|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, द्वादशी, बुधवार,
वि० स० २०७०
मान-अपमानमें सम रहें -१-
गत
ब्लॉग से आगे ... ३.याद रखो-मान-अपमान ‘रूप’ का या ‘शरीर’ का होता है और स्तुति-निंदा नाम की होती
है; और ये रूप तथा नाम दोनों ही तुम्हारे स्वरुप नहीं है | देहका निर्माण माताके
उदर में गर्भकालमें होता है और नाम जन्म के बाद रखा जाता है | नाम बदले भी जाते
हैं | अतएव ये रूप और नाम आत्मा के नहीं है | तुम आत्मा हो; इस देहके निर्माणके
पहले भी आत्मारूपमें तुम थे, देहावसान के बाद भी तुम रहोगे | आत्माका मान-अपमान और
स्तुति-निंदा कोई कर नहीं सकता | अतएव मान-अपमान तथा स्तुति-निंदासे तुम न हर्षित
होओ, न उद्विग्न | दोनों को समान समझकर उन्हें ग्रहण मत करो |
याद रखो -सत्कार-मान और बडाई-स्तुति जितने प्रिय लगते हैं, उतने ही
असत्कार-अपमान और निंदा-गाली अप्रिय लगते हैं और उसीके अनुसार राग द्वेष होता है |
राग-द्वेष का परिणाम है – आध्यात्मिक दैवी सम्पदा का नाश और भौतिक आसुरी सम्पदा का
विकास | जहां आसुरी संपदाका सृजन होने लगता है, वहाँ भाँती-भाँतीके पाप, दुष्कर्म,
दुःख, क्लेश, संताप आदिका होना-बढ़ना अनिवार्य होता है | यों मानवजीवन दुखों तथा
नरकों का अमोघ साधन बन जाता है | तुम जरा ध्यान देकर सोचोगे तो यह प्रत्यक्ष
दिखलाई देगा की तुम न देह हो, न नाम हो और यहाँ के मान-अपमान तथा स्तुति-निंदा ही
नहीं, लाभ-हानि, जय-पराजय, शुभ-अशुभ, सुख-दुःख, मित्र-शत्रु, जीवन-मृत्यु आदि
द्वंद्व केवल देह-नाम या नाम-रूपसे ही सम्बन्ध रखते हैं | तुम इनको भगवान की माया
मानलो या उनका लीलामय स्वरुप मानलो बस, तुम इनके ऊपर उठ जाओगे |.......शेष अगले ब्लॉग
में .
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं,
कल्याण कुञ्ज भाग – ७, पुस्तक कोड ३६४, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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