Wednesday, 31 July 2013

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -९-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, नवमी, बुधवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे....जिन बेचारों के पेट पूरे नहीं भरते, उनके लिए तो कदाचित रात-दिन मजदूरी में लगे रहना और अधिक-से-अधिक कार्य का विस्तार करना क्षम्य भी हो सकता है; परन्तु जो सीधे या प्रकारांतर से धन की प्राप्ति के लिए ही कार्यों को बढ़ाते है; वे तो मेरी तुच्छ बुद्धि में भूल ही करते है | निष्काम भाव से करने की इच्छा रखने वाले पुरुष भी जब अधिक कार्यों में व्यस्त हो जाते है , तब प्राय निस्कामभाव चला जाता है और कहीं-कहीं तो ऐसी परिस्थति उत्पन्न हो जाती है, जिसमे बाध्य होकर सकाम भव का आश्रय लेना पड़ता है | अतएव जहाँ तक बने, साधक पुरुष को संसारिक कार्य उतने ही करने चाहिये, जितने में गृहस्थी का खर्च सादगी से चल जाये, प्रतिदिन नियमित रूप से भजन-सधन को समय मिल सके, चित न अशान्त हो और न निक्कमेपन के कारण प्रमाद या आलस्य को ही अवसर मिले, कर्तव्य-पालन की तत्परता बनी रहे और मनुष्य-जीवन के मुख्य ध्येय ‘भगवत्प्राप्ति’ का कभी भूलकर भी विस्मरण न हो |

विघ्न और भी बहुत से है, पर प्रधान-प्रधान विघ्नों में ये आठ बड़े प्रबल है | साधक को चाहिये की वह दयामय सच्चिदानंदघन भगवान की कृपा पर विश्वास करके और उसी का आश्रय ग्रहण करके इन विघ्नों का नाश कर दे | प्रभु कृपा के बल से असम्भव भी सम्भव हो जाता है | मनुष्य प्रभु-कृपा पर जितना ही विश्वाश करता है उतना ही वह प्रभु की सुखमय गोद की और आगे बढ़ता है |       

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Tuesday, 30 July 2013

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -८-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, अष्टमी, मंगलवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे....सांसारिक कार्यों की अधिकता-मनुष्य के घर, संसार के, आजीविका के-यहाँ तक की परोपकार तक के कार्य उसी हद तक करने चाहिये, जिसमे विश्राम करने तथा दूसरी आवश्यक बाते सोचने के लिए पर्याप्त समय मिल जाये | जो मनुष्य सुबह से लेकर रात को सोने तक काम में ही लगे रहते है, उनको जब विश्राम करने की फुरसत नही मिलती, तब घंटे दो घंटे स्वाध्याय करने की फुरसत करने अथवा  मन लगा कर भगवचिन्न्तन करने को तो अवकाश मिलना सम्भव ही कैसे हो सकता है | उनका सारा दिन हाय-हाय करता बीतता है, मुश्किल से नहाने-खाने को समय मिलता है | वे उन्हीं कामों की चिन्ता करते करते सो जाते है, जिससे स्वप्न में भी उन्हें वैसी ही सृष्टी में विचरण करना पडता है | असल में तो सांसारिक पदार्थों के अधिक संग्रह करने की इच्छा ही दूषित है | दान के तथा परोपकार के लिए भी धन-संग्रह करने वालों की मानसिक दयनीय दुर्दशा के द्रश्य प्रयत्क्ष देखे जाते है, फिर भोग के लिए अर्थसंचय करनेवालों के दुःख भोगने में तो आश्चर्य ही क्या है | परन्तु धन-संचय किया भी जाय तो इतना काम तो कभी नहीं बढ़ाना चाहिये, जिसकी संभाल और देखभाल करने में ही जीवन का अमूल्य समय रोज दो घडी स्वस्थ्यचित से भगवदभजन किये बिना ही बीत जाए | शेष अगले ब्लॉग में ...

