श्रीरामचरितमानस
बालकाण्ड
चौपाई
:
*
स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन॥
जावक
जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी का साँवला शरीर स्वभाव से ही सुंदर है। उसकी शोभा करोड़ों कामदेवों को
लजाने वाली है। महावर से युक्त चरण कमल बड़े सुहावने लगते हैं, जिन पर मुनियों के मन रूपी भौंरे सदा छाए रहते हैं॥1॥
*
पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती॥
कल
किंकिनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर॥2॥
भावार्थ:-पवित्र
और मनोहर पीली धोती प्रातःकाल के सूर्य और बिजली की ज्योति को हरे लेती है। कमर
में सुंदर किंकिणी और कटिसूत्र हैं। विशाल भुजाओं में सुंदर आभूषण सुशोभित हैं॥2॥
*
पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई॥
सोहत
ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे॥3॥
भावार्थ:-पीला
जनेऊ महान शोभा दे रहा है। हाथ की अँगूठी चित्त को चुरा लेती है। ब्याह के सब साज
सजे हुए वे शोभा पा रहे हैं। चौड़ी छाती पर हृदय पर पहनने के सुंदर आभूषण सुशोभित
हैं॥3॥
*
पिअर उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती॥
नयन
कमल कल कुंडल काना। बदनु सकल सौंदर्ज निदाना॥4॥
भावार्थ:-पीला
दुपट्टा काँखासोती (जनेऊ की तरह) शोभित है, जिसके दोनों छोरों
पर मणि और मोती लगे हैं। कमल के समान सुंदर नेत्र हैं, कानों
में सुंदर कुंडल हैं और मुख तो सारी सुंदरता का खजाना ही है॥4॥
*
सुंदर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा॥
सोहत
मौरु मनोहर माथे। मंगलमय मुकुता मनि गाथे॥5॥
भावार्थ:-सुंदर
भौंहें और मनोहर नासिका है। ललाट पर तिलक तो सुंदरता का घर ही है, जिसमें मंगलमय मोती और मणि गुँथे हुए हैं, ऐसा मनोहर
मौर माथे पर सोह रहा है॥5॥
छन्द
:
*
गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं।
पुर
नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं॥
मनि
बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहीं।
सुर
सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं॥1॥
भावार्थ:-सुंदर
मौर में बहुमूल्य मणियाँ गुँथी हुई हैं, सभी अंग चित्त को
चुराए लेते हैं। सब नगर की स्त्रियाँ और देवसुंदरियाँ दूलह को देखकर तिनका तोड़ रही
हैं (उनकी बलैयाँ ले रही हैं) और मणि, वस्त्र तथा आभूषण
निछावर करके आरती उतार रही और मंगलगान कर रही हैं। देवता फूल बरसा रहे हैं और सूत,
मागध तथा भाट सुयश सुना रहे हैं॥1॥
*कोहबरहिं
आने कुअँर कुअँरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।
अति
प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै॥
लहकौरि
गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
रनिवासु
हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं॥2॥
भावार्थ:-सुहागिनी
स्त्रियाँ सुख पाकर कुँअर और कुमारियों को कोहबर (कुलदेवता के स्थान) में लाईं और
अत्यन्त प्रेम से मंगल गीत गा-गाकर लौकिक रीति करने लगीं। पार्वतीजी श्री
रामचन्द्रजी को लहकौर (वर-वधू का परस्पर ग्रास देना) सिखाती हैं और सरस्वतीजी
सीताजी को सिखाती हैं। रनिवास हास-विलास के आनंद में मग्न है, (श्री रामजी और सीताजी को देख-देखकर) सभी जन्म का परम फल प्राप्त कर रही
हैं॥2॥
*
निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।
चालति
न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी॥
कौतुक
बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।
बर
कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं॥3॥
भावार्थ:-'अपने हाथ की मणियों में सुंदर रूप के भण्डार श्री रामचन्द्रजी की परछाहीं
दिख रही है। यह देखकर जानकीजी दर्शन में वियोग होने के भय से बाहु रूपी लता को और
दृष्टि को हिलाती-डुलाती नहीं हैं। उस समय के हँसी-खेल और विनोद का आनंद और प्रेम
कहा नहीं जा सकता, उसे सखियाँ ही जानती हैं। तदनन्तर
वर-कन्याओं को सब सुंदर सखियाँ जनवासे को लिवा चलीं॥3॥
*
तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।
चिरु
जिअहुँ जोरीं चारु चार्यो मुदित मन सबहीं कहा॥
जोगींद्र
सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी।
चले
हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी॥4॥
भावार्थ:-उस
समय नगर और आकाश में जहाँ सुनिए, वहीं आशीर्वाद की ध्वनि सुनाई
दे रही है और महान आनंद छाया है। सभी ने प्रसन्न मन से कहा कि सुंदर चारों जोड़ियाँ
चिरंजीवी हों। योगीराज, सिद्ध, मुनीश्वर
और देवताओं ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी को देखकर दुन्दुभी बजाई और हर्षित होकर
फूलों की वर्षा करते हुए तथा 'जय हो, जय
हो, जय हो' कहते हुए वे अपने-अपने लोक
को चले॥4॥
दोहा
:
*
सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास।
सोभा
मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास॥327॥
भावार्थ:-तब
सब (चारों) कुमार बहुओं सहित पिताजी के पास आए। ऐसा मालूम होता था मानो शोभा, मंगल और आनंद से भरकर जनवासा उमड़ पड़ा हो॥327॥
चौपाई
:
*
पुनि जेवनार भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती॥
परत
पाँवड़े बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा॥1॥
भावार्थ:-फिर
बहुत प्रकार की रसोई बनी। जनकजी ने बारातियों को बुला भेजा। राजा दशरथजी ने
पुत्रों सहित गमन किया। अनुपम वस्त्रों के पाँवड़े पड़ते जाते हैं॥1॥
*
सादर सब के पाय पखारे। जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे॥
धोए
जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना॥2॥
भावार्थ:-आदर
के साथ सबके चरण धोए और सबको यथायोग्य पीढ़ों पर बैठाया। तब जनकजी ने अवधपति दशरथजी
के चरण धोए। उनका शील और स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता॥2॥
*
बहुरि राम पद पंकज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए॥
तीनिउ
भाइ राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी॥3॥
भावार्थ:-फिर
श्री रामचन्द्रजी के चरणकमलों को धोया, जो श्री शिवजी के
हृदय कमल में छिपे रहते हैं। तीनों भाइयों को श्री रामचन्द्रजी के समान जानकर
जनकजी ने उनके भी चरण अपने हाथों से धोए॥3॥
*
आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे॥
सादर
लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे॥4॥
भावार्थ:-राजा
जनकजी ने सभी को उचित आसन दिए और सब परसने वालों को बुला लिया। आदर के साथ पत्तलें
पड़ने लगीं,
जो मणियों के पत्तों से सोने की कील लगाकर बनाई गई थीं॥4॥
दोहा
:
*
सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत।
छन
महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत॥328॥
भावार्थ:-चतुर
और विनीत रसोइए सुंदर,
स्वादिष्ट और पवित्र दाल-भात और गाय का (सुगंधित) घी क्षण भर में
सबके सामने परस गए॥328॥
चौपाई
:
*
पंच कवल करि जेवन लागे। गारि गान सुनि अति अनुरागे।
भाँति
अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने॥1॥
भावार्थ:-सब
लोग पंचकौर करके (अर्थात 'प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा और समानाय स्वाहा'
इन मंत्रों का उच्चारण करते हुए पहले पाँच ग्रास लेकर) भोजन करने लगे।
गाली का गाना सुनकर वे अत्यन्त प्रेममग्न हो गए। अनेकों तरह के अमृत के समान
(स्वादिष्ट) पकवान परसे गए, जिनका बखान नहीं हो सकता॥1॥
*
परुसन लगे सुआर सुजाना। बिंजन बिबिध नाम को जाना॥
चारि
भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई॥2॥
भावार्थ:-चतुर
रसोइए नाना प्रकार के व्यंजन परसने लगे, उनका नाम कौन जानता
है। चार प्रकार के (चर्व्य, चोष्य, लेह्य,
पेय अर्थात चबाकर, चूसकर, चाटकर और पीना-खाने योग्य) भोजन की विधि कही गई है, उनमें
से एक-एक विधि के इतने पदार्थ बने थे कि जिनका वर्ण नहीं किया जा सकता॥2॥
*
छरस रुचिर बिंजन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती॥
जेवँत
देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी॥3॥
भावार्थ:-छहों
रसों के बहुत तरह के सुंदर (स्वादिष्ट) व्यंजन हैं। एक-एक रस के अनगिनत प्रकार के
बने हैं। भोजन के समय पुरुष और स्त्रियों के नाम ले-लेकर स्त्रियाँ मधुर ध्वनि से
गाली दे रही हैं (गाली गा रही हैं)॥3॥
*
समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा॥
एहि
बिधि सबहीं भोजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा॥4॥
भावार्थ:-समय
की सुहावनी गाली शोभित हो रही है। उसे सुनकर समाज सहित राजा दशरथजी हँस रहे हैं।
इस रीति से सभी ने भोजन किया और तब सबको आदर सहित आचमन (हाथ-मुँह धोने के लिए जल)
दिया गया॥4॥
दोहा
:
*
देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।
जनवासेहि
गवने मुदित सकल भूप सिरताज॥329॥
भावार्थ:-फिर
पान देकर जनकजी ने समाज सहित दशरथजी का पूजन किया। सब राजाओं के सिरमौर (चक्रवर्ती)
श्री दशरथजी प्रसन्न होकर जनवासे को चले॥329॥
चौपाई
:
*
नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं॥
बड़े
भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे॥1॥
भावार्थ:-जनकपुर
में नित्य नए मंगल हो रहे हैं। दिन और रात पल के समान बीत जाते हैं। बड़े सबेरे राजाओं
के मुकुटमणि दशरथजी जागे। याचक उनके गुण समूह का गान करने लगे॥1॥
*
देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता॥
प्रातक्रिया
करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं॥2॥
भावार्थ:-चारों
कुमारों को सुंदर वधुओं सहित देखकर उनके मन में जितना आनंद है, वह किस प्रकार कहा जा सकता है? वे प्रातः क्रिया
करके गुरु वशिष्ठजी के पास गए। उनके मन में महान आनंद और प्रेम भरा है॥2॥
*
करि प्रनामु पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी॥
तुम्हरी
कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरन काजा॥3॥
भावार्थ:-राजा
प्रणाम और पूजन करके,
फिर हाथ जोड़कर मानो अमृत में डुबोई हुई वाणी बोले- हे मुनिराज!
