|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ शुक्ल,प्रतिपदा, रविवार,
वि० स० २०७०
सभी नाम-रूपोंमें भगवान को अभिव्यक्त देखते हुए व्यवहार करें -१-
गत
ब्लॉग से आगे ... ५.
याद रखो -तुम सबसे पहले स्वरूपतः नित्य एक आत्मा हो, फिर मनुष्य हो, फिर
भारतवासी हो, फिर हिंदू हो, फिर अमुक प्रदेशवासी हो, फिर अमुक परिवारके सदस्य हो,
फिर माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पौत्र, स्वामी-सेवक आदि कुछ हो |
याद रखो
-आत्माके अतिरिक्त ये सभी स्वरुप तुम्हारे यथार्थ स्वरुप नहीं हैं; ये
तो अनित्य संसारके अनित्य क्षेत्रोंमें कामचलाऊ नाम-रूप हैं | इन सबमें यथा-योग्य
व्यवहार करके जीवन-यात्रा चलानी है | पर यह सदा ध्यान रखना है की अपने इन विभिन्न
नाम-रूपोंके अभिमानमें मनुष्येतर प्रानियोंकों, भारतके अतिरिक्त अन्यान्य
देश्वासियोंकों, हिंदूके अतिरिक्त अन्यान्य धर्म-जातिवालोंको,अपने परिवारके
अतिरिक्त अन्यान्य परिवारोंके सदस्योंको, अपने सिवा अन्य सबको तुम ‘पर’ कहीं न समझ
बैठो और कहीं अपने कल्याण के मोह से दूसरों का अकल्याण चाहने और करने न
लग जाओ |
याद रखो -किसी भी दूसरेका अकल्याण अपना ही अहित है-वैसे
ही,जैसे अपने एक ही शरीरके विभिन्न अंग अपना ही शरीर हैं | किसीभी अंगपर चोट
पहुँचाना अपने ही शरीर को चोट पहुँचाना है और कहीं भी चोट लगनेपर उसके दर्द का
अनुभव अपनेको ही होता है | इसी प्रकार एकही आत्माके ये सब विभिन्न नाम-रूप हैं |
इनमें कोई भी कभी भी न तो ‘पर’ है और न हो सकता है |.....शेष अगले ब्लॉग
में.
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, परमार्थ की मन्दाकिनीं,
कल्याण कुञ्ज भाग – ७, पुस्तक कोड ३६४, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!
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