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Monday, 29 July 2013

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -७-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, सप्तमी, सोमवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे....बाहरी दिखावा-साधन में ‘दिखावे’ की भावना बहुत बुरी है | वस्त्र, भोजन और आश्रम आदि बातों में मनुष्य पहले तो संयम के भाव से कार्य करता है; परन्तु पीछे उसमे प्राय: ‘दिखावे’ का भाव आ जाता है | इसके अतिरिक्त, ‘ऐसा सुन्दर आश्रम बने, जिसे देखते ही लोगों का मन मोहित हो जाये, भोजन में इतनी सादगी हो की देखते ही लोग आकर्षित हो जाँए, वस्त्र इस ढंग से पहने जाए की लोगों के मन उसको देख कर खीच जायँ’ ऐसे भावों से ये भी कार्य होते है | यदपि यह दीखावटी भाव सुन्दर और असुन्दर दोनों ही प्रकार के चाल-चलन और वेश भूषा में रह सकता है | बढ़िया पहने वालों में स्वाभाविकता हो सकती है और मोटा खदर, या गेरुआ अथवा बिगाड़कर कपडे पहनने वालों में ‘दिखावे’ का भाव रह सकता है | इसका सम्बन्ध ऊपर की क्रिया से नहीं है, मन से है | तथापि अधिकतर सुन्दर दीखाने की भावना ही रहती है | लोक में जो फैशन सुन्दर समझी जाती है, उसी का अनुकरण करने की चेष्टा प्राय हुआ करती है | अन्दर सच्चाई होने पर भी ‘दिखावे’ की चेष्टा साधक को गिरा ही देती है | अतएव इससे सदा बचना चाहिये |

पर-दोष चिंतन-यह भी साधन-मार्ग का एक भारी विघ्न है | जो मनुष्य दुसरे के दोषों का चिंतन करता है, वह भगवान का चिन्तन नहीं कर सकता | उसके चित में सदा द्वेषाग्नि जला करती है | उसकी जहाँ नज़र जाती है, वहीँ उसे दोष दिखाई देते है | दोषदर्शी सर्वर्त्र भगवान् को कैसे देखे ! इसी कारण वह जहाँ-तहाँ हर किसी की निन्दा कर बैठता है | परदोष दर्शन और परनिन्दा साधन पथ के बहुत गहरे गड्ढे है | जो इनमे गिर पडता है, वह सहज ही नहीं उठ सकता | उसका सारा भजन-साधन छूट जाता है | अतएव साधक को अपने दोष देखने तथा अपनी सच्ची निन्दा करनी चाहिये | जगत की और से उदासीन रहना ही उसके लिए श्रेस्कर है | शेष अगले ब्लॉग में ...

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Sunday, 28 July 2013

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -६-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, षष्ठी, रविवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे....गुरुपन-साधन अवस्था में मनुष्य के लिए गुरुभाव को प्राप्त हो जाना बहुत ही हानिकारक है | ऐसी अवस्था में, जब वह ही सिद्धावस्था को प्राप्त नहीं होता, जब उसी का साधन पथ रुख जाता है, तब वह दूसरों को कैसे पार पहुचायेगा ! ऐसे ही कच्चे गुरुओं के सम्बन्ध में यह कहा जाता है-जैसे अन्धा अन्धों की लकड़ी पकड़कर अपने सहित सबको गड्ढे में डाल देता है, वैसी ही दशा इनकी होती है | परमार्थ पथ में गुरु बनने का अधिकार उसी को है, जो सिद्धावस्था को प्राप्त कर चुका हो | जो स्वयं लक्ष्य तक नहीं पंहुचा है, वह यदि दूसरों को पहुचाने का ठेका लेने लगता है तो उसका परिणाम प्राय: बुरा ही होता है | शिष्यों में से कोई सेवा करता है तो उस प उसका मोह हो जाता है | कोई प्रतिकूल होता है तो उस पर क्रोध आता है | सेवक के विरोधी से द्वेष होता है | दलबंदी हो जाती है | जीवन बहिर्मुख होकर भाँती-भांति के झंझटों में लग जाता है | साधन छुट जाता है |उपदेश और दीक्षा देना ही जीवन का व्यापार बन जाता है | राग-द्वेष बढ़ते रहते हैं और अंत में वह सर्वथा गिर जाता है | साधन पथ में दूसरों को साथी बनाना, पिछड़े हुओं को साथ लेना, मित्र भाव से परस्पर सहायता करना, भूलें हुओं को मार्ग बताना, साथ में प्रकाश या भोजन हो तों दूसरों को भी उससे लाभ उठाने देना, मार्ग में बीमारों की सेवा करना, असक्तों को शक्ति भर साहस, शक्ति और धैर्य प्रदान करना तो साधक का परम कर्तव्य हैं | परन्तु गुरु बनकर उनसे सेवा कराना, पूजा प्राप्त करना, अपने को ऊचा मानकर उन्हें नीचा समझना, दीक्षा देना, सम्प्रदाय बनाना, अपने मत को आग्रह से चलाना, दूसरों की निन्दा करना और बड़प्पन बघारना आदि बाते भूल कर भी नहीं करनी चाहिये | शेष अगले ब्लॉग में ...