सुनिए, आपकी कृपा से आज मैं पूर्णकाम हो गया॥3॥
*
अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाईं॥
सुनि
गुर करि महिपाल बड़ाई। पुनि पठए मुनिबृंद बोलाई॥4॥
भावार्थ:-हे
स्वामिन्! अब सब ब्राह्मणों को बुलाकर उनको सब तरह (गहनों-कपड़ों) से सजी हुई
गायें दीजिए। यह सुनकर गुरुजी ने राजा की बड़ाई करके फिर मुनिगणों को बुलवा भेजा॥4॥
दोहा
:
*
बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि।
आए
मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि॥330॥
भावार्थ:-तब
वामदेव,
देवर्षि नारद, वाल्मीकि, जाबालि और विश्वामित्र आदि तपस्वी श्रेष्ठ मुनियों के समूह के समूह
आए॥330॥
चौपाई
:
*
दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे॥
चारि
लच्छ बर धेनु मगाईं। काम सुरभि सम सील सुहाईं॥1॥
भावार्थ:-राजा
ने सबको दण्डवत् प्रणाम किया और प्रेम सहित पूजन करके उन्हें उत्तम आसन दिए। चार
लाख उत्तम गायें मँगवाईं,
जो कामधेनु के समान अच्छे स्वभाव वाली और सुहावनी थीं॥1॥
*
सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं॥
करत
बिनय बहु बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जग जीवन लाहू॥2॥
भावार्थ:-उन
सबको सब प्रकार से (गहनों-कपड़ों से) सजाकर राजा ने प्रसन्न होकर भूदेव ब्राह्मणों
को दिया। राजा बहुत तरह से विनती कर रहे हैं कि जगत में मैंने आज ही जीने का लाभ
पाया॥2॥
*
पाइ असीस महीसु अनंदा। लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा॥
कनक
बसन मनि हय गय स्यंदन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन॥3॥
भावार्थ:-(ब्राह्मणों
से) आशीर्वाद पाकर राजा आनंदित हुए। फिर याचकों के समूहों को बुलवा लिया और सबको
उनकी रुचि पूछकर सोना,
वस्त्र, मणि, घोड़ा,
हाथी और रथ (जिसने जो चाहा सो) सूर्यकुल को आनंदित करने वाले दशरथजी
ने दिए॥3॥
*
चले पढ़त गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा॥
एहि
बिधि राम बिआह उछाहू। सकइ न बरनि सहस मुख जाहू॥4॥
भावार्थ:-वे
सब गुणानुवाद गाते और 'सूर्यकुल के स्वामी की जय हो, जय हो, जय हो' कहते हुए चले। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी के
विवाह का उत्सव हुआ, जिन्हें सहस्र मुख हैं, वे शेषजी भी उसका वर्णन नहीं कर सकते॥4॥
दोहा
:
*
बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।
यह
सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ॥331॥
भावार्थ:-बार-बार
विश्वामित्रजी के चरणों में सिर नवाकर राजा कहते हैं- हे मुनिराज! यह सब सुख आपके
ही कृपाकटाक्ष का प्रसाद है॥331॥
चौपाई
:
*
जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती॥
दिन
उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा॥1॥
भावार्थ:-राजा
दशरथजी जनकजी के स्नेह,
शील, करनी और ऐश्वर्य की सब प्रकार से सराहना
करते हैं। प्रतिदिन (सबेरे) उठकर अयोध्या नरेश विदा माँगते हैं। पर जनकजी उन्हें
प्रेम से रख लेते हैं॥1॥
*
नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई॥
नित
नव नगर अनंद उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ न काहू॥2॥
भावार्थ:-आदर
नित्य नया बढ़ता जाता है। प्रतिदिन हजारों प्रकार से मेहमानी होती है। नगर में
नित्य नया आनंद और उत्साह रहता है, दशरथजी का जाना
किसी को नहीं सुहाता॥2॥
*
बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती॥
कौसिक
सतानंद तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई॥3॥
भावार्थ:-इस
प्रकार बहुत दिन बीत गए,
मानो बाराती स्नेह की रस्सी से बँध गए हैं। तब विश्वामित्रजी और
शतानंदजी ने जाकर राजा जनक को समझाकर कहा-॥3॥
*
अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू॥
भलेहिं
नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए॥4॥
भावार्थ:-यद्यपि
आप स्नेह (वश उन्हें) नहीं छोड़ सकते, तो भी अब दशरथजी को
आज्ञा दीजिए। 'हे नाथ! बहुत अच्छा' कहकर
जनकजी ने मंत्रियों को बुलवाया। वे आए और 'जय जीव' कहकर उन्होंने मस्तक नवाया॥4॥
दोहा
:
*
अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।
भए
प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ॥332॥
भावार्थ:-(जनकजी
ने कहा-) अयोध्यानाथ चलना चाहते हैं, भीतर (रनिवास में)
खबर कर दो। यह सुनकर मंत्री, ब्राह्मण, सभासद और राजा जनक भी प्रेम के वश हो गए॥332॥
चौपाई
:
*
पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता॥
सत्य
गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने॥1॥
भावार्थ:-जनकपुरवासियों
ने सुना कि बारात जाएगी,
तब वे व्याकुल होकर एक-दूसरे से बात पूछने लगे। जाना सत्य है,
यह सुनकर सब ऐसे उदास हो गए मानो संध्या के समय कमल सकुचा गए हों॥1॥
*
जहँ जहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती॥
बिबिध
भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना॥2॥
भावार्थ:-आते
समय जहाँ-जहाँ बाराती ठहरे थे, वहाँ-वहाँ बहुत प्रकार का सीधा
(रसोई का सामान) भेजा गया। अनेकों प्रकार के मेवे, पकवान और
भोजन की सामग्री जो बखानी नहीं जा सकती-॥2॥
*
भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठईं जनक अनेक सुसारा॥
तुरग
लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा॥3॥
भावार्थ:-अनगिनत
बैलों और कहारों पर भर-भरकर (लाद-लादकर) भेजी गई। साथ ही जनकजी ने अनेकों सुंदर
शय्याएँ (पलंग) भेजीं। एक लाख घोड़े और पचीस हजार रथ सब नख से शिखा तक (ऊपर से नीचे
तक) सजाए हुए,॥3॥
दोहा
:
*
मत्त सहस दस सिंधुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे॥
कनक
बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना॥4॥
भावार्थ:-दस
हजार सजे हुए मतवाले हाथी,
जिन्हें देखकर दिशाओं के हाथी भी लजा जाते हैं, गाड़ियों में भर-भरकर सोना, वस्त्र और रत्न (जवाहरात)
और भैंस, गाय तथा और भी नाना प्रकार की चीजें दीं॥4॥
दोहा
:
*
दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।
जो
अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि॥333॥
भावार्थ:-(इस
प्रकार) जनकजी ने फिर से अपरिमित दहेज दिया, जो कहा नहीं जा
सकता और जिसे देखकर लोकपालों के लोकों की सम्पदा भी थोड़ी जान पड़ती थी॥333॥
चौपाई
:
*
सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई॥
चलिहि
बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानीं॥1॥
भावार्थ:-इस
प्रकार सब सामान सजाकर राजा जनक ने अयोध्यापुरी को भेज दिया। बारात चलेगी, यह सुनते ही सब रानियाँ ऐसी विकल हो गईं, मानो थोड़े
जल में मछलियाँ छटपटा रही हों॥1॥
*
पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देह असीस सिखावनु देहीं॥
होएहु
संतत पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी॥2॥
भावार्थ:-वे
बार-बार सीताजी को गोद कर लेती हैं और आशीर्वाद देकर सिखावन देती हैं- तुम सदा
अपने पति की प्यारी होओ,
तुम्हारा सोहाग अचल हो, हमारी यही आशीष है॥2॥
*
सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू॥
अति
सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी॥3॥
भावार्थ:-सास, ससुर और गुरु की सेवा करना। पति का रुख देखकर उनकी आज्ञा का पालन करना।
सयानी सखियाँ अत्यन्त स्नेह के वश कोमल वाणी से स्त्रियों के धर्म सिखलाती हैं॥3॥
*
सादर सकल कुअँरि समुझाईं। रानिन्ह बार बार उर लाईं॥
बहुरि
बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं॥4॥
भावार्थ:-आदर
के साथ सब पुत्रियों को (स्त्रियों के धर्म) समझाकर रानियों ने बार-बार उन्हें
हृदय से लगाया। माताएँ फिर-फिर भेंटती और कहती हैं कि ब्रह्मा ने स्त्री जाति को
क्यों रचा॥4॥
दोहा
:
*
तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु।
चले
जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु॥334॥
भावार्थ:-उसी
समय सूर्यवंश के पताका स्वरूप श्री रामचन्द्रजी भाइयों सहित प्रसन्न होकर विदा
कराने के लिए जनकजी के महल को चले॥334॥
चौपाई
:
*
चारिउ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए॥
कोउ
कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू॥1॥
भावार्थ:-स्वभाव
से ही सुंदर चारों भाइयों को देखने के लिए नगर के स्त्री-पुरुष दौड़े। कोई कहता है-
आज ये जाना चाहते हैं। विदेह ने विदाई का सब सामान तैयार कर लिया है॥1॥
*
लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी॥
को
जानै केहिं सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी॥2॥
भावार्थ:-राजा
के चारों पुत्र,
इन प्यारे मेहमानों के (मनोहर) रूप को नेत्र भरकर देख लो। हे सयानी!
