है और उनके बल की हानि हो रही है (उनका बल घट रहा है)॥3॥
*
बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा॥
मनु
मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसें॥4॥
भावार्थ:-तब
श्री रामचन्द्रजी पर एहसान जनाकर परशुरामजी बोले- तेरा छोटा भाई समझकर मैं इसे बचा
रहा हूँ। यह मन का मैला और शरीर का कैसा सुंदर है, जैसे विष के
रस से भरा हुआ सोने का घड़ा!॥4॥
दोहा
:
*
सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।
गुर
समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥278॥
भावार्थ:-यह
सुनकर लक्ष्मणजी फिर हँसे। तब श्री रामचन्द्रजी ने तिरछी नजर से उनकी ओर देखा, जिससे लक्ष्मणजी सकुचाकर, विपरीत बोलना छोड़कर,
गुरुजी के पास चले गए॥278॥
चौपाई
:
*
अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥
सुनहु
नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले- हे नाथ!
सुनिए,
आप तो स्वभाव से ही सुजान हैं। आप बालक के वचन पर कान न दीजिए (उसे
सुना-अनसुना कर दीजिए)॥1॥
*बररै
बालकु एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ ॥
तेहिं
नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी मैं नाथ तुम्हारा॥2॥
भावार्थ:-बर्रै
और बालक का एक स्वभाव है। संतजन इन्हें कभी दोष नहीं लगाते। फिर उसने (लक्ष्मण ने)
तो कुछ काम भी नहीं बिगाड़ा है, हे नाथ! आपका अपराधी तो मैं
हूँ॥2॥
*
कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाईं॥
कहिअ
बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥3॥
भावार्थ:-अतः
हे स्वामी! कृपा,
क्रोध, वध और बंधन, जो
कुछ करना हो, दास की तरह (अर्थात दास समझकर) मुझ पर कीजिए।
जिस प्रकार से शीघ्र आपका क्रोध दूर हो। हे मुनिराज! बताइए, मैं
वही उपाय करूँ॥3॥
*
कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥
एहि
कें कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं कहा कोपु करि कीन्हा॥4॥
भावार्थ:-मुनि
ने कहा- हे राम! क्रोध कैसे जाए, अब भी तेरा छोटा भाई टेढ़ा ही
ताक रहा है। इसकी गर्दन पर मैंने कुठार न चलाया, तो क्रोध
करके किया ही क्या?॥4॥
दोहा
:
*
गर्भ स्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।
परसु
अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर॥279॥
भावार्थ:-मेरे
जिस कुठार की घोर करनी सुनकर राजाओं की स्त्रियों के गर्भ गिर पड़ते हैं, उसी फरसे के रहते मैं इस शत्रु राजपुत्र को जीवित देख रहा हूँ॥279॥
चौपाई
:
*
बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती॥
भयउ
बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥1॥
भावार्थ:-हाथ
चलता नहीं,
क्रोध से छाती जली जाती है। (हाय!) राजाओं का घातक यह कुठार भी
कुण्ठित हो गया। विधाता विपरीत हो गया, इससे मेरा स्वभाव बदल
गया, नहीं तो भला, मेरे हृदय में किसी
समय भी कृपा कैसी?॥1॥
*
आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्रि बिहसि सिरु नावा॥
बाउ
कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥2॥
भावार्थ:-आज
दया मुझे यह दुःसह दुःख सहा रही है। यह सुनकर लक्ष्मणजी ने मुस्कुराकर सिर नवाया
(और कहा-) आपकी कृपा रूपी वायु भी आपकी मूर्ति के अनुकूल ही है, वचन बोलते हैं, मानो फूल झड़ रहे हैं॥2॥
*
जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता॥
देखु
जनक हठि बालकु एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू॥3॥
भावार्थ:-हे
मुनि ! यदि कृपा करने से आपका शरीर जला जाता है, तो क्रोध
होने पर तो शरीर की रक्षा विधाता ही करेंगे। (परशुरामजी ने कहा-) हे जनक! देख,
यह मूर्ख बालक हठ करके यमपुरी में घर (निवास) करना चाहता है॥3॥
*
बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृपु ढोटा॥
बिहसे
लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥4॥
भावार्थ:-इसको
शीघ्र ही आँखों की ओट क्यों नहीं करते? यह राजपुत्र देखने
में छोटा है, पर है बड़ा खोटा। लक्ष्मणजी ने हँसकर मन ही मन
कहा- आँख मूँद लेने पर कहीं कोई नहीं है॥4॥
दोहा
:
*
परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
संभु
सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥280॥
भावार्थ:-तब
परशुरामजी हृदय में अत्यन्त क्रोध भरकर श्री रामजी से बोले- अरे शठ! तू शिवजी का
धनुष तोड़कर उलटा हमीं को ज्ञान सिखाता है॥280॥
चौपाई
:
*
बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥
करु
परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा॥1॥
भावार्थ:-तेरा
यह भाई तेरी ही सम्मति से कटु वचन बोलता है और तू छल से हाथ जोड़कर विनय करता है।
या तो युद्ध में मेरा संतोष कर, नहीं तो राम कहलाना छोड़ दे॥1॥
*
छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही॥
भृगुपति
बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसुकाहिं रामु सिर नाएँ॥2॥
भावार्थ:-अरे
शिवद्रोही! छल त्यागकर मुझसे युद्ध कर। नहीं तो भाई सहित तुझे मार डालूँगा। इस
प्रकार परशुरामजी कुठार उठाए बक रहे हैं और श्री रामचन्द्रजी सिर झुकाए मन ही मन
मुस्कुरा रहे हैं॥2॥
*
गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू॥
टेढ़
जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू॥3॥
भावार्थ:-(श्री
रामचन्द्रजी ने मन ही मन कहा-) गुनाह (दोष) तो लक्ष्मण का और क्रोध मुझ पर करते
हैं। कहीं-कहीं सीधेपन में भी बड़ा दोष होता है। टेढ़ा जानकर सब लोग किसी की भी
वंदना करते हैं,
टेढ़े चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता॥3॥
*
राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥
जेहिं
रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानिअ आपन अनुगामी॥4॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी ने (प्रकट) कहा- हे मुनीश्वर! क्रोध छोड़िए। आपके हाथ में कुठार है और
मेरा यह सिर आगे है,
जिस प्रकार आपका क्रोध जाए, हे स्वामी! वही
कीजिए। मुझे अपना अनुचर (दास) जानिए॥4॥
दोहा
:
*
प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
बेषु
बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥281॥
भावार्थ:-स्वामी
और सेवक में युद्ध कैसा?
हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! क्रोध का त्याग कीजिए। आपका (वीरों का सा) वेष
देखकर ही बालक ने कुछ कह डाला था, वास्तव में उसका भी कोई
दोष नहीं है॥281॥
चौपाई
:
*देखि
कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥
नामु
जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेहिं दीन्हा॥1॥
भावार्थ:-आपको
कुठार,
बाण और धनुष धारण किए देखकर और वीर समझकर बालक को क्रोध आ गया। वह
आपका नाम तो जानता था, पर उसने आपको पहचाना नहीं। अपने वंश
(रघुवंश) के स्वभाव के अनुसार उसने उत्तर दिया॥1॥
*
जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥
छमहु
चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥2॥
भावार्थ:-यदि
आप मुनि की तरह आते,
तो हे स्वामी! बालक आपके चरणों की धूलि सिर पर रखता। अनजाने की भूल
को क्षमा कर दीजिए। ब्राह्मणों के हृदय में बहुत अधिक दया होनी चाहिए॥2॥
*
हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा। कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥
राम
मात्र लघुनाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥3॥
भावार्थ:-हे
नाथ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी? कहिए न, कहाँ
चरण और कहाँ मस्तक! कहाँ मेरा राम मात्र छोटा सा नाम और कहाँ आपका परशुसहित बड़ा
नाम॥3॥
*
देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥
सब
प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥4॥
भावार्थ:-हे
देव! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पवित्र (शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता ये) नौ गुण हैं। हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं।
हे विप्र! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए॥4॥
दोहा
:
*
बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
बोले
भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधू सम बाम॥282॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी ने परशुरामजी को बार-बार 'मुनि' और 'विप्रवर' कहा। तब भृगुपति
(परशुरामजी) कुपित होकर (अथवा क्रोध की हँसी हँसकर) बोले- तू भी अपने भाई के समान ही
टेढ़ा है॥282॥
*
निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
चाप
सुवा सर आहुति जानू। कोपु मोर अति घोर कृसानू॥1॥
भावार्थ:-तू
मुझे निरा ब्राह्मण ही समझता है? मैं जैसा विप्र हूँ, तुझे सुनाता हूँ। धनुष को सु्रवा, बाण को आहुति और
मेरे क्रोध को अत्यन्त भयंकर अग्नि जान॥1॥
*
समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥
मैं
एहिं परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥2॥
भावार्थ:-चतुरंगिणी
सेना सुंदर समिधाएँ (यज्ञ में जलाई जाने वाली लकड़ियाँ) हैं। बड़े-बड़े राजा उसमें
आकर बलि के पशु हुए हैं,
जिनको मैंने इसी फरसे से काटकर बलि दिया है। ऐसे करोड़ों जपयुक्त
रणयज्ञ मैंने किए हैं (अर्थात जैसे मंत्रोच्चारण पूर्वक 'स्वाहा'
शब्द के साथ आहुति दी जाती है, उसी प्रकार
मैंने पुकार-पुकार कर राजाओं की बलि दी है)॥2॥
*
मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥
भंजेउ
चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा॥3॥
भावार्थ:-मेरा
प्रभाव तुझे मालूम नहीं है,
इसी से तू ब्राह्मण के धोखे मेरा निरादर करके बोल रहा है। धनुष तोड़
डाला, इससे तेरा घमंड बहुत बढ़ गया है। ऐसा अहंकार है,
मानो संसार को जीतकर खड़ा है॥3॥
*
राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥
छुअतहिं
टूट पिनाक पुराना। मैं केहि हेतु करौं अभिमाना॥4॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी ने कहा- हे मुनि! विचारकर बोलिए। आपका क्रोध बहुत बड़ा है और मेरी भूल
बहुत छोटी है। पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया। मैं किस कारण
अभिमान करूँ?॥4॥
दोहा
:
*
जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
तौ
अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥283॥
भावार्थ:-हे
भृगुनाथ! यदि हम सचमुच ब्राह्मण कहकर निरादर करते हैं, तो यह सत्य सुनिए, फिर संसार में ऐसा कौन योद्धा है,
जिसे हम डरके मारे मस्तक नवाएँ?॥283॥
चौपाई
:
*
देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥
जौं
रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ ॥1॥
भावार्थ:-देवता, दैत्य, राजा या और बहुत से योद्धा, वे चाहे बल में हमारे बराबर हों चाहे अधिक बलवान हों, यदि रण में हमें कोई भी ललकारे तो हम उससे सुखपूर्वक लड़ेंगे, चाहे काल ही क्यों न हो॥1॥
*
छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना॥
कहउँ
सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥2॥
भावार्थ:-क्षत्रिय
का शरीर धरकर जो युद्ध में डर गया, उस नीच ने अपने कुल
पर कलंक लगा दिया। मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, कुल की
प्रशंसा करके नहीं, कि रघुवंशी रण में काल से भी नहीं
डरते॥2॥
*
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
सुनि
मृदु गूढ़ बचन रघुपत के। उघरे पटल परसुधर मति के॥3॥
भावार्थ:-ब्राह्मणवंश
की ऐसी ही प्रभुता (महिमा) है कि जो आपसे डरता है, वह सबसे
निर्भय हो जाता है (अथवा जो भयरहित होता है, वह भी आपसे डरता
है) श्री रघुनाथजी के कोमल और रहस्यपूर्ण वचन सुनकर परशुरामजी की बुद्धि के परदे
खुल गए॥3॥
*
राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥
देत
चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥4॥
भावार्थ:-(परशुरामजी
ने कहा-) हे राम! हे लक्ष्मीपति! धनुष को हाथ में (अथवा लक्ष्मीपति विष्णु का
धनुष) लीजिए और इसे खींचिए,
जिससे मेरा संदेह मिट जाए। परशुरामजी धनुष देने लगे, तब वह आप ही चला गया। तब परशुरामजी के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ॥4॥
दोहा
:
*
जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
जोरि
पानि बोले बचन हृदयँ न प्रेमु अमात॥284॥
भावार्थ:-तब
उन्होंने श्री रामजी का प्रभाव जाना, (जिसके कारण) उनका
शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। वे हाथ जोड़कर वचन बोले- प्रेम उनके हृदय में
समाता न था-॥284॥
चौपाई
:
*
जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानू॥
जय
सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥1॥
भावार्थ:-हे
रघुकुल रूपी कमल वन के सूर्य! हे राक्षसों के कुल रूपी घने जंगल को जलाने वाले
अग्नि! आपकी जय हो! हे देवता, ब्राह्मण और गो का हित करने
वाले! आपकी जय हो। हे मद, मोह, क्रोध
और भ्रम के हरने वाले! आपकी जय हो॥1॥
*
बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥
सेवक
सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥2॥
भावार्थ:-हे
विनय,
शील, कृपा आदि गुणों के समुद्र और वचनों की
रचना में अत्यन्त चतुर! आपकी जय हो। हे सेवकों को सुख देने वाले, सब अंगों से सुंदर और शरीर में करोड़ों कामदेवों की छबि धारण करने वाले!
