|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, त्रयोदशी, गुरूवार,
वि० स० २०७०
मान-अपमानमें सम रहें -२-
गत
ब्लॉग से आगे ... याद रखो -यह द्वंद्व ही जगत है – माया है और इसके अतीत होना ही ब्रह्म है |
द्वंद्व परिवर्तन शील है, विनाशी है और सम ब्रह्म नित्य अविनाशी है | यही तुम्हारा
स्वरुप है | स्वरुप होनेके कारण सहज ही अनुभव गम्य है, तथापि प्रकृतिस्थ अवस्थामें
सत्य की अनुभूति छिपी रह जाती है | अतएव अभी इस प्रकार द्वंद्व मोह से मुक्त
रहनेकी साधना करो; न मान-बडाई में हर्षित होओ, न अपमान निंदा में दुखित | इसी
प्रकार हमेशा सम रहो |
याद रखो -व्यवहारमें
शरीरके विभिन्न अंगों के कार्योंकी भिन्नता रहनेपर आत्मरूपसे जैसे उनमें कोई भेद
नहीं है; वैसे ही-व्यावहारिक परिस्थिति के भेदसे भेद प्रतीत
हो,पर अन्तस्में किसीभी द्वंद्व से अनुकूलता-प्रतिकूलता
का बोध नहीं होना चाहिए |
याद रखो -देहमें और नाम
में अहंबुद्धि होनेसे ही-जो सर्वथा मिथ्या तथा
अयुक्तियुक्त है-ममता-आसक्ति का प्रसार होता है और
अनुकूलता-प्रतिकूलता की अनुभूति होती है | अतएव अपनेको सदा-सर्वदा
आत्मामें स्थित आत्मरूप देखने की चेष्ठा करो और मिथ्या नाम रूपको सर्वथा कल्पित
मानकर अपनेको सदा उनसे पृथक रखो |
याद रखो
-जितने भी भेद हैं-सब नाम और रूप को लेकर हैं |
नाम-रूप व्यवहार के लिए हैं | इनसे सर्वथा भेद रहित आत्माका सम स्वरुप नहीं बदलता
| तुम सम आत्मा में जो तुम्हारा स्वरुप है स्थित होकर व्यावहारिक जगत में यथायोग्य
व्यवहार करो | तुम्हारे व्यवहारमें विषमता रहेगी, पर तुम आत्म-स्वरूपमें नित्य
निर्द्वन्द्व-सर्वदा सर्वथा सम रहोगे | व्यावहारिक
लहरियाँ तुम्हारे प्रशांत स्वरूपमें जरा भी क्षोभ उत्पन्न न कर सकेंगी, वरं वे तुम
आत्म-स्वरुप प्रशांत महासागरकी शोभा होंगी |.......शेष अगले ब्लॉग
में.
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं,
कल्याण कुञ्ज भाग – ७, पुस्तक कोड ३६४, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
0 comments :
Post a Comment