कौन जाने, किस पुण्य से विधाता ने इन्हें यहाँ लाकर हमारे
नेत्रों का अतिथि किया है॥2॥
*
मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा॥
पाव
नार की हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसें॥3॥
भावार्थ:-मरने
वाला जिस तरह अमृत पा जाए,
जन्म का भूखा कल्पवृक्ष पा जाए और नरक में रहने वाला (या नरक के
योग्य) जीव जैसे भगवान के परमपद को प्राप्त हो जाए, हमारे
लिए इनके दर्शन वैसे ही हैं॥3॥
*
निरखि राम सोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू॥
एहि
बिधि सबहि नयन फलु देता। गए कुअँर सब राज निकेता॥4॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी की शोभा को निरखकर हृदय में धर लो। अपने मन को साँप और इनकी मूर्ति को
मणि बना लो। इस प्रकार सबको नेत्रों का फल देते हुए सब राजकुमार राजमहल में गए॥4॥
दोहा
:
*
रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु।
करहिं
निछावरि आरती महा मुदित मन सासु॥335॥
भावार्थ:-रूप
के समुद्र सब भाइयों को देखकर सारा रनिवास हर्षित हो उठा। सासुएँ महान प्रसन्न मन
से निछावर और आरती करती हैं॥335॥
चौपाई
:
*
देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं॥
रही
न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी की छबि देखकर वे प्रेम में अत्यन्त मग्न हो गईं और प्रेम के विशेष वश
होकर बार-बार चरणों लगीं। हृदय में प्रीति छा गई, इससे लज्जा
नहीं रह गई। उनके स्वाभाविक स्नेह का वर्णन किस तरह किया जा सकता है॥1॥
*
भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए॥
बोले
रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी॥2॥
भावार्थ:-उन्होंने
भाइयों सहित श्री रामजी को उबटन करके स्नान कराया और बड़े प्रेम से षट्रस भोजन
कराया। सुअवसर जानकर श्री रामचन्द्रजी शील, स्नेह और संकोचभरी
वाणी बोले-॥2॥
*
राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए॥
मातु
मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू॥3॥
भावार्थ:-महाराज
अयोध्यापुरी को चलाना चाहते हैं, उन्होंने हमें विदा होने के लिए
यहाँ भेजा है। हे माता! प्रसन्न मन से आज्ञा दीजिए और हमें अपने बालक जानकर सदा
स्नेह बनाए रखिएगा॥3॥
*
सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू॥
हृदयँ
लगाई कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही॥4॥
भावार्थ:-इन
वचनों को सुनते ही रनिवास उदास हो गया। सासुएँ प्रेमवश बोल नहीं सकतीं। उन्होंने
सब कुमारियों को हृदय से लगा लिया और उनके पतियों को सौंपकर बहुत विनती की॥4॥
छन्द
:
*
करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै।
बलि
जाउँ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै॥
परिवार
पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।
तुलसीस
सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी॥
भावार्थ:-विनती
करके उन्होंने सीताजी को श्री रामचन्द्रजी को समर्पित किया और हाथ जोड़कर बार-बार
कहा- हे तात! हे सुजान! मैं बलि जाती हूँ, तुमको सबकी गति
(हाल) मालूम है। परिवार को, पुरवासियों को, मुझको और राजा को सीता प्राणों के समान प्रिय है, ऐसा
जानिएगा। हे तुलसी के स्वामी! इसके शील और स्नेह को देखकर इसे अपनी दासी करके
मानिएगा।
सोरठा
:
*
तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय।
जन
गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन॥336॥
भावार्थ:-तुम
पूर्ण काम हो,
सुजान शिरोमणि हो और भावप्रिय हो (तुम्हें प्रेम प्यारा है)। हे
राम! तुम भक्तों के गुणों को ग्रहण करने वाले, दोषों को नाश
करने वाले और दया के धाम हो॥336॥
चौपाई
:
*
अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पंक जनु गिरा समानी॥
सुनि
सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी॥1॥
भावार्थ:-ऐसा
कहकर रानी चरणों को पकड़कर (चुप) रह गईं। मानो उनकी वाणी प्रेम रूपी दलदल में समा
गई हो। स्नेह से सनी हुई श्रेष्ठ वाणी सुनकर श्री रामचन्द्रजी ने सास का बहुत
प्रकार से सम्मान किया॥1॥
*
राम बिदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी॥
पाइ
असीस बहुरि सिरु नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई॥2॥
भावार्थ:-तब
श्री रामचन्द्रजी ने हाथ जोड़कर विदा माँगते हुए बार-बार प्रणाम किया। आशीर्वाद
पाकर और फिर सिर नवाकर भाइयों सहित श्री रघुनाथजी चले॥2॥
*
मंजु मधुर मूरति उर आनी। भईं सनेह सिथिल सब रानी॥
पुनि
धीरजु धरि कुअँरि हँकारीं। बार बार भेटहि महतारीं॥3॥
भावार्थ:-श्री
रामजी की सुंदर मधुर मूर्ति को हृदय में लाकर सब रानियाँ स्नेह से शिथिल हो गईं।
फिर धीरज धारण करके कुमारियों को बुलाकर माताएँ बारंबार उन्हें (गले लगाकर) भेंटने
लगीं॥3॥
*
पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी॥
पुनि
पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई॥4॥
भावार्थ:-पुत्रियों
को पहुँचाती हैं,
फिर लौटकर मिलती हैं। परस्पर में कुछ थोड़ी प्रीति नहीं बढ़ी (अर्थात
बहुत प्रीति बढ़ी)। बार-बार मिलती हुई माताओं को सखियों ने अलग कर दिया। जैसे हाल
की ब्यायी हुई गाय को कोई उसके बालक बछड़े (या बछिया) से अलग कर दे॥4॥
दोहा
:
*
प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।
मानहुँ
कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु॥337॥
भावार्थ:-सब
स्त्री-पुरुष और सखियों सहित सारा रनिवास प्रेम के विशेष वश हो रहा है। (ऐसा लगता
है) मानो जनकपुर में करुणा और विरह ने डेरा डाल दिया है॥337॥
चौपाई
:
*
सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए॥
ब्याकुल
कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही॥1॥
भावार्थ:-जानकी
ने जिन तोता और मैना को पाल-पोसकर बड़ा किया था और सोने के पिंजड़ों में रखकर पढ़ाया
था,
वे व्याकुल होकर कह रहे हैं- वैदेही कहाँ हैं। उनके ऐसे वचनों को
सुनकर धीरज किसको नहीं त्याग देगा (अर्थात सबका धैर्य जाता रहा)॥1॥
*
भए बिकल खग मृग एहि भाँती। मनुज दसा कैसें कहि जाती॥
बंधु
समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए॥2॥
भावार्थ:-जब
पक्षी और पशु तक इस तरह विकल हो गए, तब मनुष्यों की दशा
कैसे कही जा सकती है! तब भाई सहित जनकजी वहाँ आए। प्रेम से उमड़कर उनके नेत्रों में
(प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥2॥
*
सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी॥
लीन्हि
रायँ उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की॥3॥
भावार्थ:-वे
परम वैराग्यवान कहलाते थे,
पर सीताजी को देखकर उनका भी धीरज भाग गया। राजा ने जानकीजी को हृदय
से लगा लिया। (प्रेम के प्रभाव से) ज्ञान की महान मर्यादा मिट गई (ज्ञान का बाँध
टूट गया)॥3॥
*
समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने॥
बारहिं
बार सुता उर लाईं। सजि सुंदर पालकीं मगाईं॥4॥
भावार्थ:-सब
बुद्धिमान मंत्री उन्हें समझाते हैं। तब राजा ने विषाद करने का समय न जानकर विचार
किया। बारंबार पुत्रियों को हृदय से लगाकर सुंदर सजी हुई पालकियाँ मँगवाई॥4॥
दोहा
:
*
प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।
कुअँरि
चढ़ाईं पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस॥338॥
भावार्थ:-सारा
परिवार प्रेम में विवश है। राजा ने सुंदर मुहूर्त जानकर सिद्धि सहित गणेशजी का
स्मरण करके कन्याओं को पालकियों पर चढ़ाया॥338॥
चौपाई
:
*
बहुबिधि भूप सुता समुझाईं। नारिधरमु कुलरीति सिखाईं॥
दासीं
दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे॥1॥
भावार्थ:-राजा
ने पुत्रियों को बहुत प्रकार से समझाया और उन्हें स्त्रियों का धर्म और कुल की
रीति सिखाई। बहुत से दासी-दास दिए, जो सीताजी के प्रिय
और विश्वास पात्र सेवक थे॥1॥
*
सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी॥
भूसुर
सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा॥2॥
भावार्थ:-सीताजी
के चलते समय जनकपुरवासी व्याकुल हो गए। मंगल की राशि शुभ शकुन हो रहे हैं।
ब्राह्मण और मंत्रियों के समाज सहित राजा जनकजी उन्हें पहुँचाने के लिए साथ चले॥2॥
*
समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे॥
दसरथ
बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे॥3॥
भावार्थ:-समय
देखकर बाजे बजने लगे। बारातियों ने रथ, हाथी और घोड़े सजाए।
दशरथजी ने सब ब्राह्मणों को बुला लिया और उन्हें दान और सम्मान से परिपूर्ण कर
दिया॥3॥
*
चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा॥
सुमिरि
गजाननु कीन्ह पयाना। मंगल मूल सगुन भए नाना॥4॥
भावार्थ:-उनके
चरण कमलों की धूलि सिर पर धरकर और आशीष पाकर राजा आनंदित हुए और गणेशजी का स्मरण
करके उन्होंने प्रस्थान किया। मंगलों के मूल अनेकों शकुन हुए॥4॥
दोहा
:
*
सुर प्रसून बरषहिं हरषि करहिं अपछरा गान।
चले
अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान॥339॥
भावार्थ:-देवता
हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं और अप्सराएँ गान कर रही हैं। अवधपति दशरथजी नगाड़े