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Saturday, 27 July 2013

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -५-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, पन्चमी, शनिवार, वि० स० २०७०

 
गत ब्लॉग से आगे....मान-बड़ाई-यह बड़ी मीठी छुरी है या विषभरा सोने का घड़ा है | देखने में बहुत ही मनोहर लगता है, परन्तु साधन-जीवन को नष्ट करते इसे देर नहीं लगती | संसार के बहुत बड़े-बड़े पुरुषों के बहुत बड़े-बड़े कार्य मान-बड़ाई के मोल पर बिक जाते है | असली फल उत्पन्न करने से पहले से ही वे सब मान-बड़ाई के प्रवाह में बह जाते है | मान की अपेक्षा भी बड़ाई अधिक प्रिय मालूम होती है | बड़ाई पाने के लिए मनुष्य मान का त्याग कर देता है ; लोग प्रशंसा करे, इसके लिए मान छोड़ कर सबसे नीचे बैठते और मानपत्र आदि का त्याग करते लोग देखे जाते है | बड़ाई मीठी लगी की साधन-पथ से पतन हुआ | आगे चलकर तो उसके सभी काम बड़ाई के लिए ही होते है | जब तक साधन से बड़ाई होती है, तब तक वह साधक का भेष रखता है | जहाँ किसी कारण से परमार्थ-साधन में रहने वाले मनुष्य की निन्दा होने लगती है, वहीँ वह उसे छोड़ कर जिस कार्य में बड़ाई होती है, उसी में लग जाता है; क्योकि अब उसे बड़ाई से ही काम है, भगवान से नहीं | अतएव मान-बड़ाई की इच्छा का सर्वथा त्याग करना चाहिये | परन्तु सावधान, यह वासना बहुत ही छिपी रह जाती है, सहज में इसके अस्तित्व का पता नहीं चल पाता | मालूम होता है हम बड़ाई के लिए काम नहीं कर रहे है; यदि यदि निन्दा जरा भी अप्रिय लगती है और बड़ाई सुनते ही मन में संतोष-सा प्रतीत होता है या आनन्द की एक लहर-सी उठकर होठों पर हँसीकी रेखा-सी चमका देती है तो समझना चाहिये की बड़ाई की इच्छा अवश्य मन में है | बहुत से मनुष्य तो भोगों तक का त्याग भी बड़ाई पाने के लिए ही करते है | यदपि न करने वालों के अपेक्षा बड़ाई के लिए किया जाने वाला त्याग या धार्मिक सत्कार्य बहुत ही उतम है, परन्तु परमार्थ दृष्टी से मान-बड़ाई की इच्छा अत्यन्त हेय और निंदनीय होने के साधन से गिराने वाली है | शेष अगले ब्लॉग में ...