आपकी जय हो॥2॥
*करौं
काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥
अनुचित
बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता॥3॥
भावार्थ:-मैं
एक मुख से आपकी क्या प्रशंसा करूँ? हे महादेवजी के मन
रूपी मानसरोवर के हंस! आपकी जय हो। मैंने अनजाने में आपको बहुत से अनुचित वचन कहे।
हे क्षमा के मंदिर दोनों भाई! मुझे क्षमा कीजिए॥3॥
*
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥
अपभयँ
कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥4॥
भावार्थ:-हे
रघुकुल के पताका स्वरूप श्री रामचन्द्रजी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुरामजी तप के लिए वन को
चले गए। (यह देखकर) दुष्ट राजा लोग बिना ही कारण के (मनः कल्पित) डर से
(रामचन्द्रजी से तो परशुरामजी भी हार गए, हमने इनका अपमान
किया था, अब कहीं ये उसका बदला न लें, इस
व्यर्थ के डर से डर गए) वे कायर चुपके से जहाँ-तहाँ भाग गए॥4॥
दोहा
:
*
देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।
हरषे
पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल॥285॥
भावार्थ:-देवताओं
ने नगाड़े बजाए,
वे प्रभु के ऊपर फूल बरसाने लगे। जनकपुर के स्त्री-पुरुष सब हर्षित
हो गए। उनका मोहमय (अज्ञान से उत्पन्न) शूल मिट गया॥285॥
चौपाई
:
*
अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥
जूथ
जूथ मिलि सुमुखि सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनीं॥1॥
भावार्थ:-खूब
जोर से बाजे बजने लगे। सभी ने मनोहर मंगल साज साजे। सुंदर मुख और सुंदर नेत्रों
वाली तथा कोयल के समान मधुर बोलने वाली स्त्रियाँ झुंड की झुंड मिलकर सुंदरगान
करने लगीं॥1॥
*
सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥
बिगत
त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥2॥
भावार्थ:-जनकजी
के सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता, मानो जन्म का
दरिद्री धन का खजाना पा गया हो! सीताजी का भय जाता रहा, वे
ऐसी सुखी हुईं जैसे चन्द्रमा के उदय होने से चकोर की कन्या सुखी होती है॥2॥
*
जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥
मोहि
कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाईं॥3॥
भावार्थ:-जनकजी
ने विश्वामित्रजी को प्रणाम किया (और कहा-) प्रभु ही की कृपा से श्री रामचन्द्रजी
ने धनुष तोड़ा है। दोनों भाइयों ने मुझे कृतार्थ कर दिया। हे स्वामी! अब जो उचित हो
सो कहिए॥3॥
*
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥
टूटतहीं
धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहू॥4॥
भावार्थ:-मुनि
ने कहा- हे चतुर नरेश ! सुनो यों तो विवाह धनुष के अधीन था, धनुष के टूटते ही विवाह हो गया। देवता, मनुष्य और
नाग सब किसी को यह मालूम है॥4॥
दशरथजी
के पास जनकजी का दूत भेजना,
अयोध्या से बारात का प्रस्थान
दोहा
:
*
तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
बूझि
बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥286॥
भावार्थ:-तथापि
तुम जाकर अपने कुल का जैसा व्यवहार हो, ब्राह्मणों,
कुल के बूढ़ों और गुरुओं से पूछकर और वेदों में वर्णित जैसा आचार हो
वैसा करो॥286॥
चौपाई
:
*
दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहिं बोलाई॥
मुदित
राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥1॥
भावार्थ:-जाकर
अयोध्या को दूत भेजो,
जो राजा दशरथ को बुला लावें। राजा ने प्रसन्न होकर कहा- हे कृपालु!
बहुत अच्छा! और उसी समय दूतों को बुलाकर भेज दिया॥1॥
*
बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥
हाट
बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा॥2॥
भावार्थ:-फिर
सब महाजनों को बुलाया और सबने आकर राजा को आदरपूर्वक सिर नवाया। (राजा ने कहा-)
बाजार,
रास्ते, घर, देवालय और
सारे नगर को चारों ओर से सजाओ॥2॥
*
हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥
रचहु
बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई॥3॥
भावार्थ:-महाजन
प्रसन्न होकर चले और अपने-अपने घर आए। फिर राजा ने नौकरों को बुला भेजा (और उन्हें
आज्ञा दी कि) विचित्र मंडप सजाकर तैयार करो। यह सुनकर वे सब राजा के वचन सिर पर
धरकर और सुख पाकर चले॥3॥
*
पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना॥
बिधिहि
बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा॥4॥
भावार्थ:-उन्होंने
अनेक कारीगरों को बुला भेजा, जो मंडप बनाने में कुशल और चतुर
थे। उन्होंने ब्रह्मा की वंदना करके कार्य आरंभ किया और (पहले) सोने के केले के
खंभे बनाए॥4॥
दोहा
:
*
हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।
रचना
देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल॥287॥
भावार्थ:-हरी-हरी
मणियों (पन्ने) के पत्ते और फल बनाए तथा पद्मराग मणियों (माणिक) के फूल बनाए। मंडप
की अत्यन्त विचित्र रचना देखकर ब्रह्मा का मन भी भूल गया॥287॥
चौपाई
:
*
बेनु हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे॥
कनक
कलित अहिबेलि बनाई। लखि नहिं परइ सपरन सुहाई॥1॥
भावार्थ:-बाँस
सब हरी-हरी मणियों (पन्ने) के सीधे और गाँठों से युक्त ऐसे बनाए जो पहचाने नहीं
जाते थे (कि मणियों के हैं या साधारण)। सोने की सुंदर नागबेली (पान की लता) बनाई, जो पत्तों सहित ऐसी भली मालूम होती थी कि पहचानी नहीं जाती थी॥1॥
*
तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकुता दाम सुहाए॥
मानिक
मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥2॥
भावार्थ:-उसी
नागबेली के रचकर और पच्चीकारी करके बंधन (बाँधने की रस्सी) बनाए। बीच-बीच में
मोतियों की सुंदर झालरें हैं। माणिक, पन्ने, हीरे और िफरोजे, इन रत्नों को चीरकर, कोरकर और पच्चीकारी करके, इनके (लाल, हरे, सफेद और फिरोजी रंग के) कमल बनाए॥2॥
*
किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा॥
सुर
प्रतिमा खंभन गढ़ि काढ़ीं। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ीं॥3॥
भावार्थ:-भौंरे
और बहुत रंगों के पक्षी बनाए, जो हवा के सहारे गूँजते और
कूजते थे। खंभों पर देवताओं की मूर्तियाँ गढ़कर निकालीं, जो
सब मंगल द्रव्य लिए खड़ी थीं॥3॥
*
चौकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाईं॥4॥
भावार्थ:-गजमुक्ताओं
के सहज ही सुहावने अनेकों तरह के चौक पुराए॥4॥
दोहा
:
*
सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि।
हेम
बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥288॥
भावार्थ:-नील
मणि को कोरकर अत्यन्त सुंदर आम के पत्ते बनाए। सोने के बौर (आम के फूल) और रेशम की
डोरी से बँधे हुए पन्ने के बने फलों के गुच्छे सुशोभित हैं॥288॥
चौपाई
:
*
रचे रुचिर बर बंदनिवारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे॥
मंगल
कलश अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥1॥
भावार्थ:-ऐसे
सुंदर और उत्तम बंदनवार बनाए मानो कामदेव ने फंदे सजाए हों। अनेकों मंगल कलश और
सुंदर ध्वजा,
पताका, परदे और चँवर बनाए॥1॥
*
दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥
जेहिं
मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥2॥
भावार्थ:-जिसमें
मणियों के अनेकों सुंदर दीपक हैं, उस विचित्र मंडप का तो वर्णन ही
नहीं किया जा सकता, जिस मंडप में श्री जानकीजी दुलहिन होंगी,
किस कवि की ऐसी बुद्धि है जो उसका वर्णन कर सके॥2॥
*
दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोग उजागर॥
जनक
भवन कै सोभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥3॥
भावार्थ:-जिस
मंडप में रूप और गुणों के समुद्र श्री रामचन्द्रजी दूल्हे होंगे, वह मंडप तीनों लोकों में प्रसिद्ध होना ही चाहिए। जनकजी के महल की जैसी
शोभा है, वैसी ही शोभा नगर के प्रत्येक घर की दिखाई देती
है॥3॥
*
जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥
जो
संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥4॥
भावार्थ:-उस
समय जिसने तिरहुत को देखा,
उसे चौदह भुवन तुच्छ जान पड़े। जनकपुर में नीच के घर भी उस समय जो
सम्पदा सुशोभित थी, उसे देखकर इन्द्र भी मोहित हो जाता था॥4॥
दोहा
:
*
बसइ नगर जेहिं लच्छि करि कपट नारि बर बेषु।
तेहि
पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥289॥
भावार्थ:-जिस
नगर में साक्षात् लक्ष्मीजी कपट से स्त्री का सुंदर वेष बनाकर बसती हैं, उस पुर की शोभा का वर्णन करने में सरस्वती और शेष भी सकुचाते हैं॥289॥
चौपाई
:
*
पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥
भूप
द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥1॥
भावार्थ:-जनकजी
के दूत श्री रामचन्द्रजी की पवित्र पुरी अयोध्या में पहुँचे। सुंदर नगर देखकर वे
हर्षित हुए। राजद्वार पर जाकर उन्होंने खबर भेजी, राजा दशरथजी
ने सुनकर उन्हें बुला लिया॥1॥
*
करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥
बारि
बिलोचन बाँचत पाती। पुलक गात आई भरि छाती॥2॥
भावार्थ:-दूतों
ने प्रणाम करके चिट्ठी दी। प्रसन्न होकर राजा ने स्वयं उठकर उसे लिया। चिट्ठी
बाँचते समय उनके नेत्रों में जल (प्रेम और आनंद के आँसू) छा गया, शरीर पुलकित हो गया और छाती भर आई॥2॥
*
रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥
पुनि
धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥3॥
भावार्थ:-हृदय
में राम और लक्ष्मण हैं,
हाथ में सुंदर चिट्ठी है, राजा उसे हाथ में
लिए ही रह गए, खट्टी-मीठी कुछ भी कह न सके। फिर धीरज धरकर
उन्होंने पत्रिका पढ़ी। सारी सभा सच्ची बात सुनकर हर्षित हो गई॥3॥
*
खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई॥
पूछत
अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई॥4॥
भावार्थ:-भरतजी
अपने मित्रों और भाई शत्रुघ्न के साथ जहाँ खेलते थे, वहीं समाचार
पाकर वे आ गए। बहुत प्रेम से सकुचाते हुए पूछते हैं- पिताजी! चिट्ठी कहाँ से आई है?॥4॥
दोहा
:
*
कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।
सुनि
सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस॥290॥
भावार्थ:-
हमारे प्राणों से प्यारे दोनों भाई, कहिए सकुशल तो हैं
और वे किस देश में हैं? स्नेह से सने ये वचन सुनकर राजा ने
फिर से चिट्ठी पढ़ी॥290॥
चौपाई
:
*
सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिन सनेहु समात न गाता॥
प्रीति
पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥1॥
भावार्थ:-चिट्ठी
सुनकर दोनों भाई पुलकित हो गए। स्नेह इतना अधिक हो गया कि वह शरीर में समाता नहीं।
भरतजी का पवित्र प्रेम देखकर सारी सभा ने विशेष सुख पाया॥1॥
*
तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥
भैया
कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥2॥
भावार्थ:-तब
राजा दूतों को पास बैठाकर मन को हरने वाले मीठे वचन बाले- भैया! कहो, दोनों बच्चे कुशल से तो हैं? तुमने अपनी आँखों से
उन्हें अच्छी तरह देखा है न?॥2॥
*
स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥
पहिचानहु
तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥3॥
भावार्थ:-साँवले
और गोरे शरीर वाले वे धनुष और तरकस धारण किए रहते हैं, किशोर अवस्था है, विश्वामित्र मुनि के साथ हैं। तुम
उनको पहचानते हो तो उनका स्वभाव बताओ। राजा प्रेम के विशेष वश होने से बार-बार इस
प्रकार कह (पूछ) रहे हैं॥3॥
*
जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥
कहहु
बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसुकाने॥4॥
भावार्थ:-
(भैया!) जिस दिन से मुनि उन्हें लिवा ले गए, तब से आज ही हमने
सच्ची खबर पाई है। कहो तो महाराज जनक ने उन्हें कैसे पहचाना? ये प्रिय (प्रेम भरे) वचन सुनकर दूत मुस्कुराए॥4॥
दोहा
:
*
सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।
रामु
लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥291॥
भावार्थ:-(दूतों
ने कहा-) हे राजाओं के मुकुटमणि! सुनिए, आपके समान धन्य और
कोई नहीं है, जिनके राम-लक्ष्मण जैसे पुत्र हैं, जो दोनों विश्व के विभूषण हैं॥291॥
चौपाई
:
*
पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे॥
जिन्ह
के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे॥1॥
भावार्थ:-आपके
पुत्र पूछने योग्य नहीं हैं। वे पुरुषसिंह तीनों लोकों के प्रकाश स्वरूप हैं। जिनके
यश के आगे चन्द्रमा मलिन और प्रताप के आगे सूर्य शीतल लगता है॥1॥
*
तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥
सीय
स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका॥2॥
भावार्थ:-हे
नाथ! उनके लिए आप कहते हैं कि उन्हें कैसे पहचाना! क्या सूर्य को हाथ में दीपक
लेकर देखा जाता है?