बजाकर आनंदपूर्वक अयोध्यापुरी चले॥339॥
चौपाई
:
*
नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे॥
भूषन
बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे॥1॥
भावार्थ:-राजा
दशरथजी ने विनती करके प्रतिष्ठित जनों को लौटाया और आदर के साथ सब मँगनों को
बुलवाया। उनको गहने-कपड़े,
घोड़े-हाथी दिए और प्रेम से पुष्ट करके सबको सम्पन्न अर्थात बलयुक्त
कर दिया॥1॥।
*
बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी॥
बहुरि
बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं॥2॥
भावार्थ:-वे
सब बारंबार विरुदावली (कुलकीर्ति) बखानकर और श्री रामचन्द्रजी को हृदय में रखकर
लौटे। कोसलाधीश दशरथजी बार-बार लौटने को कहते हैं, परन्तु
जनकजी प्रेमवश लौटना नहीं चाहते॥2॥
*
पुनि कह भूपत बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए॥
राउ
बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े॥3॥
भावार्थ:-दशरथजी
ने फिर सुहावने वचन कहे- हे राजन्! बहुत दूर आ गए, अब लौटिए।
फिर राजा दशरथजी रथ से उतरकर खड़े हो गए। उनके नेत्रों में प्रेम का प्रवाह बढ़ आया
(प्रेमाश्रुओं की धारा बह चली)॥3॥
*
तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी॥
करौं
कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई॥4॥
भावार्थ:-तब
जनकजी हाथ जोड़कर मानो स्नेह रूपी अमृत में डुबोकर वचन बोले- मैं किस तरह बनाकर
(किन शब्दों में) विनती करूँ। हे महाराज! आपने मुझे बड़ी बड़ाई दी है॥4॥
दोहा
:
*
कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।
मिलनि
परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति॥340॥
भावार्थ:-अयोध्यानाथ
दशरथजी ने अपने स्वजन समधी का सब प्रकार से सम्मान किया। उनके आपस के मिलने में
अत्यन्त विनय थी और इतनी प्रीति थी जो हृदय में समाती न थी॥340॥
चौपाई
:
*
मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा॥
सादर
पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता॥1॥
भावार्थ:-जनकजी
ने मुनि मंडली को सिर नवाया और सभी से आशीर्वाद पाया। फिर आदर के साथ वे रूप, शील और गुणों के निधान सब भाइयों से, अपने दामादों
से मिले,॥1॥
*
जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए॥
राम
करौं केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा॥2॥
भावार्थ:-और
सुंदर कमल के समान हाथों को जोड़कर ऐसे वचन बोले जो मानो प्रेम से ही जन्मे हों। हे
रामजी! मैं किस प्रकार आपकी प्रशंसा करूँ! आप मुनियों और महादेवजी के मन रूपी
मानसरोवर के हंस हैं॥2॥
*
करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी॥
ब्यापकु
ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी॥3॥
भावार्थ:-योगी
लोग जिनके लिए क्रोध,
मोह, ममता और मद को त्यागकर योग साधन करते हैं,
जो सर्वव्यापक, ब्रह्म, अव्यक्त,
अविनाशी, चिदानंद, निर्गुण
और गुणों की राशि हैं,॥3॥
*मन
समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥
महिमा
निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई॥4॥
भावार्थ:-
जिनको मन सहित वाणी नहीं जानती और सब जिनका अनुमान ही करते हैं, कोई तर्कना नहीं कर सकते, जिनकी महिमा को वेद 'नेति' कहकर वर्णन करता है और जो (सच्चिदानंद) तीनों
कालों में एकरस (सर्वदा और सर्वथा निर्विकार) रहते हैं,॥4॥
दोहा
:
*
नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।
सबइ
लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकूल॥341॥
भावार्थ:-वे
ही समस्त सुखों के मूल (आप) मेरे नेत्रों के विषय हुए। ईश्वर के अनुकूल होने पर
जगत में जीव को सब लाभ ही लाभ है॥341॥
चौपाई
:
*
सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई॥
होहिं
सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा॥1॥
भावार्थ:-
आपने मुझे सभी प्रकार से बड़ाई दी और अपना जन जानकर अपना लिया। यदि दस हजार सरस्वती
और शेष हों और करोड़ों कल्पों तक गणना करते रहें॥1॥
*
मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा॥
मैं
कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें॥2॥
भावार्थ:-
तो भी हे रघुनाजी! सुनिए,
मेरे सौभाग्य और आपके गुणों की कथा कहकर समाप्त नहीं की जा सकती।
मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वह अपने इस एक ही बल पर कि आप
अत्यन्त थोड़े प्रेम से प्रसन्न हो जाते हैं॥2॥
*
बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें॥
सुनि
बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे॥3॥
भावार्थ:-
मैं बार-बार हाथ जोड़कर यह माँगता हूँ कि मेरा मन भूलकर भी आपके चरणों को न छोड़े।
जनकजी के श्रेष्ठ वचनों को सुनकर, जो मानो प्रेम से पुष्ट किए हुए
थे, पूर्ण काम श्री रामचन्द्रजी संतुष्ट हुए॥3॥
*
करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने॥
बिनती
बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही॥4॥
भावार्थ:-
उन्होंने सुंदर विनती करके पिता दशरथजी, गुरु विश्वामित्रजी
और कुलगुरु वशिष्ठजी के समान जानकर ससुर जनकजी का सम्मान किया। फिर जनकजी ने भरतजी
से विनती की और प्रेम के साथ मिलकर फिर उन्हें आशीर्वाद दिया॥4॥
दोहा
:
*
मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।
भए
परसपर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस॥342॥
भावार्थ:-
फिर राजा ने लक्ष्मणजी और शत्रुघ्नजी से मिलकर उन्हें आशीर्वाद दिया। वे परस्पर
प्रेम के वश होकर बार-बार आपस में सिर नवाने लगे॥342॥
चौपाई
:
*
बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई॥
जनक
गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई॥1॥
भावार्थ:-
जनकजी की बार-बार विनती और बड़ाई करके श्री रघुनाथजी सब भाइयों के साथ चले। जनकजी
ने जाकर विश्वामित्रजी के चरण पकड़ लिए और उनके चरणों की रज को सिर और नेत्रों में
लगाया॥1॥
*
सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें॥
जो
सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं॥2॥
भावार्थ:-
(उन्होंने कहा-) हे मुनीश्वर! सुनिए, आपके सुंदर दर्शन
से कुछ भी दुर्लभ नहीं है, मेरे मन में ऐसा विश्वास है,
जो सुख और सुयश लोकपाल चाहते हैं, परन्तु
(असंभव समझकर) जिसका मनोरथ करते हुए सकुचाते हैं,॥2॥
*
सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी॥
कीन्हि
बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई॥3॥
भावार्थ:-
हे स्वामी! वही सुख और सुयश मुझे सुलभ हो गया, सारी सिद्धियाँ
आपके दर्शनों की अनुगामिनी अर्थात पीछे-पीछे चलने वाली हैं। इस प्रकार बार-बार
विनती की और सिर नवाकर तथा उनसे आशीर्वाद पाकर राजा जनक लौटे॥3॥
बारात
का अयोध्या लौटना और अयोध्या में आनंद
*
चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई॥
रामहि
निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥4॥
भावार्थ:-डंका
बजाकर बारात चली। छोटे-बड़े सभी समुदाय प्रसन्न हैं। (रास्ते के) गाँव के स्त्री-पुरुष
श्री रामचन्द्रजी को देखकर नेत्रों का फल पाकर सुखी होते हैं॥4॥
दोहा
:
*
बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।
अवध
समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत॥343॥
भावार्थ:-बीच-बीच
में सुंदर मुकाम करती हुई तथा मार्ग के लोगों को सुख देती हुई वह बारात पवित्र दिन
में अयोध्यापुरी के समीप आ पहुँची॥343॥
चौपाई
:
*हने
निसान पनव बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे॥
झाँझि
बिरव डिंडिमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई॥1॥
भावार्थ:-नगाड़ों
पर चोटें पड़ने लगीं,
सुंदर ढोल बजने लगे। भेरी और शंख की बड़ी आवाज हो रही है, हाथी-घोड़े गरज रहे हैं। विशेष शब्द करने वाली झाँझें, सुहावनी डफलियाँ तथा रसीले राग से शहनाइयाँ बज रही हैं॥1॥
*
पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता॥
निज
निज सुंदर सदन सँवारे। हाट बाट चौहटपुर द्वारे॥2॥
भावार्थ:-बारात
को आती हुई सुनकर नगर निवासी प्रसन्न हो गए। सबके शरीरों पर पुलकावली छा गई। सबने
अपने-अपने सुंदर घरों,
बाजारों, गलियों, चौराहों
और नगर के द्वारों को सजाया॥2॥
*
गलीं सकल अरगजाँ सिंचाईं। जहँ तहँ चौकें चारु पुराईं॥
बना
बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना॥3॥
भावार्थ:-सारी
गलियाँ अरगजे से सिंचाई गईं, जहाँ-तहाँ सुंदर चौक पुराए गए।
तोरणों ध्वजा-पताकाओं और मंडपों से बाजार ऐसा सजा कि जिसका वर्णन नहीं किया जा
सकता॥3॥
*
सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला॥
लगे
सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी॥4॥
भावार्थ:-फल
सहित सुपारी,
केला, आम, मौलसिरी,
कदम्ब और तमाल के वृक्ष लगाए गए। वे लगे हुए सुंदर वृक्ष (फलों के
भार से) पृथ्वी को छू रहे हैं। उनके मणियों के थाले बड़ी सुंदर कारीगरी से बनाए गए
हैं॥4॥
दोहा
:
*
बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि।
सुर
ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि॥344॥
भावार्थ:-अनेक