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Friday, 26 July 2013

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -४-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, चतुर्थी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

 
गत ब्लॉग से आगे....प्रसिद्धि –संसार में ख्याति साधन-मार्ग का एक बड़ा विघ्न है | इसी से संतों ने भगवत्प्रेम को ही गुप्त रखने की आज्ञा दी है, जैसे भले घर की कुलटा स्त्री जार के अनुराग को छिपाकर रखती है | साधक की प्रसिद्धि होते है चारों और से लोग उसे घेर लेते है | साधन के लिए उसे समय मिलना कठिन हो जाता हैं | उसका अधिक समय सैकड़ो-हजारों आदमिओं से बातचीत करने और पत्र-व्यवहार में बीतने लगता है | जीवन की अंतर्मुखी वृति बहिर्मुखी हो जाता है | वह बहार के कामों में लग जाता है और क्रमश: गिरने लगता है | परन्तु प्रसिद्धि में प्रिय भाव उत्पन्न हो जाने के कारण उसे वह सदा बढ़ाना चाहता है और यों दिनों-दिन अधिकाधिक लोगों से परिचय प्राप्त कर लेता है | फिर उसका असली साधक का रूप तो रहता नहीं, वर्म प्रसिद्धि कायम रखने के लिए वह दम्भ्ह आरम्भ कर देता है |  और वैसे ही रात-दिन जलता और नये-नये ढोंग रचता है, जैसे निर्धन मनुष्य धनी काहाने पर अपने उस झूठे दीखाऊ धनीपन को कायम रखने के लिए अन्दर-ही-अन्दर जलता और जाल रचता रहता है | उसका जीवन कपट, दुःख और संताप का घर बन जाता है | ऐसी अवस्था में सधन का तो स्मरण ही नहीं होता | अतएव इस अवस्था की प्राप्ति न हो, इससे पहले ही बढ़ती हुई प्रसिद्धि को रोकने की चेष्टा करनी चाहिये |

यह बात याद रखनी चाहिये-‘जिनकी प्रसिद्धि नहीं हुई और भजन होता है, वे पूरे भाग्यवान है | जितनी प्रसिद्धि है, उसे जायदा भजन होता है तो भी अधिक डर है | जितना भजन होता है, उतनी ही प्रसिद्धि है तो गिरने का भय है | जितना भजन होता है, उससे कही जायदा प्रसिद्धि हुई तो वह गिरने लगा और जहाँ कोई बिना भजन के ही भजनानंदी कहलाता है, वहाँ तो उसका पतन हो ही चुका है |’ शेष अगले ब्लॉग में ...

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
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Thursday, 25 July 2013

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -३-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, तृतीया, गुरूवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे....वह कभी भगवान से प्रार्थना भी करता है तो यही की ‘हे भगवान् ! मेरे मन में आपको प्राप्त करने की इच्छा है ; परन्तु मेरे शौक के समान सदा बने रहे, मुझे नये-नये विलास-द्रव्यों की प्राप्ति होती रहे और मैं इसी प्रकार विलासिता में डूबा हुआ ही आपको भी पा लूँ |’ कहना नहीं होगा की यह प्रार्थना भी उसकी क्षणभर के लिए ही होती है | ऐसे लोगों को करोडपति से कंगाल होते देखा जाता है और अर्थ-कष्ट के साथ ही आदत से प्रतिकूल स्थिति में रहने को बाध्य होने का एक महान कष्ट उसे विशेषरूप से भोगना पडता है |

जो मनुष्य भगवत्प्राप्ति तो चाहता है परन्तु वैराग्य नहीं चाहता और सादा जीवन बिताने में संकोच का अनुभव करता है, वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता |

अत: विलासिता के भाव को मन में आते ही उसे तुरन्त निकल देना चाहिये | यह भाव तरह-तरह की युक्तियाँ पेश करके पहले-पहले ‘कर्तव्य’ का बाना धारणकर आश्रय प्राप्तकर लेता है, फिर बढकर मनुष्य का सर्वनाश कर  डालता है ; अतएव: इससे विशेष सावधान रहना चाहिये | विलासी पुरुषों का सन्ग करना या उनके आस-पास रहना भी विलासिता में फसाने वाला है | इसलिए विलासिता को परम शत्रु समझ इसका सर्वथा नाश करके सभी बातों में सादगी का आचरण करना चाहिये | विलासिता में अनेक हानियाँ है  ; विशेषत: निम्नलिखित दस हानियाँ तो होती ही है-इस बात को याद रखना चाहिये |      

धन का नाश, आरोग्य का नाश, आयु का नाश, सादगी के सुख का नाश, देश के स्वार्थ का नाश, धर्म का नाश, सत्य का नाश, वैराग्य का नाश, भक्ति का नाश और ज्ञान का नाश |  शेष अगले ब्लॉग में ...