सीताजी के स्वयंवर में अनेकों राजा और एक से एक बढ़कर योद्धा एकत्र
हुए थे॥2॥
*
संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥
तीनि
लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी॥3॥
भावार्थ:-परंतु
शिवजी के धनुष को कोई भी नहीं हटा सका। सारे बलवान वीर हार गए। तीनों लोकों में जो
वीरता के अभिमानी थे,
शिवजी के धनुष ने सबकी शक्ति तोड़ दी॥3॥
*
सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥
जेहिं
कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा॥4॥
भावार्थ:-बाणासुर, जो सुमेरु को भी उठा सकता था, वह भी हृदय में हारकर
परिक्रमा करके चला गया और जिसने खेल से ही कैलास को उठा लिया था, वह रावण भी उस सभा में पराजय को प्राप्त हुआ॥4॥
दोहा
:
*
तहाँ राम रघुबंसमनि सुनिअ महा महिपाल।
भंजेउ
चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥292॥
भावार्थ:-हे
महाराज! सुनिए,
वहाँ (जहाँ ऐसे-ऐसे योद्धा हार मान गए) रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी
ने बिना ही प्रयास शिवजी के धनुष को वैसे ही तोड़ डाला जैसे हाथी कमल की डंडी को
तोड़ डालता है!॥292॥
चौपाई
:
*
सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥
देखि
राम बलु निज धनु दीन्हा। करिबहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥1॥
भावार्थ:-धनुष
टूटने की बात सुनकर परशुरामजी क्रोध में भरे आए और उन्होंने बहुत प्रकार से आँखें
दिखलाईं। अंत में उन्होंने भी श्री रामचन्द्रजी का बल देखकर उन्हें अपना धनुष दे
दिया और बहुत प्रकार से विनती करके वन को गमन किया॥1॥
*
राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥
कंपहिं
भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥2॥
भावार्थ:-हे
राजन्! जैसे श्री रामचन्द्रजी अतुलनीय बली हैं, वैसे ही तेज
निधान फिर लक्ष्मणजी भी हैं, जिनके देखने मात्र से राजा लोग
ऐसे काँप उठते थे, जैसे हाथी सिंह के बच्चे के ताकने से काँप
उठते हैं॥2॥
*
देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ ॥
दूत
बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥3॥
भावार्थ:-हे
देव! आपके दोनों बालकों को देखने के बाद अब आँखों के नीचे कोई आता ही नहीं (हमारी
दृष्टि पर कोई चढ़ता ही नहीं)। प्रेम, प्रताप और वीर रस
में पगी हुई दूतों की वचन रचना सबको बहुत प्रिय लगी॥3॥
*
सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥
कहि
अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुखु माना॥4॥
भावार्थ:-सभा
सहित राजा प्रेम में मग्न हो गए और दूतों को निछावर देने लगे। (उन्हें निछावर देते
देखकर) यह नीति विरुद्ध है,
ऐसा कहकर दूत अपने हाथों से कान मूँदने लगे। धर्म को विचारकर (उनका
धर्मयुक्त बर्ताव देखकर) सभी ने सुख माना॥4॥
दोहा
:
*
तब उठि भूप बसिष्ट कहुँ दीन्हि पत्रिका जाई।
कथा
सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ॥293॥
भावार्थ:-तब
राजा ने उठकर वशिष्ठजी के पास जाकर उन्हें पत्रिका दी और आदरपूर्वक दूतों को
बुलाकर सारी कथा गुरुजी को सुना दी॥293॥
चौपाई
:
*
सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥
जिमि
सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥1॥
भावार्थ:-सब
समाचार सुनकर और अत्यन्त सुख पाकर गुरु बोले- पुण्यात्मा पुरुष के लिए पृथ्वी
सुखों से छाई हुई है। जैसे नदियाँ समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को नदी की कामना नहीं होती॥1॥
*
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ॥
तुम्ह
गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी॥2॥
भावार्थ:-वैसे
ही सुख और सम्पत्ति बिना ही बुलाए स्वाभाविक ही धर्मात्मा पुरुष के पास जाती है।
तुम जैसे गुरु,
ब्राह्मण, गाय और देवता की सेवा करने वाले हो,
वैसी ही पवित्र कौसल्यादेवी भी हैं॥2॥
*
सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥
तुम्ह
ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें॥3॥
भावार्थ:-तुम्हारे
समान पुण्यात्मा जगत में न कोई हुआ, न है और न होने का
ही है। हे राजन्! तुमसे अधिक पुण्य और किसका होगा, जिसके
राम सरीखे पुत्र हैं॥3॥
*
बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥
तुम्ह
कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना॥4॥
भावार्थ:-और
जिसके चारों बालक वीर,
विनम्र, धर्म का व्रत धारण करने वाले और गुणों
के सुंदर समुद्र हैं। तुम्हारे लिए सभी कालों में कल्याण है। अतएव डंका बजवाकर
बारात सजाओ॥4॥
दोहा
:
*
चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाई।
भूपति
गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥294॥
भावार्थ:-और
जल्दी चलो। गुरुजी के ऐसे वचन सुनकर, हे नाथ! बहुत अच्छा
कहकर और सिर नवाकर तथा दूतों को डेरा दिलवाकर राजा महल में गए॥294॥
चौपाई
:
*
राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥
सुनि
संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥1॥
भावार्थ:-राजा
ने सारे रनिवास को बुलाकर जनकजी की पत्रिका बाँचकर सुनाई। समाचार सुनकर सब रानियाँ
हर्ष से भर गईं। राजा ने फिर दूसरी सब बातों का (जो दूतों के मुख से सुनी थीं) वर्णन
किया॥1॥
*
प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बानी॥
मुदित
असीस देहिं गुर नारीं। अति आनंद मगन महतारीं॥2॥
भावार्थ:-प्रेम
में प्रफुल्लित हुई रानियाँ ऐसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे मोरनी
बादलों की गरज सुनकर प्रफुल्लित होती हैं। बड़ी-बूढ़ी (अथवा गुरुओं की) स्त्रियाँ
प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे रही हैं। माताएँ अत्यन्त आनंद में मग्न हैं॥2॥
*
लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाई जुड़ावहिं छाती॥
राम
लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥3॥
भावार्थ:-उस
अत्यन्त प्रिय पत्रिका को आपस में लेकर सब हृदय से लगाकर छाती शीतल करती हैं।
राजाओं में श्रेष्ठ दशरथजी ने श्री राम-लक्ष्मण की कीर्ति और करनी का बारंबार
वर्णन किया॥3॥
*
मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥
दिए
दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥4॥
भावार्थ:-'यह सब मुनि की कृपा है' ऐसा कहकर वे बाहर चले आए। तब
रानियों ने ब्राह्मणों को बुलाया और आनंद सहित उन्हें दान दिए। श्रेष्ठ ब्राह्मण
आशीर्वाद देते हुए चले॥4॥
सोरठा
:
*
जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।
चिरु
जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥295॥
भावार्थ:-फिर
भिक्षुकों को बुलाकर करोड़ों प्रकार की निछावरें उनको दीं। 'चक्रवर्ती महाराज दशरथ के चारों पुत्र चिरंजीवी हों'॥295॥
चौपाई
:
*
कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥
समाचार
सब लोगन्ह पाए। लागे घर-घर होन बधाए॥1॥
भावार्थ:-यों
कहते हुए वे अनेक प्रकार के सुंदर वस्त्र पहन-पहनकर चले। आनंदित होकर नगाड़े वालों
ने बड़े जोर से नगाड़ों पर चोट लगाई। सब लोगों ने जब यह समाचार पाया, तब घर-घर बधावे होने लगे॥1॥
*
भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥
सुनि
सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥2॥
भावार्थ:-चौदहों
लोकों में उत्साह भर गया कि जानकीजी और श्री रघुनाथजी का विवाह होगा। यह शुभ
समाचार पाकर लोग प्रेममग्न हो गए और रास्ते, घर तथा गलियाँ
सजाने लगे॥2॥
*
जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। रामपुरी मंगलमय पावनि॥
तदपि
प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई॥3॥
भावार्थ:-यद्यपि
अयोध्या सदा सुहावनी है,
क्योंकि वह श्री रामजी की मंगलमयी पवित्र पुरी है, तथापि प्रीति पर प्रीति होने से वह सुंदर मंगल रचना से सजाई गई॥3॥
*
ध्वज पताक पट चामर चारू। छावा परम बिचित्र बजारू॥
कनक
कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥4॥
भावार्थ:-ध्वजा, पताका, परदे और सुंदर चँवरों से सारा बाजा बहुत ही
अनूठा छाया हुआ है। सोने के कलश, तोरण, मणियों की झालरें, हलदी, दूब,
दही, अक्षत और मालाओं से-॥4॥
दोहा
:
*
मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।
बीथीं
सींचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥296॥
भावार्थ:-लोगों
ने अपने-अपने घरों को सजाकर मंगलमय बना लिया। गलियों को चतुर सम से सींचा और
(द्वारों पर) सुंदर चौक पुराए। (चंदन, केशर, कस्तूरी और कपूर से बने हुए एक सुगंधित द्रव को चतुरसम कहते हैं)॥296॥
चौपाई
:
*
जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥
बिधुबदनीं
मृग सावक लोचनि। निज सरूप रति मानु बिमोचनि॥1॥
भावार्थ:-बिजली
की सी कांति वाली चन्द्रमुखी, हरिन के बच्चे के से नेत्र वाली
और अपने सुंदर रूप से कामदेव की स्त्री रति के अभिमान को छुड़ाने वाली सुहागिनी
स्त्रियाँ सभी सोलहों श्रृंगार सजकर, जहाँ-तहाँ झुंड की झुंड
मिलकर,॥1॥
*
गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनि कल रव कलकंठि लजानीं॥
भूप
भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥2॥
भावार्थ:-मनोहर
वाणी से मंगल गीत गा रही हैं, जिनके सुंदर स्वर को सुनकर
कोयलें भी लजा जाती हैं। राजमहल का वर्णन कैसे किया जाए, जहाँ
विश्व को विमोहित करने वाला मंडप बनाया गया है॥2॥
*
मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥
कतहुँ
बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥3॥
भावार्थ:-अनेकों
प्रकार के मनोहर मांगलिक पदार्थ शोभित हो रहे हैं और बहुत से नगाड़े बज रहे हैं।
कहीं भाट विरुदावली (कुलकीर्ति) का उच्चारण कर रहे हैं और कहीं ब्राह्मण वेदध्वनि
कर रहे हैं॥3॥
*
गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥
बहुत
उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥4॥
भावार्थ:-सुंदरी
स्त्रियाँ श्री रामजी और श्री सीताजी का नाम ले-लेकर मंगलगीत गा रही हैं। उत्साह
बहुत है और महल अत्यन्त ही छोटा है। इससे (उसमें न समाकर) मानो वह उत्साह (आनंद)
चारों ओर उमड़ चला है॥4॥
दोहा
:
*
सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।
जहाँ
सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥297॥
भावार्थ:-दशरथ
के महल की शोभा का वर्णन कौन कवि कर सकता है, जहाँ समस्त देवताओं
के शिरोमणि रामचन्द्रजी ने अवतार लिया है॥297॥
चौपाई
:
*
भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गयस्यंदन साजहु जाई॥
चलहु
बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥1॥
भावार्थ:-फिर
राजा ने भरतजी को बुला लिया और कहा कि जाकर घोड़े, हाथी और रथ
सजाओ, जल्दी रामचन्द्रजी की बारात में चलो। यह सुनते ही
दोनों भाई (भरतजी और शत्रुघ्नजी) आनंदवश पुलक से भर गए॥1॥
*
भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥
रचि
रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥2॥
भावार्थ:-भरतजी
ने सब साहनी (घुड़साल के अध्यक्ष) बुलाए और उन्हें (घोड़ों को सजाने की) आज्ञा दी, वे प्रसन्न होकर उठ दौड़े। उन्होंने रुचि के साथ (यथायोग्य) जीनें कसकर
घोड़े सजाए। रंग-रंग के उत्तम घोड़े शोभित हो गए॥2॥
*
सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥
नाना
जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने॥3॥
भावार्थ:-सब
घोड़े बड़े ही सुंदर और चंचल करनी (चाल) के हैं। वे धरती पर ऐसे पैर रखते हैं जैसे
जलते हुए लोहे पर रखते हों। अनेकों जाति के घोड़े हैं, जिनका वर्णन नहीं हो सकता। (ऐसी तेज चाल के हैं) मानो हवा का निरादर करके
उड़ना चाहते हैं॥3॥
*
तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥
सब
सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी॥4॥
भावार्थ:-उन
सब घोड़ों पर भरतजी के समान अवस्था वाले सब छैल-छबीले राजकुमार सवार हुए। वे सभी
सुंदर हैं और सब आभूषण धारण किए हुए हैं। उनके हाथों में बाण और धनुष हैं तथा कमर
में भारी तरकस बँधे हैं॥4॥
दोहा
:
*
छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।
जुग
पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन॥298॥
भावार्थ:-सभी
चुने हुए छबीले छैल,
शूरवीर, चतुर और नवयुवक हैं। प्रत्येक सवार के
साथ दो पैदल सिपाही हैं, जो तलवार चलाने की कला में बड़े
निपुण हैं॥298॥
चौपाई
:
*
बाँधें बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥
फेरहिं
चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पनव निसाना॥1॥
भावार्थ:-शूरता
का बाना धारण किए हुए रणधीर वीर सब निकलकर नगर के बाहर आ खड़े हुए। वे चतुर अपने
घोड़ों को तरह-तरह की चालों से फेर रहे हैं और भेरी तथा नगाड़े की आवाज सुन-सुनकर
प्रसन्न हो रहे हैं॥1॥
*
रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥
चवँर
चारु किंकिनि धुनि करहीं। भानु जान सोभा अपहरहीं॥2॥
भावार्थ:-सारथियों
ने ध्वजा,
पताका, मणि और आभूषणों को लगाकर रथों को बहुत
विलक्षण बना दिया है। उनमें सुंदर चँवर लगे हैं और घंटियाँ सुंदर शब्द कर रही हैं।
वे रथ इतने सुंदर हैं, मानो सूर्य के रथ की शोभा को छीने
लेते हैं॥2॥
*
सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥
सुंदर
सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥3॥
भावार्थ:-अगणित
श्यामवर्ण घोड़े थे। उनको सारथियों ने उन रथों में जोत दिया है, जो सभी देखने में सुंदर और गहनों से सजाए हुए सुशोभित हैं और जिन्हें
देखकर मुनियों के मन भी मोहित हो जाते हैं॥3॥
*
जे जल चलहिं थलहि की नाईं। टाप न बूड़ बेग अधिकाईं॥
अस्त्र
सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥4॥
भावार्थ:-जो
जल पर भी जमीन की तरह ही चलते हैं। वेग की अधिकता से उनकी टाप पानी में नहीं
डूबती। अस्त्र-शस्त्र और सब साज सजाकर सारथियों ने रथियों को बुला लिया॥4॥
दोहा
:
*
चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।
होत
सगुन सुंदर सबहि जो जेहि कारज जात॥299॥
भावार्थ:-रथों
पर चढ़-चढ़कर बारात नगर के बाहर जुटने लगी, जो जिस काम के लिए
जाता है, सभी को सुंदर शकुन होते हैं॥299॥
चौपाई
:
*
कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥
चले
मत्त गज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥1।