प्रकार के मंगल-कलश घर-घर सजाकर बनाए गए हैं। श्री रघुनाथजी की पुरी (अयोध्या) को
देखकर ब्रह्मा आदि सब देवता सिहाते हैं॥344॥
चौपाई
:
*
भूप भवनु तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा॥
मंगल
सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई॥1॥
भावार्थ:-उस
समय राजमहल (अत्यन्त) शोभित हो रहा था। उसकी रचना देखकर कामदेव भी मन मोहित हो
जाता था। मंगल शकुन,
मनोहरता, ऋद्धि-सिद्धि, सुख,
सुहावनी सम्पत्ति॥1॥
*
जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ गृहँ छाए॥
देखन
हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही॥2॥
भावार्थ:-और
सब प्रकार के उत्साह (आनंद) मानो सहज सुंदर शरीर धर-धरकर दशरथजी के घर में छा गए
हैं। श्री रामचन्द्रजी और सीताजी के दर्शनों के लिए भला कहिए, किसे लालसा न होगी॥2॥
*
जूथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासिनि॥
सकल
सुमंगल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती॥3॥
भावार्थ:-सुहागिनी
स्त्रियाँ झुंड की झुंड मिलकर चलीं, जो अपनी छबि से
कामदेव की स्त्री रति का भी निरादर कर रही हैं। सभी सुंदर मंगलद्रव्य एवं आरती
सजाए हुए गा रही हैं, मानो सरस्वतीजी ही बहुत से वेष धारण
किए गा रही हों॥3॥
*
भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई॥
कौसल्यादि
राम महतारीं। प्रेमबिबस तन दसा बिसारीं॥4॥
भावार्थ:-राजमहल
में (आनंद के मारे) शोर मच रहा है। उस समय का और सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता।
कौसल्याजी आदि श्री रामचन्द्रजी की सब माताएँ प्रेम के विशेष वश होने से शरीर की
सुध भूल गईं॥4॥
दोहा
:
*
दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारि।
प्रमुदित
परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि॥345॥
भावार्थ:-गणेशजी
और त्रिपुरारि शिवजी का पूजन करके उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत सा दान दिया। वे
ऐसी परम प्रसन्न हुईं,
मानो अत्यन्त दरिद्री चारों पदार्थ पा गया हो॥345॥
चौपाई
:
*
मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता॥
राम
दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं॥1॥
भावार्थ:-सुख
और महान आनंद से विवश होने के कारण सब माताओं के शरीर शिथिल हो गए हैं, उनके चरण चलते नहीं हैं। श्री रामचन्द्रजी के दर्शनों के लिए वे अत्यन्त
अनुराग में भरकर परछन का सब सामान सजाने लगीं॥1॥
*
बिबिध बिधान बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्राँ साजे॥
हरद
दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला॥2॥
भावार्थ:-अनेकों
प्रकार के बाजे बजते थे। सुमित्राजी ने आनंदपूर्वक मंगल साज सजाए। हल्दी, दूब, दही, पत्ते, फूल, पान और सुपारी आदि मंगल की मूल वस्तुएँ,॥2॥
*
अच्छत अंकुर लोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा॥
छुहे
पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए॥3॥
भावार्थ:-तथा
अक्षत (चावल),
अँखुए, गोरोचन, लावा और
तुलसी की सुंदर मंजरियाँ सुशोभित हैं। नाना रंगों से चित्रित किए हुए सहज सुहावने
सुवर्ण के कलश ऐसे मालूम होते हैं, मानो कामदेव के पक्षियों
ने घोंसले बनाए हों॥3॥
*सगुन
सुगंध न जाहिं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी॥
रचीं
आरतीं बहतु बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना॥4॥
भावार्थ:-शकुन
की सुगन्धित वस्तुएँ बखानी नहीं जा सकतीं। सब रानियाँ सम्पूर्ण मंगल साज सज रही
हैं। बहुत प्रकार की आरती बनाकर वे आनंदित हुईं सुंदर मंगलगान कर रही हैं॥4॥
दोहा
:
*
कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।
चलीं
मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात॥346॥
भावार्थ:-सोने
के थालों को मांगलिक वस्तुओं से भरकर अपने कमल के समान (कोमल) हाथों में लिए हुए
माताएँ आनंदित होकर परछन करने चलीं। उनके शरीर पुलकावली से छा गए हैं॥346॥
चौपाई
:
*
धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ॥
सुरतरु
सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं॥1॥
भावार्थ:-धूप
के धुएँ से आकाश ऐसा काला हो गया है मानो सावन के बादल घुमड़-घुमड़कर छा गए हों।
देवता कल्पवृक्ष के फूलों की मालाएँ बरसा रहे हैं। वे ऐसी लगती हैं, मानो बगुलों की पाँति मन को (अपनी ओर) खींच रही हो॥1॥
*
मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे॥
प्रगटहिं
दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि॥2॥
भावार्थ:-सुंदर
मणियों से बने बंदनवार ऐसे मालूम होते हैं, मानो इन्द्रधनुष
सजाए हों। अटारियों पर सुंदर और चपल स्त्रियाँ प्रकट होती और छिप जाती हैं
(आती-जाती हैं), वे ऐसी जान पड़ती हैं, मानो
बिजलियाँ चमक रही हों॥2॥
*
दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा॥
सुर
सुगंध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी॥3॥
भावार्थ:-नगाड़ों
की ध्वनि मानो बादलों की घोर गर्जना है। याचकगण पपीहे, मेंढक और मोर हैं। देवता पवित्र सुगंध रूपी जल बरसा रहे हैं, जिससे खेती के समान नगर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो रहे हैं॥3॥
*
समउ जानि गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा॥
सुमिरि
संभु गिरिजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा॥4॥
भावार्थ:-
(प्रवेश का) समय जानकर गुरु वशिष्ठजी ने आज्ञा दी। तब रघुकुलमणि महाराज दशरथजी ने
शिवजी,
पार्वतीजी और गणेशजी का स्मरण करके समाज सहित आनंदित होकर नगर में
प्रवेश किया॥4॥
*
होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदभीं बजाइ।
बिबुध
बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ॥347॥
भावार्थ:-शकुन
हो रहे हैं,
देवता दुन्दुभी बजा-बजाकर फूल बरसा रहे हैं। देवताओं की स्त्रियाँ
आनंदित होकर सुंदर मंगल गीत गा-गाकर नाच रही हैं॥347॥
चौपाई
:
*
मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर॥
जय
धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी॥1॥
भावार्थ:-मागध, सूत, भाट और चतुर नट तीनों लोकों के उजागर (सबको
प्रकाश देने वाले परम प्रकाश स्वरूप) श्री रामचन्द्रजी का यश गा रहे हैं। जय ध्वनि
तथा वेद की निर्मल श्रेष्ठ वाणी सुंदर मंगल से सनी हुई दसों दिशाओं में सुनाई पड़
रही है॥1॥
*
बिपुल बाज ने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे॥
बने
बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं॥2॥
भावार्थ:-बहुत
से बाजे बजने लगे। आकाश में देवता और नगर में लोग सब प्रेम में मग्न हैं। बाराती
ऐसे बने-ठने हैं कि उनका वर्णन नहीं हो सकता। परम आनंदित हैं, सुख उनके मन में समाता नहीं है॥2॥
*
पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे॥
करहिं
निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा॥3॥
भावार्थ:-
तब अयोध्यावसियों ने राजा को जोहार (वंदना) की। श्री रामचन्द्रजी को देखते ही वे
सुखी हो गए। सब मणियाँ और वस्त्र निछावर कर रहे हैं। नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं
का) जल भरा है और शरीर पुलकित हैं॥3॥।
*
आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुअँर बर चारी॥
सिबिका
सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी॥4॥
भावार्थ:-नगर
की स्त्रियाँ आनंदित होकर आरती कर रही हैं और सुंदर चारों कुमारों को देखकर हर्षित
हो रही हैं। पालकियों के सुंदर परदे हटा-हटाकर वे दुलहिनों को देखकर सुखी होती
हैं॥4॥
दोहा
:
*
एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर।
मुदित
मातु परिछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार॥348॥
भावार्थ:-इस
प्रकार सबको सुख देते हुए राजद्वार पर आए। माताएँ आनंदित होकर बहुओं सहित कुमारों
का परछन कर रही हैं॥348॥
चौपाई
:
*
करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा॥
भूषन
मनि पट नाना जाती। करहिं निछावरि अगनित भाँती॥1॥
भावार्थ:-वे
बार-बार आरती कर रही हैं। उस प्रेम और महान आनंद को कौन कह सकता है! अनेकों प्रकार
के आभूषण,
रत्न और वस्त्र तथा अगणित प्रकार की अन्य वस्तुएँ निछावर कर रही
हैं॥1॥
*
बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानंद मगन महतारी॥
पुनि
पुनि सीय राम छबि देखी। मुदित सफल जग जीवन लेखी॥2॥
भावार्थ:-बहुओं
सहित चारों पुत्रों को देखकर माताएँ परमानंद में मग्न हो गईं। सीताजी और श्री रामजी
की छबि को बार-बार देखकर वे जगत में अपने जीवन को सफल मानकर आनंदित हो रही हैं॥2॥
*
सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही॥
बरषहिं
सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा॥3॥
भावार्थ:-सखियाँ
सीताजी के मुख को बार-बार देखकर अपने पुण्यों की सराहना करती हुई गान कर रही हैं।
देवता क्षण-क्षण में फूल बरसाते, नाचते, गाते
तथा अपनी-अपनी सेवा समर्पण करते हैं॥3॥
*
देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीं॥
देत
न बनहिं निपट लघु लागीं। एकटक रहीं रूप अनुरागीं॥4॥
भावार्थ:-चारों