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Wednesday, 24 July 2013

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -२-


      || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, द्वितिया, बुधवार, वि० स० २०७०

 
गत ब्लॉग से आगे...विलासिता-विलासी पुरुष को मौज-शौक के समान जुटाने से ही फुरसत नहीं मिलती, वह साधन कब करे ! पहले सामान इक्कठा करना, फिर उससे शरीर को सजाना-यही उसका प्रधान कार्य होता है | कभी साधु-महात्मा का संग करता है तो उसकी क्षणभर की यही इच्छा होती है की मैं भी भजन करूँ; परन्तु विलासिता उसको ऐसा नहीं करने देती | भांति-भाँती के नए-नये फैशन के समान संग्रह करना और उनका मूल्य चुकाने के लिए अन्याय और असत्य की परवा न करते हुए  धन कमाने में लगा रहना-इन्ही में उसका जीवन बीतता है | शौक़ीन मनुष्यों को धन का अभाव तो प्राय: बना ही रहता है; क्योकि वह आवश्यक-अनावश्यक का ध्यान छोड़कर जहाँ कहीं भी कोई शौक की बढ़िया चीज देखता है, उसी को खरीद लेता है या खरीदना चाहता है | न रुपयों की परवाह करता है न अन्य किसी प्रकार का परिणाम सोचता है | सुन्दर मकान, बढ़िया-बढ़िया बहुमूल्य महीन वस्त्र, सुन्दर वस्त्र, इत्र्फुलेल, कन्घे, दर्पण, जूते, घडी, छडी, पाउडर आदि की तो बात ही क्या, खाने-पहनने, बिछोने, बैठने, चलने-फिरने, सूँघने-देखने और सुनने-सुनाने आदि सभी प्रकार के समान उसे बढ़िया-से-बढ़िया और सुन्दर-से-सुन्दर चाहिये | वह रात-दिन इन्हींकी चिन्तामें लगा रहता है | वैराग्य तो उसके पास भी नहीं फटकने पाता | शेष अगले ब्लॉग में ...    

 श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Tuesday, 23 July 2013

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -१-


      || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, प्रतिपदा, मंगलवार, वि० स० २०७०

 
भगवत्प्राप्ति के साधक को या परमार्थ-पथ के पथिक को एक-एक पैर सँभालकर रखना चाहिये | इस मार्ग में अनेक विघ्न है | आज उनमे से आठ प्रधान विघ्नों के सम्बन्ध में कुछ आलोचना करते है-वे-आठ ये है-आलस्य, विलासिता, प्रसिद्धि, मान-बड़ाई, गुरुपन,बाहरी दिखावा, पर-दोष-चिन्तन और सांसारिक कार्यों की अत्यन्त अधिकता |

आलस्य-आलसी मनुष्य का जीवन तमोमय रहता है | वह किसी भी काम को प्राय: पूरा नहीं कर पाता | आज-कल करते-करते ही उसके जीवन के दिन पूरे हो जाते है | वह परमार्थ की बाते सुनता-सुनाता है, वे उसे अच्छी भी लगती है, परन्तु आलस्य उसे साधन में तत्पर नहीं होने देता | श्रद्धावान पुरुष भी आलस्य के कारण उदेश्य-सिद्धि तक नहीं पहुच पाता | इसलिए श्रद्धा के साथ ‘तत्परता’ की आवश्यकता भगवान ने गीता में बतलाई है | आलस्य से तत्परता का विरोध है, आलस्य सदा यही भावना उत्पन्न करता है की ‘क्या है, पीछे कर लेंगे |’ जब कभी उसके मन में कुछ करने की भावना होती है, तभी आलस्य प्रमाद, जम्हाई, तन्द्रा आदि के रूप में आकर उसे घेर लेता है | अतएव आलस्य को साधन-मार्ग का एक बहुत बड़ा शत्रु मानकर जिस किसी उपाय से भी उसका नाश करना चाहिये | शेष अगले ब्लॉग में ...     