भावार्थ:-श्रेष्ठ
हाथियों पर सुंदर अंबारियाँ पड़ी हैं। वे जिस प्रकार सजाई गई थीं, सो कहा नहीं जा सकता। मतवाले हाथी घंटों से सुशोभित होकर (घंटे बजाते हुए)
चले, मानो सावन के सुंदर बादलों के समूह (गरते हुए) जा रहे
हों॥
*
बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥
तिन्ह
चढ़ि चले बिप्रबर बृंदा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा॥2॥
भावार्थ:-सुंदर
पालकियाँ,
सुख से बैठने योग्य तामजान (जो कुर्सीनुमा होते हैं) और रथ आदि और
भी अनेकों प्रकार की सवारियाँ हैं। उन पर श्रेष्ठ ब्राह्मणों के समूह चढ़कर चले,
मानो सब वेदों के छन्द ही शरीर धारण किए हुए हों॥2॥
*
मागध सूत बंधि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक॥
बेसर
ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥3॥
भावार्थ:-मागध, सूत, भाट और गुण गाने वाले सब, जो जिस योग्य थे, वैसी सवारी पर चढ़कर चले। बहुत
जातियों के खच्चर, ऊँट और बैल असंख्यों प्रकार की वस्तुएँ
लाद-लादकर चले॥3॥
*
कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥
चले
सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई॥4॥
भावार्थ:-कहार
करोड़ों काँवरें लेकर चले। उनमें अनेकों प्रकार की इतनी वस्तुएँ थीं कि जिनका वर्णन
कौन कर सकता है। सब सेवकों के समूह अपना-अपना साज-समाज बनाकर चले॥4॥
दोहा
:
*
सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।
कबहिं
देखिबे नयन भरि रामु लखनु दोउ बीर॥300॥
भावार्थ:-सबके
हृदय में अपार हर्ष है और शरीर पुलक से भरे हैं। (सबको एक ही लालसा लगी है कि) हम
श्री राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को नेत्र भरकर कब देखेंगे॥300॥
चौपाई
:
*
गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा॥
निदरि
घनहि घुर्म्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ न काना॥1॥
भावार्थ:-हाथी
गरज रहे हैं,
उनके घंटों की भीषण ध्वनि हो रही है। चारों ओर रथों की घरघराहट और घोड़ों
की हिनहिनाहट हो रही है। बादलों का निरादर करते हुए नगाड़े घोर शब्द कर रहे हैं।
किसी को अपनी-पराई कोई बात कानों से सुनाई नहीं देती॥1॥
*
महा भीर भूपति के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारें॥
चढ़ी
अटारिन्ह देखहिं नारीं। लिएँ आरती मंगल थारीं॥2॥
भावार्थ:-राजा
दशरथ के दरवाजे पर इतनी भारी भीड़ हो रही है कि वहाँ पत्थर फेंका जाए तो वह भी
पिसकर धूल हो जाए। अटारियों पर चढ़ी स्त्रियाँ मंगल थालों में आरती लिए देख रही
हैं॥2॥
*
गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनंदु न जाइ बखाना॥
तब
सुमंत्र दुइ स्यंदन साजी। जोते रबि हय निंदक बाजी॥3॥
भावार्थ:-और
नाना प्रकार के मनोहर गीत गा रही हैं। उनके अत्यन्त आनंद का बखान नहीं हो सकता। तब
सुमन्त्रजी ने दो रथ सजाकर उनमें सूर्य के घोड़ों को भी मात करने वाले घोड़े जोते॥3॥
*
दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने॥
राज
समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पुंज अति भ्राजा॥4॥
भावार्थ:-दोनों
सुंदर रथ वे राजा दशरथ के पास ले आए, जिनकी सुंदरता का
वर्णन सरस्वती से भी नहीं हो सकता। एक रथ पर राजसी सामान सजाया गया और दूसरा जो
तेज का पुंज और अत्यन्त ही शोभायमान था,॥4॥
दोहा
:
*
तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाई नरेसु।
आपु
चढ़ेउ स्यंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु॥301॥
भावार्थ:-उस
सुंदर रथ पर राजा वशिष्ठजी को हर्ष पूर्वक चढ़ाकर फिर स्वयं शिव, गुरु, गौरी (पार्वती) और गणेशजी का स्मरण करके
(दूसरे) रथ पर चढ़े॥301॥
चौपाई
:
*
सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर संग पुरंदर जैसें॥
करि
कुल रीति बेद बिधि राऊ। देखि सबहि सब भाँति बनाऊ॥1॥
भावार्थ:-वशिष्ठजी
के साथ (जाते हुए) राजा दशरथजी कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे देव गुरु बृहस्पतिजी के साथ इन्द्र हों। वेद की विधि से और कुल की
रीति के अनुसार सब कार्य करके तथा सबको सब प्रकार से सजे देखकर,॥1॥
*
सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति संख बजाई॥
हरषे
बिबुध बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमंगल दाता॥2॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी का स्मरण करके,
गुरु की आज्ञा पाकर पृथ्वी पति दशरथजी शंख बजाकर चले। बारात देखकर
देवता हर्षित हुए और सुंदर मंगलदायक फूलों की वर्षा करने लगे॥2॥
*
भयउ कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे॥
सुर
नर नारि सुमंगल गाईं। सरस राग बाजहिं सहनाईं॥3॥
भावार्थ:-बड़ा
शोर मच गया,
घोड़े और हाथी गरजने लगे। आकाश में और बारात में (दोनों जगह) बाजे
बजने लगे। देवांगनाएँ और मनुष्यों की स्त्रियाँ सुंदर मंगलगान करने लगीं और रसीले
राग से शहनाइयाँ बजने लगीं॥3॥
*
घंट घंटि धुनि बरनि न जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीं॥
करहिं
बिदूषक कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना॥4॥
भावार्थ:-घंटे-घंटियों
की ध्वनि का वर्णन नहीं हो सकता। पैदल चलने वाले सेवकगण अथवा पट्टेबाज कसरत के खेल
कर रहे हैं और फहरा रहे हैं (आकाश में ऊँचे उछलते हुए जा रहे हैं।) हँसी करने में
निपुण और सुंदर गाने में चतुर विदूषक (मसखरे) तरह-तरह के तमाशे कर रहे हैं॥4॥
दोहा
:
*
तुरग नचावहिं कुअँर बर अकनि मृदंग निसान।
नागर
नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान॥302॥
भावार्थ:-सुंदर
राजकुमार मृदंग और नगाड़े के शब्द सुनकर घोड़ों को उन्हीं के अनुसार इस प्रकार नचा
रहे हैं कि वे ताल के बंधान से जरा भी डिगते नहीं हैं। चतुर नट चकित होकर यह देख
रहे हैं॥302॥
चौपाई
:
*
बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता॥
चारा
चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई॥1॥
भावार्थ:-बारात
ऐसी बनी है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता। सुंदर शुभदायक शकुन हो रहे हैं। नीलकंठ
पक्षी बाईं ओर चारा ले रहा है, मानो सम्पूर्ण मंगलों की सूचना
दे रहा हो॥।1॥
*
दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा॥
सानुकूल
बह त्रिबिध बयारी। सघट सबाल आव बर नारी॥2॥
भावार्थ:-दाहिनी
ओर कौआ सुंदर खेत में शोभा पा रहा है। नेवले का दर्शन भी सब किसी ने पाया। तीनों
प्रकार की (शीतल,
मंद, सुगंधित) हवा अनुकूल दिशा में चल रही है।
श्रेष्ठ (सुहागिनी) स्त्रियाँ भरे हुए घड़े और गोद में बालक लिए आ रही हैं॥2॥
*
लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा॥
मृगमाला
फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई॥3॥
भावार्थ:-लोमड़ी
फिर-फिरकर (बार-बार) दिखाई दे जाती है। गायें सामने खड़ी बछड़ों को दूध पिलाती हैं।
हरिनों की टोली (बाईं ओर से) घूमकर दाहिनी ओर को आई, मानो सभी
मंगलों का समूह दिखाई दिया॥3॥
*
छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी॥
सनमुख
आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना॥4॥
भावार्थ:-क्षेमकरी
(सफेद सिरवाली चील) विशेष रूप से क्षेम (कल्याण) कह रही है। श्यामा बाईं ओर सुंदर
पेड़ पर दिखाई पड़ी। दही,
मछली और दो विद्वान ब्राह्मण हाथ में पुस्तक लिए हुए सामने आए॥4॥
दोहा
:
*
मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।
जनु
सब साचे होन हित भए सगुन एक बार॥303॥
भावार्थ:-सभी
मंगलमय,
कल्याणमय और मनोवांछित फल देने वाले शकुन मानो सच्चे होने के लिए एक
ही साथ हो गए॥303॥
चौपाई
:
*
मंगल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें॥
राम
सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दसरथु जनकु पुनीता॥1॥
भावार्थ:-स्वयं
सगुण ब्रह्म जिसके सुंदर पुत्र हैं, उसके लिए सब मंगल
शकुन सुलभ हैं। जहाँ श्री रामचन्द्रजी सरीखे दूल्हा और सीताजी जैसी दुलहिन हैं तथा
दशरथजी और जनकजी जैसे पवित्र समधी हैं,॥1॥
*
सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे॥
एहि
बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना॥2॥
भावार्थ:-ऐसा
ब्याह सुनकर मानो सभी शकुन नाच उठे (और कहने लगे-) अब ब्रह्माजी ने हमको सच्चा कर
दिया। इस तरह बारात ने प्रस्थान किया। घोड़े, हाथी गरज रहे हैं
और नगाड़ों पर चोट लग रही है॥2॥
*
आवत जानि भानुकुल केतू। सरितन्हि जनक बँधाए सेतू॥
बीच-बीच
बर बास बनाए। सुरपुर सरिस संपदा छाए॥3॥
भावार्थ:-सूर्यवंश
के पताका स्वरूप दशरथजी को आते हुए जानकर जनकजी ने नदियों पर पुल बँधवा दिए।
बीच-बीच में ठहरने के लिए सुंदर घर (पड़ाव) बनवा दिए, जिनमें
देवलोक के समान सम्पदा छाई है,॥3॥
*
असन सयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए॥
नित
नूतन सुख लखि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मंदिर भूले॥4॥
भावार्थ:-और
जहाँ बारात के सब लोग अपने-अपने मन की पसंद के अनुसार सुहावने उत्तम भोजन, बिस्तर और वस्त्र पाते हैं। मन के अनुकूल नित्य नए सुखों को देखकर सभी
बारातियों को अपने घर भूल गए॥4॥
दोहा
:
*
आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान।
सजि
गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान॥304॥
भावार्थ:-बड़े
जोर से बजते हुए नगाड़ों की आवाज सुनकर श्रेष्ठ बारात को आती हुई जानकर अगवानी करने
वाले हाथी,
रथ, पैदल और घोड़े सजाकर बारात लेने चले॥304॥
मासपारायण
दसवाँ विश्राम
बारात
का जनकपुर में आना और स्वागतादि
चौपाई
:
*
कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा॥
भरे
सुधा सम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने॥1॥
भावार्थ:-(दूध, शर्बत, ठंडाई, जल आदि से) भरकर
सोने के कलश तथा जिनका वर्णन नहीं हो सकता ऐसे अमृत के समान भाँति-भाँति के सब
पकवानों से भरे हुए परात, थाल आदि अनेक प्रकार के सुंदर बर्तन,॥1॥
*
फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेंट हित भूप पठाईं॥
भूषन
बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना॥2॥
भावार्थ:-उत्तम
फल तथा और भी अनेकों सुंदर वस्तुएँ राजा ने हर्षित होकर भेंट के लिए भेजीं। गहने, कपड़े, नाना प्रकार की मूल्यवान मणियाँ (रत्न),
पक्षी, पशु, घोड़े,
हाथी और बहुत तरह की सवारियाँ,॥2॥
*
मंगल सगुन सुगंध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए॥
दधि
चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा॥3॥
भावार्थ:-तथा
बहुत प्रकार के सुगंधित एवं सुहावने मंगल द्रव्य और शगुन के पदार्थ राजा ने भेजे।
दही,
चिउड़ा और अगणित उपहार की चीजें काँवरों में भर-भरकर कहार चले॥3॥
*
अगवानन्ह जब दीखि बराता। उर आनंदु पुलक भर गाता॥
देखि
बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना॥4॥
भावार्थ:-अगवानी
करने वालों को जब बारात दिखाई दी, तब उनके हृदय में आनंद छा गया
और शरीर रोमांच से भर गया। अगवानों को सज-धज के साथ देखकर बारातियों ने प्रसन्न
होकर नगाड़े बजाए॥4॥
दोहा
:
*
हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।
जनु
आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल॥305॥
भावार्थ:-(बाराती
तथा अगवानों में से) कुछ लोग परस्पर मिलने के लिए हर्ष के मारे बाग छोड़कर (सरपट)
दौड़ चले और ऐसे मिले मानो आनंद के दो समुद्र मर्यादा छोड़कर मिलते हों॥305॥
चौपाई
:
*
बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं। मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं॥
बस्तु
सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्हि तिन्ह अति अनुरागें॥1॥
भावार्थ:-देवसुंदरियाँ
फूल बरसाकर गीत गा रही हैं और देवता आनंदित होकर नगाड़े बजा रहे हैं। (अगवानी में
आए हुए) उन लोगों ने सब चीजें दशरथजी के आगे रख दीं और अत्यन्त प्रेम से विनती
की॥1॥
*
प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा॥
करि
पूजा मान्यता बड़ाई। जनवासे कहुँ चले लवाई॥2॥
भावार्थ:-राजा
दशरथजी ने प्रेम सहित सब वस्तुएँ ले लीं, फिर उनकी बख्शीशें
होने लगीं और वे याचकों को दे दी गईं। तदनन्तर पूजा, आदर-सत्कार
और बड़ाई करके अगवान लोग उनको जनवासे की ओर लिवा ले चले॥2॥
*
बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं। देखि धनदु धन मदु परिहरहीं॥
अति
सुंदर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा॥3॥
भावार्थ:-विलक्षण
वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं, जिन्हें देखकर कुबेर भी अपने धन
का अभिमान छोड़ देते हैं। बड़ा सुंदर जनवासा दिया गया, जहाँ
सबको सब प्रकार का सुभीता था॥3॥
*
जानी सियँ बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई॥
हृदयँ
सुमिरि सब सिद्धि बोलाईं। भूप पहुनई करन पठाईं॥4॥
भावार्थ:-सीताजी
ने बारात जनकपुर में आई जानकर अपनी कुछ महिमा प्रकट करके दिखलाई। हृदय में स्मरणकर
सब सिद्धियों को बुलाया और उन्हें राजा दशरथजी की मेहमानी करने के लिए भेजा॥4॥
दोहा
:
*
सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।
लिएँ
संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास॥306॥
भावार्थ:-सीताजी
की आज्ञा सुनकर सब सिद्धियाँ जहाँ जनवासा था, वहाँ सारी सम्पदा,
सुख और इंद्रपुरी के भोग-विलास को लिए हुए गईं॥306॥
चौपाई
:
*
निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती॥
बिभव
भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना॥1॥
भावार्थ:-बारातियों
ने अपने-अपने ठहरने के स्थान देखे तो वहाँ देवताओं के सब सुखों को सब प्रकार से
सुलभ पाया। इस ऐश्वर्य का कुछ भी भेद कोई जान न सका। सब जनकजी की बड़ाई कर रहे
हैं॥1॥
*
सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥
पितु
आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई॥2॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी यह सब सीताजी की महिमा जानकर और उनका प्रेम पहचानकर हृदय में हर्षित हुए।
पिता दशरथजी के आने का समाचार सुनकर दोनों भाइयों के हृदय में महान आनंद समाता न
था॥2॥
*
सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं॥
बिस्वामित्र
बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी॥3॥
भावार्थ:-संकोचवश
वे गुरु विश्वामित्रजी से कह नहीं सकते थे, परन्तु मन में