मनोहर जोड़ियों को देखकर सरस्वती ने सारी उपमाओं को खोज डाला, पर कोई उपमा देते नहीं बनी, क्योंकि उन्हें सभी
बिलकुल तुच्छ जान पड़ीं। तब हारकर वे भी श्री रामजी के रूप में अनुरक्त होकर एकटक
देखती रह गईं॥4॥
दोहा
:
*
निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत।
बधुन्ह
सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत॥349॥
भावार्थ:-वेद
की विधि और कुल की रीति करके अर्घ्य-पाँवड़े देती हुई बहुओं समेत सब पुत्रों को
परछन करके माताएँ महल में लिवा चलीं॥349॥
चौपाई
:
*
चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए॥
तिन्ह
पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनीत पखारे॥1॥
भावार्थ:-स्वाभाविक
ही सुंदर चार सिंहासन थे,
जो मानो कामदेव ने ही अपने हाथ से बनाए थे। उन पर माताओं ने
राजकुमारियों और राजकुमारों को बैठाया और आदर के साथ उनके पवित्र चरण धोए॥1॥
*
धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मंगल निधि॥
बारहिं
बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं॥2॥
भावार्थ:-फिर
वेद की विधि के अनुसार मंगल के निधान दूलह की दुलहिनों की धूप, दीप और नैवेद्य आदि के द्वारा पूजा की। माताएँ बारम्बार आरती कर रही हैं
और वर-वधुओं के सिरों पर सुंदर पंखे तथा चँवर ढल रहे हैं॥2॥
*
बस्तु अनेक निछावरि होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं॥
पावा
परम तत्व जनु जोगीं। अमृतु लहेउ जनु संतत रोगीं॥3॥
भावार्थ:-अनेकों
वस्तुएँ निछावर हो रही हैं,
सभी माताएँ आनंद से भरी हुई ऐसी सुशोभित हो रही हैं मानो योगी ने
परम तत्व को प्राप्त कर लिया। सदा के रोगी ने मानो अमृत पा लिया॥3॥
*
जनम रंक जनु पारस पावा। अंधहि लोचन लाभु सुहावा॥
मूक
बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई॥4॥
भावार्थ:-जन्म
का दरिद्री मानो पारस पा गया। अंधे को सुंदर नेत्रों का लाभ हुआ। गूँगे के मुख में
मानो सरस्वती आ विराजीं और शूरवीर ने मानो युद्ध में विजय पा ली॥4॥
दोहा
:
*
एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु।
भाइन्ह
सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु॥350 क॥
भावार्थ:-इन
सुखों से भी सौ करोड़ गुना बढ़कर आनंद माताएँ पा रही हैं, क्योंकि रघुकुल के चंद्रमा श्री रामजी विवाह कर के भाइयों सहित घर आए
हैं॥350 (क)॥
*
लोक रीति जननीं करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।
मोदु
बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसुकाहिं॥350 ख॥
भावार्थ:-माताएँ
लोकरीति करती हैं और दूलह-दुलहिनें सकुचाते हैं। इस महान आनंद और विनोद को देखकर
श्री रामचन्द्रजी मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं॥350 (ख)॥
चौपाई
:
*
देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की॥
सबहि
बंदि माँगहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना॥1॥
भावार्थ:-मन
की सभी वासनाएँ पूरी हुई जानकर देवता और पितरों का भलीभाँति पूजन किया। सबकी वंदना
करके माताएँ यही वरदान माँगती हैं कि भाइयों सहित श्री रामजी का कल्याण हो॥1॥
*
अंतरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेहीं॥
भूपति
बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे॥2॥
भावार्थ:-देवता
छिपे हुए (अन्तरिक्ष से) आशीर्वाद दे रहे हैं और माताएँ आनन्दित हो आँचल भरकर ले
रही हैं। तदनन्तर राजा ने बारातियों को बुलवा लिया और उन्हें सवारियाँ, वस्त्र, मणि (रत्न) और आभूषणादि दिए॥2॥
*
आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब निज निज धामहि॥
पुर
नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए॥3॥
भावार्थ:-आज्ञा
पाकर,
श्री रामजी को हृदय में रखकर वे सब आनंदित होकर अपने-अपने घर गए।
नगर के समस्त स्त्री-पुरुषों को राजा ने कपड़े और गहने पहनाए। घर-घर बधावे बजने
लगे॥3॥
*
जाचक जन जाचहिं जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई॥
सेवक
सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना॥4॥
भावार्थ:-याचक
लोग जो-जो माँगते हैं,
विशेष प्रसन्न होकर राजा उन्हें वही-वही देते हैं। सम्पूर्ण सेवकों
और बाजे वालों को राजा ने नाना प्रकार के दान और सम्मान से सन्तुष्ट किया॥4॥
दोहा
:
*
देहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।
तब
गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ॥351॥
भावार्थ:-सब
जोहार (वंदन) करके आशीष देते हैं और गुण समूहों की कथा गाते हैं। तब गुरु और
ब्राह्मणों सहित राजा दशरथजी ने महल में गमन किया॥351॥
चौपाई
:
*
जो बसिष्ट अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही॥
भूसुर
भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी॥1॥
भावार्थ:-
वशिष्ठजी ने जो आज्ञा दी,
उसे लोक और वेद की विधि के अनुसार राजा ने आदरपूर्वक किया।
ब्राह्मणों की भीड़ देखकर अपना बड़ा भाग्य जानकर सब रानियाँ आदर के साथ उठीं॥1॥
*
पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए॥
आदर
दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे॥2॥
भावार्थ:-चरण
धोकर उन्होंने सबको स्नान कराया और राजा ने भली-भाँति पूजन करके उन्हें भोजन
कराया! आदर,
दान और प्रेम से पुष्ट हुए वे संतुष्ट मन से आशीर्वाद देते हुए
चले॥2॥
*
बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा॥
कीन्हि
प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी॥3॥
भावार्थ:-राजा
ने गाधि पुत्र विश्वामित्रजी की बहुत तरह से पूजा की और कहा- हे नाथ! मेरे समान
धन्य दूसरा कोई नहीं है। राजा ने उनकी बहुत प्रशंसा की और रानियों सहित उनकी
चरणधूलि को ग्रहण किया॥3॥
*
भीतर भवन दीन्ह बर बासू। मन जोगवत रह नृपु रनिवासू॥
पूजे
गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी॥4॥
भावार्थ:-उन्हें
महल के भीतर ठहरने को उत्तम स्थान दिया, जिसमें राजा और सब
रनिवास उनका मन जोहता रहे (अर्थात जिसमें राजा और महल की सारी रानियाँ स्वयं उनकी
इच्छानुसार उनके आराम की ओर दृष्टि रख सकें) फिर राजा ने गुरु वशिष्ठजी के
चरणकमलों की पूजा और विनती की। उनके हृदय में कम प्रीति न थी (अर्थात बहुत प्रीति
थी)॥4॥
दोहा
:
*
बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।
पुनि
पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु॥352॥
भावार्थ:-बहुओं
सहित सब राजकुमार और सब रानियों समेत राजा बार-बार गुरुजी के चरणों की वंदना करते
हैं और मुनीश्वर आशीर्वाद देते हैं॥352॥
चौपाई
:
*
बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत संपदा राखि सब आगें॥
नेगु
मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा॥1॥
भावार्थ:-राजा
ने अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदय से पुत्रों को और सारी सम्पत्ति को सामने रखकर (उन्हें
स्वीकार करने के लिए) विनती की, परन्तु मुनिराज ने (पुरोहित के
नाते) केवल अपना नेग माँग लिया और बहुत तरह से आशीर्वाद दिया॥1॥
*
उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता॥
बिप्रबधू
सब भूप बोलाईं। चैल चारु भूषन पहिराईं॥1॥
भावार्थ:-फिर
सीताजी सहित श्री रामचन्द्रजी को हृदय में रखकर गुरु वशिष्ठजी हर्षित होकर अपने
स्थान को गए। राजा ने सब ब्राह्मणों की स्त्रियों को बुलवाया और उन्हें सुंदर
वस्त्र तथा आभूषण पहनाए॥2॥
*
बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं॥
नेगी
नेग जोग जब लेहीं। रुचि अनुरूप भूपमनि देहीं॥3॥
भावार्थ:-फिर
अब सुआसिनियों को (नगर की सौभाग्यवती बहिन, बेटी, भानजी आदि को) बुलवा लिया और उनकी रुचि समझकर (उसी के अनुसार) उन्हें
पहिरावनी दी। नेगी लोग सब अपना-अपना नेग-जोग लेते और राजाओं के शिरोमणि दशरथजी
उनकी इच्छा के अनुसार देते हैं॥3॥
*
प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने॥
देव
देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू॥4॥
भावार्थ:-जिन
मेहमानों को प्रिय और पूजनीय जाना, उनका राजा ने
भलीभाँति सम्मान किया। देवगण श्री रघुनाथजी का विवाह देखकर, उत्सव
की प्रशंसा करके फूल बरसाते हुए-॥4॥
दोहा
:
*
चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ।
कहत
परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ॥353॥
भावार्थ:-नगाड़े
बजाकर और (परम) सुख प्राप्त कर अपने-अपने लोकों को चले। वे एक-दूसरे से श्री रामजी
का यश कहते जाते हैं। हृदय में प्रेम समाता नहीं है॥353॥
चौपाई
:
*
सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू॥
जहँ
रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे॥1॥
भावार्थ:-सब
प्रकार से सबका प्रेमपूर्वक भली-भाँति आदर-सत्कार कर लेने पर राजा दशरथजी के हृदय
में पूर्ण उत्साह (आनंद) भर गया। जहाँ रनिवास था, वे वहाँ
पधारे और बहुओं समेत उन्होंने कुमारों को देखा॥1॥
*
लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता॥
बधू
सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीं॥2॥
भावार्थ:-राजा
ने आनंद सहित पुत्रों को गोद में ले लिया। उस समय राजा को जितना सुख हुआ उसे कौन
कह सकता है?