 श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
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Monday, 22 July 2013

भगवान प्रेम स्वरूप हैं !


      || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ शुक्ल, पूर्णिमा, सोमवार, वि० स० २०७०

 
कुछ लोगों की धारणा है की भगवान दण्ड देते है | पर असल में भगवान दण्ड नहीं देते | भगवान प्रेमस्वरूप है | वे स्वाभाविक ही सर्वसुह्रद है | सुहृद होकर किसी को तकलीफ कैसे दे सकते है ? विश्वकल्याण के लिए विश्व का शासन कुछ सनातन नियमों के द्वारा होता है | यदि हम उन नियमों का अनुसरण करके उनके साथ जीवन का सामंजस्य कर लेते है तो हमारा कल्याण होता है; परन्तु यदि हम लापरवाही से या जानबूझ कर उन प्राकृत नियमों का उल्लघन करते है तो हमे तदनुसार उसका बुरा फल भी भोगना पढता है, पर वह भी होता है हमारे कल्याण के लिए ही; क्योकि कल्याणमय भगवान के नियम भी कल्याणकारी है | अत: भगवान किसी को दण्ड नहीं देते, मनुष्य आप ही अपने को दण्ड देता है | भगवान प्रेमस्वरूप है-सर्वथा प्रेम है और वे जो कुछ है, वे ही सबको सर्वदा वितरण कर रहे है !  

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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Sunday, 21 July 2013

सेवा की सात आवश्यक बातें -1-


      || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ शुक्ल, चतुर्दशी, रविवार, वि० स० २०७०

 सेवा की सात आवश्यक बातें  

सेवक में जब ये सात बाते होती है, तब सेवा सर्वांगसुन्दर तथा परम कल्याणकारिणी होती है १. विश्वाश, २.पवित्रता, ३. गौरव, ४. संयम, ५. शुश्र्ना, ६. प्रेम, और ७. मधुर भाषण |

इसका भाव यह है की सेवक को अपने तथा अपने सेवाकार्य में विश्वास होना चाहिये | विश्वास हुए बिना जो सेवा होगी, वह ऊपर-ऊपर से होगी-दिखावे मात्र होगी | सेवक के ह्रदय में विशुद्ध सेवा का पवित्र भाव होना चाहिये, वह किसी बुरी वासना-कामना को मन में रखकर सेवा करेगा (जैसे इनको सेवा से सतुष्ट करके इनके द्वारा अमुक शत्रु को मरवाना है, आदि) तो सेवा अपवित्र हो जाएगी और उसका फल अध्:पतन  होगा | जिसकी सेवा की जाय, उसमे गौरवबुद्धि और पूज्य बुद्धि होनी चाहिये |  अपने से नीचा मान कर या केवल दया का पात्र मानकर अहंकारपूर्ण ह्रदय से जो सेवा होगी, उसमे सेव्य का असम्मान, अपमान और तिरस्कार होने लगेगा, जिससे उसके मन में सेवक के प्रति सद्भाव नहीं रहेगा और ऐसी सेवा को वह अपने लिए दुःख की वस्तु मानेगा| अत: सेवा का महत्व ही नष्ट हो जायेगा | इसलिए कहा गया है जिसकी सेवा की जाय उसे भगवान मान कर सेवा करे | सेवक की इन्द्रियाँ संयमित होनी चाहिये-मन, इन्द्रियों का गुलाम सच्ची सेवा कभी नहीं कर सकेगा | जिसके मन में बार-बार विषय-सेवन की प्रबल लालसा होगी, वह सेवा क्या कर सकेगा ? सेवक को सेवापरायण होना पड़ेगा | जो मनुष्य किसी सेवा को नीची मान कर उसे करने में हिचकेगा, वह सेवा कैसे करेगा | सेवक में सेव्य तथा सेवा के प्रति प्रेम होना चाहिये | प्रेम होने पर कोई भी सेवा भारी नहीं लगेगी तथा सेवा करते  समय आनन्द की अनुभूति होगी, जिससे नया-नया उत्साह मिलेगा | और साथ ही सेवक को मीठा बोलने वाला होना चाहिये | कटुभाषी  सेवक की सेवा मर्माहत करती है और मधुरभाषी की बड़ी प्रिय लगती है | मधुर भाषण स्वयं ही एक सेवा है |                

