Tuesday, 4 June 2013

परमार्थ की मन्दाकिनीं -4-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, एकादशी, मंगलवार, वि० स० २०७०

अपने ‘स्व’ को विस्तृत करें --

गत ब्लॉग से आगे ... याद रखो -सेवक, देशभक्त और इश्वरभक्त पदका अधिकारी वही होता है, जिसका ‘स्व’ छोटी सीमा से निकलकर बड़ी-से-बड़ी सीमा में पहुँचता हुआ अन्तमें असीममें जा मिलता है | जिसका ‘स्व’ सर्वभूतमय है, वही सबका सच्चा सेवक बन सकता है, जिसका ‘स्व’ देशके स्व में मिलकर देश आत्मबोध की अनुभूति करा देता है, वही देशभक्त होता है और जिसका ‘स्व’ असीम अनंत सर्वात्मा भगवानके साथ एकात्माको प्राप्त कर सर्वात्मरूप हो जाता है, जो प्रत्येक चराचर प्राणी में सदा-सर्वदा भगवानके ही मंगलमय दर्शन करता है, वही इश्वरभक्त है | ऐसे लोगों के जीवनमें उत्तरोत्तर ‘त्याग’ की वृद्धि होकर वह सदा असीमकी ओर अग्रसर होता रहता है | जितना-जितना त्याग बढ़ता है, उतना-उतना ‘स्व’ का विस्तार तथा ‘स्वार्थ’ पवित्र होता है |

 

याद रखो -जो भोग आसक्त हैं, जो नाम-रूप के मिथ्या सुखका आकांक्षी है, जो प्रत्येक कार्यका भौतिक भोगफल चाहता है, वह कभी यथार्थ त्याग नहीं कर सकता | उसमें कहीं त्याग दिखाई देगा भी तो वह वस्तुतः भोगके साधनरूपमें होगा; विशुद्ध त्याग का उदय उसमें नहीं होगा | और त्याग के बिना कभी न सच्ची सेवा हो सकती है, न भक्ति और न प्रेम ही |          

 

याद रखो -निज भोगसुखके लिए जो विचार तथा कर्म होते हैं, उनमें पर-हित तथा पर-सुख का ख्याल नहीं रहता, वरं अवहेलनासे और नीच स्वार्थवश तमसाच्छन्न विपरीत बुद्धि हो जानेके कारण आगे चलकर दूसरों के दुःख तथा अहित की चेष्टा तथा प्रयत्न भी होने लगते हैं और यह निश्चित है जिस कार्य से दुसरोंका परिणाम में असुख और अहित होता है, उससे हमारा परिणाम में कभी हित नहीं हो सकता है | अतएव परिणाम में अपना सुख तथा हित चाहने वाले बुद्धिमान पुरुषका यह कर्तव्य होता है की वह अपने ‘स्व’ को सिमित न रखकर विस्तृत करें और ऐसे ही विचार तथा कर्म करे, जिनसे परिणाम में विश्व के प्राणिमात्र को सुख तथा उनका हित-साधन हो |....शेष अगले ब्लॉग में.         

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं, कल्याण कुञ्ज भाग – ७,  पुस्तक कोड ३६४,  गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!  
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Ram