पिताजी के दर्शनों की लालसा थी। विश्वामित्रजी ने उनकी बड़ी नम्रता देखी, तो उनके हृदय में बहुत संतोष उत्पन्न हुआ॥3॥
*
हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए॥
चले
जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे॥4॥
भावार्थ:-प्रसन्न
होकर उन्होंने दोनों भाइयों को हृदय से लगा लिया। उनका शरीर पुलकित हो गया और
नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। वे उस जनवासे को चले, जहाँ दशरथजी थे। मानो सरोवर प्यासे की ओर लक्ष्य करके चला हो॥4॥
दोहा
:
*
भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।
उठे
हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत॥307॥
भावार्थ:-जब
राजा दशरथजी ने पुत्रों सहित मुनि को आते देखा, तब वे हर्षित होकर
उठे और सुख के समुद्र में थाह सी लेते हुए चले॥307॥
चौपाई
:
*
मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा॥
कौसिक
राउ लिए उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई॥1॥
भावार्थ:-पृथ्वीपति
दशरथजी ने मुनि की चरणधूलि को बारंबार सिर पर चढ़ाकर उनको दण्डवत् प्रणाम किया।
विश्वामित्रजी ने राजा को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कुशल पूछी॥1॥
*
पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई॥
सुत
हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे॥2॥
भावार्थ:-फिर
दोनों भाइयों को दण्डवत् प्रणाम करते देखकर राजा के हृदय में सुख समाया नहीं।
पुत्रों को (उठाकर) हृदय से लगाकर उन्होंने अपने (वियोगजनित) दुःसह दुःख को
मिटाया। मानो मृतक शरीर को प्राण मिल गए हों॥2॥
*
पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए॥
बिप्र
बृंद बंदे दुहुँ भाईं। मनभावती असीसें पाईं॥3॥
भावार्थ:-फिर
उन्होंने वशिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया। मुनि श्रेष्ठ ने प्रेम के आनंद में
उन्हें हृदय से लगा लिया। दोनों भाइयों ने सब ब्राह्मणों की वंदना की और मनभाए
आशीर्वाद पाए॥3॥
*
भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा॥
हरषे
लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता॥4॥
भावार्थ:-भरतजी
ने छोटे भाई शत्रुघ्न सहित श्री रामचन्द्रजी को प्रणाम किया। श्री रामजी ने उन्हें
उठाकर हृदय से लगा लिया। लक्ष्मणजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए और प्रेम से
परिपूर्ण हुए शरीर से उनसे मिले॥4॥
दोहा
:
*
पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत।
मिले
जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत॥308॥
भावार्थ:-तदन्तर
परम कृपालु और विनयी श्री रामचन्द्रजी अयोध्यावासियों, कुटुम्बियों, जाति के लोगों, याचकों,
मंत्रियों और मित्रों सभी से यथा योग्य मिले॥308॥
*
रामहि देखि बरात जुड़ानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी॥
नृप
समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी॥1॥
भावार्थ:-
श्री रामचन्द्रजी को देखकर बारात शीतल हुई (राम के वियोग में सबके हृदय में जो आग
जल रही थी,
वह शांत हो गई)। प्रीति की रीति का बखान नहीं हो सकता। राजा के पास
चारों पुत्र ऐसी शोभा पा रहे हैं, मानो अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष शरीर धारण किए हुए हों॥1॥
चौपाई
:
*
सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी॥
सुमन
बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना॥2॥
भावार्थ:-पुत्रों
सहित दशरथजी को देखकर नगर के स्त्री-पुरुष बहुत ही प्रसन्न हो रहे हैं। (आकाश में)
देवता फूलों की वर्षा करके नगाड़े बजा रहे हैं और अप्सराएँ गा-गाकर नाच रही हैं॥2॥
*
सतानंद अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बंदीजन॥
सहित
बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना॥3॥
भावार्थ:-अगवानी
में आए हुए शतानंदजी,
अन्य ब्राह्मण, मंत्रीगण, मागध, सूत, विद्वान और भाटों
ने बारात सहित राजा दशरथजी का आदर-सत्कार किया। फिर आज्ञा लेकर वे वापस लौटे॥3॥
*
प्रथम बरात लगन तें आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई॥
ब्रह्मानंदु
लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं॥4॥
भावार्थ:-बारात
लग्न के दिन से पहले आ गई है, इससे जनकपुर में अधिक आनंद छा
रहा है। सब लोग ब्रह्मानंद प्राप्त कर रहे हैं और विधाता से मनाकर कहते हैं कि
दिन-रात बढ़ जाएँ (बड़े हो जाएँ)॥4॥
*
रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज।
जहँ
तहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज॥309॥
भावार्थ:-
श्री रामचन्द्रजी और सीताजी सुंदरता की सीमा हैं और दोनों राजा पुण्य की सीमा हैं, जहाँ-तहाँ जनकपुरवासी स्त्री-पुरुषों के समूह इकट्ठे हो-होकर यही कह रहे
हैं॥309॥
चौपाई
:
*
जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही॥
इन्ह
सम काहुँ न सिव अवराधे। काहुँ न इन्ह समान फल लाधे॥1॥
भावार्थ:-जनकजी
के सुकृत (पुण्य) की मूर्ति जानकीजी हैं और दशरथजी के सुकृत देह धारण किए हुए श्री
रामजी हैं। इन (दोनों राजाओं) के समान किसी ने शिवजी की आराधना नहीं की और न इनके
समान किसी ने फल ही पाए॥1॥
*
इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं॥
हम
सब सकल सुकृत कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी॥2॥
भावार्थ:-इनके
समान जगत में न कोई हुआ,
न कहीं है, न होने का ही है। हम सब भी
सम्पूर्ण पुण्यों की राशि हैं, जो जगत में जन्म लेकर जनकपुर
के निवासी हुए,॥2॥
*
जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी॥
पुनि
देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू॥3॥
भावार्थ:-और
जिन्होंने जानकीजी और श्री रामचन्द्रजी की छबि देखी है। हमारे सरीखा विशेष
पुण्यात्मा कौन होगा! और अब हम श्री रघुनाथजी का विवाह देखेंगे और भलीभाँति
नेत्रों का लाभ लेंगे॥3॥
*
कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं॥
बड़ें
भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई॥4॥
भावार्थ:-कोयल
के समान मधुर बोलने वाली स्त्रियाँ आपस में कहती हैं कि हे सुंदर नेत्रों वाली! इस
विवाह में बड़ा लाभ है। बड़े भाग्य से विधाता ने सब बात बना दी है, ये दोनों भाई हमारे नेत्रों के अतिथि हुआ करेंगे॥4॥
दोहा
:
*
बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।
लेन
आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय॥310॥
भावार्थ:-जनकजी
स्नेहवश बार-बार सीताजी को बुलावेंगे और करोड़ों कामदेवों के समान सुंदर दोनों भाई
सीताजी को लेने (विदा कराने) आया करेंगे॥310॥
चौपाई
:
*
बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई॥
तब
तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥1॥
भावार्थ:-तब
उनकी अनेकों प्रकार से पहुनाई होगी। सखी! ऐसी ससुराल किसे प्यारी न होगी! तब-तब हम
सब नगर निवासी श्री राम-लक्ष्मण को देख-देखकर सुखी होंगे॥1॥
*
सखि जस राम लखन कर जोटा। तैसेइ भूप संग हुइ ढोटा॥
स्याम
गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए॥2॥
भावार्थ:-हे
सखी! जैसा श्री राम-लक्ष्मण का जोड़ा है, वैसे ही दो कुमार
राजा के साथ और भी हैं। वे भी एक श्याम और दूसरे गौर वर्ण के हैं, उनके भी सब अंग बहुत सुंदर हैं। जो लोग उन्हें देख आए हैं, वे सब यही कहते हैं॥2॥
*
कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे॥
भरतु
राम ही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥3॥
भावार्थ:-एक
ने कहा- मैंने आज ही उन्हें देखा है, इतने सुंदर हैं,
मानो ब्रह्माजी ने उन्हें अपने हाथों सँवारा है। भरत तो श्री
रामचन्द्रजी की ही शकल-सूरत के हैं। स्त्री-पुरुष उन्हें सहसा पहचान नहीं सकते॥3॥
*
लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा॥
मन
भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥4॥
भावार्थ:-लक्ष्मण
और शत्रुघ्न दोनों का एक रूप है। दोनों के नख से शिखा तक सभी अंग अनुपम हैं। मन को
बड़े अच्छे लगते हैं,
पर मुख से उनका वर्णन नहीं हो सकता। उनकी उपमा के योग्य तीनों लोकों
में कोई नहीं है॥4॥
छन्द
:
*
उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।
बल
बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं॥
पुर
नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं॥
ब्याहिअहुँ
चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं॥
भावार्थ:-दास
तुलसी कहता है कवि और कोविद (विद्वान) कहते हैं, इनकी उपमा
कहीं कोई नहीं है। बल, विनय, विद्या,
शील और शोभा के समुद्र इनके समान ये ही हैं। जनकपुर की सब स्त्रियाँ
आँचल फैलाकर विधाता को यह वचन (विनती) सुनाती हैं कि चारों भाइयों का विवाह इसी
नगर में हो और हम सब सुंदर मंगल गावें।
सोरठा
:
*
कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।
सखि
सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ॥311॥
भावार्थ:-नेत्रों
में (प्रेमाश्रुओं का) जल भरकर पुलकित शरीर से स्त्रियाँ आपस में कह रही हैं कि हे
सखी! दोनों राजा पुण्य के समुद्र हैं, त्रिपुरारी शिवजी
सब मनोरथ पूर्ण करेंगे॥311॥
चौपाई
:
*
एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं॥
जे
नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए॥1॥
भावार्थ:-इस
प्रकार सब मनोरथ कर रही हैं और हृदय को उमंग-उमंगकर (उत्साहपूर्वक) आनंद से भर रही
हैं। सीताजी के स्वयंवर में जो राजा आए थे, उन्होंने भी चारों
भाइयों को देखकर सुख पाया॥1॥
*
कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला॥
गए
बीति कछु दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती॥2॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी का निर्मल और महान यश कहते हुए राजा लोग अपने-अपने घर गए। इस प्रकार
कुछ दिन बीत गए। जनकपुर निवासी और बाराती सभी बड़े आनंदित हैं॥2॥
*
मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा॥
ग्रह
तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥3॥
भावार्थ:-मंगलों
का मूल लग्न का दिन आ गया। हेमंत ऋतु और सुहावना अगहन का महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र, योग और वार
श्रेष्ठ थे। लग्न (मुहूर्त) शोधकर ब्रह्माजी ने उस पर विचार किया,॥3॥
*
पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई॥
सुनी
सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता॥4॥
भावार्थ:-और
उस (लग्न पत्रिका) को नारदजी के हाथ (जनकजी के यहाँ) भेज दिया। जनकजी के
ज्योतिषियों ने भी वही गणना कर रखी थी। जब सब लोगों ने यह बात सुनी तब वे कहने
लगे- यहाँ के ज्योतिषी भी ब्रह्मा ही हैं॥4॥
दोहा
:
*
धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।
बिप्रन्ह
कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल॥312॥
भावार्थ:-निर्मल
और सभी सुंदर मंगलों की मूल गोधूलि की पवित्र बेला आ गई और अनुकूल शकुन होने लगे, यह जानकर ब्राह्मणों ने जनकजी से कहा॥312॥
चौपाई
:
*
उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारनु काहा॥
सतानंद
तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए॥1॥
भावार्थ:-तब
राजा जनक ने पुरोहित शतानंदजी से कहा कि अब देरी का क्या कारण है। तब शतानंदजी ने
मंत्रियों को बुलाया। वे सब मंगल का सामान सजाकर ले आए॥1॥
*
संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे॥
सुभग
सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥2॥
भावार्थ:-शंख, नगाड़े, ढोल और बहुत से बाजे बजने लगे तथा मंगल कलश
और शुभ शकुन की वस्तुएँ (दधि, दूर्वा आदि) सजाई गईं। सुंदर
सुहागिन स्त्रियाँ गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेद की ध्वनि कर रहे हैं॥2॥
*
लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती॥
कोसलपति
कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥3॥
भावार्थ:-सब
लोग इस प्रकार आदरपूर्वक बारात को लेने चले और जहाँ बारातियों का जनवासा था, वहाँ गए। अवधपति दशरथजी का समाज (वैभव) देखकर उनको देवराज इन्द्र भी बहुत
ही तुच्छ लगने लगे॥3॥
*
भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ ॥
गुरहि
पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा॥4॥
भावार्थ:-(उन्होंने
जाकर विनती की-) समय हो गया, अब पधारिए। यह सुनते ही नगाड़ों
पर चोट पड़ी। गुरु वशिष्ठजी से पूछकर और कुल की सब रीतियों को करके राजा दशरथजी
मुनियों और साधुओं के समाज को साथ लेकर चले॥4॥
दोहा
:
*
भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।
लगे
सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि॥313॥
भावार्थ:-अवध
नरेश दशरथजी का भाग्य और वैभव देखकर और अपना जन्म व्यर्थ समझकर, ब्रह्माजी आदि देवता हजारों मुखों से उसकी सराहना करने लगे॥313॥
चौपाई
:
*
सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥
सिव
ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा॥1॥
भावार्थ:-देवगण
सुंदर मंगल का अवसर जानकर,
नगाड़े बजा-बजाकर फूल बरसाते हैं। शिवजी, ब्रह्माजी
आदि देववृन्द यूथ (टोलियाँ) बना-बनाकर विमानों पर जा चढ़े॥1॥
*
प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू॥
देखि
जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥2॥
भावार्थ:-और
प्रेम से पुलकित शरीर हो तथा हृदय में उत्साह भरकर श्री रामचन्द्रजी का विवाह
देखने चले। जनकपुर को देखकर देवता इतने अनुरक्त हो गए कि उन सबको अपने-अपने लोक
बहुत तुच्छ लगने लगे॥2॥
*
चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना।
नगर
नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना॥3॥
भावार्थ:-विचित्र
मंडप को तथा नाना प्रकार की सब अलौकिक रचनाओं को वे चकित होकर देख रहे हैं। नगर के
स्त्री-पुरुष रूप के भंडार,
सुघड़, श्रेष्ठ धर्मात्मा, सुशील और सुजान हैं॥3॥
*
तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं॥
बिधिहि
भयउ आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥4॥
भावार्थ:-उन्हें
देखकर सब देवता और देवांगनाएँ ऐसे प्रभाहीन हो गए जैसे चन्द्रमा के उजियाले में
तारागण फीके पड़ जाते हैं। ब्रह्माजी को विशेष आश्चर्य हुआ, क्योंकि वहाँ उन्होंने अपनी कोई करनी (रचना) तो कहीं देखी ही नहीं॥4॥