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
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Saturday, 20 July 2013

Hanuman Prasadji Poddar - Bhaiji Discourse

किसी बहन पर अगर विपति आ गयी--उसके पतिका देहान्त हो गया।सास कह देती है, घरके लोग कह देते हैं कि यह हमारे घरमें ऐसी कुलक्षिंणी आयी कि पतिको खा गयी। कितना बड़ा अपराध है यह । वह बेचारी खुद इस समय कितनी संत्रस्त है, कितनी दु:खी है और उसके घावपर और घाव लगा देना। यह कितना बड़ा महापाप है? यह देखनेकी चीज है पर हम देखते कहाँ हैं? हम अपने सुख के सामने उसके दु:ख को भूल जाते हैं।(मेरी अतुल सम्पति)
 

त्याग ही प्रेमकी बीज है। त्यागकी सुधाधाराके सिञ्चनसे ही प्रेमबेलि अंकुरित और पल्लवित होती है। जबतक हमारा हृदय तुच्छ स्वार्थोंसे भरा है तबतक प्रेमकी बातें करना हास्यास्पद व्यापारके सिवा और कुछ भी नहीं है। (तुलसी-दल)


जितने भी भगवत्प्राप्त महापुरुष हुए हैं, उन सबकी स्थितियाँ पृथक्-पृथक् हैं; पर तत्त्वतः सभीने एक ही सत्यको प्राप्त किया है! साधानकालमें मार्गकी भिन्नता रहती है --- जैसे किसीमें ज्ञान प्रधान होता है, किसीमें भक्ति, किसीमें निष्काम कर्म तथा किसीमें योग-साधन! पर सबका प्राप्तव्य एक ही भगवान् है! अतएव महापुरुष सभी साधनोंका आदर करते हैं; पर जिस साधनद्वारा वे वहाँतक पहूँचे हैं, उसीका वे विशेषरूपमें समर्थन करते हैं, कारण उस साधनका उन्हें व्यवहारिक ज्ञान अधिक है!


विवाद छोड़कर विचार करो । प्रमाद त्यागकर भजन करो । याद रखो - भगवान् का भजन ऐसा कुशल पथ-प्रदर्शक है, जो तुम्हें सदा यथार्थ मार्ग दिखलाता रहेगा । तुम कभी मार्ग भूल नहीं सकोगे ।
पुस्तक 'भगवान् की पूजा के पुष्प' से पृष्ट २७



मेरे एक मित्र मुझसे कहा करते है कि जब हम निर्धन थे, तब यह इच्छा होती थी कि बीस हजार रुपये हमारे पास हो जायेंगे तो हम केवल भगवान् का भजन ही करेंगे । परन्तु इस समय हमारे पास लाखों रुपये हैं, वृद्धावस्था हो चली है, परन्तु धन कि तृष्णा किसी-न-किसी रूपमें बनी ही रहती है । यही तो तृष्णा का स्वरुप है ।   
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Wednesday, 17 July 2013

पदरत्नाकर



॥श्रीहरि:॥

८३
प्रभु ! तुम अपनौ बिरद सँभारौ।
हौं अति पतित, कुकर्मनिरत, मुख मधु, मन कौ बहु कारौ॥
तृस्ना-बिकल, कृपन, अति पीडित, काम-ताप सौं जारौ।
तदपि न छुटत विषय-सुख-‌आसा, करि प्रयत्न हौं हारौ॥
अब तौ निपट निरासा छा‌ई, रह्यौ न आन सहारौ।
एक भरोसौ तव करुना कौ, मारौ चाहें तारौ॥

८४
प्रभु ! मोहि दे‌उ साँचौ प्रेम।
भजौं केवल तुमहि, तजि पाखंड, झूँठे नेम॥
जरै बिषय-कुबासना, मन जगै सहज बिराग।
होय परम अनन्य तुहरे पद-कमल-‌अनुराग॥
परम श्रद्धेय नित्यलीलालीन श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार भाईजी , पदरत्नाकर कोड- 50, गीता प्रेस , गोरखपुर

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Ram