फिर पुत्रवधुओं को प्रेम सहित गोदी में बैठाकर, बार-बार हृदय में हर्षित होकर उन्होंने उनका दुलार (लाड़-चाव) किया॥2॥
*
देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें उर अनंद कियो बासू॥
कहेउ
भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि सुनि हरषु होत सब काहू॥3॥
भावार्थ:-यह
समाज (समारोह) देखकर रनिवास प्रसन्न हो गया। सबके हृदय में आनंद ने निवास कर लिया।
तब राजा ने जिस तरह विवाह हुआ था, वह सब कहा। उसे सुन-सुनकर सब
किसी को हर्ष होता है॥3॥
*
जनक राज गुन सीलु बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई॥
बहुबिधि
भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी॥4॥
भावार्थ:-राजा
जनक के गुण,
शील, महत्व, प्रीति की
रीति और सुहावनी सम्पत्ति का वर्णन राजा ने भाट की तरह बहुत प्रकार से किया। जनकजी
की करनी सुनकर सब रानियाँ बहुत प्रसन्न हुईं॥4॥
दोहा
:
*
सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।
भोजन
कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति॥।354॥
भावार्थ:-पुत्रों
सहित स्नान करके राजा ने ब्राह्मण, गुरु और
कुटुम्बियों को बुलाकर अनेक प्रकार के भोजन किए। (यह सब करते-करते) पाँच घड़ी रात
बीत गई॥354॥
चौपाई
:
*
मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि॥
अँचइ
पान सब काहूँ पाए। स्रग सुगंध भूषित छबि छाए॥1॥
भावार्थ:-सुंदर
स्त्रियाँ मंगलगान कर रही हैं। वह रात्रि सुख की मूल और मनोहारिणी हो गई। सबने
आचमन करके पान खाए और फूलों की माला, सुगंधित द्रव्य आदि
से विभूषित होकर सब शोभा से छा गए॥1॥
*
रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई॥
प्रेम
प्रमोदु बिनोदु बड़ाई। समउ समाजु मनोहरताई॥2॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी को देखकर और आज्ञा पाकर सब सिर नवाकर अपने-अपने घर को चले। वहाँ के
प्रेम,
आनंद, विनोद, महत्व,
समय, समाज और मनोहरता को-॥2॥
*
कहि न सकहिं सतसारद सेसू। बेद बिरंचि महेस गनेसू॥
सो
मैं कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी॥3॥
भावार्थ:-सैकड़ों
सरस्वती,
शेष, वेद, ब्रह्मा,
महादेवजी और गणेशजी भी नहीं कह सकते। फिर भला मैं उसे किस प्रकार से
बखानकर कहूँ? कहीं केंचुआ भी धरती को सिर पर ले सकता है?॥3॥
*
नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाईं रानी॥
बधू
लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई॥4॥
भावार्थ:-राजा
ने सबका सब प्रकार से सम्मान करके, कोमल वचन कहकर
रानियों को बुलाया और कहा- बहुएँ अभी बच्ची हैं, पराए घर आई
हैं। इनको इस तरह से रखना जैसे नेत्रों को पलकें रखती हैं (जैसे पलकें नेत्रों की
सब प्रकार से रक्षा करती हैं और उन्हें सुख पहुँचाती हैं, वैसे
ही इनको सुख पहुँचाना)॥4॥
दोहा
:
*
लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।
अस
कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ॥355॥
भावार्थ:-लड़के
थके हुए नींद के वश हो रहे हैं, इन्हें ले जाकर शयन कराओ। ऐसा
कहकर राजा श्री रामचन्द्रजी के चरणों में मन लगाकर विश्राम भवन में चले गए॥355॥
चौपाई
:
*
भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए॥
सुभग
सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना॥1॥
भावार्थ:-राजा
के स्वाभव से ही सुंदर वचन सुनकर (रानियों ने) मणियों से जड़े सुवर्ण के पलँग
बिछवाए। (गद्दों पर) गो के फेन के समान सुंदर एवं कोमल अनेकों सफेद चादरें
बिछाईं॥1॥
*
उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं॥
रतनदीप
सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा॥2॥
भावार्थ:-सुंदर
तकियों का वर्णन नहीं किया जा सकता। मणियों के मंदिर में फूलों की मालाएँ और सुगंध
द्रव्य सजे हैं। सुंदर रत्नों के दीपकों और सुंदर चँदोवे की शोभा कहते नहीं बनती।
जिसने उन्हें देखा हो,
वही जान सकता है॥2॥
*
सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए॥
अग्या
पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही॥3॥
भावार्थ:-इस
प्रकार सुंदर शय्या सजाकर (माताओं ने) श्री रामचन्द्रजी को उठाया और प्रेम सहित
पलँग पर पौढ़ाया। श्री रामजी ने बार-बार भाइयों को आज्ञा दी। तब वे भी अपनी-अपनी
शय्याओं पर सो गए॥3॥
*
देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता॥
मारग
जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी॥4॥
भावार्थ:-श्री
रामजी के साँवले सुंदर कोमल अँगों को देखकर सब माताएँ प्रेम सहित वचन कह रही हैं-
हे तात! मार्ग में जाते हुए तुमने बड़ी भयावनी ताड़का राक्षसी को किस प्रकार से मारा?॥4॥
दोहा
:
*
घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु।
मारे
सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु॥356॥
भावार्थ:-बड़े
भयानक राक्षस,
जो विकट योद्धा थे और जो युद्ध में किसी को कुछ नहीं गिनते थे,
उन दुष्ट मारीच और सुबाहु को सहायकों सहित तुमने कैसे मारा?॥356॥
चौपाई
:
*
मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी॥
मख
रखवारी करि दुहुँ भाईं। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाईं॥1॥
भावार्थ:-हे
तात! मैं बलैया लेती हूँ,
मुनि की कृपा से ही ईश्वर ने तुम्हारी बहुत सी बलाओं को टाल दिया।
दोनों भाइयों ने यज्ञ की रखवाली करके गुरुजी के प्रसाद से सब विद्याएँ पाईं॥1॥
*
मुनितिय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी॥
कमठ
पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा॥2॥
भावार्थ:-चरणों
की धूलि लगते ही मुनि पत्नी अहल्या तर गई। विश्वभर में यह कीर्ति पूर्ण रीति से
व्याप्त हो गई। कच्छप की पीठ, वज्र और पर्वत से भी कठोर शिवजी
के धनुष को राजाओं के समाज में तुमने तोड़ दिया!॥2॥
*
बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई॥
सकल
अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे॥3॥
भावार्थ:-विश्वविजय
के यश और जानकी को पाया और सब भाइयों को ब्याहकर घर आए। तुम्हारे सभी कर्म अमानुषी
हैं (मनुष्य की शक्ति के बाहर हैं), जिन्हें केवल
विश्वामित्रजी की कृपा ने सुधारा है (सम्पन्न किया है)॥3॥
*
आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा॥
जे
दिन गए तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें॥4॥
भावार्थ:-हे
तात! तुम्हारा चन्द्रमुख देखकर आज हमारा जगत में जन्म लेना सफल हुआ। तुमको बिना
देखे जो दिन बीते हैं,
उनको ब्रह्मा गिनती में न लावें (हमारी आयु में शामिल न करें)॥4॥
दोहा
:
*
राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।
सुमिरि
संभु गुरु बिप्र पद किए नीदबस नैन॥357॥
भावार्थ:-विनय
भरे उत्तम वचन कहकर श्री रामचन्द्रजी ने सब माताओं को संतुष्ट किया। फिर शिवजी, गुरु और ब्राह्मणों के चरणों का स्मरण कर नेत्रों को नींद के वश किया।
(अर्थात वे सो रहे)॥357॥
चौपाई
:
*
नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना॥
घर
घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मंगल गारीं॥1॥
भावार्थ:-नींद
में भी उनका अत्यन्त सलोना मुखड़ा ऐसा सोह रहा था, मानो संध्या
के समय का लाल कमल सोह रहा हो। स्त्रियाँ घर-घर जागरण कर रही हैं और आपस में
(एक-दूसरी को) मंगलमयी गालियाँ दे रही हैं॥1॥
*
पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी॥
सुंदर
बधुन्ह सासु लै सोईं। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोईं॥2॥
भावार्थ:-रानियाँ
कहती हैं- हे सजनी! देखो,
(आज) रात्रि की कैसी शोभा है, जिससे
अयोध्यापुरी विशेष शोभित हो रही है! (यों कहती हुई) सासुएँ सुंदर बहुओं को लेकर सो
गईं, मानो सर्पों ने अपने सिर की मणियों को हृदय में छिपा
लिया है॥2॥
*
प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे॥
बंदि
मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए॥3॥
भावार्थ:-प्रातःकाल
पवित्र ब्रह्म मुहूर्त में प्रभु जागे। मुर्गे सुंदर बोलने लगे। भाट और मागधों ने
गुणों का गान किया तथा नगर के लोग द्वार पर जोहार करने को आए॥3॥
*
बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता॥
जननिन्ह
सादर बदन निहारे। भूपति संग द्वार पगु धारे॥4॥
भावार्थ:-ब्राह्मणों, देवताओं, गुरु, पिता और माताओं
की वंदना करके आशीर्वाद पाकर सब भाई प्रसन्न हुए। माताओं ने आदर के साथ उनके मुखों
को देखा। फिर वे राजा के साथ दरवाजे (बाहर) पधारे॥4॥
दोहा
:
*
कीन्हि सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।
प्रातक्रिया
करि तात पहिं आए चारिउ भाइ॥358॥
भावार्थ:-स्वभाव
से ही पवित्र चारों भाइयों ने सब शौचादि से निवृत्त होकर पवित्र सरयू नदी में
स्नान किया और प्रातःक्रिया (संध्या वंदनादि) करके वे पिता के पास आए॥358॥
नवाह्नपारायण, तीसरा विश्राम
चौपाई
:
*
भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठे हरषि रजायसु पाई॥
देखि
रामु सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी॥1॥
भावार्थ:-राजा
ने देखते ही उन्हें हृदय से लगा लिया। तदनन्तर वे आज्ञा पाकर हर्षित होकर बैठ गए।
श्री रामचन्द्रजी के दर्शन कर और नेत्रों के लाभ की बस यही सीमा है, ऐसा अनुमान कर सारी सभा शीतल हो गई। (अर्थात सबके तीनों प्रकार के ताप सदा
के लिए मिट गए)॥1॥
*
पुनि बसिष्टु मुनि कौसिकु आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए॥
सुतन्ह
समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे॥2॥
भावार्थ:-फिर
मुनि वशिष्ठजी और विश्वामित्रजी आए। राजा ने उनको सुंदर आसनों पर बैठाया और
पुत्रों समेत उनकी पूजा करके उनके चरणों लगे। दोनों गुरु श्री रामजी को देखकर
प्रेम में मुग्ध हो गए॥2॥
*
कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा॥
मुनि
मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ठ बिपुल बिधि बरनी॥3॥
भावार्थ:-वशिष्ठजी
धर्म के इतिहास कह रहे हैं और राजा रनिवास सहित सुन रहे हैं, जो मुनियों के मन को भी अगम्य है, ऐसी विश्वामित्रजी
की करनी को वशिष्ठजी ने आनंदित होकर बहुत प्रकार से वर्णन किया॥3॥
*
बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची॥
सुनि
आनंदु भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू॥4॥
भावार्थ:-वामदेवजी
बोले- ये सब बातें सत्य हैं। विश्वामित्रजी की सुंदर कीर्ति तीनों लोकों में छाई
हुई है। यह सुनकर सब किसी को आनंद हुआ। श्री राम-लक्ष्मण के हृदय में अधिक उत्साह
(आनंद) हुआ॥4॥
दोहा
:
*
मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।
उमगी
अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति॥359॥
भावार्थ:-नित्य
ही मंगल,
आनंद और उत्सव होते हैं, इस तरह आनंद में दिन
बीतते जाते हैं। अयोध्या आनंद से भरकर उमड़ पड़ी, आनंद की
अधिकता अधिक-अधिक बढ़ती ही जा रही है॥359॥
चौपाई
:
*
सुदिन सोधि कल कंकन छोरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे॥
नित
नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं॥1॥
भावार्थ:-अच्छा
दिन (शुभ मुहूर्त) शोधकर सुंदर कंकण खोले गए। मंगल, आनंद और
विनोद कुछ कम नहीं हुए (अर्थात बहुत हुए)। इस प्रकार नित्य नए सुख को देखकर देवता
सिहाते हैं और अयोध्या में जन्म पाने के लिए ब्रह्माजी से याचना करते हैं॥1॥
*
बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं॥
दिन
दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ॥2॥
भावार्थ:-विश्वामित्रजी
नित्य ही चलना (अपने आश्रम जाना) चाहते हैं, पर रामचन्द्रजी के
स्नेह और विनयवश रह जाते हैं। दिनोंदिन राजा का सौ गुना भाव (प्रेम) देखकर
महामुनिराज विश्वामित्रजी उनकी सराहना करते हैं॥2॥
*
मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे॥
नाथ
सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी॥3॥
भावार्थ:-अंत
में जब विश्वामित्रजी ने विदा माँगी, तब राजा प्रेममग्न
हो गए और पुत्रों सहित आगे खड़े हो गए। (वे बोले-) हे नाथ! यह सारी सम्पदा आपकी है।
मैं तो स्त्री-पुत्रों सहित आपका सेवक हूँ॥3॥
*
करब सदा लरिकन्ह पर छोहू। दरसनु देत रहब मुनि मोहू॥
अस
कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी॥4॥
भावार्थ:-हे
मुनि! लड़कों पर सदा स्नेह करते रहिएगा और मुझे भी दर्शन देते रहिएगा। ऐसा कहकर
पुत्रों और रानियों सहित राजा दशरथजी विश्वामित्रजी के चरणों पर गिर पड़े, (प्रेमविह्वल हो जाने के कारण) उनके मुँह से बात नहीं निकलती॥4॥
*
दीन्हि असीस बिप्र बहु भाँति। चले न प्रीति रीति कहि जाती॥
रामु
सप्रेम संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई॥5॥
भावार्थ:-ब्राह्मण
विश्वमित्रजी ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद दिए और वे चल पड़े। प्रीति की रीति कही
नहीं जीती। सब भाइयों को साथ लेकर श्री रामजी प्रेम के साथ उन्हें पहुँचाकर और
आज्ञा पाकर लौटे॥5॥
श्री
रामचरित् सुनने-गाने की महिमा
दोहा
:
*
राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनंदु।
जात
सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु॥360॥
भावार्थ:-गाधिकुल
के चन्द्रमा विश्वामित्रजी बड़े हर्ष के साथ श्री रामचन्द्रजी के रूप, राजा दशरथजी की भक्ति, (चारों भाइयों के) विवाह और
(सबके) उत्साह और आनंद को मन ही मन सराहते जाते हैं॥360॥
चौपाई
:
*
बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी॥
सुनि
मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ॥1॥
भावार्थ:-वामदेवजी
और रघुकुल के गुरु ज्ञानी वशिष्ठजी ने फिर विश्वामित्रजी की कथा बखानकर कही। मुनि
का सुंदर यश सुनकर राजा मन ही मन अपने पुण्यों के प्रभाव का बखान करने लगे॥1॥
*
बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ॥
जहँ
तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा॥2॥
भावार्थ:-आज्ञा
हुई तब सब लोग (अपने-अपने घरों को) लौटे। राजा दशरथजी भी पुत्रों सहित महल में गए।
जहाँ-तहाँ सब श्री रामचन्द्रजी के विवाह की गाथाएँ गा रहे हैं। श्री रामचन्द्रजी
का पवित्र सुयश तीनों लोकों में छा गया॥2॥
*
आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें॥
प्रभु
बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥3॥
भावार्थ:-जब
से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आए, तब से सब प्रकार का
आनंद अयोध्या में आकर बसने लगा। प्रभु के विवाह में आनंद-उत्साह हुआ, उसे सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कह सकते॥3॥
*
कबिकुल जीवनु पावन जानी। राम सीय जसु मंगल खानी॥
तेहि
ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी॥4॥
भावार्थ:-श्री
सीतारामजी के यश को कविकुल के जीवन को पवित्र करने वाला और मंगलों की खान जानकर, इससे मैंने अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए कुछ (थोड़ा सा) बखानकर कहा
है॥4॥
छन्द
:
*
निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसीं कह्यो।
रघुबीर
चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥
उपबीत
ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।
बैदेहि
राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥
भावार्थ:-अपनी
वाणी को पवित्र करने के लिए तुलसी ने राम का यश कहा है। (नहीं तो) श्री रघुनाथजी
का चरित्र अपार समुद्र है,
किस कवि ने उसका पार पाया है? जो लोग
यज्ञोपवीत और विवाह के मंगलमय उत्सव का वर्णन आदर के साथ सुनकर गावेंगे, वे लोग श्री जानकीजी और श्री रामजी की कृपा से सदा सुख पावेंगे।
सोरठा
:
*
सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह
कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु॥361॥
भावार्थ:-श्री
सीताजी और श्री रघुनाथजी के विवाह प्रसंग को जो लोग प्रेमपूर्वक गाएँ-सुनेंगे, उनके लिए सदा उत्साह (आनंद) ही उत्साह है, क्योंकि
श्री रामचन्द्रजी का यश मंगल का धाम है॥361॥
*
मासपारायण,
बारहवाँ विश्राम
इति
श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने प्रथमः सोपानः समाप्तः।
कलियुग
के सम्पूर्ण पापों को विध्वंस करने वाले श्री रामचरित मानस का यह पहला सोपान
समाप्त हुआ॥
(बाल-काण्ड
समाप्त)
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