दोहा
:
*
सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।
हृदयँ
बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥314॥
भावार्थ:-तब
शिवजी ने सब देवताओं को समझाया कि तुम लोग आश्चर्य में मत भूलो। हृदय में धीरज
धरकर विचार तो करो कि यह (भगवान की महामहिमामयी निजशक्ति) श्री सीताजी का और (अखिल
ब्रह्माण्डों के परम ईश्वर साक्षात् भगवान) श्री रामचन्द्रजी का विवाह है॥314॥
चौपाई
:
*
जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं॥
करतल
होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥1॥
भावार्थ:-जिनका
नाम लेते ही जगत में सारे अमंगलों की जड़ कट जाती है और चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) मुट्ठी में
आ जाते हैं, ये वही (जगत के माता-पिता) श्री सीतारामजी हैं,
काम के शत्रु शिवजी ने ऐसा कहा॥1॥
*
एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा॥
देवन्ह
देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता॥2॥
भावार्थ:-इस
प्रकार शिवजी ने देवताओं को समझाया और फिर अपने श्रेष्ठ बैल नंदीश्वर को आगे
बढ़ाया। देवताओं ने देखा कि दशरथजी मन में बड़े ही प्रसन्न और शरीर से पुलकित हुए
चले जा रहे हैं॥2॥
*
साधु समाज संग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा॥
सोहत
साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी॥3॥
भावार्थ:-उनके
साथ (परम हर्षयुक्त) साधुओं और ब्राह्मणों की मंडली ऐसी शोभा दे रही है, मानो समस्त सुख शरीर धारण करके उनकी सेवा कर रहे हों। चारों सुंदर पुत्र
साथ में ऐसे सुशोभित हैं, मानो सम्पूर्ण मोक्ष (सालोक्य,
सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य)
शरीर धारण किए हुए हों॥3॥
*
मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी॥
पुनि
रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे॥4॥
भावार्थ:-मरकतमणि
और सुवर्ण के रंग की सुंदर जोड़ियों को देखकर देवताओं को कम प्रीति नहीं हुई
(अर्थात् बहुत ही प्रीति हुई)। फिर रामचन्द्रजी को देखकर वे हृदय में (अत्यन्त)
हर्षित हुए और राजा की सराहना करके उन्होंने फूल बरसाए॥4॥
दोहा
:
*
राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।
पुलक
गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि॥315॥
भावार्थ:-नख
से शिखा तक श्री रामचन्द्रजी के सुंदर रूप को बार-बार देखते हुए पार्वतीजी सहित
श्री शिवजी का शरीर पुलकित हो गया और उनके नेत्र (प्रेमाश्रुओं के) जल से भर
गए॥315॥
चौपाई
:
*
केकि कंठ दुति स्यामल अंगा। तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा॥
ब्याह
बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल सब सब भाँति सुहाए॥1॥
भावार्थ:-रामजी
का मोर के कंठ की सी कांतिवाला (हरिताभ) श्याम शरीर है। बिजली का अत्यन्त निरादर
करने वाले प्रकाशमय सुंदर (पीत) रंग के वस्त्र हैं। सब मंगल रूप और सब प्रकार के
सुंदर भाँति-भाँति के विवाह के आभूषण शरीर पर सजाए हुए हैं॥1॥
*
सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन॥
सकल
अलौकिक सुंदरताई। कहि न जाई मनहीं मन भाई॥2॥
भावार्थ:-उनका
सुंदर मुख शरत्पूर्णिमा के निर्मल चन्द्रमा के समान और (मनोहर) नेत्र नवीन कमल को
लजाने वाले हैं। सारी सुंदरता अलौकिक है। (माया की बनी नहीं है, दिव्य सच्चिदानन्दमयी है) वह कहीं नहीं जा सकती, मन
ही मन बहुत प्रिय लगती है॥2॥
*
बंधु मनोहर सोहहिं संगा। जात नचावत चपल तुरंगा।
राजकुअँर
बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं॥3॥
भावार्थ:-साथ
में मनोहर भाई शोभित हैं,
जो चंचल घोड़ों को नचाते हुए चले जा रहे हैं। राजकुमार श्रेष्ठ घोड़ों
को (उनकी चाल को) दिखला रहे हैं और वंश की प्रशंसा करने वाले (मागध भाट) विरुदावली
सुना रहे हैं॥3॥
*
जेहि तुरंग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे॥
कहि
न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा॥4॥
भावार्थ:-जिस
घोड़े पर श्री रामजी विराजमान हैं, उसकी (तेज) चाल देखकर गरुड़ भी
लजा जाते हैं, उसका वर्णन नहीं हो सकता, वह सब प्रकार से सुंदर है। मानो कामदेव ने ही घोड़े का वेष धारण कर लिया
हो॥4॥
छन्द
:
*
जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।
आपनें
बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥
जगमगत
जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
किंकिनि
ललाम लगामु ललित बिलोकिसुर नर मुनि ठगे॥
भावार्थ:-मानो
श्री रामचन्द्रजी के लिए कामदेव घोड़े का वेश बनाकर अत्यन्त शोभित हो रहा है। वह
अपनी अवस्था,
बल, रूप, गुण और चाल से
समस्त लोकों को मोहित कर रहा है। उसकी सुंदर घुँघरू लगी ललित लगाम को देखकर देवता,
मनुष्य और मुनि सभी ठगे जाते हैं।
दोहा
:
*
प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।
भूषित
उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव॥316॥
भावार्थ:-प्रभु
की इच्छा में अपने मन को लीन किए चलता हुआ वह घोड़ा बड़ी शोभा पा रहा है। मानो
तारागण तथा बिजली से अलंकृत मेघ सुंदर मोर को नचा रहा हो॥316॥
चौपाई
:
*
जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥
संकरु
राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे॥1॥
भावार्थ:-जिस
श्रेष्ठ घोड़े पर श्री रामचन्द्रजी सवार हैं, उसका वर्णन
सरस्वतीजी भी नहीं कर सकतीं। शंकरजी श्री रामचन्द्रजी के रूप में ऐसे अनुरक्त हुए
कि उन्हें अपने पंद्रह नेत्र इस समय बहुत ही प्यारे लगने लगे॥1॥
*
हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे॥
निरखि
राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥2॥
भावार्थ:-भगवान
विष्णु ने जब प्रेम सहित श्री राम को देखा, तब वे (रमणीयता की
मूर्ति) श्री लक्ष्मीजी के पति श्री लक्ष्मीजी सहित मोहित हो गए। श्री रामचन्द्रजी
की शोभा देखकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए, पर अपने आठ ही
नेत्र जानकर पछताने लगे॥2॥
*
सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू॥
रामहि
चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना॥3॥
भावार्थ:-देवताओं
के सेनापति स्वामि कार्तिक के हृदय में बड़ा उत्साह है, क्योंकि वे ब्रह्माजी से ड्योढ़े अर्थात बारह नेत्रों से रामदर्शन का सुंदर
लाभ उठा रहे हैं। सुजान इन्द्र (अपने हजार नेत्रों से) श्री रामचन्द्रजी को देख
रहे हैं और गौतमजी के शाप को अपने लिए परम हितकर मान रहे हैं॥3॥
*
देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं॥
मुदित
देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी॥4॥
भावार्थ:-सभी
देवता देवराज इन्द्र से ईर्षा कर रहे हैं (और कह रहे हैं) कि आज इन्द्र के समान
भाग्यवान दूसरा कोई नहीं है। श्री रामचन्द्रजी को देखकर देवगण प्रसन्न हैं और
दोनों राजाओं के समाज में विशेष हर्ष छा रहा है॥4॥
छन्द
:
*
अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।
बरषहिं
सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥
एहि
भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
रानी
सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं॥
भावार्थ:-दोनों
ओर से राजसमाज में अत्यन्त हर्ष है और बड़े जोर से नगाड़े बज रहे हैं। देवता प्रसन्न
होकर और 'रघुकुलमणि श्री राम की जय हो, जय हो, जय हो' कहकर फूल बरसा रहे हैं। इस प्रकार बारात को
आती हुई जानकर बहुत प्रकार के बाजे बजने लगे और रानी सुहागिन स्त्रियों को बुलाकर
परछन के लिए मंगल द्रव्य सजाने लगीं॥
दोहा
:
*
सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि।
चलीं
मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि॥317॥
भावार्थ:-अनेक
प्रकार से आरती सजकर और समस्त मंगल द्रव्यों को यथायोग्य सजाकर गजगामिनी (हाथी की
सी चाल वाली) उत्तम स्त्रियाँ आनंदपूर्वक परछन के लिए चलीं॥317॥
चौपाई
:
*
बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि॥
पहिरें
बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा॥1॥
भावार्थ:-सभी
स्त्रियाँ चन्द्रमुखी (चन्द्रमा के समान मुख वाली) और सभी मृगलोचनी (हरिण की सी
आँखों वाली) हैं और सभी अपने शरीर की शोभा से रति के गर्व को छुड़ाने वाली हैं।
रंग-रंग की सुंदर साड़ियाँ पहने हैं और शरीर पर सब आभूषण सजे हुए हैं॥1॥
*
सकल सुमंगल अंग बनाएँ। करहिं गान कलकंठि लजाएँ॥
कंकन
किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं॥2॥
भावार्थ:-समस्त
अंगों को सुंदर मंगल पदार्थों से सजाए हुए वे कोयल को भी लजाती हुई (मधुर स्वर से)
गान कर रही हैं। कंगन,
करधनी और नूपुर बज रहे हैं। स्त्रियों की चाल देखकर कामदेव के हाथी
भी लजा जाते हैं॥2॥
*
बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमंगलचारा॥
सची
सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सजह सयानी॥3॥
भावार्थ:-अनेक
प्रकार के बाजे बज रहे हैं,
आकाश और नगर दोनों स्थानों में सुंदर मंगलाचार हो रहे हैं। शची
(इन्द्राणी), सरस्वती, लक्ष्मी,
पार्वती और जो स्वभाव से ही पवित्र और सयानी देवांगनाएँ थीं,॥3॥
*
कपट नारि बर बेष बनाई। मिली सकल रनिवासहिं जाई॥
करहिं
गान कल मंगल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानीं॥4॥
भावार्थ:-वे
सब कपट से सुंदर स्त्री का वेश बनाकर रनिवास में जा मिलीं और मनोहर वाणी से
मंगलगान करने लगीं। सब कोई हर्ष के विशेष वश थे, अतः किसी ने
उन्हें पहचाना नहीं॥4॥
छन्द
:
*
को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।
कल
गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली॥
आनंदकंदु
बिलोकि दूलहु सकलहियँ हरषित भई।
अंभोज
अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई॥
भावार्थ:-कौन
किसे जाने-पहिचाने! आनंद के वश हुई सब दूलह बने हुए ब्रह्म का परछन करने चलीं।
मनोहर गान हो रहा है। मधुर-मधुर नगाड़े बज रहे हैं, देवता फूल
बरसा रहे हैं, बड़ी अच्छी शोभा है। आनंदकन्द दूलह को देखकर सब
स्त्रियाँ हृदय में हर्षित हुईं। उनके कमल सरीखे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल
उमड़ आया और सुंदर अंगों में पुलकावली छा गई॥
दोहा
:
*
जो सुखु भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।
सो
न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु॥318॥
श्री
रामचन्द्रजी का वर वेश देखकर सीताजी की माता सुनयनाजी के मन में जो सुख हुआ, उसे हजारों सरस्वती और शेषजी सौ कल्पों में भी नहीं कह सकते (अथवा लाखों
सरस्वती और शेष लाखों कल्पों में भी नहीं कह सकते)॥318॥
चौपाई
:
*
नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी॥
बेद
बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू॥1॥
भावार्थ:-मंगल
अवसर जानकर नेत्रों के जल को रोके हुए रानी प्रसन्न मन से परछन कर रही हैं। वेदों
में कहे हुए तथा कुलाचार के अनुसार सभी व्यवहार रानी ने भलीभाँति किए॥1॥
*
पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना॥
करि
आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा॥2॥
भावार्थ:-पंचशब्द
(तंत्री,
ताल, झाँझ, नगारा और
तुरही- इन पाँच प्रकार के बाजों के शब्द), पंचध्वनि
(वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि,
शंखध्वनि और हुलूध्वनि) और मंगलगान हो रहे हैं। नाना प्रकार के
वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं। उन्होंने (रानी ने) आरती करके अर्घ्य दिया,
तब श्री रामजी ने मंडप में गमन किया॥2॥
*
दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे॥
समयँ
समयँ सुर बरषहिं फूला। सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला॥3॥
भावार्थ:-दशरथजी
अपनी मंडली सहित विराजमान हुए। उनके वैभव को देखकर लोकपाल भी लजा गए। समय-समय पर
देवता फूल बरसाते हैं और भूदेव ब्राह्मण समयानुकूल शांति पाठ करते हैं॥3॥
*
नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ न कोई॥
एहि
बिधि रामु मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए॥4॥
भावार्थ:-आकाश
और नगर में शोर मच रहा है। अपनी-पराई कोई कुछ भी नहीं सुनता। इस प्रकार श्री
रामचन्द्रजी मंडप में आए और अर्घ्य देकर आसन पर बैठाए गए॥4॥
छन्द
:
*
बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं।
मनि
बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं॥
ब्रह्मादि
सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
अवलोकि
रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं॥
भावार्थ:-आसन
पर बैठाकर,
आरती करके दूलह को देखकर स्त्रियाँ सुख पा रही हैं। वे ढेर के ढेर
मणि, वस्त्र और गहने निछावर करके मंगल गा रही हैं। ब्रह्मा
आदि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण का वेश बनाकर कौतुक देख रहे हैं। वे रघुकुल रूपी कमल
को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर अपना जीवन सफल जान
रहे हैं।
दोहा
:
*नाऊ
बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।
मुदित
असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ॥319॥
भावार्थ:-नाई, बारी, भाट और नट श्री रामचन्द्रजी की निछावर पाकर
आनंदित हो सिर नवाकर आशीष देते हैं, उनके हृदय में हर्ष
समाता नहीं है॥319॥
चौपाई
:
*
मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं॥
मिलत
महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥1॥
भावार्थ:-वैदिक
और लौकिक सब रीतियाँ करके जनकजी और दशरथजी बड़े प्रेम से मिले। दोनों महाराज मिलते
हुए बड़े ही शोभित हुए,
कवि उनके लिए उपमा खोज-खोजकर लजा गए॥1॥
*
लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी॥
सामध
देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे॥2॥
भावार्थ:-जब
कहीं भी उपमा नहीं मिली,
तब हृदय में हार मानकर उन्होंने मन में यही उपमा निश्चित की कि इनके
समान ये ही हैं। समधियों का मिलाप या परस्पर संबंध देखकर देवता अनुरक्त हो गए और
फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे॥2॥
*
जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें॥
सकल
भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू॥3॥
भावार्थ:-(वे
कहने लगे-) जबसे ब्रह्माजी ने जगत को उत्पन्न किया, तब से हमने
बहुत विवाह देखे- सुने, परन्तु सब प्रकार से समान साज-समाज
और बराबरी के (पूर्ण समतायुक्त) समधी तो आज ही देखे॥3॥
*
देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची॥
देत
पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए॥4॥
भावार्थ:-देवताओं
की सुंदर सत्यवाणी सुनकर दोनों ओर अलौकिक प्रीति छा गई। सुंदर पाँवड़े और अर्घ्य
देते हुए जनकजी दशरथजी को आदरपूर्वक मंडप में ले आए॥4॥
छन्द
:
*
मंडपु बिलोकि बिचित्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।
निज
पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे॥
कुल
इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि
पूजन परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥
भावार्थ:-मंडप
को देखकर उसकी विचित्र रचना और सुंदरता से मुनियों के मन भी हरे गए (मोहित हो गए)।
सुजान जनकजी ने अपने हाथों से ला-लाकर सबके लिए सिंहासन रखे। उन्होंने अपने कुल के
इष्टदेवता के समान वशिष्ठजी की पूजा की और विनय करके आशीर्वाद प्राप्त किया।
विश्वामित्रजी की पूजा करते समय की परम प्रीति की रीति तो कहते ही नहीं बनती॥
दोहा
:
*
बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस॥
दिए
दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस॥320॥
भावार्थ:-राजा
ने वामदेव आदि ऋषियों की प्रसन्न मन से पूजा की। सभी को दिव्य आसन दिए और सबसे
आशीर्वाद प्राप्त किया॥320॥
चौपाई
:
*
बहुरि कीन्हि कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा॥
कीन्हि
जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥1॥
भावार्थ:-फिर
उन्होंने कोसलाधीश राजा दशरथजी की पूजा उन्हें ईश (महादेवजी) के समान जानकर की, कोई दूसरा भाव न था। तदन्तर (उनके संबंध से) अपने भाग्य और वैभव के
विस्तार की सराहना करके हाथ जोड़कर विनती और बड़ाई की॥1॥
*
पूजे भूपति सकल बराती। समधी सम सादर सब भाँती॥
आसन
उचित दिए सब काहू। कहौं काह मुख एक उछाहू॥2॥
भावार्थ:-राजा
जनकजी ने सब बारातियों का समधी दशरथजी के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन
किया और सब किसी को उचित आसन दिए। मैं एक मुख से उस उत्साह का क्या वर्णन करूँ॥2॥
*
सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी॥
बिधि
हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥3॥
भावार्थ:-राजा
जनक ने दान,
मान-सम्मान, विनय और उत्तम वाणी से सारी बारात
का सम्मान किया। ब्रह्मा, विष्णु, शिव,
दिक्पाल और सूर्य जो श्री रघुनाथजी का प्रभाव जानते हैं,॥3॥
*
कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ॥
पूजे
जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें॥4॥
भावार्थ:-वे
कपट से ब्राह्मणों का सुंदर वेश बनाए बहुत ही सुख पाते हुए सब लीला देख रहे थे।
जनकजी ने उनको देवताओं के समान जानकर उनका पूजन किया और बिना पहिचाने भी उन्हें
सुंदर आसन दिए॥4॥
छन्द
:
*
पहिचान को केहि जान सबहि अपान सुधि भोरी भई।
आनंद
कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँदमई॥
सुर
लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।
अवलोकि
सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए॥
भावार्थ:-कौन
किसको जाने-पहिचाने! सबको अपनी ही सुध भूली हुई है। आनंदकन्द दूलह को देखकर दोनों
ओर आनंदमयी स्थिति हो रही है। सुजान (सर्वज्ञ) श्री रामचन्द्रजी ने देवताओं को पहिचान
लिया और उनकी मानसिक पूजा करके उन्हें मानसिक आसन दिए। प्रभु का शील-स्वभाव देखकर
देवगण मन में बहुत आनंदित हुए।
दोहा
:
*
रामचन्द्र मुख चंद्र छबि लोचन चारु चकोर।
करत
पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर॥321॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी के मुख रूपी चन्द्रमा की छबि को सभी के सुंदर नेत्र रूपी चकोर
आदरपूर्वक पान कर रहे हैं,
प्रेम और आनंद कम नहीं है (अर्थात बहुत है)॥321॥
चौपाई
:
*
समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानंदु सुनि आए॥
बेगि
कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई॥1॥
भावार्थ:-समय
देखकर वशिष्ठजी ने शतानंदजी को आदरपूर्वक बुलाया। वे सुनकर आदर के साथ आए।
वशिष्ठजी ने कहा- अब जाकर राजकुमारी को शीघ्र ले आइए। मुनि की आज्ञा पाकर वे
प्रसन्न होकर चले॥1॥
*
रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी॥
बिप्र
बधू कुल बृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमंगल गाईं॥2॥
भावार्थ:-बुद्धिमती
रानी पुरोहित की वाणी सुनकर सखियों समेत बड़ी प्रसन्न हुईं। ब्राह्मणों की
स्त्रियों और कुल की बूढ़ी स्त्रियों को बुलाकर उन्होंने कुलरीति करके सुंदर मंगल
गीत गाए॥2॥
*
नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा॥
तिन्हहि
देखि सुखु पावहिं नारी। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं॥3॥
भावार्थ:-श्रेष्ठ
देवांगनाएँ,
जो सुंदर मनुष्य-स्त्रियों के वेश में हैं, सभी
स्वभाव से ही सुंदरी और श्यामा (सोलह वर्ष की अवस्था वाली) हैं। उनको देखकर रनिवास
की स्त्रियाँ सुख पाती हैं और बिना पहिचान के ही वे सबको प्राणों से भी प्यारी हो
रही हैं॥3॥
*
बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी॥
सीय
सँवारि समाजु बनाई। मुदित मंडपहिं चलीं लवाई॥4॥
भावार्थ:-उन्हें
पार्वती,
लक्ष्मी और सरस्वती के समान जानकर रानी बार-बार उनका सम्मान करती
हैं। (रनिवास की स्त्रियाँ और सखियाँ) सीताजी का श्रृंगार करके, मंडली बनाकर, प्रसन्न होकर उन्हें मंडप में लिवा
चलीं॥4॥
श्री
सीता-राम विवाह,
विदाई
छन्द
:
*
चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं।
नवसप्त
साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥
कल
गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
मंजीर
नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं॥
भावार्थ:-सुंदर
मंगल का साज सजकर (रनिवास की) स्त्रियाँ और सखियाँ आदर सहित सीताजी को लिवा चलीं।
सभी सुंदरियाँ सोलहों श्रृंगार किए हुए मतवाले हाथियों की चाल से चलने वाली हैं।
उनके मनोहर गान को सुनकर मुनि ध्यान छोड़ देते हैं और कामदेव की कोयलें भी लजा जाती
हैं। पायजेब,
पैंजनी और सुंदर कंकण ताल की गति पर बड़े सुंदर बज रहे हैं।
दोहा
:
*
सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय।
छबि
ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥322॥
भावार्थ:-सहज
ही सुंदरी सीताजी स्त्रियों के समूह में इस प्रकार शोभा पा रही हैं, मानो छबि रूपी ललनाओं के समूह के बीच साक्षात परम मनोहर शोभा रूपी स्त्री
सुशोभित हो॥322॥
चौपाई
:
*
सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई॥
आवत
दीखि बरातिन्ह सीता। रूप रासि सब भाँति पुनीता॥1॥
भावार्थ:-सीताजी
की सुंदरता का वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धि
बहुत छोटी है और मनोहरता बहुत बड़ी है। रूप की राशि और सब प्रकार से पवित्र सीताजी
को बारातियों ने आते देखा॥1॥
*
सबहिं मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा॥
हरषे
दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥2॥
भावार्थ:-सभी
ने उन्हें मन ही मन प्रणाम किया। श्री रामचन्द्रजी को देखकर तो सभी पूर्णकाम
(कृतकृत्य) हो गए। राजा दशरथजी पुत्रों सहित हर्षित हुए। उनके हृदय में जितना आनंद
था,
वह कहा नहीं जा सकता॥2॥
*
सुर प्रनामु करि बरिसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मंगल मूला॥
गान
निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥3॥
भावार्थ:-देवता
प्रणाम करके फूल बरसा रहे हैं। मंगलों की मूल मुनियों के आशीर्वादों की ध्वनि हो
रही है। गानों और नगाड़ों के शब्द से बड़ा शोर मच रहा है। सभी नर-नारी प्रेम और आनंद
में मग्न हैं॥3॥
*एहि
बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई॥
तेहि
अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू॥4॥
भावार्थ:-इस
प्रकार सीताजी मंडप में आईं। मुनिराज बहुत ही आनंदित होकर शांतिपाठ पढ़ रहे हैं। उस
अवसर की सब रीति,
व्यवहार और कुलाचार दोनों कुलगुरुओं ने किए॥4॥
छन्द
:
*
आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।
सुर
प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं॥
मधुपर्क
मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहें।
भरे
कनक कोपर कलस सो तब लिएहिं परिचारक रहैं॥1॥
भावार्थ:-कुलाचार
करके गुरुजी प्रसन्न होकर गौरीजी, गणेशजी और ब्राह्मणों की पूजा
करा रहे हैं (अथवा ब्राह्मणों के द्वारा गौरी और गणेश की पूजा करवा रहे हैं)।
देवता प्रकट होकर पूजा ग्रहण करते हैं, आशीर्वाद देते हैं और
अत्यन्त सुख पा रहे हैं। मधुपर्क आदि जिस किसी भी मांगलिक पदार्थ की मुनि जिस समय
भी मन में चाह मात्र करते हैं, सेवकगण उसी समय सोने की
परातों में और कलशों में भरकर उन पदार्थों को लिए तैयार रहते हैं॥1॥
*
कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो।
एहि
भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो॥
सिय
राम अवलोकनि परसपर प्रेमु काहुँ न लखि परै।
मन
बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै॥2॥
भावार्थ:-स्वयं
सूर्यदेव प्रेम सहित अपने कुल की सब रीतियाँ बता देते हैं और वे सब आदरपूर्वक की
जा रही हैं। इस प्रकार देवताओं की पूजा कराके मुनियों ने सीताजी को सुंदर सिंहासन
दिया। श्री सीताजी और श्री रामजी का आपस में एक-दूसरे को देखना तथा उनका परस्पर का
प्रेम किसी को लख नहीं पड़ रहा है, जो बात श्रेष्ठ मन, बुद्धि और वाणी से भी परे है, उसे कवि क्यों कर
प्रकट करे?॥2॥
दोहा
:
*
होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।
बिप्र
बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं॥323॥
भावार्थ:-हवन
के समय अग्निदेव शरीर धारण करके बड़े ही सुख से आहुति ग्रहण करते हैं और सारे वेद
ब्राह्मण वेष धरकर विवाह की विधियाँ बताए देते हैं॥323॥
चौपाई
:
*
जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी॥॥
सुजसु
सुकृत सुख सुंदरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥1॥
भावार्थ:-जनकजी
की जगविख्यात पटरानी और सीताजी की माता का बखान तो हो ही कैसे सकता है। सुयश, सुकृत (पुण्य), सुख और सुंदरता सबको बटोरकर विधाता
ने उन्हें सँवारकर तैयार किया है॥1॥
*
समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाईं। सुनत सुआसिनि सादर ल्याईं॥
जनक
बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनी जनु मयना॥2॥
भावार्थ:-समय
जानकर श्रेष्ठ मुनियों ने उनको बुलवाया। यह सुनते ही सुहागिनी स्त्रियाँ उन्हें
आदरपूर्वक ले आईं। सुनयनाजी (जनकजी की पटरानी) जनकजी की बाईं ओर ऐसी सोह रही हैं, मानो हिमाचल के साथ मैनाजी शोभित हों॥2॥
*
कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुगंध मंगल जल पूरे॥
निज
कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी॥3॥
भावार्थ:-पवित्र, सुगंधित और मंगल जल से भरे सोने के कलश और मणियों की सुंदर परातें राजा और
रानी ने आनंदित होकर अपने हाथों से लाकर श्री रामचन्द्रजी के आगे रखीं॥3॥
*
पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी॥
बरु
बिलोकि दंपति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे॥4॥
भावार्थ:-मुनि
मंगलवाणी से वेद पढ़ रहे हैं। सुअवसर जानकर आकाश से फूलों की झड़ी लग गई है। दूलह को
देखकर राजा-रानी प्रेममग्न हो गए और उनके पवित्र चरणों को पखारने लगे॥4॥
छन्द
:
*
लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।
नभ
नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥
जे
पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
जे
सुकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥1॥
भावार्थ:-वे
श्री रामजी के चरण कमलों को पखारने लगे, प्रेम से उनके शरीर
में पुलकावली छा रही है। आकाश और नगर में होने वाली गान, नगाड़े
और जय-जयकार की ध्वनि मानो चारों दिशाओं में उमड़ चली, जो चरण
कमल कामदेव के शत्रु श्री शिवजी के हृदय रूपी सरोवर में सदा ही विराजते हैं,
जिनका एक बार भी स्मरण करने से मन में निर्मलता आ जाती है और कलियुग
के सारे पाप भाग जाते हैं,॥1।
*
जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।
मकरंदु
जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥
करि
मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
ते
पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहैं॥2॥
भावार्थ:-जिनका
स्पर्श पाकर गौतम मुनि की स्त्री अहल्या ने, जो पापमयी थी,
परमगति पाई, जिन चरणकमलों का मकरन्द रस
(गंगाजी) शिवजी के मस्तक पर विराजमान है, जिसको देवता
पवित्रता की सीमा बताते हैं, मुनि और योगीजन अपने मन को
भौंरा बनाकर जिन चरणकमलों का सेवन करके मनोवांछित गति प्राप्त करते हैं, उन्हीं चरणों को भाग्य के पात्र (बड़भागी) जनकजी धो रहे हैं, यह देखकर सब जय-जयकार कर रहे हैं॥2॥
*बर
कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।
भयो
पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरैं॥
सुखमूल
दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि
लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥3॥
भावार्थ:-दोनों
कुलों के गुरु वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर शाखोच्चार करने लगे। पाणिग्रहण
हुआ देखकर ब्रह्मादि देवता,
मनुष्य और मुनि आनंद में भर गए। सुख के मूल दूलह को देखकर राजा-रानी
का शरीर पुलकित हो गया और हृदय आनंद से उमंग उठा। राजाओं के अलंकार स्वरूप महाराज
जनकजी ने लोक और वेद की रीति को करके कन्यादान किया॥3॥
*
हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
तिमि
जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
क्यों
करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।
करि
होमु बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावँरीं॥4॥
भावार्थ:-जैसे
हिमवान ने शिवजी को पार्वतीजी और सागर ने भगवान विष्णु को लक्ष्मीजी दी थीं, वैसे ही जनकजी ने श्री रामचन्द्रजी को सीताजी समर्पित कीं, जिससे विश्व में सुंदर नवीन कीर्ति छा गई। विदेह (जनकजी) कैसे विनती करें!
उस साँवली मूर्ति ने तो उन्हें सचमुच विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) ही कर दिया।
विधिपूर्वक हवन करके गठजोड़ी की गई और भाँवरें होने लगीं॥4॥
दोहा
:
*
जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान।
सुनि
हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान॥324॥
भावार्थ:-जय
ध्वनि,
वन्दी ध्वनि, वेद ध्वनि, मंगलगान और नगाड़ों की ध्वनि सुनकर चतुर देवगण हर्षित हो रहे हैं और
कल्पवृक्ष के फूलों को बरसा रहे हैं॥324॥
चौपाई
:
*
कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं। नयन लाभु सब सादर लेहीं॥
जाइ
न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी॥1॥
भावार्थ:-वर
और कन्या सुंदर भाँवरें दे रहे हैं। सब लोग आदरपूर्वक (उन्हें देखकर) नेत्रों का
परम लाभ ले रहे हैं। मनोहर जोड़ी का वर्णन नहीं हो सकता, जो कुछ उपमा कहूँ वही थोड़ी होगी॥1॥
*
राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खंभन माहीं
मनहुँ
मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा॥2॥
भावार्थ:-श्री
रामजी और श्री सीताजी की सुंदर परछाहीं मणियों के खम्भों में जगमगा रही हैं, मानो कामदेव और रति बहुत से रूप धारण करके श्री रामजी के अनुपम विवाह को
देख रहे हैं॥2॥
*
दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी॥
भए
मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे॥3॥
भावार्थ:-
उन्हें (कामदेव और रति को) दर्शन की लालसा और संकोच दोनों ही कम नहीं हैं (अर्थात
बहुत हैं),
इसीलिए वे मानो बार-बार प्रकट होते और छिपते हैं। सब देखने वाले
आनंदमग्न हो गए और जनकजी की भाँति सभी अपनी सुध भूल गए॥3॥
*
प्रमुदित मुनिन्ह भावँरीं फेरीं। नेगसहित सब रीति निवेरीं॥
राम
सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं॥4॥
भावार्थ:-मुनियों
ने आनंदपूर्वक भाँवरें फिराईं और नेग सहित सब रीतियों को पूरा किया। श्री
रामचन्द्रजी सीताजी के सिर में सिंदूर दे रहे हैं, यह शोभा
किसी प्रकार भी कही नहीं जाती॥4॥
*
अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें॥
बहुरि
बसिष्ठ दीन्हि अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन॥5॥
भावार्थ:-मानो
कमल को लाल पराग से अच्छी तरह भरकर अमृत के लोभ से साँप चन्द्रमा को भूषित कर रहा
है। (यहाँ श्री राम के हाथ को कमल की, सेंदूर को पराग की,
श्री राम की श्याम भुजा को साँप की और सीताजी के मुख को चन्द्रमा की
उपमा दी गई है।) फिर वशिष्ठजी ने आज्ञा दी, तब दूलह और
दुलहिन एक आसन पर बैठे॥5॥
छन्द
:
*
बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए।
तनु
पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु पल नए॥
भरि
भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।
केहि
भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामजी और जानकीजी श्रेष्ठ आसन पर बैठे, उन्हें देखकर
दशरथजी मन में बहुत आनंदित हुए। अपने सुकृत रूपी कल्प वृक्ष में नए फल (आए) देखकर
उनका शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है। चौदहों भुवनों में उत्साह भर गया, सबने कहा कि श्री रामचन्द्रजी का विवाह हो गया। जीभ एक है और यह मंगल महान
है, फिर भला, वह वर्णन करके किस प्रकार
समाप्त किया जा सकता है॥1॥
*
तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
मांडवी
श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
कुसकेतु
कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब
रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥2॥
भावार्थ:-
तब वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर जनकजी ने विवाह का सामान सजाकर माण्डवीजी, श्रुतकीर्तिजी और उर्मिलाजी इन तीनों राजकुमारियों को बुला लिया। कुश ध्वज
की बड़ी कन्या माण्डवीजी को, जो गुण, शील,
सुख और शोभा की रूप ही थीं, राजा जनक ने
प्रेमपूर्वक सब रीतियाँ करके भरतजी को ब्याह दिया॥2॥
*
जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै।
सो
तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥
जेहि
नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
सो
दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥3॥
भावार्थ:-जानकीजी
की छोटी बहिन उर्मिलाजी को सब सुंदरियों में शिरोमणि जानकर उस कन्या को सब प्रकार
से सम्मान करके,
लक्ष्मणजी को ब्याह दिया और जिनका नाम श्रुतकीर्ति है और जो सुंदर
नेत्रों वाली, सुंदर मुखवाली, सब गुणों
की खान और रूप तथा शील में उजागर हैं, उनको राजा ने शत्रुघ्न
को ब्याह दिया॥3॥
*
अनुरूप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं।
सब
मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं॥
सुंदरीं
सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं।
जनु
जीव उर चारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं॥4॥
भावार्थ:-दूलह
और दुलहिनें परस्पर अपने-अपने अनुरूप जोड़ी को देखकर सकुचाते हुए हृदय में हर्षित
हो रही हैं। सब लोग प्रसन्न होकर उनकी सुंदरता की सराहना करते हैं और देवगण फूल
बरसा रहे हैं। सब सुंदरी दुलहिनें सुंदर दूल्हों के साथ एक ही मंडप में ऐसी शोभा
पा रही हैं,
मानो जीव के हृदय में चारों अवस्थाएँ (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) अपने चारों स्वामियों
(विश्व, तैजस, प्राज्ञ और ब्रह्म) सहित
विराजमान हों॥4॥
दोहा
:
*
मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।
जनु
पाए महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि॥325॥
भावार्थ:-सब
पुत्रों को बहुओं सहित देखकर अवध नरेश दशरथजी ऐसे आनंदित हैं, मानो वे राजाओं के शिरोमणि क्रियाओं (यज्ञक्रिया, श्रद्धाक्रिया,
योगक्रिया और ज्ञानक्रिया) सहित चारों फल (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) पा गए हों॥325॥
चौपाई
:
*
जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी॥
कहि
न जा कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मंडपु पूरी॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी के विवाह की जैसी विधि वर्णन की गई, उसी रीति से
सब राजकुमार विवाहे गए। दहेज की अधिकता कुछ कही नहीं जाती, सारा
मंडप सोने और मणियों से भर गया॥1॥
*
कंबल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे॥
गज
रथ तुरगदास अरु दासी। धेनु अलंकृत कामदुहा सी॥2॥
भावार्थ:-बहुत
से कम्बल,
वस्त्र और भाँति-भाँति के विचित्र रेशमी कपड़े, जो थोड़ी कीमत के न थे (अर्थात बहुमूल्य थे) तथा हाथी, रथ, घोड़े, दास-दासियाँ और
गहनों से सजी हुई कामधेनु सरीखी गायें-॥2॥
*
बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा॥
लोकपाल
अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने॥3॥
भावार्थ:-(आदि)
अनेकों वस्तुएँ हैं,
जिनकी गिनती कैसे की जाए। उनका वर्णन नहीं किया जा सकता, जिन्होंने देखा है, वही जानते हैं। उन्हें देखकर
लोकपाल भी सिहा गए। अवधराज दशरथजी ने सुख मानकर प्रसन्नचित्त से सब कुछ ग्रहण
किया॥3॥
*
दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा॥
तब
कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी॥4॥
भावार्थ:-उन्होंने
वह दहेज का सामान याचकों को, जो जिसे अच्छा लगा, दे दिया। जो बच रहा, वह जनवासे में चला आया। तब
जनकजी हाथ जोड़कर सारी बारात का सम्मान करते हुए कोमल वाणी से बोले॥4॥
छन्द
:
*
सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै।
प्रमुदित
महामुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै॥
सिरु
नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ।
सुर
साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ॥1॥
भावार्थ:-आदर, दान, विनय और बड़ाई के द्वारा सारी बारात का सम्मान
कर राजा जनक ने महान आनंद के साथ प्रेमपूर्वक लड़ाकर (लाड़ करके) मुनियों के समूह की
पूजा एवं वंदना की। सिर नवाकर, देवताओं को मनाकर, राजा हाथ जोड़कर सबसे कहने लगे कि देवता और साधु तो भाव ही चाहते हैं,
(वे प्रेम से ही प्रसन्न हो जाते हैं, उन
पूर्णकाम महानुभावों को कोई कुछ देकर कैसे संतुष्ट कर सकता है), क्या एक अंजलि जल देने से कहीं समुद्र संतुष्ट हो सकता है॥1॥
*
कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों।
बोले
मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों॥
संबंध
राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए।
एहि
राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥2॥
भावार्थ:-फिर
जनकजी भाई सहित हाथ जोड़कर कोसलाधीश दशरथजी से स्नेह, शील और
सुंदर प्रेम में सानकर मनोहर वचन बोले- हे राजन्! आपके साथ संबंध हो जाने से अब
हम सब प्रकार से बड़े हो गए। इस राज-पाट सहित हम दोनों को आप बिना दाम के लिए हुए
सेवक ही समझिएगा॥2॥
*
ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।
अपराधु
छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई॥
पुनि
भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।
कहि
जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥3॥
भावार्थ:-इन
लड़कियों को टहलनी मानकर,
नई-नई दया करके पालन कीजिएगा। मैंने बड़ी ढिठाई की कि आपको यहाँ बुला
भेजा, अपराध क्षमा कीजिएगा। फिर सूर्यकुल के भूषण दशरथजी ने
समधी जनकजी को सम्पूर्ण सम्मान का निधि कर दिया (इतना सम्मान किया कि वे सम्मान के
भंडार ही हो गए)। उनकी परस्पर की विनय कही नहीं जाती, दोनों
के हृदय प्रेम से परिपूर्ण हैं॥3॥
*
बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।
दुंदुभी
जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले॥
तब
सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।
दूलह
दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥4॥
भावार्थ:-देवतागण
फूल बरसा रहे हैं,
राजा जनवासे को चले। नगाड़े की ध्वनि, जयध्वनि
और वेद की ध्वनि हो रही है, आकाश और नगर दोनों में खूब
कौतूहल हो रहा है (आनंद छा रहा है), तब मुनीश्वर की आज्ञा
पाकर सुंदरी सखियाँ मंगलगान करती हुई दुलहिनों सहित दूल्हों को लिवाकर कोहबर को
चलीं॥4॥
दोहा
:
*
पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न।
हरत
मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन॥326॥
भावार्थ:-सीताजी
बार-बार रामजी को देखती हैं और सकुचा जाती हैं, पर उनका मन नहीं
सकुचाता। प्रेम के प्यासे उनके नेत्र सुंदर मछलियों की छबि को हर रहे हैं॥326॥
मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम
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